इच्छाओं का अनंत आकाश

इच्छाओं का अनंत आकाश

अनेक कहानियाँ कन्नड़, मलयालम, तमिल, गुजराती, उर्दू आदि भारतीय भाषाओं में अनुवादित। अंग्रेजी, रूसी और जापानी भाषाओं में अनुवाद के कारण इनका साहित्य विदेशी पाठकों तक भी पहुँचा है। दो दर्जन से भी अधिक नाटकों का रेडियो एवं टेलीविजन नाट्य रूपांतर। 'साहित्य शिखर सम्मान', 'भवभूति', 'अहिंदी भाषी' लेखिका के रूप में सम्मान, 'अक्षर आदित्य सम्मान', 'कला मंदिर सम्मान', 'गुरुवंदना सम्मान', 'महिला वर्ष सम्मान' एवं 'पद्मश्री सम्मान'। इनके साहित्य पर विश्वविद्यालयों में एम.फिल. एवं पी-एच.डी. के लिए कई शोध हुए हैं। स्मृतिशेष १५ मई, २०२४।

किसका फोन था?’’ मैंने पूछा।
‘‘अवस्थीजी का। मिसिज नारंग नहीं रहीं।’’
‘‘क्या?’’ मेरी तो चीख ही निकल गई।
‘‘चीखो मत,’’ ये झल्लाए ‘‘बिना बात एकदम ‘हायपर’ हो जाती हो।’’
‘‘चीखूँगी नहीं? अभी शाम को तो हम दोनों मंडी से हफ्ते भर की सब्जी लेकर आई हैं। और अब—
‘‘वो वाली मिसेस नारंग नहीं, पहले वाली।’’ इन्होंने खुलासा किया तो मेरी उखड़ी साँसें सम पर आ गईं। मैंने कसैले स्वर में कहा, ‘‘पहले वाली के मरने-जीने से हमें क्या मतलब है! ये अवस्थीजी न कभी-कभी ज्यादा ही सोशल बनने लगते हैं।’’
उनका कोई कसूर नहीं है। नारंग साहब ने उन्हें फोन करके सूचना दी है और घर पर बुलाया है। साथ ही मेरे लिए भी कहा है कि शर्माजी को भी लेते आएँ।
‘‘मैं चलूँ!’’ मैंने डरते-डरते पूछा।
‘‘देख लो। उनकी मिसेज आ रही हों तो तुम भी चली चलना।’’
हम लोग अभी-अभी खाना खाकर उठे थे। अपने पसंदीदा सीरियल्स इत्मीनान से देखने के लिए मैं आजकल इन्हें जल्दी खिला देती हूँ। यों तो टी.वी. डायनिंग टेबल के सामने ही है, पर इन्हें खाना खाते समय टी.वी. देखना एकदम नापसंद है। कहते हैं—तुम्हारा दिमाग और आँखें उसी में घुसी रहती हैं। न ढंग से खाती हो, न खिलाती हो। वैसे भी खाना खाते समय रोना-धोना, चीख-पुकार मुझे जरा भी अच्छी नहीं लगती।
जल्दी-जल्दी टेबल समेटते हुए मैं इनके बाहर जाने की प्रतीक्षा कर रही थी। एक-एक क्षण मुझ पर भारी पड़ रहा था। कभी-कभी सोचती हूँ—जब टी.वी. नहीं था, लोग अपना बुढ़ापा कैसे काटते होंगे। पर तब बुढ़ापा इतना एकाकी, निस्संग थोड़े ही रहता होगा। घर बेटे-बहुओं से, नाती-पोतों से भरा रहता होगा। रामनाम जपने तक की फुरसत नहीं मिलती होगी।
मैं टी.वी. का बटन ऑन करने जा ही रही थी कि फोन बज उठा था, फिर तो सारा मूड ही हवा हो गया।
‘‘साड़ी बदल लूँ!’’ मैं पूछने को हुई, पर फिर चुप लगा गई। शादी को इतने साल हो गए हैं, पर अब तक मैं यह अंदाजा नहीं लगा पाती हूँ कि ये कब किस बात पर उखड़ जाएँगे।
गेट पर ताला डालते हुए देखा—अवस्थी लोग बगलवाले गेट पर खड़े हैं। शायद हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। ठीक तो है। ऐसे मौकों पर अकेले जाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कोई साथ हो तो अच्छा रहता है। यहीं तो असमंजस और भी ज्यादा था। जिस औरत को कभी देखा नहीं, जाना नहीं—उसी के पुरसे में जाना पड़ रहा था।
गेट पार कर हम बरामदे में पहुँचे, डरते-डरते बेल का बटन दबाया। नारंग साहब शायद इंतजार ही कर रहे थे। दरवाजा फौरन खुल गया और वे हमें भीतर लिवा ले गए। भीतर अजब नजारा था। तीन-चार लोग बैठे थे। पर सन्नाटा पसरा हुआ था। नारंग साहब ने समय जाया नहीं किया। उस स्तब्धता को भंग करते हुए परिचय की औपचारिकताएँ पूरी कीं। दो उनके साले थे, एक साड़ूभाई और बुजुर्ग से सज्जन मामा ससुर थे।
फिर हम लोगों की ओर मुखातिब होते हुए बोले, ‘ये लोग मेरे पड़ोसी ही नहीं, परम मित्र भी हैं। मैं चाहता हूँ, आप अपनी बात इनके सामने ही कहें। मैं अपना जवाब भी इन लोगों के सामने ही देना चाहूँगा।’
पहले तो वे एक-दूसरे का मुँह ताकते रहे, फिर एक ने (शायद साले ने) गला साफ किया और कहना शुरू किया—पिछली रात शिकागो में मेरी दीदी का स्वर्गवास हो गया। कैंसर से पीडि़त थी। सौभाग्य से मेरे दोनों भानजे विनीत, सुमित अंतिम समय में उनके पास ही थे। मृत्यु की सूचना देते हुए विनीत ने मुझे बताया कि दीदी की इच्छा थी कि उनकी अरथी इसी घर से उठे, सुहागन के पूरे साज ‘‘सिंगार के साथ उठे।’’
कुछ क्षण कमरे में घोर निस्तब्धता छाई रही। फिर साड़ूभाई ने कमान सँभाली—‘‘हम लोग इसीलिए भाई साहब से रिक्वेस्ट करने आए हैं। आप लोगों के बीच जो कुछ हुआ, वह अच्छा नहीं हुआ था, हम मानते हैं। पर इस समय वह सबकुछ भुला देना ही श्रेयस्कर है। मरने वाले की इच्छा का मान रखना पड़ता है। फाँसी की सजा पाने वाले से भी उसकी अंतिम इच्छा पूछी जाती है और वह पूरी की जाती है। इसलिए अगर दीदी की इच्छा थी कि उनकी विदाई इस घर से हो तो...’’
‘‘आप एक बात भूल रहे हैं जनाब,’’ नारंग साहब ने सूखे लहजे में कहा, ‘‘इस घर से उनकी विदाई सोलह साल पहले ही हो चुकी है, और वह भी उनकी इच्छा का मान रखते हुए ही की गई थी।’’
‘‘वह घर से विदाई थी। अब वे दुनिया से विदा हो रही हैं। दोनों बातों में फर्क तो है।’’
‘‘फिर बच्चे चाहते हैं कि माँ की अंतिम इच्छा जरूर पूरी हो।’’ साले साहब बोले।
‘‘यह बात बच्चे मुझसे भी तो कह सकते थे।’’
‘‘इतने सालों के अंतराल के बाद उनकी हिम्मत नहीं पड़ी होगी।’’
‘‘हिम्मत कैसे पड़ेगी! सोलह सालों में एक बार भी फोन नहीं किया। मेरे ही पैसों पर पलते रहे, पढ़ते रहे। पर कभी अपना रिजल्ट बताने तक की जहमत नहीं उठाई। विदेश जाने से पहले मिलना जरूरी नहीं समझा। यहाँ तक कि उनकी शादी की खबर भी मुझे औरों से मिली। इसके बाद वे मुझसे बात करने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं। मुझे तो खुशी है कि वे इतने बेगैरत नहीं हैं।’’
‘‘जीजाजी, प्लीज अब ये सब...।’’
‘‘भूल जाइए, यही न। ये मेरे दोनों परम मित्र यहाँ बैठे हैं। मैं इन्हीं से पूछना चाहूँगा। ईमानदारी से अपनी राय दीजिएगा। जो औरत बरसों पहले लड़-झगडक़र, अपने बच्चे लेकर यहाँ से चली गई थी, उसे मरने के बाद ही सही, दुबारा इस घर में आने का क्या अधिकार है?’’
नारंग साहब की आँखें हम लोगों पर टिकी हुई थीं। उन आँखों में प्रश्न तो था ही, पर एक आक्रोश भी था, आग भी थी, बेहद एकाकीपन भी था। पहली बार मुझे कमरे में मिसेज नारंग की अनुपस्थिति का भान हुआ। वैसे उनका इस समय यहाँ होना बेहद अप्रासंगिक भी था। मैं सोच रही थी, इस समय उन्होंने अपने आपको किस कमरे में बंद किया होगा। कानों पर हाथ दिए, वे कहाँ छुपी बैठी होंगी।
‘‘आप लोग कुछ तो बोलिए।’’ लंबी प्रतीक्षा के बाद मि. नारंग ने कहा। हम लोगों ने सिर उठाया। अवस्थीजी ने गला साफ किया और बोले—नारंग साहब, अगर आप इजाजत दें तो मैं इन लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहूँगा।
मि. नारंग ने स्वीकारोक्ति में सिर हिला दिया। बोले कुछ नहीं। अवस्थीजी फिर आगंतुकों से मुखातिब होकर बोले, ‘‘मैं एक बहुत ही कड़वी बात कहने जा रहा हूँ और उसके लिए पहले से ही माफी माँग लेता हूँ। भगवान् हमारे नारंग साहब को लंबी उम्र दे। पर मान लीजिए, बात ठीक इससे उलट होती, हमारे मित्र को कुछ हो जाता तो क्या आपकी दीदी अपने सुहाग चिह्नï उतार देतीं? वैराग्य ले लेतीं?’’
उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि मि. नारंग उठकर भीतर चले गए। हम लोगों को तो जैसे साँप सूँघ गया। अवस्थी साहब! ये आप...इन्होंने कहना चाहा पर चुप हो गए।
‘‘सॉरी यार,’’ उनका मंतव्य समझकर अवस्थीजी बोले, ‘‘दरअसल जो मैं कहना चाहता था, शायद ठीक से कह नहीं सका।’’
थोड़ी देर बाद नारंग साहब भीतर से नमूदार हुए। उनके हाथ में जरी वर्क वाला एक पर्स था। उसे साले को सौंपते हुए बोले, ‘‘अभी अवस्थीजी ने सुहाग चिह्नïों की बात की तो मुझे याद आ गया। मैडम जाते समय ये सारी चीजें मेरे मुँह पर फेंककर चली गई थीं। शादी की कोई याद, कोई चिह्नï वे अपने साथ नहीं रखना चाहती थीं, अब मरने के बाद उन्हें सुहागन बनने का शौक चर्राया है तो ये रख लो। अपनी बहन का मन भरकर शृंगार करना।’’
‘‘पर जीजाजी, दीदी की इच्छा इस घर से विदा होने की थी।’’
‘‘तो क्या तुम्हारी दीदी की ही इच्छा सर्वोपरि है? मेरी इच्छाओं का कोई मोल नहीं है। क्या मृत्यु उसे सारे आरोपों से बरी कर देगी। वे अनगिनत पल, जो मैंने अकेले गुजारे हैं, उनका हिसाब कौन देगा? दो-दो बेटों के होते हुए भी मैं निस्संतान बुढ़ापा काट रहा हूँ। यह जवाबदेही किसकी है।’’
भाई लोग तो इस आक्रामक रवैए से खौफ खाकर चुप हो गए थे। पर मामाजी बोल पड़े—‘‘बेटा, तुम्हारी तरह वह भी अकेली ही थी और अंत तक अकेली ही रही।’’
‘‘नहीं, वह कतई अकेली नहीं थी।’’ नारंग साहब ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, ‘‘वह कतई अकेली नहीं थी। उसके बेटे उसके साथ थे और अंत तक थे और अगर आपका इशारा मेरे दूसरे विवाह पर है, तो जान लीजिए—अकेलापन भी कभी-कभी बरदाश्त से बाहर हो जाता है, आदमी उसे बाँटने पर मजबूर हो जाता है।’’
‘‘ऊपर बच्ïचे आपसे बात करें’’ साले ने एक अंतिम कोशिश की।
‘‘हृश (ना)’’
उनका यह ‘नो’ इतना स्पष्ट, इतना निर्णायक था कि उन लोगों ने फिर कोई बात नहीं की। चुपचाप सब उठ गए। शिष्टाचारवश हम लोग भी खड़े हो गए, पर उन्हें दरवाजे तक छोडऩे कोई नहीं गया, नारंग साहब भी नहीं। उनकी गाड़ी जब तक गेट पार करके चली नहीं गई, तब तक हम लोग वैसे ही खड़े रहे—मौन, अविचल। जैसे किसी शोक-सभा में श्रद्धांजलि दे रहे हों।
‘‘सॉरी’’ नारंग साहब ने दोनों मित्रों के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘सॉरी! आपको इतनी रात कष्ट दिया। पर उन लोगों को अकेले झेलने की हिम्मत मुझमें नहीं थी।’’
‘‘सॉरी क्यों कह रहे हैं। यह तो आपका अधिकार है। आप जब चाहे निस्संकोच हमें बुला भेजें। हम लोग हमेशा आपके साथ हैं। अच्छा चलें—टेक केयर।’’
और हम लोगों ने भारी मन से अपने घर की राह ली।
रात भर नींद नहीं आई।
वह अनदेखी, अनजानी औरत बार-बार रूप बदलकर सपनों में आती रही। समझ में नहीं आ रहा था कि जिस घर को वह बरसों पहले छोड़ गई थी, उसके प्रति इतना मोह क्यों? जिस पति के लिए मन में इतना तिरस्कार था, उसके नाम से फिर माँग भरने की जिद क्यों?
क्या यह प्रतिशोध का कोई नया तरीका था? या कि पछतावे की प्रतिक्रिया थी! या कि मन के किसी कोने में अब भी पति के लिए प्रेम दुबका बैठा था।
सच, मानव-मन एक गुफा की तरह होता है। उसका ओर-छोर पता ही नहीं चलता।
आठ साल पहले इस बँगले में आना हुआ था। यों भी बँगलों में अड़ोस-पड़ोस नाममात्र को होता है। यहाँ तो एकदम ही शून्य था, बाईं तरफ वाले बँगले में एक कंपनी का गेस्ट हाउस था। दाईं तरफ नारंग साहब रहते थे, जो तलाकशुदा थे। मुझे इतनी कोफ्त हुई थी कि बता नहीं सकती।
लेकिन नारंग साहब के साथ इनकी अच्छी पटरी बैठ गई थी। दोनों रोज सुबह घूमने जाते। शाम को ब्रिज का खेल जमता। वहीं अवस्थीजी से परिचय हुआ, जो चार-पाँच बँगले छोडक़र रहते थे। जब पुरुष वर्ग अपने खेल में मग्न होता, मिसेज अवस्थी अपनी बोरियत दूर करने मेरे पास आ जातीं। हम लोगों में अच्छा बहनापा हो गया।
फिर एक दिन सुना कि नारंग साहब शादी कर रहे हैं। तर्क-वितर्कों की जैसे बाढ़ सी आ गई। किसी ने कहा, इसी औरत के कारण पहली वाली छोडक़र चली गई। लेकिन फिर दस साल बरबाद करने की क्या जरूरत थी! तलाक के बाद तुरंत शादी कर सकते थे।
किसी ने कहा, दिवंगत मित्र की पत्नी है। उसे सहारा देने के लिए यह कदम उठाया है। किसी ने कहा, ऑफिस की सहकर्मी है। शादी के बाद एक छोटी सी पार्टी देकर नारंग साहब ने पत्नी को मित्रों, रिश्तेदारों से विधिवत्ï मिलवाया। तभी इन विवादों का, अफवाहों का दौर शांत हुआ।
नई वाली मिसेज नारंग मुझे देखते ही भा गईं। हम लोगों की खूब अच्छी ट्ïयूनिंग जम गई। उनकी कहानी वही थी, जो आधुनिक भारत की चालीस प्रतिशत कन्याओं की होती है। पिता की अकाल मृत्यु, कोमल कंधों पर घर-परिवार का भार, भाई-बहनों को एक-एक कर निपटाते हुए अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिला। जब सारी जिम्मेदारियों से फारिग हुईं तो पता चला, उम्र पैंतालीस को छू रही है। तब भाई-बहनों ने पहल की। ब्यूरो में नाम लिखवाया, अखबारों में विज्ञापन दिया। जाँच-पड़ताल के बाद नारंग साहब का नाम फाइनल हुआ और वे मेरा पड़ोस गुलजार करने आ गईं।
यह सुख उन्हें जीवन में इतनी देर बाद मिला था कि अपनी इतने बरसों वाली पुरानी नौकरी उन्होंने एक झटके के साथ छोड़ दी। अपनी नई नवेली घर-गृहस्थी में अब वे ऐसे रच-बस गई हैं, जैसे बरसों से बस यही करती आ रही हों।
आधी रात के बाद कहीं मुश्किल से आँख लग पाई थी कि घंटी बजी। पहले तो समझ में ही नहीं आया कि दरवाजे की घंटी है या फोन की। फिर पता चला कि इनके मोबाइल की रिंग है। अधमुँदी पलकों से मैंने घड़ी देखी—सुबह के पाँच बज रहे थे। तब तक वे फोन रख चुके थे।
‘‘किसका फोन था?’’
‘‘नारंग का। गेट पर खड़े हैं।’’ इन्होंने उठते हुए कहा। ये चप्पल डालकर बाहर को चल पड़े तो गाऊन पर शॉल डालकर मैं भी पीछे-पीछे हो ली। रात करीब ग्यारह बजे तो हम लोग उनके घर से लौटे थे। अब इतनी सी देर में और क्या हो गया।
सदर दरवाजा खोलकर हम लोग बाहर आए। धुँधलके में गेट के बाहर एक आकृति नजर आ रही थी। उनका फोन आ गया था, इसलिए निश्ंिचत थे, नहीं तो एकदम गेट खोलने की हिम्मत नहीं पड़ती।
‘‘सॉरी! आपको सुबह-सुबह डिस्टर्ब कर रहा हूँ। नहीं-नहीं, गेट मत खोलिए। मैं भीतर नहीं आऊँगा। बस यह चाभी देने आया हूँ।’’
‘‘चाभी! किसलिए?’’
‘‘बच्चे माँ को लेकर आ रहे हैं। शायद नौ-दस बजे तक यहाँ पहुँचेंगे।’’
‘‘पर आपने तो कल मना कर दिया था न!’’
‘‘हाँ पर आधी रात के बाद मुंबई से बच्चों का फोन आया। बरसों बाद उनकी आवाज सुनी थी। बरसों बाद उन्होंने कुछ माँगा था—मना नहीं कर सका।’’
क्षण भर को वे चुप हो गए। शायद उनका गला भर आया था। पर तुरंत ही उन्होंने अपने को सँभाल लिया और कहा, ‘‘हम लोग पंद्रह-बीस दिनों के लिए बाहर जा रहे हैं। वे लोग अगर तेरहवीं भी यहाँ से करना चाहें तो कर सकते हैं।’’
‘‘मतलब, आप नहीं रहेंगे।’’
‘‘नहीं—और मेरा रहना जरूरी भी नहीं है। अंत्येष्टि में तथा और संस्कारों में बेटों की उपस्थिति जरूरी होती है तो वे दोनों तो रहेंगे ही।’’ कुछ क्षण चुप्पी छाई रही। फिर वे बोले, ‘‘शर्माजी! सबका कहना था कि मरने वाले की इच्छा का सम्मान करना चाहिए, सो कर रहा हूँ। पर उसके लिए किसी जीवित व्यक्ति का मैं अपमान तो नहीं कर सकता न। अच्छा, अब मैं चलूँगा। मिसेज गाड़ी में वेट कर रही हैं।’’
और चाबियाँ इन्हें सौंपकर वे चल पड़े। मैंने झाँककर देखा, उनके बँगले के सामने उनकी नीली सैट्रो उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। मिसेज नारंग उसमें बैठी होंगी। अच्छा ही हुआ जो वे नीचे नहीं उतरी।
इस समय उनका सामना करने की हिम्मत मुझमें नहीं थी।

 

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

More

हमारे संकलन