ठंडा तेल

सुपरिचित लेखक। अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य, कहानियाँ, लेख, यात्रा-वृत्तांत, समीक्षाएँ और कविताएँ प्रकाशित। संप्रति अध्यापन एवं साहित्यिक त्रैमासिकी ‘समकालीन अभिव्यक्ति’ में सह-संपादक।

आज सिर में दर्द कुछ ज्यादा ही हो रहा था। शायद बहुत दिनों बाद एक बेहतर जलवायु से बदतर में आने का असर हो। वैसे भी हमारे महानगरों के विलासितापूर्ण जीवन में जलवायु है ही कहाँ? न जल और न वायु। देखें तो वायु या तो जल रही है या गल रही है। चलिए, उसे ही जलवायु मान लेते हैं। लेकिन ये निगोड़ा शरीर माने तब तो! दो दिन कहीं गाँव-देहात का जल और वायु मिली नहीं कि इसके मिजाज ही बदल जाते हैं। शुद्धता का रोग लग जाता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी-किसी को सफाई का रोग लग जाता है। लेकिन समस्या तो यही है कि आजकल शुद्धता के चक्कर में पड़ें तो जिएँ कैसे? जो भी हो, सिरदर्द तो होने लगा। टनटन घंटी जैसा कुछ बज रहा था और माथा टप-टप टपक रहा था। जैसे माथा पूरी तरह सूख गया हो। यहाँ से वहाँ तक ऐसी दरारें फट गई हों, जैसी अकालग्रस्त क्षेत्रों में फटती हैं। क्या करूँ?

याद आया, कोई सिर थोड़ा सा दबा दे तो राहत मिल जाएगी। कुछ दबाने से, कुछ स्पर्श के सुख से और कुछ किसी के मेरी परवाह करने के अहसास से। लेकिन दबाएगा कौन? माँ तो रही नहीं। होती तो बिना बताए ही जान जाती कि इसके सिर में दर्द है। परवाह और माँ सबसे नजदीकी पर्यायवाची होते हैं। वह अब तक बिना कहे ही किसी ठंडे तेल की आधी शीशी मेरे सिर पर ढलका चुकी होती। अरे भाई, इतने अधिक की आवश्यकता नहीं थी कि माथे और कनपटी से होकर पनाले की भाँति बहने लगे। मैं मना करता रह जाता, लेकिन वह कहाँ मानने वाली! माँ का हाथ और ठंडा तेल मिलकर न जाने कितने दुःखों-संतापों को ठंडा कर देते। लेकिन यक्षप्रश्न तो यह है कि अब उसकी जगह कौन सा हाथ आएगा?

दर्द को एक किनारे रखकर मन माँ की ओर लौट गया। कभी-कभी दवा न हो तो दवा का अहसास भी दर्द को दूर कर देता है, भले ही थोड़ी देर के लिए। भूखा शिशु भी दो मिनट झुनझुना बजा लेता है। उन दिनों घर में ठंडे तेल की कई प्रकार की शीशियाँ रखी होती थीं। दर्द की गहनता और तेल की तासीर के आधार पर यथोचित उपयोग होता था। हलकी-फुलकी जरूरत हो तो आँवले या नारियल का तेल लगता था। आँवले का तेल केवल दर्द दूर करने के लिए ही नहीं, थोड़ा महकाने के लिए भी होता था। नहा-धोकर कहीं किसी वजनी जगह के लिए निकलना हो तो आँवले का तेल बालों में हलका सा लगा लिया। बाल सेट हो गए और गमकने लगे। आखिर गाँव के सौंदर्य प्रसाधन कुछ तो अलग और मौलिक होंगे। नारियल का तेल औरतें लगातीं और हमारे मन में बैठा था कि यह औरतों का तेल है। अब अगर हमारा जन्म पुरुष के रूप में हुआ है तो नारियल का तेल लगाकर बेवजह अपना महिलाकरण क्यों करें? हम स्वयं को उस जाति में क्यों बदल लें, जो सदियों से कमतर मानी गई है? वह तो बाद में समझ में आया कि तेल से किसी की जाति नहीं बदलती! बदलती तो अब तक कितने दुखियारों ने बदल ली होती।

लेकिन आँवले का तेल भयानक सिरदर्द में कारगर नहीं होता। वह भी तब, जब आपकी आर्थिक स्थिति कुछ ठीक हो और आप कुछ महँगे तेल खरीद सकें। जिनके पास आँवले की औकात नहीं होती थी, उनका सिरदर्द मँगनी के आँवले के तेल से ही ठीक हो जाया करता था। खैर, थोड़ा सा तेल सिर पर लगाया और थोड़ा कनपटी पर मालिश कर ली। यह बात अलग है कि आँवले का तेल ठंडे तेल की बिरादरी में पूरी तरह शामिल नहीं था।

ठंडे तेल की श्रेणी में वे तेल थे, जिनके नाम के पहले ‘हिम’ लगा हो। इनकी बहुत सारी प्रजातियाँ थीं। नाम में बहुत कुछ रखा है। आदमी के नाम में भले न कुछ रखा हो, सामान के नाम में तो रखा ही है। विश्वास न हो तो देख लीजिए, न जाने कितनी कंपनियाँ हैं, जो अपने नाम की कमाई खा रही हैं। नामी बनिया का तो पता नहीं क्या-क्या बिक जाता है। सो अगर तेल के नाम में हिम लगा है तो वह हिम जैसा ठंडा होगा। टपकते-टनटनाते सिर को कुछ तो ठंडा चाहिए। गरम चीजों में भले ही कितना स्वाद क्यों न हो, तसल्ली ठंडे से ही होगी। जो अभी गरम है, कितना भी मजा दे रहा है, वह कुछ देर में ठंडा तो होगा ही। सो कुछ भी गरमा-गरम देखकर सीत्कार मत करो। पहले मुँह जलेगा, फिर पूरा बदन। जल जाने के बाद ठंडा ही होना है। ठंडई मूल स्वभाव है। जनाब, जब आग ठंडी हो जाती है, तो बाकी के ठंडे होने में क्या संदेह?

वैसे तेल ठंडा ही ठीक होता है। एक तो तेल, ऊपर से गरम! फिर तो जला ही देगा। चाहे वह लगाने का हो या खाने का। थोड़ा शीत-गरम हो तो चोट के लिए मुफीद रहता है। चोट चीज ही ऐसी होती है। गरम पर भी दुःखी करती है और ठंडी हो तब भी। ठंडी चोट तो पूछिए मत। अंदर-ही-अंदर बरफ बना देती है। अकड़ जाता है आदमी। उससे सीधा नहीं हुआ जाता। जोड़ खुलते ही नहीं, चाहे वे तन के हों या मन के। मन की ठंडी चोट तो कई बार सुन्न कर जाती है। वहाँ कुछ शीत-गरम की जरूरत होती है। हलका सा गरम तेल लेकर कोई फाहे जैसे हाथों से लगाए तो कुछ राहत मिलती है। यह बात अलग है कि मन नहीं होता कि कोई ठंडी चोट को छुए।

गरम चोट की बात अलग होती है। गरम चोट पर ठंडा तेल उतना काम नहीं करता। कुछ वैद टाइप लोग कहते हैं कि गरम को गरम ही काटता है। कई बार देखा गया है, गरम लोग गरम लोगों से ही दोस्ती करते हैं, उन्हीं से संबंध बनाते हैं, उन्हीं से चलाते हैं। नजदीक कोई ठंडा आ जाए तो छनछना उठते हैं, जैसे गरम तवे पर पानी के छींटे। लेकिन ठीक होते हैं ठंडे से ही।

मुझे पता नहीं कि ठंडा तेल कब से चला आ रहा है। तेल का ही पता नहीं तो ठंडे तेल का पता कहाँ से चले? कभी-कभी सोचता हूँ कि तेल से पहले की दुनिया कैसी रही होगी? फिर तो तेल लगाने वाले भी नहीं रहे होंगे। यों भी तेल लगाना आदमी ने तभी सीखा होगा, जब सभ्य हुआ होगा। आज भी असभ्य आदमी तेल नहीं लगाता। दूसरे शब्दों में कहें तो आज तेल न लगाने वाला आदमी असभ्य माना जाता है। वह कितनी भी मेहनत क्यों न कर ले, उसका कोई काम सही नहीं होता! लेकिन जब तेल नहीं था तो क्या मनुष्य में स्निग्धता नहीं रही होगी? स्निग्धता या स्नेह तो तेल से ही आता है। भाषाविद् स्नेह की उत्पत्ति स्निह, यानी तेल से मानते हैं। ऐसा कैसे होगा कि तेलयुग से पहले का मनुष्य किसी को स्नेह नहीं करता रहा होगा? स्नेह या प्यार करने के लिए तो सभ्य होना जरूरी नहीं होता! क्या माताएँ तेल के बिना अपने लाल के माथे को नहीं सहलाती रही होंगी? क्या युवतियों की केशराशि अपने सौंदर्य से पुरुष को नहीं बाँधती रही होगी?

तब तेल पेरने की मशीनें रही नहीं होंगी। मशीनों की छोड़िए, तेली का कोल्हू और तेली का बैल भी नहीं रहा होगा। न था कोई बाँस, न बजती थी बाँसुरी! कोल्हू के बैल ने आदमी को कहीं का नहीं छोड़ा। अब वह अपने बड़े-बड़े कोल्हुओं में नधा हुआ है। आँख पर पट्टी बँधी हुई है और वह गोल-गोल घूमे जा रहा है। शाम होगी तो नाँद में लग जाएगा और फिर खूँटे पर बँध जाएगा। हो सकता है, एकाध नींद पूरी होने के बाद खाया-पीया जुगाली करने लगता हो। बहुत तेल पेर लिया, तेल की नदियाँ बह गईं। उसका मालिक तेल का व्यापारी हो गया है। तेल का एक हिस्सा कुछ मिलावट करके खाने के काम आ रहा है। फिर पेराई की मशीन बनाई, तब से स्वयं की पेराई होने लगी। पिसाई की मशीन बनाई तो आदमी पिसने लगा।

शायद उसे प्राकृतिक तेल से संतोष नहीं हुआ होगा। तिल, सरसों, अलसी, मूँगफली, नारियल, महुआ, नीम और सूरजमुखी तक को निचोड़ने से मन नहीं भरा तो उसमें सत्यानाशी और अगड़म-बगड़म मिलाने लगा। उसके पास लौंग, इलायची, धनिया, लहसुन सहित न जाने क्या-क्या था। इनमें थोड़े से रसायन मिलाकर लगाने का ठंडा तेल बना दिया। बाकी बचा हुआ शुद्ध तेल बड़े और धनवान लोगों की मालिश में चला जा रहा है। इधर मालिश वाले तेल की माँग कुछ घटी है, क्योंकि बड़े लोग अब नवनीत के आदती हो गए हैं।

अच्छा है कि मैं किसी संस्कृत भाषाविद् या आयुर्वेदाचार्य से बात नहीं कर रहा हूँ, वरना वह तेल शब्द की उत्पत्ति बताने लगता। भाषाविदों की आदत होती है कि ज्ञान बघारने के चक्कर में शब्दों की उत्पत्ति जरूर बताएँगे, वस्तु की उत्पत्ति का ज्ञान भले न हो। उन्हें लगता है कि सारी दुनिया व्याकरण और शब्दों की उत्पत्ति से ही चल रही है। अब वे इसी मामले में असंतोष से बताते कि तेल संस्कृत के तैल शब्द का तद्भव है। तिल से निकलने के कारण इस द्रव पदार्थ को तैल कहा गया। कालांतर में शुद्ध भाषा के पतन से तैल का तेल हो गया। विडंबना तो यह है कि बाद में हर चिकने या प्रायः समान पदार्थ को तेल कहा जाने लगा, भले ही वह सरसों या सूरजमुखी से निकला हो। और तो और, धरती के गर्भ से निकलने वाले गंधयुक्त जीवाश्मी द्रव पदार्थ को भी तेल कहा गया। अब कहाँ वह तेल और कहाँ यह तेल!

इस भाषायी बहस में मैं ठंडा तेल भूल ही गया। बहस में ऐसा ही होता है। बहस कैसी भी हो, बाद में गरम हो जाती है। ऐसी स्थिति में ठंडा तेल कहाँ याद रहता है। हाँ, उस बहस से जब सिर गरम हो जाता है तो ठंडे तेल की जरूरत पड़ती है। न जाने उस ठंडे तेल में कौन-कौन से मसाले पड़े होते हैं! वैसे उसके निर्माता तो कहते हैं कि उसमें हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ पड़ी हैं। उसका पूरा प्रभाव ओषधीय है। हिमालय का प्रभाव हमारे मन में न जाने कब से बसा हुआ है। संभवतः रामायण काल से है। लंका में लक्ष्मणजी के मूर्च्छित होने पर हनुमानजी हिमालय से कोई जड़ी-बूटी ले गए थे, जिसका नाम संजीवनी था। लक्ष्मणजी मरणासन्न स्थिति से जीवित हो उठे थे। जीवित ही क्यों, अगले युद्ध में उन्होंने इंद्रजीत, यानी मेघनाद का वध कर दिया था। तब से हिमालय हमारे लिए संजीवनी का स्रोत है। न जाने वह विश्वास इस ठंडे तेल में कितनी गहराई तक समाहित है। हालाँकि इसमें संदेह नहीं कि इस ठंडे तेल में हिमालय की कोई जड़ी-बूटी नहीं है। वह तो शायद हिमालय के विश्वास की ठंड है, जो सिरदर्द को ठीक कर देती है।

सच कहूँ तो मुझे हिमालय और जड़ी-बूटियों, दोनों पर ही संदेह होने लगा है कि इनमें दर्द को दूर करने की काबिलीयत है। दरअसल, जब से माँ नहीं रहीं, इन ठंडे तेलों ने असर करना बंद कर दिया है। माँ थी तो करता था। सिर को अजीब सी ठंडक पहुँचाता था। संभवतः पिपरमिंट और कपूर की गंध और शीतलता अंदर तक चली जाती थी। अब माँ के न रहने पर सिरदर्द में तेल रखता ही कौन है; दूसरे रख भी लिया जाए तो उतना फायदा नहीं पहुँचाता। कभी-कभी तो मन को खराब कर देता है और दशकों पीछे धकेल देता है। इतनी मुश्किल से तो यहाँ तक चलकर आया हूँ, फिर ले जाकर वहीं पटक देता है। जिन हाथों का स्पर्श स्मृतिमात्र बनकर रह गया हो, उनसे दर्द दूर करने की अपेक्षा कहाँ तक न्यायोचित है? दर्द तो उन यादों से ही पैदा हो जाता है; और ऐसा दर्द, जिसे दुनिया का कोई ठंडा तेल दूर नहीं कर सकता।

एक जमाना ठंडे तेल से पहले का भी था, जब घर में केवल दो तरह के तेल हुआ करते थे। एक तो सरसों का तेल, दूसरा मिट्टी का तेल। एक चूल्हे में जलता था तो दूसरा दीये में। सरसों ने बहुत साथ दिया था उन दिनों। हम किसानों की बहुत बड़ी हितैषी हुआ करती थी मिट्टी के तेल वाले युग में। उगते ही साग बनकर पेट भरने आ जाती, वसंत में फूलकर सौंदर्यबोध कराती और पक जाने पर कोल्हू में आत्मोत्सर्ग करके तेल व खली में बदल जाती। तरकारी की छौंक से लेकर बचवा के तेल-बुकवा में बस उसी सरसों का तेल। घुटनों के दर्द, शरीर की मालिश से लेकर अधकपारी तक की एकमात्र ओषधि सरसों का तेल। दादी बतातीं कि सरसों का तेल गरम होता है, लेकिन पेट से लेकर शरीर तक की सारी गरमी इसी से शांत होती थी।

दादी घर की बैद थीं। दवाइयों का उनका अपना कुटीर उद्योग था। प्रायः सबकी दादी के कुटीर उद्योग थे। पैर में काँटा चुभा है तो मदार, यानी आक का दूध लगा लो। कब्ज हुआ है तो अजवाइन और काला नमक मिलाकर रखा हुआ है, खा लो। दर्द किसी प्रकार है तो अपनी सरसों का तेल है ही। सरसों के तेल की एक-दो बोतलें आँगन में ऐसी जगह गाड़ देतीं, जहाँ पानी रुकता हो। तीन-चार महीने बाद वह खोदकर निकाला जाता। एक ठंडा तेल वह भी होता।

ठंडा तेल बाजार में आज भी है। अब तो बड़े-बड़े अभिनेता इसका प्रचार करते हैं। आँवले का भी है और बादाम का भी। बहुत कुछ होगा। बहुतेरे तो झड़े हुए बालों को उगाने का दावा करते हैं। क्या पता इनके उत्पादकों के बाल उग आते हों। किसी भी साधन से पैसे उग आएँ तो क्या नहीं उग जाएगा! लोगबाग खरीदते भी होंगे, लेकिन अपनी आलमारी से ठंडे तेलों का वनवास हो गया है। अब कौन जाता है तेल चुपड़ने! अम्मा नहीं रहीं, उनके स्नेह सने हाथ नहीं रहे, तो ससुरे तुम ठंडे तेल का क्या करूँगा? तुम वहीं-कहीं ठंडे पड़े रहो!

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जुलाई 2024

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