नंदू रंगलाल की होली, चिंतन के रंगीन रंगताल में

नंदू रंगलाल की होली, चिंतन के रंगीन रंगताल में

सुपरिचित साहित्यकार। प्रयोगधर्मी व्यंग्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त। अनेक वर्षों से हिंदी भाषा एवं व्यंग्य साहित्य के संरक्षण एवं संवर्धन में प्रयासरत।

होली आते ही नंदू रंगलाल के साथ मैं भी अपने साथी व्यंग्यकारों और नंदू के रंगीन रंगताल में डूब जाता हूँ। मैं किसी भी होली पर पछतावा नहीं होने देना चाहता। मेरे हिंदी शब्दकोश में तमाम सारे होली के शब्द व मुहावरे हैं, लेकिन ‘चिड़िया चुग गई खेत’ वाला मुहावरा मैंने अपने हृदयपटल से हटा दिया है। ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’ मुहावरे से भी मैं बहुत दूर का वास्ता रखता हूँ। मैं जंगल में मोर को नाचता हुआ इसलिए नहीं देख पाता हूँ, क्योंकि मैं जंगल की ओर न कभी सुबह-सुबह पानी भरा लोटा लेकर गया और न कभी दिन में शिकारी बंदूक लेकर। अब इस बार होली पर जंगल में कोई मोर नाचे या कोई सरदार अपने सांभा से पूछे, “अरे ओ सांभा, होली कब है? कब है होली?”

चिंतन के रंगीन रंगताल में डूबा मैं अपने वरिष्ठ व्यंग्यकार श्रीमान हरिशंकर परसाईजी से मिला तो वे बोले, “आदमी को समझने के लिए सामने से नहीं, कोण से देखना चाहिए। आदमी कोण से ही समझ में आता है।” हमने उन्हें बताया, “सर, विश्वभर की भयाभय स्थिति को मद्देनजर रखते हुए मुझे जनवरी २०२४ से लेकर अब तक भयानक सपने आ रहे हैं। सपने में अपने भारतीय जाँबाज सुखोई फाइटर योद्धा दिखाई देते हैं। मुझे अपने भारतीय वायु योद्धा अपने स्क्वाड्रन से निकल फाइटर प्लेन के थ्रोटल और स्टिक थामे अंडरकैरिज लीवर की सँभाल करते हुए हमेशा युद्ध करते नजर आते हैं।” हर फाइटर पायलट योद्धा अपनी माँ की आँख का तारा होता है। उसकी माँ ही उसे भारतीय फौज में भेजकर यानी सम्मान से कहा जा सकता है, “माँ ने रंग दिया बसंती चोला। अपने देश और देशवासियों को सुरक्षित रखने की खातिर फौज में भेज दिया अपना प्यारा दुलारा।” हकीकत में देखा जाए तो भारत के किसी-किसी क्षेत्र में रोजाना ही दुश्मनों से लड़ते हैं हमारे फाइटर योद्धा, तब अपना देश और हमसब देशवासी सुरक्षित हैं। वरना... भारत में भी सबकुछ रंग में भंग होता नजर आ रहा है। इस बार तो एडजस्ट करके ही होली मनानी पड़ रही है।

वह बोले, “एडजस्ट करना कोई नई बात नहीं। सदियों से एडजस्ट किया जा रहा है, भई। किसी भी आदमी के लिए एडजस्टमेंट पर सबसे अच्छी खबर तो यह होती है, जब कोई उसे खबर दे कि अमुक आदमी तुम्हारी बीवी को भगा ले गया है तो वह धीरे से कह देता है, ‘ले जाने दो।’ हम तो एडजस्ट करके चलते हैं।”

आदरणीय परसाईजी से मिलकर मैंने अपने चिंतन के रंगीन रंगताल में होली के रंगों से भरी पिस्तौल पिचकारी भर दूसरी डुबकी लगाई और बाहर निकला तो मेरे हृदयपटल पर श्रीमान शरद जोशीजी उभरे। वह बोले, “प्यारे, खबरें हर किस्म की हैं और वे हर दिशा से आती हैं। दूसरों को तंग करने, उसे नष्ट करने का एक दर्शन देश में विकसित हो गया है। हर व्यक्ति के पास पिस्तौल नहीं है सौभाग्य से, मगर उसका दिमाग धीरे-धीरे पिस्तौल हो रहा है। वह लगा भले ही न पाए, मगर एक निशाना हर एक के दिमाग में है।”

मैंने तुरंत अपनी रंगों से भरी पिस्तौल पिचकारी छिपाते हुए कहा, “जी, आप ठीक कह रहे हैं।” वह मुझसे उम्र में काफी बड़े न होते तो धो देता, मगर होली का त्योहार होने पर भी मैं उन्हें धो नहीं पाया। चुप होकर मैंने अपने चिंतन के तीसरे रंगताल में डुबकी लगाई तो पाया कि मेरे सामने श्रीलाल शुक्लजी खड़े हुए मुसकरा रहे थे। उनके व्यंग्य शब्दबाण मुझे तार-तार कर गए। उन्होंने मुझसे कहा, “प्रयोगधर्मी सक्सेना साहब, जो खुद कम खाता है, दूसरों को ज्यादा खिलाता है; खुद कम बोलता है, दूसरों को ज्यादा बोलने देता है; वही कम बेवकूफ बनता है, दूसरों को ज्यादा बेवकूफ बनाता है।”

“साहब, हमारे जमाने में तो कर्ज लेना अच्छा नहीं माना जाता था। होली पर हुरियारे यदि चादर फाड़ होली खेलें तो भी पैबंद लगा काम चलाया जाता था। वैसे भी उस जमाने में मान्यता थी कि जितनी चादर हो, उतना ही पैर फैलाना चाहिए। आजकल उलटा हो गया है। खूब पैर फैलाओ चादर छोटी पड़े तो बैंक से लोन लेकर अपनी चादर दूसरों से बड़ी और बड़ी कर लो। होली पर हुरियारे फाड़ दें तो रंगताल में तुरंत फेंक दो। आजकल अब सबकुछ कर्ज लेकर बेहतर बनाया जा सकता है। स्टेटस नहीं हो तो भी स्टैंडर्ड का रंग तो जमा ही सकते हो। घर छोटा हो, मगर गाड़ी बड़ी होनी चाहिए। हर बात के लिए बैंक-लोन लो और ईएमआई भरो। असमय गुजर जाओ, तो पत्नी-बच्चे ईएमआई भरें। बड़ा लोन चुकाएँ। यह जमाना आ गया है।”

साहब, होली समझदारों को रंग में डुबो कर उत्साहित करने का त्योहार है। हम किसी को बेवकूफ बनाने की बातों पर विश्वास नहीं करते। हाँ, होली आते ही हम अपनी अक्ल को चारागाह से निकाल होली की स्थिति और रंगों के टारगेट पर चिंतन शुरू कर देते हैं। हमारी प्रिय बनी पत्नी महोदया रसोई गृह में होली के तमाम व्यंजन बनाती हैं और हम अपने लेखन की डेस्क के सामने बैठकर होली के तमाम सारे रंगीन हास्य-व्यंग्य। इस बार हम होली के अवसर पर अपने हसीन चिंतन के रंगीन रंगताल में कागज-कलम लिये हुए नए-नए व्यंग्य लिखने की जुगत में लगे ही हुए थे कि निद्रा देवी ने हमें घेर लिया।

निद्रा देवी की गोद में हमें इतना आनंद मिला कि हमें सपने आने शुरू हो गए। हमने देखा, “होली रंगों के झटकों और लोगों को रंग लगा कीचड़ की नाद में पटकने का त्योहार है, लेकिन इस बार इसका वोल्टेज रंगीन झटकों के भय से अति प्रभावित है। ओमिक्रोन के बाद कोरोना का नया स्ट्रेन ‘बीएफ-७’ आया और अब मुआँ नया स्ट्रेन ‘जेएन-१’ दस्तक दे गया। फिर दे मारो पिचकारी दो गज की दूरी वाली का सबक दे गया। ऐसे में नंदू रंगलालजी की नई-नई शादी हुई थी। पत्नी ने सुहागरात के दिन ही अपना पलंग उनके पलंग से दो गज दूर सरका लिया और बोली, “पहले सैनिटाइजर से शरीर धोकर आओ और मास्क भी लेकर आओ।” होली-२०२४ आ गई, मगर जुकाम होते ही और छींक आते ही कोरोना का भय न गया। सैनिटाइजर याद आ ही जाता है। इसलिए होली खेलने से तौबा करने का विचार है, साहब।

नंदू रंगलालजी कहने लगे, “अरे प्रिया, मेल-मिलाप के लिए तो हम पहले भी फीमेल नहीं, इ-मेल से काम चला लेते थे। सात फेरे लेकर पत्नी बन आई हो, ऊपर से सौंदर्यवान हो, अब भीतर न सिमटो, तनिक स्त्री रंग-अंग तो दिखाओ, इतना न सताओ। अभी तो झटपट अंग लग जाओ। अंग-अंग मल जाओ। होली है तन रंग जाओ, मन रंग जाओ और जोगीरा सारारारा...जोगीरा सारारारा...गाओ। मेरी जानेमन मेरी प्रिया, वैक्सीन की डबल डोज के साथ तीसरी डोज भी लगवा रखी है तो काहे का डर...आओ मल-मल रंग लगाते हैं।” फिर भी जब वह नहीं मानी तो नंदू रंगलालजी मन-ही-मन गाने लगे, ‘कर न अब और बेकरार, खोल के तन-मन द्वार, मना ले अपनी सुहागरात आज की रात। फिर होगी होली-रंग की रंगीन बरसात।’

नंदू रंगलालजी के साथ व्यंग्यकार भी बैठा रहा अपने नव जोश भरे रंगीन चिंतन का लिए रंगीन रंगताल...। फिर सब भूलभाल होली की धुन में सब मिल गा उठे, “होली का आया रे त्योहार। जोगीरा सारारारा...रे, जोगीरा सारारारा...रे।”

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