साहित्य और सिनेमा की दूरी...

अमेरिका का एक नगर, यहाँ हर सप्ताह एक दिन एक ‘वरिष्ठ नागरिक केंद्र’ में प्रवासी भारतीय एवं भारतवंशी लोग जुटते हैं, कुछ सूचनाएँ, कुछ चर्चाएँ, किसी विशिष्ट व्यक्ति (प्रायः भारत से आए) का व्याख्यान, योगाभ्यास आदि तथा सहभोज इसी का एक अनिवार्य हिस्सा है। एक गीत जिसे सब सामूहिक प्रार्थना के रूप में बड़ी श्रद्धा से सुनते हैं—

हम न सोचें हमें क्या मिला है

हम ये सोचें किया क्या है अर्पण

फूल खुशियों के बाँटें सभी को

सबका जीवन ही बन जाए मधुवन

अपनी करुणा का जल तू बहा के

कर दे पावन हरेक मन का कोना!

इतनी शक्ति हमें देना दाता

मन का विश्वास कमजोर हो ना!!

यह एक फिल्मी गीत है, किंतु यह हर सप्ताह इस आयोजन का अनिवार्य अंग बनता है। पूरा गीत है ही इतना प्रेरक और हृदयस्पर्शी। आयोजन में शामिल व्यक्तियों में शायद ही किसी को फिल्म का नाम याद हो अथवा गीतकार का नाम ज्ञात हो, लेकिन यह गीत उन सबके लिए एक उत्कृष्ट प्रार्थना है।

यही गीत सैकड़ों विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है। अमरीका या कनाडा में अन्य प्रकार के साप्ताहिक या पाक्षिक आयोजनों में इसी तरह कोई-न-कोई प्रेरक फिल्मी गीत आयोजन का हिस्सा बनता है—चाहे वह ‘हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें’ या ‘तू प्यार का सागर है’ या अन्य कोई गीत हो। एक और गीत को याद करें—

ऐ मालिक तेरे बंदे हम

ऐसे हों हमारे करम

नेकी पर चलें

और बदी से टलें

ताकि हँसते हुए,

निकले दम...!

यह फिल्मी गीत भी अपने प्रेरक संदेश के कारण देशभर के सैकड़ों विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता रहा है। इसी तरह के कुछ अन्य फिल्मी गीत भी विद्यालयों की सामूहिक प्रार्थना के रूप में गाए जाते रहे हैं।

आइए, कुछ देर के लिए राजपथ, जो अब ‘कर्तव्यपथ’ बन गया है, गणतंत्र दिवस समारोह को याद करें। सुबह से ही लाउडस्पीकर पर देशभक्ति के गीत गूँजने लगते हैं। इन देशभक्ति-गीतों में एक-दो अपवादों को छोड़कर प्रायः फिल्मी गीत ही होते हैं—

हमने सदियों में ये आजादी की नेमत पाई है

सैकड़ों कुर्बानियाँ देकर ये दौलत पाई है

मुसकराकर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियाँ

कितने वीरानों से गुजरे हैं तो जन्नत पाई है...

एक-एक शब्द रोमांच से भर देता है।

इसी प्रकार—

कर चले हम फिदा जानो तन साथियो...

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के...

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की...

जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं

   बसेरा, वो भारत देश है मेरा।

सूची बहुत लंबी है। इन्हीं गीतों से पूरे वातावरण में देशभक्ति की सुगंध फैल जाती है। शहीदों का स्मरण हो आता है। स्वाधीनता संग्राम में ‌किए गए बलिदान आँखों में झाँकने लगते हैं। युवा पीढ़ी के लिए ऐसे देशभक्तिपूर्ण गीत अत्यंत प्रेरक बन जाते हैं।

ठीक यही दृश्य लालकिले में आयोजित स्वाधीनता समारोह के शुभारंभ से पहले नजर आता है। थलसेना, वायुसेना और नौसेना के अनेक समारोहों में भी फिल्मी देशभक्ति गीत ही समारोह में देशप्रेम का रंग घोलते हैं।

देशभक्ति गीतों से भक्तिगीतों की ओर चलें तो प्रतिदिन करोड़ों भारतीयों के दिन का शुभारंभ भक्तिगीतों से होता है। इन भक्तिगीतों में भी बहुत बड़ा हिस्सा फिल्मी भजनों का होता है—

मन तड़पत हरि दर्शन को आज...

बड़ी देर भई नंदलाला...

हे रोम-रोम में बसने वाले राम...

तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो...

भक्तिगीतों की भी बहुत लंबी सूची है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, कोई भी अवसर हो, फिल्मी गीत हमारे साथ-साथ चलते हैं। क्या आपने ऐसी कोई भी बारात देखी है, जहाँ फिल्‍मी गीत पूरे जुलूस में साथ-साथ न चलते हों। किसी भी नगर के, किसी भी मोहल्ले में लाउडस्पीकर पर फिल्मी गीतों का बजना ही विवाह या अन्य किसी शुभ आयोजन का सूचक हुआ करता है। कोई भी जन्मदिन बिना ‘बार-बार दिन ये आए बार-बार दिल ये गाए, तू जिये हजारों साल...’ गीत के पूरा हो सकता है!

हमारे जीवन में फिल्मी गीतों का कितना गहरा प्रभाव है, इसका एक मार्मिक उदाहरण देखने योग्य है। किसी कस्बे का एक व्यक्ति घोर निराशा की स्थिति में आत्महत्या के इरादे से रेल की पटरी पर जाकर लेट गया। कुछ ही देर में दूर कहीं बज रहे रेडियो या ट्रांजिस्टर से प्रसारित हो रहे गीत की पंक्तियाँ उसके कानों में पड़ीं—

गाड़ी का नाम, न कर बदनाम

पटरी पर रख के सर को

हिम्मत न हार, कर इंतजार,

आ लौट जाएँ घर को

वो रात जा रही है,

वो सुबह आ रही है!

गाड़ी बुला रही है!!

इन पंक्तियों ने उस व्यक्ति को पुकारा और वह पटरी से उठ खड़ा हुआ। रेलगाड़ी आई, वह रेलगाड़ी को गुजरता देखता रहा, फिर घर लौट गया। बड़ी मुश्किलों से उसने इस गीत के रचनाकार का नाम पता किया और गीताकार को पत्र लिखकर अपनी जान बचाने के लिए उसका आभार व्यक्त किया। माना कि यह फिल्मी गीत था, किंतु कविता में इतना प्रभाव था कि उसने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। गंभीरता से विचार करें तो फिल्मी गीतों ने करोड़ों लोगों का न केवल मनोरंजन किया है, वरन् उनकी जिंदगी को भी किसी-न-किसी रूप में प्रभावित किया है। फिर भी यह विचारणीय है कि फिल्मी गीतकारों के प्रति साहित्य-जगत् में, विशेषकर हिंदी में, उपेक्षा का ही भाव रहा। श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ फिल्मी गीत को कभी साहित्यिक कविता के समकक्ष नहीं माना गया। यही कारण है कि कवियों ने भी सिनेमा से दूरी बनाकर रखी। प्रायः फिल्म निर्माताओं ने उन्हें अपनी फिल्मों में लिखने के लिए मनाया। कुछ ही गीतकार ऐसे हैं, जो फिल्म-जगत् में रुके अन्यथा नीरजजी जैसे गीतकार अनेक सफल तथा लोकप्रिय गीत लिखने के बावजूद फिल्मी दुनिया को छोड़ आए। यह भी विचारणीय है कि ऐसे दो-चार नहीं, अनेक गीत हैं, जो कविता के हर अपेक्षित मानदंड पर खरे उतरते हैं और उन्हें साहित्य की कसौटी पर परखा जा सकता है। पं. नरेंद्र शर्मा के इस गीत को देखिए—

ज्योति कलश छलके

घर आँगन वन उपवन-उपवन

करती ज्योति अमृत का सिंचन

मंगल घट ढलके...

पूरा गीत किसी पाठ्यक्रम में शामिल हो सकता है। कितने ही गीत हैं, जो हारे-थके मन को आशा, उत्साह का संदेश देते हैं।

ऐसे अनेक गीत हैं, जो हिम्मत और हौसला देते हैं। इसी प्रकार कितने ही गीत एक सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं, हमें एक बेहतर मनुष्य बनने की राह दिखाते हैं—

किसी की मुसकराहटों पे हो निसार

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार

जीना इसी का नाम है...!

      ×      ×      ×

मधुबन खुशबू देता है

सागर सावन देता है

जीना उसका जीना है

जो औरों को जीवन देता है

कितने ही गीतों में अनूठी उपमाएँ, अनूठे बिंब, अनूठी कहन मिलती है। इस विराट् संसार में मनुष्य के जीवन का यह चित्र कितना प्रभावशाली बन पड़ा है—

घायल मन का घायल पंछी

उड़ने को बेकरार

पंख हैं कोमल, आस है धुँधली

जाना है सागर पार...!

कितने ही गीत हैं, जो दर्शन और अध्यात्म को अपने भीतर पिरोए हुए हैं—

सूरज को धरती तरसे, धरती को चंद्रमा

पानी में सीप जैसे प्यासी हर आत्मा

बूँद छुपी किस बादल में, कोई जाने ना

ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में

सागर मिले कौन से जल में, कोई जाने ना।

कितने ही गीत हैं, जो समाज के शोषित, पीड़ित, वंचित इनसानों को दुःख-दर्द को अभिव्यक्त करते हैं; मनुष्य-मनुष्य के बीच की खाई को पाटने का संदेश देते हैं—

नए जगत् में हुआ पुराना

ऊँच-नीच का किस्सा

सबको मिले मेहनत के मुताबिक

अपना-अपना हिस्सा...

शायद ही कोई ऐसा रिश्ता हो, जिस पर कोई-न-कोई गीत न रचा गया हो। माँ पर कितने ही मार्मिक गीत हैं, तो भाई-बहन, बेटा-बेटी, पति-पत्नी, पिता या दोस्त...सभी पर गीत मिलेंगे—

ऐ माँ तेरी सूरत से अलग

भगवान की सूरत क्या होगी...

          ×     ×     ×

फूलों का, तारों का, सबका कहना है

एक हजारों में मेरी बहना है।

‘बेटी बचाओ’ का नारा तो इधर के वर्षों का है, किंतु सिनेमा में बेटी पर कितने ही प्यारे-प्यारे गीत वर्षों से लिखे जा रहे हैं—

जूही की कली मेरी लाड़ली

नाजों से पली मेरी लाड़ली...।

प्रेम गीत तो हजारों की संख्या में हैं और उनमें कुछ श्रेष्ठ साहित्यिक गीत भी हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि फिल्मों में गीत, फिल्म की कहानी के अनुसार तथा फिल्म की सिचुएशन तथा पात्र के अनुसार लिखे जाते हैं। शैलेंद्र जैसे कुछ गीतकारों पर लेखकों ने गंभीरता से अध्ययन करके उनके साहित्यिक योगदान को स्थापित करने का प्रयास किया है, अन्यथा फिल्मी गीतों को साहित्यिक विमर्श से हमेशा दूर ही रखा गया है। यह भी कड़वी सच्चाई है कि फिल्मी गीत लिखने के ‘अपराध’ में गोपालदास नीरज जैसे गीतकार को साहित्य से बहिष्कृत किया गया। दूसरी भाषाओं में ऐसा नहीं है। ज्ञानपीठ से सम्मानित तेलुगु कवि श्री सी. नारायण रेड्डी का तेलुगु फिल्मों में फिल्मी गीत लिखने का कीर्तिमान है। अन्य भाषाओं में भी ऐसे अनेक कवि मिलेंगे, जिन्होंने अपनी-अपनी भाषाओं में फिल्मी गीत लिखे हैं।

हिंदी में पंडित नरेंद्र शर्मा, भरत व्यास, इंदीवर, गोपालदास नीरज, अभिलाष, योगेश आदि ने अनेक श्रेष्ठ गीत रचे हैं, किंतु उनके गीतों को साहित्य-जगत् में यथोचित सम्मान नहीं मिला। गत वर्ष साहित्य अकादेमी द्वारा शिमला में आयोजित ‘साहित्य उत्सव’ में फिल्मी गीतों पर एक सत्र का आयोजन अच्छी पहल थी। सिनेमा सबसे सशक्त माध्यम है। उसमें साहित्य से अधिकाधिक संबंध लाभकारी होगा। फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ के संपादक स्मृतिशेष अरविंद कुमार ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्म निर्माण के लिए अभियान चलाया था। उसी का परिणाम था कि ‘कोहबर की शर्त’ उपन्यास पर बनी फिल्म ने सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त किए थे।

इस वर्ष फिल्म गीतकार गुलजार को ज्ञानपीठ सम्मान मिला है। सोशल मीडिया पर फिल्मी गीतों के प्रति उसी धारणा के तहत नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ भी सामने आई हैं। गुलजार के बहाने से सिनेमा और साहित्य के आपसी संबंधी पर सार्थक विमर्श हो सके तो बहुत लाभकारी होगा। कलाओं के अंतर्संबंध निश्चय ही उन्हें समृद्ध करते हैं। वर्जनाओं की आवश्यक जंजीरों का टूटना ही सुखद होगा।

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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