जाने-माने कवि-निबंधकार। कविता, यात्रा-संस्मरण, आलोचना, निबंध आदि की २५ मौलिक पुस्तकें। मासिक पत्रिका ‘सुजस’ के संपादक रहे। दूरदर्शन द्वारा यात्रा-वृत्तांत धारावाहिक ‘डेजर्ट कॉलिंग’ बनाकर प्रसारित। भारत सरकार के लेखक प्रतिनिधिमंडल में फ्रांस, जर्मनी और नेपाल की यात्रा। संप्रति अतिरिक्त निदेशक, माननीय राज्यपाल राजस्थान।
साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित किया जाने वाला ‘साहित्योत्सव-२०२५’ कई मायनों में विशिष्टता लिये था। अव्वल तो यह ऐसा आयोजन है, जो पूरी तरह से सरकारी स्तर पर बगैर किसी लाभ के सोच के क्रियान्वित किया जाता है, दूसरे यही वह महोत्सव है, जिसमें भारत भर के तमाम प्रांतों से लेखकों की भागीदारी होती है। इस बार उत्सव में देशभर के विभिन्न भाषाओं के ७२३ लेखकों ने भागीदारी की। हमारे यहाँ की प्रमुख नदियों गंगा, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा आदि के नाम पर बने सभागारों में भारतीय संस्कृति और विरासत पर इस दौरान महती विषयों पर विमर्श, बहुभाषी कविता पाठ, कहानी और संवाद, व्याख्यान के विविध सत्र हुए। संविधान में आठवीं सूची में सम्मिलित भाषाओं के अतिरिक्त साहित्य अकादेमी के स्तर पर मान्यता प्राप्त भाषाओं के वार्षिक पुरस्कार अर्पण के साथ साहित्योत्सव में संवत्सर व्याख्यान भी हुआ।
यह आयोजन इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इसमें साहित्य का कथित कोई खास तबका प्रमुख स्थान पर नहीं था। हर भाषा के नए और स्थापित साहित्यकार एक मंच पर थे। बाजारू तड़क-भड़क की बजाय सहज, सधे सत्रों में ढेर सारा अच्छा भी था तो कुछ कच्चा, भविष्य में पक्का होने की उम्मीद जगाने वाला था। पर बाजारवाद में गुम होते साहित्यिक मूल्यों और अपनी स्थापना के आग्रह में, अपने को बड़ा बनाने की होड़ में दूसरों को छोटा साबित करने की दृष्टि नहीं थी। यही इसकी बड़ी विशेषता भी कही जा सकती है।
असल में पिछले कुछ समय के दौरान ‘लिटरेचर फेस्टिवल्स’ की बाढ़ सी आ गई है। सभी में नहीं, पर प्राय: इनमें बाजार की शक्तियाँ इस कदर प्रमुख होती हैं कि साहित्य के संवेदना मूल्य गौण होते जा रहे हैं। जयपुर में वर्ष २००६ से एक बड़ा उत्सव ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ के नाम से प्रारंभ हुआ था। आरंभ में यह साहित्य की संवेदना लिये भारतीय भाषाओं और विदेशी लेखकों से संवाद का बेहतरीन मंच बना, परंतु शनैः-शनैः यह भी पूरी तरह से उपभोक्तावाद की पाश्चात्य संस्कृति के प्रसार का संवाहक बनता चला गया। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, पर इधर ऐसे होने वाले मेले बहुत से स्तरों पर भ्रमित करने लगे हैं। कोई मेला, उत्सव चाहकर भी किसी को लेखक, कलाकार नहीं बना सकता। परंतु यहाँ जिस तरह से लेखन से जुड़ी चमक-दमक और लेखक बनने के तरीकों पर चर्चा होती है, भ्रमित पीढ़ी इस क्षेत्र में भी कॅरियर की तलाश करने लगी है। अपने पैसों से पुस्तकें छपाने और मार्केटिंग से साहित्य क्षेत्र में स्थापित होने की चाह और दृष्टि से समर्थ पर लेखन की संवेदना से कोसों दूर लोगों को भी इस क्षेत्र में राह बताने लगी है। साहित्य के ऐसे कथित उत्सव भ्रमित तो करते ही हैं, बहुत से स्तरों पर वास्तविक लेखकों से पाठकों को दूर भी करते हैं। इन उत्सवों की परिणति यह तो हुई है कि हर भाषा में पुस्तकें खूब छपने लगी हैं, पर पढ़ने के बाद पाठक अपने को कई बार ठगा हुआ भी पाता है।
साहित्य मानवीय संवेदना और नैतिक मूल्यों से जुड़ा क्षेत्र है। इसका अपना लोकतंत्र है। यहाँ कोई बड़ा लेखक बनता है और पढ़ा जाता है और भविष्य में भी रहता है तो वह केवल और केवल अपने अच्छे लेखन के बूते ही हो सकता है। चमक-दमक, साहित्य उत्सवों में भागीदारी और ढेर सारी पुस्तकों के लेखक के रूप में कुछ समय के लिए व्यक्ति की पहचान बन सकती है, परंतु अंतत: अच्छा लेखन ही लेखक को स्थापित करता है।
इस दृष्टि से साहित्य अकादेमी का ‘साहित्योत्सव’ महत्त्वपूर्ण है। इसलिए भी कि इसमें भाग लेने के लिए किसी प्रकार की औपचारिकता की जरूरत नहीं होती। साहित्य में रुचि रखने वाला कोई भी इसमें नि:शुल्क चाहे जिस सत्र में लेखकों के निकट पहुँच, उन्हें सुन-गुन सकता था। बतिया सकता था। देश की लगभग सभी भाषाओं के लोकप्रिय, अपने लेखन से प्रतिष्ठित लेखकों की इसमें भागीदारी इसका बड़ा आकर्षण था। साहित्य अकादेमी के सचिव डॉ. श्रीनिवास राव की पहल से इस बार के उत्सव में एक अनूठी पहल यह भी हुई कि ज्ञानपीठ से सम्मानित प्रख्यात मलयाली लेखक श्री एम.टी. वासुदेव नायर के उपन्यास ‘नालुकेत्तु’ के आलोक में उपन्यास की पृष्ठभूमि और विषय संवेदना पर श्री डी. मनोज वाईकॉम के छाया चित्र भी प्रदर्शित हुए। बतौर पाठक किसी छायाकार द्वारा उपन्यास को पढ़ने और उसके बाद उससे जुड़े परिवेश, विषय संवेदना को छायांकन कला में जीवंत करने की यह मौलिक दृष्टि पाठकीय संवेदना की अनुपम दृष्टि है। क्या ही अच्छा हो, ऐसे ही विभिन्न कला क्षेत्र साहित्य के निकट आएँ और साहित्य उनके निकट पहुँच, ऐसे ही कुछ नवाचार भविष्य में करे।
इस बार के साहित्योत्सव में किसी जन प्रतिनिधि की साहित्य-संवेदना दृष्टि भी उत्साहित करने वाली थी। पर्यटन और संस्कृति मंत्री श्री गजेंद्र सिंह शेखावत उत्सव में आए तो वहीं साहित्यकारों से बहुत देर तक मिल-बैठ बतियाए। उन्होंने बाद में कहा भी, ‘भारत की सांस्कृतिक विविधता का साहित्य मूल्यवान धागा है।’
यह सच है, संस्कृति की जीवंतता शब्द में समाए जीवनालोक में ही प्रतिबिंबित होती रही है। साहित्य के कथित उत्सवों में रंग-बिरंगी उत्सवधर्मिता क्षणिक होती है। उनसे लेखक-पाठक संबंधों की दीर्घकालीन किसी दृष्टि को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। भारतीय मानस भावनाओं, संवेदनाओं को जीता है। पर साहित्य का कोई उत्सव आधुनिकता और उपभोक्तावादी मूल्यों को ही जीने वाला होगा तो उसका परिणाम कालांतर में साहित्य से लोगों की दूरी ही होगी। साहित्य उत्सव का मूल मकसद यही तो होना चाहिए कि वहाँ हर कोई बगैर किसी झिझक, संकोच के पहुँच सके। जिनको पढ़ना है, पढ़ने को उत्सुक होता है, उससे सहज मिल सके। बगैर किसी औपचारिकता के उत्सव में भाग ले सके। इस दृष्टि से साहित्य अकादेमी का सधा-सुनियोजित साहित्योत्सव भविष्य की उम्मीद जगाने वाला है।
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