फिर से सूखी रोटी और आलू की सब्जी। पिछले तीन महीने से यही खाना खा-खाकर ऊब चुका हूँ। मैं नहीं खाऊँगा।” खाने की थाली को गुस्से में उलटते हुए पप्पू ने कहा।
“अरे बेटा! खाने का अपमान नहीं करते। सुबह में अपने घर से खाना खाकर ही बाहर निकलना चाहिए। कल तुम्हारी पसंद का खाना बना दूँगी। अभी जो बना है, खा लो।” पप्पू की माँ श्यामा ने दुःखी मन से समझाते हुए कहा।
दिल्ली के बुराड़ी इलाके का ‘श्यामा निवास’। जनवरी महीने की कँपकँपाती ठंड। रविवार का दिन। सुबह आठ बजे हैं। लेकिन ‘श्यामा निवास’ का माहौल गरम है। पप्पू नौवीं क्लास में पढ़ता है और चार भाई-बहनों में वह सबसे छोटा है। उसे तनिक भी भूख बरदाश्त नहीं। भूख के मारे उसका क्रोध सातवें आसमान पर है।
पप्पू के पिता जीवनदास दिल्ली में बैटरी बनाने की प्राइवेट कंपनी में सुपरवाइजर के पद पर काम करते थे। घर के एकमात्र कमाऊ मेंबर थे। किसी तरह गुजारा हो जा रहा था। किंतु कंपनी घाटे में चलने के कारण बंद हो गई। अब जीवनजी पिछले एक वर्ष से एक रेजिडेंशियल सोसायटी में गार्ड की नौकरी करते हैं। तब से घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय है।
“माँ, मैं चाचाजी के यहाँ जा रहा हूँ। वहीं नाश्ता कर लूँगा।” पप्पू ने क्रोधित मुद्रा में साइकिल निकालते हुए कहा। दो किमी. की दूरी पर रामनिवास दासजी का घर है। रिश्तेदारी में उसके चाचा लगते हैं। वे दिल्ली सरकार में बिजली विभाग में इंजीनियर हैं। वे पप्पू को बेटे जैसा मानते हैं। पप्पू को भी उनसे बड़ा लगाव है।
“बेटा, मेरी मानो तो उनके यहाँ मत जाओ। हमारी माली हालत किसी से छिपी नहीं है। गरीबों का कोई रिश्तेदार नहीं होता है। उसे कोई नहीं पहचानता है।” श्यामा ने समझाते हुए कहा। लेकिन पप्पू नहीं माना।
कुछ देर बाद।
“प्रणाम चाचाजी। प्रणाम चाचीजी।” पप्पू ने आदर सहित कहा।
“आओ बेटा। बहुत दिनों के बाद आए। हमेशा सोचता हूँ तुम्हारे घर जाऊँ। पर समय ही नहीं मिलता है। पापा-मम्मी का क्या हाल-चाल है? तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है? सुबह-सुबह आए हो। नाश्ता-पानी करके जाना।” रामनिवासजी ने कहा।
नाश्ते का नाम सुनते ही पप्पू के मन में पूड़ी-सब्जी की थाली घूमने लगी। अकसर चाचाजी के यहाँ उसे यही खाने को मिलता था।
“संडे का दिन है न। सुबह लेट से उठना होता है। सारे काम लेट हो जाते हैं। अभी तक हमारे यहाँ नाश्ते में कुछ नहीं पका है। आराम से होगा। लेकिन चलो, तुम्हें कुछ स्पेशल खिलाती हूँ। रात की बची रोटी है। नमक, सरसों के तेल और प्याज के साथ खाने में तुमको खूब मजा आएगा। हम लोगों ने कई बार खाया है।” उसकी चाची ने थाली परोसते हुए कहा।
‘गरीबों के रिश्तेदार...नहीं...’ माँ की बातें पप्पू के जेहन में घूमने लगीं। कच्ची उम्र में वह सांसारिक जीवन के एक कटु अनुभव से रूबरू हो रहा था। वह आश्चर्यचकित मुद्रा में नाश्ते की थाली और अपने पिता समान चाचा को देखे जा रहा था। उसे अपने घर की सूखी रोटी और आलू की सब्जी की याद आ गई।
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