सुपरिचित कवि-लेखक, व्यंग्यकार। ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास, सर्जनात्मक भाषा और आलोचना’, ‘जल टूटता हुआ की पहचान’, ‘आस्था के बैंगन’, ‘पिताजी का डैडी’ संस्करण व्यंग्य प्रकाशित। देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार, पं. नंददुलारे वाजपेयी आलोचना पुरस्कार, समीक्षा सम्मान, भाषा भूषण सम्मान इत्यादि से सम्मानित।
यह पानी की टंकी उनके दिमाग में सीमेंटेड-सी है। पायों पर खड़ी। उसी का पानी उनके दिल में बहता रहता है। मौका मिला नहीं कि जुबान पर फुदक जाता है। फुदके भी क्यों नहीं? आखिर गाँव की प्यास को बुझाया है। मोहल्ले तृप्त हुए हैं। कितने प्यासे कंठ बुझे हैं। दरअसल वे जब पंचायत के प्रधान बने, तो दो ही आकर्षण थे। शिलापट्ट पर सफेद संगमरमर पर काले अक्षर नाम की शोहरत फैलाते रहें बरसो-बरस। दूसरे की बात नहीं करना। लोग धन को काला कहते देर नहीं करते।
यह टंकी उनके हर कार्यक्रम में पाइपलाइन बनकर जुबान पर बह जाती है। अभी गाँव के स्कूल का ही वार्षिकोत्सव था और वे थे मुख्य अतिथि। हमारे यहाँ मोहल्ले के नामचीन यशस्वी महानायक की अपनी धाक होती है। अपने-अपने क्षेत्रफल के अनुसार दुनिया के चौधरी तक कायम हो जाती है। स्कूल की तारीफ और समस्याओं पर बोलते-बोलते वे अमेरिकन एक्सप्रेस में छपे दिल्ली के स्कूल और मोहल्ला क्लीनिक की तरह पानी की टंकी को ले ही आए। बोले, “पहले बच्चों और शिक्षकों को पानी तक नहीं मिलता था। आज गाँव में पानी की टंकी है। घरों में पानी आता है। नदी-तालाबों के खुले बाथरूम बंद हो गए हैं। बच्चे नहाए हुए साफ-सुथरे। वरना इनका सप्ताहिक स्नान होता था। अब हर समय स्कूल में कंठ तर रहता है।”
इधर गाँव के विकास को लेकर अधिकारियों, पंचों और गण्यमान्य नागरिकों की बैठक चल रही है। प्रस्ताव आ रहे हैं। पर अध्यक्षीय उद्बोधन में पानी की टंकी को जुबान पर टिकाए कह रहे हैं—“हमने बरसों की समस्या को समाप्त किया। आज सबके गले तर हैं। तालाब- नदी के महाबाथरूम अब घर के बाथरूम का सौंदर्य बन गए हैं। अब आप कीचड़ और नाली की बात कर रहे हैं। हम जल्दी ही नाली-निर्माण के शिलापट्ट का मुहूर्त निकलवाते हैं। पर खुशी तो यह कि पानी की टंकी हर घर की प्यास बुझा रही है।”
छोटे से कस्बे में पानी की ऊँची टंकी देखकर किसी मनचले ने तीर मार दिया। दोस्तों के ठहाकों के बीच बोल पड़ा—“अब ‘वीरुओं’ के लिए पानी की टंकी पर चढ़कर अपनी बात मनवाने का अवसर आसान हो जाएगा।” यों भी कुछ मनचले अपनी बात मनवाने बिजली के खंभे पर चढ़ जाते हैं। पानी की टंकी ज्यादा सुरक्षित है। चढ़ने वाले और उतारने वाले, दोनों ही को करंट नहीं लगता। पता नहीं, गाँव की मौसियाँ वीरुओं का सत्कार कैसे करेंगी!
आज नदी घाट पर बने श्मशान में अंत्येष्टि और श्रद्धांजलि सभा है। मोहल्ले के एक नामचीन दिवंगत हो गए तो पंचायत प्रधानजी को तो आना ही था। श्रद्धांजलि सभा की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने मोहल्ले के महानायक की कारनामी तेजस्विता का बखान कर दिया। पर यह कहने में नहीं चूके—“हम लोग अंत्येष्टि के बाद घर जाकर सोने के पानी के छींटे लगवाकर नहाया करते थे। आज पानी की टंकी बन जाने से यहीं पर पवित्र स्नान हो जाता है। रास्ते में लोग दूर होकर कन्नी काटते थे। आज यह समस्या नहीं है।”
सचमुच पानी की टंकी उनके दिमाग और अध्यक्षता को तर किए रहती है। पर जितनी कुरसी की चमक है, उतनी ही विरोध की धमक भी। इस बार के कार्यक्रम में जरा पंगा हो गया। विरोधी कह उठे—“पानी की टंकी क्या आपने अपनी जेब से बनवाई है? सच्चाई तो यह है कि इसका प्रस्ताव, हमने पिछली नगर पालिका में हमारी पार्टी के बहुमत के आधार पर रखा था।” तभी एक निर्दलीय उठ खड़े हुए—“पानी की टंकी की जरूरत और जन-समस्या के निवारण की बात मैंने बहुत पहले आमसभा में की थी। यह सपना मैंने देखा और मैं लगातार अखबारों में पानी से टंकी की माँग करता रहा। लगता रहा, जैसे निर्माण की राशि में कमीशनखोरी के इल्जाम लगते हैं, वैसे ही सभी इस यश में भी बँटवारा चाहते थे। किसी का सपना, किसी का प्रस्ताव और निर्माण का यह यश अकेले नगरपालिका अध्यक्ष के खाते में? अकेले पंचायत प्रधान के खाते में क्रेडिट करना न्याय का तकाजा नहीं था।
समस्या यही है देश में। निर्माण किसी का, निर्माण का सपना किसी का, प्रस्ताव किसी के कार्यकाल में और निर्माण किसी दूसरी पार्टी के कार्य काल में। उद्घाटन किसी नवनिर्वाचित पार्टी के शिलान्यास से। जुबानी लड़ाई होली की-सी आग की तरह—“योजना और निर्माण हमारा और उद्घाटन के फीते के साथ यश इनका।” किसी मनचले ने वार कर दिया—“क्या ये आपने अपनी जेब के पैसे से बनवाएँ हैं?” उत्तर मिला— “योजना हमारी थी, इन्होंने हथिया ली।” वे बोले—“इसका भी क्या कॉपी राइट होता है? क्या इन पानी की टंकियों, फोरलेन सड़कों और कारखानों का भी इलाकों के अनुसार पेटेंट लिया जाए?”
बहस चौराहे पर थी। कोई बोल पड़ा—“पर सड़क पर गड्ढ़े होंगे तो आपको भी आरोप झाड़ने का लोकतांत्रिक अवसर मिलेगा। तब कीजिएगा प्रहार। अपने हिस्से को पाकर भी ये गड्ढे, ये एक्सीडेंट क्यों? किसी को बनवाने का यश मिलता है। किसी को गड्ढों को उजागर करने का। और लोकतंत्र में बाजियाँ पलटती भी हैं। कभी ठीक इसके उलट। निर्माण इनका, गड्ढों का शोर उनका। असल लोकतंत्र यही है। कुछ ऐसा-वैसा हो जाए तो दाँव उनका। कभी ऐसा-वैसा हो पाए तो दुर्भाग्य इनका। अब वीरू पानी की टंकी से बॉडी-लैंग्वेज के साथ डॉयलाग अदा करे या कूदे। नहाए या कीचड़ फैलाए। अपने-अपने अवसर हैं, इस मजेदार लोकतंत्र में। शायद मन में उत्कीर्ण-सा होगा। यही कि अपने-अपने नाम वाले ये शिलालेख मिलेंगे तो पंचायत से लेकर देशभर में, चुनावों से लेकर इतिहास मार्ग पर ये डंका बजाते रहेंगे।
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