भारत में इतिहास एवं सांस्कृतिक विषयों के विशेषज्ञ। अब तक ६० से ज्यादा लेख अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। वे हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, उत्तराखंड में इतिहास, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग के प्रमुख रहे। संप्रति राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के निदेशक।
रवि हिमाचल के एक सुदूरवर्ती गाँव का मूल निवासी है। वह भारत सरकार में उच्च पद से सेवानिवृत्त हुआ है। वह दीर्घकाल तक विभिन्न पदों पर सेवा देकर अच्छा काम एवं नाम कमा सुखी जीवन व्यतीत कर रहा है। किंतु शहरों की चकाचौंध, कोलाहल, बनावटी संबंधों से मन भरने पर वह अपने सुदूर पर्वतश्रेणियों के मध्य प्रकृति की गोद में स्थित गाँव जाकर अपना बचपन ढूँढ़ता है। अपने घर में जाता है, पर उसे वह घर अपना नहीं लगता। वह प्रसन्न नहीं है, उसका मन अशांत है। वह मानो कुछ ढूँढ़ रहा है, पर उसे मिल नहीं रहा है। उसकी धर्मपत्नी पतिदेव को दु:खी देखकर पूछती है कि आप क्यों परेशान हैं, क्या ढूँढ़ रहे हैं? आप तो शहर से अपने गाँव आने के लिए अत्यंत व्यग्र थे और उत्सुक भी। क्या गाँव में अच्छा नहीं लग रहा, शहर लौट चलें? रवि घर की दीवारें, छत और हर कोने से कुछ पूछ रहा था, वहाँ कुछ ढूँढ़ रहा था। वह ढूँढ़ रहा था घर में अपनी माँ की ममता को, उसके आँचल को, वह अपने कमरे में अपनी माँ को ढूँढ़ रहा था। अवाक् सा, खोया-खोया जैसे कोई स्वयं में स्वयं को ढूँढ़ रहा हो।
रात हो चली, खाने का समय था तो धर्मपत्नी खाना परोसने लगी, फिर भी रवि की भावशून्यता, मनोमालिन्यता एवं उद्विग्नता ज्यों की त्यों थी। पत्नी बोली, “देखो, पहले तो कभी-कभी आप रात का भोजन बना भी लेते थे और परोसते भी स्वयं ही थे, पर आज मैं आपको भोजन बनाकर परोस रही हूँ, पर आप हैं कि भोजन की ओर देख भी नहीं रहे। बात क्या है?” अब रवि कुछ अपनी भावविह्लता से निकलकर बोला, “भाई, खाना तो मैं खाऊँगा, पर पहले तुम्हें मैं अपनी माँ की महिमा सुनाना चाहता हूँ। मैं आज अपनी माँ को घर में न पाकर अपने उस बचपन में लौटकर उसको ढूँढ़ रहा हूँ। मैं ढूँढ़ रहा हूँ, अपने उस जीवन को, जिसको मेरी माँ ने अपनी ममता, अनुशासन और त्याग से परिपूर्ण किया। मुझे दु:खी और अशांत देखकर, जो प्रश्न तुमने पूछे, उन सभी के उत्तर हैं मेरी माँ की इस कहानी में, तो सुनो—माँ की महिमा।”
आज मन रोता है, जब आए दिन हम पढ़ते-सुनते हैं कि कलयुगी पुत्र अपनी माँ की निर्मम हत्या कर देता है; माँ को घर से निकाल देता है, माँ को भूखा-प्यासा रखकर मरने के लिए छोड़ देता है। ऐसे न जाने कितने कुत्सित, घृणित और निर्लज्ज कृत्य माँ के साथ हो रहे हैं। यदि माँ की महिमा को हम एक क्षण के लिए भी समझने का प्रयास करें तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस प्रकार की क्रूरता माँ के साथ करने का विचार भी किसी के मन में आएगा ही नहीं। यह एक गंभीर प्रश्न है हमारे समक्ष। माँ का विश्व की समस्त सभ्यताओं में द्वितीय स्थान रहा है। मानव ही नहीं, पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभी के संसार का आरंभ ही माँ करती है। जन्म देने के पश्चात् जब तक बच्चा स्वयं सक्षम नहीं हो जाता, प्रत्येक माँ बच्चे का यथाशक्ति लालन-पालन, भरण-पोषण करती है। हम देखते हैं कि भारत की सभ्यता में भूमिमाता, जन्म देने वाली माता और शक्ति देने वाली भी देवी माता ही है। माता सदा से सभी को देती है, किसी से कुछ लेती या माँगती नहीं है। किंतु आज इस भाव को कुछ लोग भूल रहे हैं और यह भूल मानवता के अस्तिव पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है। ऐसी स्थित में मैं अपनी माँ की मधुर स्मृतियों के सहारे पुन: उसकी गोद और आँचल की शीतलता का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे याद है, मैं पाँच साल का था, मेरे सिर पर फोड़े हो गए थे। तब मैं गाँव में अपने भाई-बहनों के साथ रहता था। तब मेरे पिताजी कलकत्ता में भेषज के रूप में एक निजी चिकित्सालय में अपनी सेवाएँ दे रहे थे। गाँव के छोटे से चिकित्सालय से उपचार प्रभावकारी नहीं हो पाया। कुछ वैद्यों से माँ ने उपचार करवाया, मगर मेरे दर्द और रोग का निदान फिर भी नहीं हुआ। माँ मेरे दर्द में मेरे से अधिक दु:खी तो थी, पर वह साहस की प्रतिमूर्ति और लोक-जीवन के ज्ञान में निष्णात थी। शीतकाल चरम पर था, बर्फबारी के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त था। हर कोई लाचार था, मगर माँ की ममता की ऊर्जा और ऊष्मा हिम को पिघलाते हुए अपने मासूम बच्चे के उपचार करने में समर्थ थी। बर्फीली पगडंडियों को पार करते हुए वह बर्फ से ढकी पहाड़ियों से कुछ जड़ी-बूटी और बाँज के पेड़ की खोह से पानी निकालकर लाई। जड़ी-बूटी का लेप बनाया, किंतु पहले फोड़े को खोह के पानी से धोया और फिर औषधियों का लेप लगाकर मुझे अपनी गोद में लिटाकर मुझे दर्द से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी मधुरवाणी में भगवान् कृष्ण की लोकगाथा गुनगुनाते हुए सुलाने का प्रयास किया। मुझे याद है, वह कालिया नाग के मर्दन का वृत्तांत सुना रही थी। किस प्रकार भगवान् कृष्ण अपनी गेंद लेने के लिए यमुना में जाते हैं और कालिया नाग का मर्दन करते हैं, यह संपूर्ण वृत्तांत लोकभाषा और शैली में, जिसे पंवाड़ा कहा जाता था, माँ सुनाती थी।
असाक्षर और बिना किसी औपचारिक शिक्षा के माँ को महाभारत और रामायण के अनेक वृत्तांत और उनके गायन की शैली, छंद, लय का पूर्ण ज्ञान था। मुझे आश्चर्य होता है कि हम अपने विद्यालय में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी राम और कृष्ण के संबंध में नहीं जान पाए, किंतु माँ तो कभी विद्यालय में शिक्षा न लेने पर भी अपने महापुरुषों के संबंध में बहुत कुछ जानती थी। मैं अपना दर्द और रोग भूलकर माँ की मधुरवाणी में गाए गए ऐसे अनेक भक्तिपूर्ण पंवाड़ों और गीतों में खोकर सो जाता था। माँ ने न केवल मेरे शरीर की पीड़ा और रोग का उपचार किया अपितु मेरे ज्ञान और चरित्र-निर्माण के लिए किस प्रकार उन कँपकँपी और ठिठुरन भरी रातों में स्वयं जागते हुए मुझे अपने प्यार की ऊष्मा से अभिषिक्त किया। कर्तव्यपरायणता माँ की प्राथमिकता थी, शीघ्र ही मैं स्वस्थ हो गया। माँ बहुत ही कर्तव्यपरायण, कर्तव्यनिष्ठ, अनुशासनप्रिय और सत्यवादी थी। अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने अपनी और हम सभी की दिनचर्या तय की थी। सुबह प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में जागने की उनकी आदत थी, जागते ही मधुर धुन में भगवान् के भजन गुनगुनाते हुए सबसे पहले मुँह धोना, चूल्हे में आग जलाना, पानी गरम करना और घर की सफाई करना, फिर हाथ-मुँह धोकर दीप प्रज्वलित कर १०-१५ मिनट ईश्वर आराधना करने के पश्चात् ही वह चाय पीती थीं। हमें भी प्रात:काल उठाकर पढ़ने के लिए कहतीं और विद्यालय जाने से पहले ही हमें बहुत सारे काम भी करने होते थे, जैसे—धारे से दो-तीन गागर पानी भरकर लाना, आँगन की सफाई करना, फिर हाथ-मुँह धोकर जलपान करने के पश्चात् विद्यालय जाना। माँ सुबह उठते ही कितने काम करती थी। पूजा करना, हमारे लिए जलपान तैयार करना, गाय-भैंस का दूध दुहना, उन्हें घास-पानी देना, गोबर उठाना। गाय-भैंस के बच्चों को दूध देना, कुत्ते-बिल्ली का भी हिस्सा देना। बिल्ली तो स्वयं भैंस के ऊपर बैठ जाती और जैसे ही माँ दूध दुहकर अंदर जाती तो बिल्ली अपना हिस्सा लेने के लिए व्याकुल हो उठती, पर माँ सबसे पहले भगवान् को दूध चढ़ाती और फिर बिल्ली का हिस्सा देतीं।
हम विद्यालय चले जाते, माँ जंगल से घास-चारा लाती और खेती का काम करने से पहले हमारे लिए खाना भी बनाकर रख जाती। हमारी दिनचर्या भी तय कर देती। स्कूल से आने के पश्चात् हम अपने स्कूल के कपड़े बदलकर भोजन करते और गाय-बैल को लेकर जंगल में चराने ले जाते। संध्याकाल में हम सभी अपने-अपने कार्य-स्थलों से लौट आते। माँ भी आ जाती और फिर जल्दी से कुछ खाने के लिए देती। इस व्यवस्था के लिए माँ का बुद्धिचातुर्य, प्रबंधन-कौशल, अनुशासन की क्षमता और परिवार का उत्तरदायित्व, इन सभी गुणों का अद्भुत प्रदर्शन दिखता था। कभी रूखी रोटी खाने की स्थिति नहीं आती थी। यदि तरकारी-भाजी भी नहीं होती तो जंगल से कभी जंगली उत्पाद, जैसे—कवक (पिठया छतरी, चेंऊ), मशरूम, फूल, पत्तियाँ, छोटी-छोटी महीन कलियाँ, फर्न, बिच्छू घास और अनगिनत प्रकार की वनस्पतियों के केवल उन भागों को चुनकर लाती, जो पौष्टिक एवं स्वादिष्ट व्यंजन बनाने के लिए उपयोगी होते। इस बात का ध्यान वह अवश्य रखती कि पेड़-पौधों को कोई क्षति न पहुँचे।
मुझे याद है कि वह जितनी कठोर दिखती थी, उतनी ही कोमल एवं ममता की प्रतिमूर्ति थी। हम भूखे न रहें, हमें समय पर पौष्टिक एवं स्वादिष्ट भोजन मिल सके, इसके लिए वह नदी, नाले, पेड़, पर्वत, जंगल-बस्ती हर जगह जाकर, जो भी उससे बन पड़ता, वह करती। पिताजी दूर शहर में रहकर सेवा देते थे। वेतन भी कम था। महीने में मनीआॅर्डर भेजते थे, कभी समय पर नहीं मिला तो माँ को हमारे लिए सभी व्यवस्थाएँ करना, घर-गाँव में सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करना एक चुनौती से कम नहीं था। यह चुनौती हेमंत ऋतु में तो और विकट हो जाती थी। भारी हिमपात होने से जहाँ एक ओर रास्ते, सड़कें सभी बंद हो जाते थे, तो जंगली उत्पाद, जिनसे माँ व्यंजन एवं सब्जियाँ बनाती थी, वे भी दुर्लभ हो जाते थे। किंतु माँ दूरदर्शी और कुशल संसाधन प्रबंधक एवं योजनाकर्त्री भी थी। ग्रीष्म ऋतु में अनेक ऐसी फसलें बोने की योजना बनाकर वर्षा ऋतु आंरभ होने से पहले ही सभी खेतों, आँगन के हर कोने और कहीं भी एक इंच भूमि दिखती तो तरकारी एवं भाजी के बीज बो देती।
वर्षा ऋतु और शरद ऋतु में तो प्रचुर मात्रा में फसल एवं सब्जियाँ हो जाती थीं, किंतु शिशिर एवं हेमंत ऋतु के लिए व्यवस्था करना एक चुनौती ही थी। किंतु मुझे भलीभाँति याद है, मेरी माँ अनेक सब्जियों, दालों एवं उत्पादों का संग्रह करके कमी को प्रचुरता में परिवर्तित करने में सिद्धहस्त थी। पर्याप्त मात्रा में परवल (ककोड़े) वर्षा ऋतु से शरद ऋतु तक होते थे। इनको सुखाकर रखना, कुलथ (गहथ) भट्ट चौलाई, अरवी पर्याप्त मात्रा में उगाकर संग्रह करके रख लेतीं और हेमंत ऋतु में बर्फ गिरने पर इन सबसे स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर हमें बड़े प्यार से खिलाती थीं। ग्रीष्म ऋतु में चूलू का संग्रह करती, उनसे बीज निकालकर, छिलके और बीज सुखातीं। बीज से तेल निकालती और सूखे हुए छिलकों को गरम पानी में भिगोकर भूने हुए भट्ट, तिल एवं लहसुन से अत्यंत स्वादिष्ट चटनी बनाती थीं। चटनी के साथ गरम-गरम कुलथ से भरी हुई रोटी, ताजा मक्खन और मट्ठा हमारा न केवल प्रिय भोजन होता था, बल्कि यह विटामिन, प्रोटीन, फाइबर युक्त अत्यंत स्वादिष्ट पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक संतुलित आहार भी होता था।
माँ की पाककला, अतिथी सत्कार एवं व्यवहार-कुशलता के कारण गाँव वाले और सगे-संबंधी, अतिथियों से हमारे घर में सदैव चहल-पहल रहती थी। माँ हमेशा कहती थी कि भाग्यवान के घर में ही अतिथि आते हैं। अत: अपने लिए किसी चीज की कमी भी हो, किंतु अतिथि के लिए कमी नहीं होनी चाहिए। अतिथियों के प्रति आदर एवं सेवाभाव का पाठ माँ ने हमें पूर्ण दक्षता से पढ़ाया था, जो हमारे स्वाभिमानी, ईमानदारी एवं संस्कार की एक अभिन्न विशेषता बन गई। माँ अत्यंत स्वाभिमानी, ईमानदार एवं बुद्धिमती थीं। वह व्यावहारिक जीवन की हर समस्या, पहेली, चुनौती एवं गणित का ज्ञान रखती थी। आर्थिक संकट भी एक वास्तविकता थी। पिताजी मनीऑर्डर भेजते थे। दो सौ या तीन सौ रुपए प्रतिमाह से काम चल जाता था। माँ उधार लेने से बचती थीं। एक बार मनीऑर्डर तो पिताजी ने भेजा, किंतु पोस्ट ऑफिस में मनीऑर्डर सही समय पर आने के बाद भी केवल इसलिए देरी से दिया गया, ताकि माँ उधार लेने को बाध्य हो जाए। ऐसा ही हुआ, माँ अपने बच्चों का शिक्षण शुल्क और अन्य आवश्यकताओं के लिए बचाए गए धन को व्यय न करके राशन उधार ले आई। केवल २४ रुपए का उधार लिया था और उधार लेने के दो दिन बाद ही चालाक एवं शोषणकर्ता लाला ने जो पोस्टमास्टर भी था, बहुत ही खेद व्यक्त करते हुए कहा कि मनीऑर्डर आ गया था, किंतु मैं देना भूल गया। फिर २४ रुपए उधार काटकर १७६ रुपए वापस दे दिए। किंतु अगले माह जब मनीऑर्डर आया तो पुन: २४ रुपए काट लिये यह कहते हुए कि पिछले महीने का उधार नहीं जमा किया था। माँ ने बहुत याद दिलाया, पर बेईमान लाला कतई नहीं माना। फिर अपने किसी विश्वासपात्र से बोला कि मैंने ऐसा इसलिए किया कि यह महिला बहुत स्वाभिमानी एवं चतुर है और कभी उधार नहीं लेती है, जबकि ऐसा कोई नहीं है, जो मेरे यहाँ से उधार नहीं लेता हो। अत: इसको सबक सिखाने के लिए ही मैंने ऐसा किया। माँ ने अनेक बार लाला के द्वारा घटटौली (कम तौलने) का भी सामना किया, किंतु इसका भेद खोलना नहीं भूली।
माँ के अंत:करण की पवित्रता उसे प्रत्येक अनुचित कार्य, झूठ और अनैतिक बात का सामने से विरोध करने का साहस देती थी। ऐसे अनेक संस्मरण आज भी मुझे भलीभाँति याद हैं। हम जब भी परीक्षा के लिए जाते तो माँ हमें शुभाशीष तो देती, पर यह नेक सलाह भी देती कि परीक्षा में नकल न करें और पूरी लगन से परीक्षा दें। माँ को जितनी प्रसन्नता मेरी सफलता से होती, उतनी ही हर बच्चे की सफलता से होती। किंतु कुछ बच्चे गणित में असफल हो गए। माँ ने मुझे आदेश दिया कि मैं उन्हें गणित पढ़ाऊँ। मैंने एक घंटा समय निकालकर उन्हें गणित पढ़ाने का उत्तरदायित्व माँ के आदेशानुसार पूर्ण किया। गाँव में कुछ बुजुर्ग थे, जिनके लिए पानी लाना, लकड़ी की व्यवस्था करना, दुकान से उनकी आवश्यकता की छोटी-मोटी वस्तुएँ खरीदकर लाना, ये सबकुछ माँ के बताए हुए काम मुझे करने ही होते थे। माँ को बहुत अच्छा लगता था, जब ये सभी लोग बदले में मुझे शुभाशीष देते थे। जब मैं विद्यालय और प्रदेश स्तर पर उत्कृष्ट परीक्षाफल लाने में सफल रहा तो माँ ने तुरंत कहा कि देख, तुझे जो बुजुर्गों का आशीर्वाद मिला, उसके कारण ही तो उत्कृष्ट श्रेणी में सफल हुआ है। आज भी मैं मानता हूँ कि मेरी सफलता का कारण मेरी माँ, उसके संस्कार और उन सभी वयोवृद्धों का आशीर्वाद है, जिनकी मैं आवश्यकता होने पर माँ के आदेशानुसार कुछ सहायता कर पाता था।
माँ के धैर्य एवं सहनशीलता के वैसे तो अनेक दृष्टांत हैं, किंतु यहाँ मैं उसके जीवन के कटुतम दृष्टांत का उल्लेख करूँगा, जो मेरे जीवन की धारा को परवर्तित करने वाला सिद्ध हुआ। मेरे होनहार एवं कुशाग्र बुद्धि बड़े भाई की दुर्भाग्यवश युवावस्था की दहलीज पर ही अकाल मृत्यु हो गई। दु:ख का असह्य आघात एवं वज्रपात पूरे परिवार के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी लेकर आया। पिताजी तो पूरी तरह टूट ही गए, शहर की अच्छी-भली सेवा को तिलांजलि दे दी और विक्षिप्त जैसे हो गए, पर यह दु:ख माँ के लिए सर्वाधिक असह्य था। किंतु इस कठिन घड़ी में माँ ने अपने सीने में पहाड़ जैसे दु:ख को दफन करते हुए परिवार को बिखरने से बचाने का काम किया। शक्ति स्वरूपा माँ ने बच्चों एवं पिताजी को संबल दिया, अकेले में अश्रुधारा प्रवाहित करती, मगर कर्तव्य के लिए धैर्य एवं सहनशीलता का आवरण लिये उठ खड़ी हो जाती। बड़े भाई की कुशाग्र बुद्धि एवं अव्वल श्रेणी में सफलता के कुछ लक्षण मुझमें दिखने लगे तो पिताजी बड़े चिंतित हो उठे, उन्हें लगता था कि कहीं मैं भी एक दिन भाई की तरह उनसे अलग न हो जाऊँ। इसलिए वे मुझे अधिक पढ़ाई न करने देने का निश्चय कर मुझे पढ़ने से रोकते। मगर माँ मुझे प्रोत्साहित करती, पिताजी को समझाती और हरसंभव मेरे अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करती। जब गाँव के विद्यालय से उत्कृष्ट श्रेणी में पढ़ाई संपन्न करने के पश्चात् उच्च शिक्षा हेतु शहर आने की योजना बनी तो पिताजी किसी भी स्थिति में मुझे अपने से दूर नहीं भेजना चाहते थे। बहुत प्रयास किया रोकने का, किंतु माँ ने मुझे प्रोत्साहित ही नहीं अपितु पिताजी को ढाढ़स बँधाया और मुझे उच्च शिक्षा के लिए बिछड़ने का दु:ख सहते हुए सहर्ष शहर भेजा, मेरी शिक्षा के लिए अपने आभूषण तक बेच डाले। जी-तोड़ मेहनत कर मुझे दृढ़ संकल्प के साथ उच्च शिक्षा अर्जित करने का मार्ग प्रशस्त किया। इतना त्याग एक माँ ही कर सकती है।
माँ अपने जीवन के अनुभव, अध्यात्म और भक्ति की शक्ति से अपने भविष्य के बारे में कुछ बातें करती थीं, जो मुझे व्यग्र एवं उद्विग्न कर देती थीं। वह कहती थी कि वह पिताजी से पहले ही इस संसार से एक सुहागन के रूप में विदा लेगी। एक बार पिताजी मरणासन्न स्थिति में थे, उनका उपचार शहर के एक चिकित्सालय में चल रहा था। माँ को मैंने दूरभाष पर बताया कि डॉक्टर उम्मीद छोड़ चुके हैं और मुझे भी लगता है कि अब पिताजी का जीवन पूर्ण होने को है। किंतु माँ ने बड़े विश्वास एवं दृढ़तापूर्वक कहा कि ऐसा कदापि नहीं होगा, पिताजी का जीवन शेष है, वे स्वस्थ होंगे और उनसे पहले तो मैं ही जाऊँगी। माँ की बात सच हुई, पिताजी स्वस्थ होकर सात वर्ष और जीवित रहे। माँ का आग्रह था कि अच्छा घर बनाना चाहिए, किंतु पिताजी कहते थे कि घर गाँव में नहीं, शहर में बनाना चाहिए। मैंने पिताजी से कहा कि घर शहर में बनेगा तो क्या वे वहाँ रहेंगे? किंतु उन्होंने कहा कि वे गाँव छोड़कर कदापि शहर नहीं जाएँगे। यहाँ भी माँ ने मार्ग प्रशस्त किया और गाँव में पुराने घर की जगह आधुनिक सुविधा-संपन्न घर बन गया। घर बनने के बाद पिताजी फिर अस्वस्थ हुए। मुझे लगा कि आयु भी अधिक हो गई है और अब संभवत: पिताजी का साया सिर से उठने वाला है। पुन: माताजी ने कहा कि वह अपनी बात पर कायम है और अभी भी पिताजी हमारे साथ रहेंगे। किंतु माताजी बार-बार आग्रह करने लगीं कि नए घर में नवरात्रि का व्रत एवं पूजन करना है। एक-दो वर्ष तक व्यस्तता के कारण मैं ऐसा आयोजन नहीं कर पाया तो माँ ने मुझे आदेश दिया कि अब प्रतीक्षा समाप्त हुई। चैत्र मास की नवरात्रि में पूजन करना ही होगा।
मैं चाहता था कि शारदीय नवरात्रि में पूजा करें, किंतु माँ का आदेश था कि अब प्रतीक्षा नहीं कर सकते। मैं अब जल्दी ही तुम सबसे विदा ले लूँगी। वह कहती थी कि तुमने मेरी बहुत सेवा की है और अंतिम समय में वह हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देगी। पानी का एक घूँट भी नहीं माँगेगी। मुझे बुरा लगता था तो मैं गुस्सा होकर माँ को कहता कि ऐसी अशुभ बातें मत बोलो, आपको अभी कुछ नहीं होगा। माँ ने फिर कभी मुझसे तो ऐसी बातें नहीं की, किंतु और लोगों से वह अपनी बात कहती थीं। खैर, माँ की इच्छानुसार चैत्र नवरात्रि में देवी माँ का विधिवत् पूजन किया गया। नवरात्रि के अंतिम दिन पूजन एवं हवन संपन्न हुआ। सगे-संबंधी, रिश्तेदार सभी को आमंत्रित किया गया। प्रसाद एवं भोजन की बड़े स्तर पर व्यवस्था की गई। माँ हवन में पूरे समय रही। गाँव में पुरातन शिव मंदिर में दर्शन हेतु गए। माँ पैर की तकलीफ के बावजूद मंदिर गईं। सभी मेहमान विदा हो गए। मैं भी अपनी धर्मपत्नी और बच्चों के साथ पुन: अपने कार्यस्थल पर पहुँच गया। लगभग ३६ वर्ष बाद पहली बार माँ के साथ दस दिन रहने का सुखद अनुभव हुआ, किंतु किसको पता था कि यह माँ के साथ रहने का मेरा अंतिम अवसर था।
मेरे जाने के ठीक तीन दिन पश्चात् प्रात: ६ बजे मैं भ्रमण हेतु निकला ही था कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी। गाँव से चचेरे भाई ने फोन पर कहा कि भाई साहब, चाचीजी का स्वास्थ अत्यंत चिंताजनक है, आप तुरंत घर आइए। मैंने कहा कि यदि ऐसी स्थिति है तो तुरंत उन्हें शहर ले आओ। गाँव से शहर दो घंटे में पहुँच जाओगे। मैं चिकित्सक से बात करता हूँ और सीधे वहीं पहुँचता हूँ। माँ को उपचार मिलने में विलंब करना ठीक नहीं है। मुझे गाँव पहुँचने में चार घंटे लगने वाले हैं। किंतु पुन: घंटी बजी, इस बार गाँव का एक भतीजा बात कर रहा था। उसने आग्रह किया कि मुझे अविलंब गाँव ही पहुँचना है, अब मुझे माँ की चिंता हुई, किंतु मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि माँ दो दिन पहले बहुत प्रसन्न थी, स्वस्थ थी तो अचानक उसको क्या हो गया। तुरंत धर्मपत्नी के साथ अपनी गाड़ी लेकर निकला ही था कि फिर लगातार फोन आने लगे और यह स्पष्ट हो गया कि माँ हमें छोड़कर जा चुकी है। घर पहुँचकर देखा तो शोक संतप्त पिताजी, दोनों बहिनें और गाँव के लोग रो रहे थे। दीदी ने बताया कि माँ रात को बहुत खुश थी। उसने पहले दिन लगभग बीस वर्ष के बाद तीन समय का भोजन किया। मक्खन खाना वह बहुत पहले छोड़ चुकी थीं, किंतु उस दिन आग्रहपूर्वक मक्खन के साथ रोटी खाई। प्रात:काल उठकर नित्यकर्म के पश्चात् ईश्वर का ध्यान करते हुए दीप प्रज्वलित किया, दीदी ने चाय पीने को दी तो यह कहते हुए कि अभी पीती हूँ, अचानक उठकर दस कदम जाकर वासवेसिन में उल्टी करने का प्रयास किया, किंतु उल्टी हुई नहीं। लड़खड़ाने लगीं तो दीदी सहारा देकर बिस्तर पर लाई, छोटी बहिन गरम पानी पीने को दे रही थी, किंतु दीदी की गोद में सिर रखकर कहा कि बस मैं जा रही हूँ। यह सब दो-तीन मिनट के अंतराल में घटित हुआ। न चाय पी, न पानी और अपना वचन निभाते हुए अंतिम यात्रा पर निकल पड़ी।
मैं एकदम ठगा सा रह गया, मुझे नहीं लगता था कि ऐसा होगा। मैं सोचता था कि माँ के अंतिम समय में उसकी खूब सेवा करूँगा, उसके साथ रहूँगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। जब पंडितजी ने नवरात्रि में पूजन किया था, उन्होंने मुझे बताया कि पूजा संपन्न होने पर माँ ने कहा था कि यह उनका अंतिम पूजन है और अब वे तुरंत संसार से विदा लेंगी। मुझे बुरा न लगे, इसलिए उसने पंडित से वचन लिया कि अभी मुझे न बताए। मेरे रिश्तेदार सांत्वना देने आए तो ससुरजी ने भी कहा कि वे उन्हें भी यही बोलकर विदा कर रही थीं कि बस यह अंतिम भेंट है। माँ का जीवन, आचरण की शुद्धता, भक्ति, अध्यात्म एवं सभी के कल्याण की भावना के कारण वे अपने अंतिम समय में बिना कष्ट दिए और कष्ट सहे इस संसार से वैकुंठ सिधार गईं। सभी कह रहे थे कि ऐसी मौत सभी को मिले। पिताजी उनके जाने के १५ महीने बाद विदा हुए।
मैं इस संस्मरण के माध्यम से सभी पाठकों से माँ की महिमा का छोटा सा वृत्तांत पढ़ने एवं समझने की अपेक्षा इस भाव से रखता हूँ कि माँ जीवन की गंगोत्तरी तो है ही, जीवन को सँवारने वाली भी होती है। अत: प्रत्येक को माँ के त्याग, समर्पण, संस्कार एवं सम्मान का हर स्थिति में आदर करना ही चाहिए। माँ के जाने के बाद मैं अपने को सदैव असहाय महसूस करता हूँ, किंतु उनकी शिक्षा और संघर्षपूर्ण जीवन मुझे निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। मेरी माँ धन्य है और ऐसी माँ पाकर मैं भी धन्य हूँ। क्या मेरी माँ मुझे पुन: मिल पाएगी।
माँ की कहानी सुनकर पत्नी की आँखें भी नम हो आईं और वह बोली, आप भी धन्य हैं, जो इस उम्र में भी अपनी माँ को फिर से पाना चाहते हैं।
निदेशक,
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्,
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