जोड़-तोड़ की यात्रा

जोड़-तोड़ की यात्रा

अपनी-अपनी प्रभु-प्रदत्त प्रतिभा है। कुछ कलाकार होते हैं, हुसैन ऐसे चित्रकार या भारत रत्न स्वर कोकिला लताजी ऐसे। ऐसों की प्रेरणा का स्रोत भले परिवार हो, पर कला की महारत उनकी स्वयं की होती है। न कोई सोच सकता है, न कह सकता है कि संगीत की साधना किसी और या अन्य की रही हो और उसके बल पर लताजी प्रसिद्ध हो गईं। कला का क्षेत्र एक ऐसा अनूठा क्षेत्र है, जिसके फलस्वरूप आदमी अपनी शैली से संस्था बन जाता है, जैसे लताजी के हर भाव की अदायगी की कुशलता या हुसैन के घोड़ों के चित्र। कोई माने न माने, भारत अजूबों का देश है। यहाँ तंत्र-मंत्र, संत, महंत से इतर अहिंसा के प्रवर्तक युग-पुरुष गांधी ऐसे महात्मा भी होते हैं और प्रजातंत्र की परंपरा में सामंती अवशेष के परिवारवादी भी।

इनकी इकलौती उपलब्धि एक वास्तविक और जाने-माने जनसेवक के घर में जन्म की दुघर्टना है। एक बार गौरवशाली पिता के घर पैदा हो गए तो पढ़ाई-डिग्री का ढोंग भले कर लें, उनको रास सिर्फ एक नौकरी आती है, वह है जनसेवा की। दूसरी ओर प्रचार-तंत्र सिर्फ इस तथ्य का िढंढोरा मात्र पीटते हैं कि वे इतने कुशल थे, किसी भी क्षेत्र में सफल रहते। यों वह अपनी सीमाओं से परिचित हैं। वह बखूबी जानते हैं कि उनकी नौकरी भी बाबूजी की कृपा और सिफारिश से लगी थी। उस देशसेवक परिवार का सदस्य होना भी अपने आप में सफलता की एक-दो सीढ़ी चढ़ने जैसा है। कोई राजदूत बना, कोई राज्यपाल तो कोई यू.एन. के डेलीगेशन का सदस्य। सामाजिक सम्मान का तो कहना ही क्या? उस ‘सरनेम’ को सुनते ही लोगों के कान खड़े हो जाते, यह जरूर कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है। ऐसा आदर-सम्मान किसी दूसरे परिवार को मिलने की कल्पना तक कठिन है। फिर भी प्रकृति का नियम है, मानवीय विकास का भी एक चक्र होता है। एकाध पीढ़ी के विकास के बाद उसकी गति धीमी पड़ जाती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी रुक भी जाती है। सच भी है। आखिर कामयाबी के शिखर पर कोई हमेशा कैस बना रहे?

हमें कभी-कभी लगता है कि वर्तमान में यह अतीत का प्रसिद्ध परिवार उसी दौर से गुजर रह है। तभी तो न खानदानी युवराज की चल रही है, न पूर्व प्रधानमंत्री की तरह दिखनेवाली उनकी बहन की। भले भीड़ उमड़ती है, उनका नाम सुनकर, पर यह वोटरों की न होकर नित नए-नए मनोरंजन के शौकीनों की है। आज युवराज ‘वर्तमान प्रधानमंत्री’ की क्या कहकर और कैसे आलोचना करेगा? राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर क्या-क्या नए और विस्मयकारी आरोप लगाएगा? ऐसी बातें सुनने को उत्सुक जनता हर वाक्य पर ताली बजा-बजाकर उसका उत्साहवर्धन करती है कि ‘लगे रहो मुन्नाभाई, निंदा में लगे रहो।’ उनका आशय है कि ‘वोट में हों न हों, पर ऐसी हर रोचक चोट में हम तुम्हारे साथ हैं।’ आलोचना में सच, हो-न-हो पर महत्ता मनोरंजन की है, वह खूब है। तालियों की गड़गड़ाहट, नेता के लिए प्रेरक है और चमचों के लिए उत्तेजक।

इनमें कुछ चमचे खानदानी हैं, उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चमचागीरी के माध्यम से ही सफल रही है। कुछ नए जो हैं, वह ‘पानदानी’ हैं। पान का फैशन चल बसा। वह क्या करते? पीक की आदत पड़ी है। वह प्रशंसा की पीक करने लगे। उनका अनुभव है कि इसमें फायदा-ही-फायदा है। उस पीक से कमीज-कुरते पर दाग लगते, कभी दूसरे पर छींटे पड़ें तो मार-पीट अलग। प्रशंसा की पीक प्रभावशाली है। पात्र पर जितने छीटें पड़ें, वह उतना खुश है। क्या पता, कभी काई पद दे दे, किसी कमेटी में रख दे। बस उन्हें एक ही राग-दरबारी अलापना है, “जनता आपके साथ है, वरना इतने प्रशंसकों की भीड़ क्यों आती?” यह राग-दरबारी अनंतकाल से बड़ों की कमजोरी रही है और आज भी है, क्या पता कल भी हो? बड़े गुण-ग्राहक हैं। उनके कानों की खासियत है, वह जनता की शिकायतें सुनें न सुनें, पर उनके चेहरे की स्थायी मुद्रा से लगता है कि वह दूसरों के दुःख-दर्द से आक्रांत हैं। इसी अभिनय-कुशलता ने उन्हें नेता बनाया है। दूसरों का दुःख-दर्द सुन-सोच के पीड़‌ित मुख-मुद्रा उनके वास्तविक जनसेवक पुरखों की रहती थी। युवराज ने हू-ब-हू, उनकी नकल की है। यही उसकी महानता है, जो उसे जनसेवक बनाती है, वरना नेतागीरी की इस धूल-धक्कड़, तनाव, अनिश्‍चय, झूठ, फरेब, भ्रष्‍टाचार की जिंदगी में उसे कैसे रुचि हो?

पूरे प्रचार तंत्र ने उसे जननेता बनाने का अब तक असफल प्रयास किया है। यहाँ तक कि एक पिछड़े वर्ग के व्यक्ति के साथ रात्रिभोज का आयोजन भी हो चुका है। कहते हैं कि झोंपड़ी में शहर के पाँच सितारा होटल से दस-बारह व्यक्तियों का भोजन मँगाया गया। जनरेटर से नेता के हिस्से का बिस्तर ही क्यों, पूरी झोंपड़-पट्टी आलोकित और वातानुकूलित हुई कि युवराज को न खटमल डँसें, न मच्छर काटें। इन सब सावधानियों के वाबजूद युवराज सो न पाया और पूरे अगले दिन उलझन और उदासी से घिरा रहा, सिर्फ उन पलों के अलावा, जब कैमरा के सामने उसे मुसकराना पड़ता। उसके पुरखों ने दिन-रात जनसेवा की योजनाएँ बनाईं और उसके वाबजूद न गाँवों में बिजली है, न पेयजल का नल। मन-ही-मन उसे मायूसी हुई। वह पूरा-का-पूरा जीवन जन-कल्याण में झोंक दे, तब भी क्या उनके भौतिक स्तर में कुछ सुधार ला पाएगा? उसका संवेदनशील मन कुछ विचलित हो चला। इस सेवा के धंधे में क्या धरा है? उसे विश्‍वास हो गया कि उसके पिताजी ठीक ही कहते थे कि रुपया चले तो चवन्नी ही विकास यात्रा में लक्ष्य तक पहुँच पाती है? उसे संदेह हुआ कि कहीं यह चवन्नी पच्चीस पैसे की न होकर आठ-दस पैसे की तो नहीं है? देश की अधिसंख्य आबादी की दुर्दशा तो इसी तथ्य की साक्षी है? यह बदहाली सिर्फ गाँवों तक सीमित न रहकर शहरों तक व्याप्त है। शहरों में कौन खुशहाली का बसंत है, वहाँ भी पीड़ा का पतझर है। रेल का प्लेटफॉर्म हो या अस्पतालों का परची बनाने का परिसर। दोनों को देखकर भ्रम होता है कि जैसे पूरा मुल्क सफर पर है। बस अंतर इतना है कि कुछ का ज्ञात सफर आस-पास का है, कब अनंत का बने, यह किसी को नहीं पता है? जो सब जानते हैं, वह केवल इतना है कि छोटे-बड़े, अधेड़, बूढ़े सब सफर पर हैं, इसका अंत एक प्रश्नचिह्न‍ है। कब समाधान और क्यों हो, ज्ञानी से ज्ञानी भविष्‍य-वक्ता तक इससे अवगत नहीं हैं।

पारिवारिक सामंती प्रजातंत्र के चिरयुवा युवराज को उसके सलाहकारों ने बताया है कि देश इस वक्‍त टूट के दौर से गुजर रहा है। कहीं अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की टूट है, कहीं संविधान की तो कहीं नियम-कानून की तो कहीं जाँच एजेंसियों की। उन्होंने दूरबीन लगाकर हफ्तों में इस टूट का दृश्य देखा है। टूट की इस व्यथा-कथा की वास्तवकि पर, तब कहीं जाकर उन्हें भरोसा हुआ है। जब तक चारपाई-विमर्श था, ऐसा न हुआ। वह तो पिछले आम चुनाव की हार के बाद से अब हर विरोधी दल को बस टूट नजर आ रही है। कुछ मुख्यमंत्री इतने चिंतित हैं कि एक-दूसरे से मंत्रणा में व्यस्त हैं? कैसे छिटके विरोधियों को एक करें? सबकी आला कुरसी की महत्त्वाकांक्षा है। जैसे वास्कोडिगामा ने दुघर्टनावश, भारत की खोज की थी, वैसे ही विरोधी दलों ने यह अहम खोज की है कि आला कुरसी की हसरत एकता के आड़े आती है। इसीलिए त्याग का मुखौटा लगाकर एक मुख्यमंत्री ने तो यहाँ तक सार्वजनिक घोषणा की है, कि वह सिर्फ सत्ता दल को हराने के इच्छुक हैं, विपक्षी एकता में उनकी रुचि है, आला पद में नहीं। यह किसे आभास नहीं है कि गजदंती आदर्श केवल दर्शनीय हैं, सुनने-सुनाने के लिए हैं, अमल हेतु नहीं। उनके कट्टर समर्थक भी इस मत के हैं कि वह विरोधाभासों के कुतुबमीनार हैं, कुछ तो भी बोलना उनकी आदत है। स्वभाव है। कम्बख्त जुबान कब क्या बक दे, इस पर न उनका वश न नियंत्रण।

युवराज को विपक्षी एकता की इतनी चिंता नहीं है, जितनी मुल्क में संक्रामक रोग की तरह फैल रही टूट की। एक बार इस टूट ने जड़ें जमा लीं तो देश के भविष्‍य का क्या होगा? कितने विभाजन होंगे? कितने पाकिस्तान बनेंगे जैसे एक बँटवारा ही काफी नहीं है? वह देश की अस्मिता, एकता, अखंडता को लेकर अंतर्द्वंद्व से ग्रसित हैं। उसके एक युवा सलाहकार सूचित करते हैं कि उसी की पार्टी में इधर तोड़-फोड़ का वातावरण है। कुछ पुराने निष्‍ठावान नेता पलायन में लगे हैं, कुछ अंदर-ही-अंदर साजिश-षड्‍‍यंत्र में। सलाहकार को ताज्जुब है। युवराज के चेहरे पर न आश्‍चर्य का भाव है, न किसी शॉक का। उससे वह मुसकराकर कहता है, “जानेवाले को कौन रोक पाया है? हमने उनके लिए इतना किया, मंत्री बनाया, मुख्यमंत्री का पद दिया, कभी इस सूबे का प्रभारी बनाया, कभी किसी और का। फिर भी वह संतुष्‍ट नहीं है, उनके मुँह में सत्ता का खून लग गया है। इसके आगे सब उसूल व्यर्थ हैं। अब उन्हें सत्ता दल से आस है कि वह उन्हें पद देगा। दल छोड़ के वह कद तो गँवा चुके हैं, जनता की नजरों में। देखें, ऐसे भगौड़े बौने क्या उपलब्धि हासिल कर पाएँगे, अपने चुने दल में?” दरअसल, युवराज की दुनिया दिवास्वप्न की है। उन्हें भ्रम है कि सत्ता दल का बड़का नेता न उनसे आँख मिला पाता है, न उनके प्रश्‍नों का उत्तर देने में समर्थ है। सत्ता दल का पूरा कारोबार ढोंग, झूठ और नफरत का है। जनता ने उसे सिर चढ़ाया हुआ है, क्योंकि वह डींगे हाँकने का विशेषज्ञ है। युवराज जो कहते हैं, वह करते हैं, इसीलिए जनता के समक्ष वह असत्य के इस असुर की कलई खोलने में लगे हैं। दीगर है कि अब तक वह असफल हैं। जनता उन्हें गंभीरता से नहीं लेती है। कौन कहे, अपना मिशन पोल खेल को अधूरा छोड़के वह कब विदेश सिधारें?

जब अचानक उन्होंने दक्षिण भारत में एकता-यात्रा निकाली तो एक पल को जनता को लगा कि कहीं यह अपने दल को जोड़ने के लक्ष्य में तो नहीं लगे हैं? यह सच तो बाद में उजागर हुआ कि यह टूट की नफरत के गरल को दूर करने उपनी अमृत वाणी के मरहम का उपयोग करने का प्रयत्न है।

ऐसी यात्रा की भारत में काफी लंबी और पुरानी परंपरा है। गांधीजी ने अंग्रेजों के नमक-कर के विरुद्ध साबरमती आश्रम से नवसादी गाँव के तटवर्ती इलाके तक तीन सौ पचासी किलोमीटर की यात्रा निकाली। यात्रा के दौरान अनुयायियों की संख्या हजारों में तब्दील हो गई। यह डांडी अहिंसक आंदोलन पूरे देश में फैल चुका था और अंग्रेजों के विरुद्ध असहयोग का एक कारगर अस्त्र सिद्ध हुआ। नमक-कर तो चालू रहा, पर सैकड़ों गिरफ्तारियों के पश्‍चात् अंग्रेज सरकार लंदन में इस पर गोलमेज काॅन्फ्रेंस के दौरान पुनर्विचार को सहमत हो गई। गांधी की गिरफ्तारी के पश्‍चात् इस आंदोलन की कमान श्रीमती सरोजनी नायडू ने सँभाली। आजादी के बाद वह उत्तर प्रदेश की गवर्नर भी रहीं। इसके अलावा उत्तर से लेकर दक्षिण तक धार्मिक यात्राएँ भी देश की एकता में सहायक सिद्ध होती हैं। इसके कारण वह ज्योतिर्मय धार्मिक सिद्धपीठ है, जो भारत के चारों सुदूर कोनों में स्थित हैं, जैसे—नासिक, रामेश्‍वरम्, उज्जैन और अमरनाथ आदि। युवराज की यात्रा की सीमा है। यह सिर्फ दक्षिण भारत तक सीमित हैं, महाराष्‍ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल वगैरह में फिलहाल उनका यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं है। यों युवराज के सलाहकारों की मान्यता है कि इस दुर्गम पैदल यात्रा का असर गांधीजी के नमक, सत्याग्रह से कम होने की गुंजाइश कम है। वह उनकी पदयात्रा के क्षेत्र में तो हो ही रही है, वहाँ भी होगा, जहाँ वह जा पाए हैं।

उनका दृढ़ विचार है कि समय के साथ इसका व्यापक प्रभाव पूरे देश पर पड़ेगा। यह भी संभव है कि युवराज चुनाव के पूर्व पूरे भारत की यात्रा का प्रारंभ करें? यह संभावित है कि अगले चुनाव के पूर्व नफरत का जहर मिटाने के लिए यह अनिवार्य भी है? यों देखने में आया है कि कुछ ऐसे महापुरुष भी हैं, जो महानता के मुगालते में रहते अपना पूरा जीवन होम कर देते हैं। जरूरी नहीं कि यह रोग सिर्फ नेताओं का एकाधिकार हो। इसमें हर क्षेत्र के व्यक्ति शामिल हैं। इनमें डॉक्टर, प्रशासक, सरकारी सेवक से लेकर कुछ लेखक तक भी हैं। इतना ही नहीं, यह सब ‘मुगालता-महासभा’ के सम्मानित सदस्य हैं। जैसे कोरोना ने नाम बदल-बदलकर पूरे देश को धर दबोचा, उसी प्रकार इस रोग ने भी महानगर से लेकर, छोटे शहर तक किसी को भी नहीं बख्शा है। ‘रौंदू’ शक्ल के तथाकथित ‘मुस्कान मैन’ से लेकर नुक्कड़ के महाकवि, उबाऊ कहानीकार वगैरह-वगैरह एक किस्म के स्वघोषित साहित्यकार, सब इस की शोभा बढ़ाने को कटिबद्ध हैं। कुछ स्थानीय अखबार भी जैसे ‘दैनिक धनुष बाण’ से लेकर ‘महावीर महाभीम’ तक छपाईखाने का रोजमर्रा का शृंगार हैं। कुछ महानुभावों को तो इस बात का गर्व है कि उन्हें खाँसी भी आती है तो उन के खबर बनने से फर्क क्या पड़ता है। वह सुविधानुसार भूलते हैं कि इन अखबारों के अस्तित्व तक से बहुसंख्यक पढ़े-लिखे परिचित तक नहीं हैं तो वह खबर बनते हैं? खैर, उन्हें भी शहर के बाहर कौन जानता है? यों कहने को वह दिल्ली, मुंबई तक अपनी कीर्ति-गाथा का झंडा गाड़ आए हैं। इतना ही क्यों, पूरा हिंदीक्षेत्र उनके सम्मान में नत है। मुगालते के मर्ज के ढेरों शिकार हैं। महानगर से लेकर छोटे-छोटे कस्बों के शहर तक।

भारत एकता यात्रा के कुछ प्रखर और मुखर आलोचक भी हैं। उनका आरोप है कि सैकड़ों वर्ष पुरानी देश की एकता में कौन सी ऐसी टूट-फूट नजर आ रही है कि इसे जोड़ने के लिए यात्रा आयोजित की जाए? यह क्या कोई काँच का जार है, जो किसी के गिराने से टुकड़े-टुकड़े हो गया है? कहीं यह नेता के समर्थक कलम घ‌िस्सुओं का प्रचारित बौद्ध‌िक फितूर तो नहीं है? गांधी की डांडी-यात्रा अंग्रेजों के लगाए नमक-कर के विरुद्ध थी। अास्तिकों की धार्मिक यात्रा की प्रेरणा उनकी आस्था का परिणाम है। इन यात्राओं का उद्देश्‍य, आकाश में उभरे इंद्रधनुष सा है, जो सबको नजर आता है। एकता यात्रा क्या जोड़ने निकली है? सामाजिक ताना-बाना तो वैसा का वैसा है। न अल्पसंख्यकों में तनाव दिखता है न बहुसंख्यकों में कोई आक्रामक प्रवृत्ति। आतंक की दुघर्टनाएँ जस-की-तस हैं। उनके बदस्तूर गुनाहगार पुलिस द्वारा, बिना किसी पूर्वग्रह, गिरफ्तार होकर जेल जाते और सजा पाते हैं। यदि निर्दोष हुए तो बरी भी हो जाते हैं। मसजिदें, मंदिर और चर्च, गुरुद्वार

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