पीछा करता हुआ पर्वत

जाने इस पेड़ को क्या कहते हैं! छतरी-सा है यह। मेरा सिर इसकी छाया में है और बाकी जिस्म धूप में। कितनी अच्छी लगती है आजकल की यह धूप और तब जब सिर पर छतरी की छाया हो। ऐसा लगता है, माघ के कठिन जाड़े में आदमी गरम पानी में गोते लगा रहा हो। मेरी दृष्टि सामने के पर्वत-शिखर पर है—शायद यही जबरबन का पहाड़ है। बादल इससे लिपट-लिपट गया है, मानो कभी एक ओर से पर्वत का आलिंगन करता है, तो कभी दूसरी ओर से आकर इसे चूमता है। कभी इससे चिपक जाता है, कभी पीछे हटता है। बादल की इस बेकरारी से पर्वत पर धूप और छाया के अनेक चित्र बनते हैं। हर चित्र दूसरे से भिन्न है, पर मेरे लिए सभी अनजाने। दूर कोई ट्रांजिस्टर पर गाना सुन रहा है। धुन पहचानी-सी लगती है, पर गीत ठीक से याद नहीं आ रहा।

कहाँ चले गए भला वह दो व्यक्ति? दोनों मुझे अपने साथ यहाँ लाए थे और खुद जाने कहाँ चले गए! घुँघराले बालोंवाला वह दूसरा व्यक्ति वही तो नहीं, जिसने मुनिया से कहा था, “तेरे तिल ने मुझे मार डाला।” मैंने मुनिया से पूछा था, “वह कौन था, री?” उसने जवाब दिया था, “आपके किसी मित्र के साथ हुआ करता है।” किस मित्र के साथ—यह वह बतला नहीं सकी। क्यों न इसी से पूछूँ—भाई, तू कौन है? वह कहेगा मैं हूँ ‘क’ या ‘ख’, तब उसके बाद? क्यों न सीधे-सीधे पूछ लूँ—‘तूने ही तो नहीं कहा था मुनिया से—‘तेरे तिल ने मुझे मार डाला?’ कहूँगा, भई डर मत, जा और उसके साथ कुछ फैसला कर ले और आकर मुझे भी बता दे। मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती है? मेरे कंधों से भी बोझ उतर जाएगा। पर एक बात बता दे—तुझे बस उसके मुख के तिल में ही आकर्षण महसूस हुआ था? उसकी चाल के बारे में तेरा क्या खयाल है? उसके सुघड़ अंगों के सौंदर्य में तू कभी नहीं खोया? दूध-सा गोरा उसका वक्षस्थल तूने कभी नहीं देखा? यही तो खामी है तुम आजकल के नौजवानों में। तुम सिर्फ चेहरा देखते हो। खैर, तब भी तू जाकर उससे बात कर ले।’

नीचे कोई इमारत बन रही है, शायद एक सरकारी होटल। बात अच्छी ही है। इसी को कहते हैं—प्रगति। बहुत से बेकारों को काम मिला होगा। इमारत बस यहीं खड़ी नहीं हो रही होगी, इसके साथ-साथ जवाहरनगर, राजबाग, बुछबोर, बुर्जुला वगैरह जगहों पर भी एक-एक, दो-दो मकान तामीर हो रहे होंगे। यहाँ इस पर एक ईंट पड़ती होगी तो उन जगहों पर भी आप-ही-आप एक-एक ईंट पड़ती होगी। आजकल तो टेक्नोलॉजी का जमाना है। यहाँ टेलीप्रिंटर की कुंजी दबाओ तो कलकत्ता या लंदन में आप-ही-आप कागज पर अक्षर टंकित हो जाएँगे।

पर्वत-शिखर के गिर्द बादल गहरा गए हैं। उस दिन आकाश पर बादल थे। गंगा का पानी मौज में छल-छल बहे जा रहा था। किनारे की बालू पर लँगड़े, लूले, कोढ़ी, स्त्रियाँ और पुरुष गीले चीथड़े या टाट लपेटे ठिठुर रहे थे। मैं घबरा गया और तत्काल वहाँ से भाग चला। किनारे के छोर पर कुछ सीढ़ियाँ थीं और उसके बाद एक सँकरी गली। गली में शायद किसी गौशाला की गायें घूम रही थीं। सब-की-सब स्वस्थ और शोभनीय। उनके गलों में छोटी-छोटी घंटियाँ थीं और उनके थन दूध से भरे-भरे।

परसों पंद्रह अगस्त था। सवेरे से ही लोगों में काफी उत्साह था। एक बजे के करीब अखबार आए और लोगों ने उन्हें झपट लिया। लेकिन बाद में सब निराश हो गए। सभी ने जेबों से लॉटरी के टिकट निकाले और उनकी चिंदियाँ बना डालीं। जिन नंबरों की लॉटरी निकली थी, वे उनके पास न थे। लेकिन इससे क्या हुआ? यही लोग अब नए टिकट खरीदेंगे और उनकी भी चिंदियाँ बन जाएँगी और उसके बाद, फिर नए टिकट...।

मैं मूर्ख था। मुनिया को इमली अधिक खाने से मना करता था। उसने यदि चोरी-छिपे इमली न खाई होती तो उस पर कोई घुँघराले बालोंवाला यों रीझ न जाता। तिल का तो बस एक बहाना है। वह ठोड़ी की नोक पर हो या भौंहों के बीच, क्या फर्क पड़ता है!

इंजेक्शन से पीड़ा जब कुछ कम हुई तो उसने दाएँ-बाएँ नजर घुमाई। सात-आठ जने उसकी चारपाई को घेरे बैठे थे। लड़कियों की आँखों से अश्रुधार बह रही थी और उनके बच्चे भौचक्के-से खड़े थे—सहमे-से। आखिर उसका पति उठा और उसके सिर पर हाथ रखकर बोला, “भगवान् का नाम लो। ‘राम-राम’ बोलो।” वह रो पड़ा और बोली, “डॉक्टर ने शायद जवाब दे दिया है। आप मेरे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, मगर मुझे सच बात नहीं बताते।” पति ने जवाब दिया, “पाँच मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि तुमने तो अपना सौदा निपटा लिया है, अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। ‘राम-राम’ बोलने में क्या हर्ज है? तुम्हारा जो भगवान् में इतना विश्वास रहा है—रोज घंटों पूजा-पाठ किया करती थी तुम। अच्छा रहेगा, भगवान् के ही चरणों की शरण गहो।”

“भगवान् जाए भाड़ में!” उसने माथा पीट डाला। “उस कमबख्त ने मुझे क्यों ऐसा रोग दे डाला? मैंने उनका क्या बिगाड़ा था? मैं उसका नाम नहीं लूँगी। ‘राम-राम’ नहीं बोलूँगी...।”

लाल इंपाला कार गेट से सीधे भीतर घुसी और हाॅल के सामने ठहर गई। ब्रेक लगते समय उसे गेंद की तरह दो-एक झटके लगे। वह कार से बाहर निकला। जो लोग वहाँ एकत्र थे, उन्होंने उसे सलाम किया। ​िस्त्रयों ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। मुसकराते हुए उसने उन सलामों और प्रणामों का उत्तर दिया। वह एक बड़ा साहित्यकार ही नहीं, एक सफल साहित्यकार भी था। देश भर के साहित्यकारों में सबसे अधिक नाम और जोरवाला। अभी कुछ काल पूर्व ही उसे साहित्य-सेवा के लिए थैली भेंट की गई थी। उसने ज्यों ही हॉल में प्रवेश किया, उसे फूलमालाएँ पहनाई गईं, लोग उठकर खड़े हुए। सभापति महोदय ने उसे गले से लगाया और लोगों ने जोर-जोर से तालियाँ बजाईं। इसके बाद उसने भाषण दिया। फरमाया कि साहित्यकारों को जनता के लिए साहित्य-रचना चाहिए—उन्हें चाहिए अपने लेखन में उसका प्रतिनिधित्व करें, गरीबों और मजलूमों की आवाज बनें, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खिलाफ दुनिया भर के मेहनतकश अवाम, जो जंग लड़ रहे हैं, उसके अदना से सिपाही बनें, जनता के लिए जिएँ और जनता के लिए मरें।

मैं शर्मिंदा हो गया। मेरी कनपटियाँ लाल हो गईं और मैं पसीने से भीग उठा। बेशर्मी भी सहो, मगर किस हद तक! सोचा, धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ!

बचपन में पिता मुझे एक दिन अपने साथ हारी पर्वत* ले गए थे। वहाँ एक बड़ी सी शिला पर सिंदूर पुता हुआ था। शिला क्या थी, वह तो एक छोटा-मोटा पहाड़ थी। चारों ओर उसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ फैली हुई थीं। पिता ने बतलाया—ये महागणपति हैं। मैंने दंडवत् किया। वहाँ काफी लोग थे। वे अाँखें मूँदे हुए स्तोत्र पाठ कर रहे थे और बीच-बीच में चिल्ला उठते थे—“हे महागणपति, हमें दर्शन न दो।” मैं घबरा उठा। साेचा, कहीं अगर सचमुच गणपति इनकी सुन लें तो क्या होगा? वह इन्हें दर्शन देंगे—यह शिला हिलेगी, अपनी शाखाओं, प्रशाखाओं सहित अँगड़ाई ले लेगी। जीवित हो उठेगी। यह देखकर मैं भयभीत तो नहीं हो जाऊँगा? लेकिन इन लोगों को इस प्रकार की कोई आशंका न थी—वे निश्चिंत थे कि गणपति दर्शन नहीं देंगे। पत्थर में प्राणों का संचार कभी नहीं होगा। तभी वे बिना किसी भय के विनती किए जा रहे थे।

तब से हारी पर्वत जाने की मेरी कभी हिम्मत न हुई। मेरे मन में जैसे यह बात जम गई थी कि इन लोगों की विनती व्यर्थ नहीं जाएगी। इनकी पुकार सुनकर महागणेश जरूर दर्शन देंगे। यह विराट् शिला अँगड़ाई ले उठेगी। मंदिर की छत और दीवारें ढह जाएँगी। ये लोग शायद बच भी जाएँ, पर मुझ जैसे आदमी पैरों तले रौंदे जाएँगे, कुचले जाएँगे।

घुँघराले बालवाले से अगर मुनिया का ब्याह तय हो जाए तो अच्छा है। न भी हुआ, तब भी क्या है! यह कोई हीरा-मोती जड़ा नहीं है। अपने लिए वह किसी और वर को ढूँढ़े। कश्मीर में ग्यारह ही घर बने हैं क्या?** घुँघराले बाल हों या ताँबे जैसी चाँद—उसे वह पसंद आना चाहिए। यों पसंद आना, न आना एक-सी बात है। उसके साथ वह निर्वाह कर सके, यह महत्त्वपूर्ण है। निर्वाह किए बिना कौन उपाय है? अन्यथा अपना ही सिर फूटता है।

कल अध्यापकों, विद्वानों और बुद्धिजीवियों की एक बैठक थी। काफी गरमागरमी और तेज-कलामी हुई। आखिर सेक्रेटरी बोला, “यह इल्जाम गलत है कि हमने रुपया खाया है। ऐसा प्रचार जानबूझकर किया जाता है, ताकि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लोगों में जो उत्साह पैदा हुआ है, वह ठंडा पड़ जाए। यह एक बहुत बड़ी साजिश है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि रुपया किसी ने नहीं खाया। अव्वल तो रुपए थे ही कहाँ? हरेक को पाँच-पाँच रुपए दिए गए थे। इस तरह से डेढ़ हजार रुपए हुए। मगर पिछली बार आप लोगों ने जो चाय पी थी, उसका भी हिसाब कुछ मालूम है? सुनिए—चीनी बीस किलो, दो रुपया प्रति किलो के हिसाब से—चालीस रुपए, कबाब तीन सौ प्लेट, डेढ़ रुपया प्रति प्लेट के हिसाब से साढ़े चार सौ रुपए, पकौड़े पचास किलो...।”

ताँगे पर पीछे बैठा, जब मैं जैनाकदल से हव्बाकदल आता हूँ, मेरी अजीब दशा हो जाती है। मेरे सामने मानो यही पर्वत आ जाता है। लगता है, मकानों और छतों के बीच से सिर उठाए, यह मेरा पीछा कर रहा है। मैं आगे-आगे चलता हूँ तो यह भी मेरे साथ चलता है। उतना ही तेज दौड़ता है, जितना यह ताँगा। जाने क्यों, मैं अपनी ओर से इससे दूर भागता हूँ, मगर यह मुझे छोड़ता नहीं...!

नरेंद्र ने कहा, “मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है।” मैं हैरान हुआ। वह बोला, “देखो भाई, यह अब साबित हो चुका है कि सिगरेट पीने से फेफड़ों में कैंसर हो जाता है। कौन चाहेगा उसके फेफड़ों में कैंसर हो जाए? कम-से-कम मैं तो नहीं। मैं मरना नहीं चाहता। मुझे जिंदगी प्यारी है।” लेकिन पंद्रह दिन बाद ही उसे पेट में दर्द हुआ और पाँच दिन अस्पताल में रहकर वह मर गया। किसी को पता भी न चला कि उसे हुआ क्या?

दिन शायद काफी चढ़ आया था और सूरज निकल चुका था। मेरे चेहरे पर धूप पड़ने लगी थी। मैं अँगड़ाई लेकर उठा और दूसरी ओर मुँह करके बैठ गया। सामने डल झील थी और उसके पार पर्वत। कहीं ट्रांजिस्टर पर एक दर्द भरा गाना चल रहा था। धुन मेरी पहचानी थी, पर गीत याद नहीं आ रहा था।

 

*श्रीनगर की एक प्रसिद्ध पहाड़ी, जिस पर अकबर ने किला बनाया था और जहाँ स्थित देवी के मंदिर को कश्मीर के हिंदू अत्यंत पवित्र मानते हैं।

**अफगानों के शासन-काल में कश्मीर में इतने हत्याकांड हुए कि जनश्रुति है, वहाँ केवल ग्यारह परिवार ही शेष बचे थे।

मूल  : हरिकृष्‍ण कौल

                                                    संपादक गौरीशंकर रैणा

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