महाराष्ट्र का सांस्कृतिक वैभव

महाराष्ट्र का सांस्कृतिक वैभव

विद्याकेशव चिटको: सुपरिचित लेखिका। पुणे विद्यापीठ, पुणे तथा यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र मुक्त विद्यापीठ एवं एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई की शोध निदेशक। राष्ट्रीय हिंदी अकादमी, कोलकाता की प्रवर समिति की सदस्या। साहित्य सरित हिंदी मंच, नासिक की उपाध्यक्षा एवं समरसता साहित्य परिषद् नासिक विभाग की अध्यक्षा। सेवानिवृत्त ‌हिंदी विभागाध्यक्ष, शोध निर्देशक, हिंदी अनुसंधान केंद्र, पुणे विद्यापीठ।

1 मई, वर्ष २०२३, यानी महाराष्‍ट्र का ६३वाँ वर्धापन दिवस।

१ मई, १९६० को प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के कर-कमलों से विदर्भ, मराठवाड़ा, कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र को समाविष्ट करते हुए ‘महाराष्ट्र राज्य’ की स्थापना की गई।

स्वामी रामानंद तीर्थ के जीवन में एक विलक्षण आनंद का क्षण। विधेयक की सर्व सम्मति से स्वीकृति होने पर पं. नेहरू स्वामीजी के पास आए और बोले, स्वामीजी! आप जीते मैं हारा। इन शब्दों को सुनकर स्वामीजी भाव-विह्व‍ल हो गए, आनंदाश्रु झरझर बहने लगे। अखंड महाराष्ट्र के लिए हजारों ज्ञात-अज्ञात महाराष्ट्रवासियों ने हजारों कष्ट सहे थे, अनंत यातनाएँ एवं लाठी-काठी के प्रहार सहे। अनेक के खून से इस भू की माटी लाल-लाल हो गई। मराठी भाषी प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह दिवस अत्युच्च आनंद का, साफल्य का, इच्छापूर्ति का दिवस एक स्वर्णिम ऐतिहासिक क्षण रहा।

महाराष्ट्र के शिल्पकार कुशल प्रशासक महाराष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के मन में वास करते लोकप्रिय नेता मान. यशवंत राव चव्हाणजी, जिनके योग्य उचित मार्गदर्शन में महाराष्ट्र राज्य के विकास की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की परिपूर्ति के लिए भावनिक एकात्मकता की सिद्ध‌ि हेतु प्रयत्न किया गया। उन्हीं के योग्य मार्गदर्शन और कार्य का परिणाम आज महाराष्ट्र एक संघ राज्य बना हुआ है। जिसके सर्वांगीण विकास हेतु आज हमारे मुख्यमंत्री मान. एकनाथजी शिंदे सक्रिय बने हुए हैं। मैं मनःपूर्वक उनका अभिनंदन करती हूँ।

पूर्व इतिहास

तीस अप्रैल की रात और एक मई मध्य रात्रि ठीक बारह बजे हमारे पूर्व प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने नव-निर्मित महाराष्ट्र का मानचित्र प्रकाशमान कर महाराष्ट्र राज्य का उद्घाटन किया। मुख्यमंत्री यशवंत राव चव्हाण और राज्यपाल श्रीप्रकाशजी बने।

सन् १९४६ में प्रसिद्ध साहित्यकार श्री ग.तं. माडखोलकर की अध्यक्षता में बेलगाँव में मराठी साहित्य सम्मेलन संपन्न हुआ था, जिसमें संयुक्त महाराष्ट्र की माँग का प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पारित किया गया और महाराष्ट्र की जनता ने एक भाषी मराठी राज्य होने का शंखनाद किया। तालियों की गड़गड़ाहट आकाश पाँच मिनट तक सुनता रहा। अभूतपूर्व अविस्मरणीय वह क्षण रहा, जिसके स्मरण मात्र से रग-रग में आनंद की हिलोरें उठने लगती हैं।

एक भाषी महाराष्ट्र की माँग का संदेश जन-मानस तक पहुँचाने के लिए प्रभात-फेरी एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम रहा। जिस प्रभात-फेरी में सेनापति बापट एवं संत गाडगे महाराज शामिल हुए थे। एस.एम. जोशी का संयमी नेतृत्व प्राप्त हुआ था। हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए थे। त्याग-निष्ठा स्वभाषा स्वदेश समर्पण की पुनीत गंगा में यह अवगाहन था।

आचार्य अत्रेजी ने अपनी प्रभावी ओघवती धाराप्रवाह शैली में व्याख्यान देकर, मराठी में लेख लिखकर संयुक्त महाराष्ट्र का संदेश पढ़-अनपढ़, गरीब-अमीर, शहरी-ग्रामीण, छोटा-बड़ा, निर्धन-अमीर, किसान-मजदूर, श्रमिक, स्त्री-पुरुष, अाबाल-वृद्ध सब तक पहुँचाया। नव-चेतना संचार का यह तीव्र स्वर था। भगवान् भास्कर की प्रखर किरणों से अमीर की हवेली और गरीब की झोंपड़ी प्रकाशमान थी।

श्री यशवंत रावजी चव्हाण की कार्य-निष्ठा ने एक मानक प्रस्थापित किया। उनके चरण-चिह्न‍ों का अनुसरण करते हुए श्री वसंतराव नाईक ने पूरे बारह बरस तक यह कर्तव्य-भार अपने कंधों पर सँभाले रखा। बोझ नहीं, योग कर्मसु कौशलम् भाव से। इस कालखंड में दो महायुद्ध और तीन बड़े अकाल और अवर्षण को टक्कर देते खेती के लिए कृषि विकास के लिए किसानों की पीठ पर हाथ धर उन्हें धीरज बँधाते रहे। कभी तो अच्छे दिन आएँगे ही। अहोरात्र काम में जुटे रहते। दिन देखा न रात, न धूप की परवाह की न आँधी-पानी की। पैरों तले के कंकड़, काँटे चुभने की कभी परवाह नहीं की। चरैवेति-चरैवेति, बस चलना ही है। आगे-आगे बढ़ना ही है, संकल्पों का पाथेय लेकर। महाराष्ट्र को अन्न के लिए स्वयंपूर्ण स्वावलंबी बनाने का काम श्री वसंतरावजी नाईक ने किया।

श्री शंकररावजी चव्हाण अनेक साल मुख्यमंत्री रहे। अनेक महत्त्वपूर्ण विभाग खेती, शिक्षा, उद्योग, आर्थिक क्षेत्र, विज्ञान और महत्त्वपूर्ण दुग्ध व्यवसाय में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। केंद्र में भी रहे। उनकी अतुलनीय सेवा का बखान करने के लिए हजार पन्ने भी कम पड़ेंगे। श्री शंकर रावजी महाराष्ट्र आपकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है। श्री वसंत दादा पाटील चार बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे। वे व्यक्ति नहीं, एक विशाल वटवृक्ष थे, उनके जीवन का लक्ष्य था परोपकाराय। सबके दादा बनकर अंतिम साँस तक सभी के काम को अपना काम समझ करते रहे। सच्चे सेवक, सच्चे कर्मव्रती।

६३वें महाराष्ट्र दिन की ध्वजा आकाश में फहराते हमारे मुख्यमंत्री माननीय श्री एकनाथजी शिंदे निष्ठावंत, प्रज्ञावंत, विचारवंत, कर्मपूजक। महाराष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए संकल्पी बने श्री एकनाथ शिंदेजी महत्त्वाकांक्षी हैं। महाराष्ट्र के विकास की शताधिक योजनाओं को पूर्ण करने का उन्होंने बीड़ा उठाया है। महाराष्ट्र के प्रत्येक जन की मंगलकामना, शुभेच्छा उनके साथ है। शुभं भवतु।

महाराष्ट्र की प्राकृतिक संपदा

महाराष्ट्र भूमि ‘सुंदरा’ के नाम से पहचानी जाती है। सह्य‍ाद्रि की पर्वत राशि और सतपुड़ा का वज्र मुकुट धारण करती यह पवित्र भूमि है महाराष्ट्र। कृष्णा, कोयना, गोदावरी के जल से भरी-पूरी समृद्धि-सौंदर्य की खान है। तुळजाभवानी, सप्तशृंगी शिखर, शिणगापुर का शिव, जेजुरी का खंडोबा, भीमाशंकर, त्र्यंबकेश्वर, ब्रह्म‍गिरी जनस्थान, नासिक का दंडकारण्य इसकी संपत्ति है, अमोल खजाना है। कुबेर की निधि है। सावळघाट, थळ घाट, अणे माळशेज घाट, नाणे घाट, बोरघाट वरंध घाट, आंवनेळरी घाट, रडतोंडी घाट, पार घाट, मेढा घाट, अंबाघाट, फोंडा घाट अंबोली घाट।

घाट घाट की यह शोभा सबको दिखलाती प्रेम बाट

नहीं यहाँ कोई बैरी सबको गले लगाते ऐसे हैं ये बारह घाट

नित नए त्योहार मनाते नित लगते हैं हाट।

पर्वतीय सौंदर्य जहाँ हजार-हजार वृक्षों की कतार और औषधीय जड़ी-बूटियों से भरापूरा पचगणी माथेरान ब्रह्म‍गिरि और महाबलेश्वर।

देख नहीं अघाता कोई प्यास सदा बनी रहती

सालों साल यहाँ लोग करते पंढरी ची वारी

नामा म्हणे मज विठठल सापडला जय हरी जय हरी जय विट्ठल।

विंध्याद्रि से दक्षिण दिशा में कृष्णा नदी से उत्तर की ओर झाड़ी मंगल से पश्चिम में महाराष्ट्र कोंकणपर्यंत महाराष्ट्र है। यहाँ का किसान खेत में फसल उगाता गाता है, ‘कांदा मूळा भाजी अवघी पंढरी विठाई।’ पर्वत की चढ़ाई वह चढ़ता है और ताल सुर में गाता है—

लसूण मिरची कोथिंबिर अवघा झाला माझा हरी

जय पांडुरंग हरी जय पांडुरंग हरी!

चक्रधर स्वामी गुजरात पदाक्रांत कर आए महाराष्ट्र में। इस भूमि के प्रेमपाश में इस कदर लिपट गए कि इसी को धर्मभूमि, कर्मभूमि मान बैठे। मराठी भाषा को उन्होंने अपनी धर्मभाषा माना और अपने शिष्यों को इसी पुण्य भूमि में रहने का उपदेश किया। महानुभाव पंथ आज सर्वत्र है। महाराष्ट्र को चार चाँद लगाता है। महाराष्ट्र तो संतों की ही भूमि है। ज्ञानेश्वर माऊली ने विश्वाचि माझे घर और पसायदान जो जे वंछिल ते तो लाहो नामदेव विसोबा खेचर सावता माळी नरहरि सोनार तुकाराम सेनानाई महाराष्ट्र के दैवत हैं। नामा म्हणे हेचि देही तुझे पाय माझ्या डोही। संपूर्ण महाराष्ट्र संतों की विचार-धारा से अमीर बना हुआ है। जनाबाई, मुक्ताबाई, कान्होपात्र बहिणाबाई की ईश्वर-निष्ठा, भक्ति भाव, क्षमाशील वृत्ति, पवित्र सदाचरण, सद्‍‍‍‍व्यवहार ध्यान धारणा, सेवा का आदर्श प्रस्थापित करते हुए समाज को आत्मोन्नति का पाठ पढ़ाया है। तुझे रूप तवा नाहि ओळखले अहंते ते धरिले कासया जी। इन संत कवयित्रियों ने तो हमारे जीवन को ही मधुमय मंगल बना दिया है।

मरहट्ठा राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी शौर्य का मूर्तिमंत रूप, धीरता, वीरता, निर्भयता, न्याय नीति, आचरण की साक्षात् साकार प्रतिमा। सामाजिक विषमताओं, अंध विश्वास, पाखंड, जाति भेद की कारा को तोड़ने और शिक्षा का प्रचार-प्रसार को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य मान कार्य करते ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले, समाज में प्रचिलित कुरीतियों के विरोध में आवाज उठाते विचारी पुरुष राव बहादुर, गोपाल हरी देशमुख; लोकहितवादी लोकमान्य तिलक, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, विष्णुशास्त्र चिपळूणकर, गोपाल गणेश आगरकर; शिक्षा के नए क्षितिज का दर्शन कराते विट्ठल रामजी शिंदे, महर्षि कर्वे, सेनापति बापट, भारत रत्न डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर, साने गुरुजी, विनोबा भावे—ये महाराष्ट्र के भाग्यविधाता हैं। सभी को सहस्र-सहस्र नमन।

नृशंस अत्याचारी ब्रिटिश राज्य सत्ता को समूल उखाड़ फेंकने के लिए वासुदेव बलवंत फड़के, चाफेकर बंधु, अनंत कान्हेरे, बाबा सावरकर, वि.दा. सावरकर, उनकी सहधर्मिणियाँ देश को परतंत्रता की शृंखलाओं से मुक्त करने के लिए सर्व सुखों की आहुति देती और जयोस्तुते महन्मंगले गीत से स्फूर्ति चैतन्य प्रदान करते ये सभी प्रणम्य हैं।

शंकरदेव जैसे देशभक्त चाबुक की फटकार और सौ-सौ कोड़ों की मार से पीठ लहूलुहान हो जाने पर भी कंपित नहीं हुए, न क्रांतिकारियों  के नाम बताने के लिए मुँह खोला, ऐसे वीर अंदमान की जेल में मरण यातना सहते क्रांतिवीर वि.दा. सावरकर, साने गुरुजी, दलितोद्धारक महात्मा ज्योतिबा फुले, शाहू महाराज विट्ठल, रामजी शिंदे, भारत रत्न डाॅ. बाबा साहब अंबेडकर, ये महाराष्ट्र के प्रकाशपुंज नक्षत्र हैं।

‘करेंगे या मरेंगे’ दो शब्दों ने ऐसा जादू किया कि लाखों की संख्या मे नौ अगस्त, सन् १९४२ के दिन आजाद मैदान में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। दया नहीं, हमें अपना देश चाहिए। न्याय चाहिए। ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर ही रहेंगे’ की घोषणा बालगंगाधर तिलक ने सन् १९०६ में लखनऊ में की थी, उसकी फल सिद्ध‌ि हेतु लाखों मराठी माणूस आजाद मैदान में चींटी जाने के लिए भी जगह नहीं थी, इकट्ठा हुए थे। तेजस्वी विचार, दृढ़ निश्चयात्मकता वृत्ति, जो कुछ करेंगे, वह मेरी मातृभूमि के लिए। नहीं चाहता सोने का पलना, पराधीन हो सुख पाना। यह मराठी मानूस, जो—

सुदृढ़ श्यामवर्णी सहनशील कलहप्रिय और अभिमानी

दिले घेतले बोलत लढती मरहठे।

ऐसे बुद्ध‌िमान विद्याव्यासंगी, कला, शास्त्र, संगीत, साहित्यानुरागी, परिश्रमी, उपकारकर्ता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने में जरा भी कोताही न करना, पर आत्म-स्वाभिमान को जरा भी धक्का लगने पर सर्पवत् फुफकारकर प्रतिशोध के लिए खड़ा हो जाता, यह मराठी मानुस अज्ञान, रूढ़‌ि, बंधन, अंधविश्वास, जातिभेद की कारा को तोड़ने के लिए कटिबद्ध और अग्रगण्य रहा है।

स्त्री स्वातंत्र्य, स्त्री शिक्षा आग्रही, दहेज, जरठ विवाह, बाल विवाह, बेमेल विवाह के विरोध में नारा लगाता और विधवा विवाह का पुरस्कर्ता महर्षि धोंडो केशव कर्वे, वायो कर्वे चिर स्मरणीय हैं और रहेंगे भी।

आधुनिक तंत्रज्ञान का अवलंब ले उद्योगों की शुरुआत करते किर्लोस्कर, ओगले गरवारे, सावंत चित्त, जिन्होंने महाराष्ट्र को ही नहीं, देश को आर्थिक स्वावलंबन की दिशा दी। सत्य के आधार पर स्वप्नों को साकार कर महाराष्ट्र की माटी से सोने की खेती करने का गुर सिखाया, उनकी एक लंबी सूची है। आज का फलता-फूलता महाराष्ट्र उन्हीं के कंधों पर खड़ा है।

हजारों मील की पदयात्रा कर भूमिहीनों को जमीन दिलवाने का काम तो विनोबा भावे की अदम्य कार्यक्षमता थी। सवै भूमि गोपाल की इस न्याय से आयु के अठहत्तर वर्ष में जवानी के जोश को लिये लक्ष्य सिद्ध‌ि के लिए बढ़ते गए। विनोबाजी का त्याग, समर्पण, कर्मनिष्ठा महाराष्ट्र के लिए आदर्श है, संजीवनी बूटी है।

हमारे महाराष्ट्र को प्राचीन परंपराओं का सार्थ अभिमान है। यह इतिहास है और भूगोल भी। आचार्य अत्रेजी की यह दर्पोक्ति नहीं है, सत्याधारित कथन है। शक्ति और भक्ति के ताने-बाने से निर्मित महाराष्ट्र के जरी किनार और जरी की बेल-बूटियों से बना मयूर और गज सौंदर्योपासना है। घारापुरी कार्ले, भांजे वेरूळ, अजिंठा कान्हेरे सौंदर्य तीर्थ है। घारापुरी के त्रिमूर्ति जैसा भव्य-दिव्य प्रभावी शिल्प विश्व में अन्यत्र किसी स्थान पर शायद देखने को मिले। सुडौल रेषा और भावदर्शी मुद्राओं, अतुलनीय अजंता की गुफाओं के चित्र वेरूळ के पाषाण शिल्प में जीवंतता, सजीवता, प्राण फूँकती चैतन्यता का उदाहरण अनोखा है। महाराष्ट्र की चित्रकला हेचि आमुचे दैवत, केरल के राज रवि वर्मा इसी माटी में बस गए और इसी के कर्जदार भी। बेंद्रे सालवलकर, हलदणकर पळशीकर, वडणगेकर मोहन सामंत और सावंत बंधु महाराष्ट्र के गौरव हैं। शिल्पकला, मूर्तिकला, वास्तुकला और स्थापत्य कला को अाभिजात्यता प्रदान करते फड़के म्हात्रे करमरकर साठे सोनवडेकर और राम सुतार हैं। वारली चित्रकला तो आज विश्व में लोकप्रिय हो गई है। बेल्जियम और फ्रांस में वारली चित्रकला सेंटर आज महाराष्ट्र का पर्याय है।

साहित्य के लिए सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ, जिससे सम्मानित चार महारथी महाराष्ट्र के वैभव खांडेकर, शिरवाडकर, करंदीकर और नेमडे हैं। एक ने यय

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