इकन्नी

इकन्नी

देवेंद्र सत्यार्थी: राजेंद्र परदेसी सुपरिचित लेखक एवं चित्रकार हैं। इनके रेखांकन विभिन्न लघु पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। इनके रेखांकनों में भारतीय कला-परंपरा और यूरोप की आधुनिक कला-दृष्टि का खूबसूरत समावेश दिखाई पड़ता है।

 

“इसे रख लो। इनकार मत करो। देखने में यह इकन्नी है, पर इसकी कीमत सचमुच इससे कहीं ज्यादा है। बस, रख लो इसे। मेरे पास ले-देकर यही इकन्नी है, चाहे यह तुम्हारी मजदूरी नहीं चुका सकती...’’

यह कहते हुए मैंने रामू मोची की हथेली पर इकन्नी रख दी। पूरा आधा घंटा लगाकर उसने मेरे बूट की मरम्मत की थी। मजदूरी की बात उसने मेरे इनसाफ पर छोड़ दी थी। जेब में इकन्नी डालते हुए उसने फटी-फटी आँखों से मेरी ओर देखा और फिर शायद उसे जेब में मसलने लगा।

उसे क्या मालूम था कि इस इकन्नी के साथ मेरी एक कहानी जुड़ी हुई है—

मुझे दिल्ली से कुंडेश्वर जाना था। ललितपुर तक रेल का सफर था। आगे लॉरी जाती थी। कई रोज तो इसी असमंजस में गुजर गए कि आज रुपया मिले, कल मिले।

दिल्ली में पत्रकारों का एक सम्मेलन हो रहा था। मेरा एक मित्र, जो कुंडेश्वर से प्रकाशित होनेवाले ‘मधुकर’ में काम करता था, इस संबंध में दिल्ली आया। उसने मुझे अपने साथ चलने के लिए बहुत मजबूर किया। मैंने काम का बहाना करके बात टाल दी। वह मान गया, पर लगे हाथों मुझे बताता गया कि ललितपुर तक पाँच रुपए का टिकट लगता है और आगे पंद्रह आने मोटर के लिए काफी हैं।

एक सप्ताह बीत गया। मैं कुंडेश्वर की तैयारी न कर सका। रुपए की प्रतीक्षा थी। ससुरा रुपया भी कभी-कभी बहुत तरसाता है और चाहे मेरी यात्रा की गाथाएँ रुपए की तंगी से भरी पड़ी हैं, दिल्ली की वह तंगी मुझे सदा याद रहेगी।

जिस दिन मैं दिल्ली पहुँचा था, उस दिन मेरे पास कुल चंद आने पैसे मौजूद थे। वे छोटी-छोटी जरूरतों पर खर्च हो गए। जहाँ से रुपया मिलना था, वहाँ से नहीं मिला, पर मैंने अपने चेहरे पर घबराहट के चिह्न नहीं पैदा होने दिए।

नई दिल्ली, जहाँ मैं अपने एक मित्र के यहाँ ठहरा हुआ था, से मैं अकसर पैदल ही शहर पहुँचता और फिर पैदल ही अपने निवास-स्थान को लौटता। हर रोज मुझे लौटने में देर हो जाती। मेरा मित्र हँसकर इसका कारण पूछता। मैं हँसकर बात आई-गई कर देता। कैसे कहता कि मेरी जेब खाली पड़ी है।

खाली जेब की कोई विशेष चिंता मुझे कभी-कभार ही होती है। अब यह इकन्नी इस मोची को देने के बाद मेरी जेब खाली हो गई है तो क्या हर्ज है? मैं खुश हूँ।

एक दिन दिल्ली में मेरी एक मित्र के यहाँ दावत थी। वहाँ से फारिग होते-होते दस बज गए। अब वापस नई दिल्ली लौटना था। मैं पैदल ही चल पड़ा। हौसला हारना मैंने सीखा ही नहीं।

पास से एक ताँगा गुजरा। मैंने आवाज दी, ‘‘ताँगा!’’

ताँगा रुक गया। एक सवारी पहले से ही बैठी थी।

ताँगेवाला बोला, ‘‘किधर जाओगे?’’

‘‘जिधर भी ले चलो।’’

‘‘खूब! इसमें जिधर भी ले चलो...किधर ले चलूँ? मैं तो नई दिल्ली में बारहखंभा जा रहा हूँ।’’

‘‘मुझे भी वहीं ले चलो।’’

‘‘तीन आने पैसे होंगे। रात बहुत चली गई है। दूसरा ताँगा नहीं मिलने का।’’

‘‘पर भाई, मेरे पास तो पैसे हैं नहीं।’’

‘‘पैसे हैं नहीं? अजी साहब, यों मजाक मत करो। यह ठीक नहीं।’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा। मेरे पास सचमुच पैसे नहीं हैं।’’

ताँगेवाला कोई भला आदमी था। उसे दया आ गई। बोला, ‘‘अच्छा तो बैठ जाओ। तुम्हारे तीन आने पैसे खुदा से माँग लूँगा।’’

‘‘बहुत ठीक।’’

ताँगा चला जा रहा था और मैं सोच रहा था कि जब खुदा ने मुझे ही तीन आने नहीं दिए तो इस ताँगेवाले को वह मेरे हिसाब में से कैसे तीन आने दे देगा। मेरे दिल में कई तरह के विचार आते रहे। खुदा क्या बला है? कुछ लोग कहते हैं कि खुदा का खयाल सिर्फ एक वहम है। क्या यह सचमुच एक वहम है?...क्या मैं खुदा पर उतना ही यकीन रखता हूँ, जितना यह ताँगेवाला? यदि नहीं, तो मैंने कैसे मान लिया कि वह मेरे हिसाब में से खुदा से तीन आने वसूल कर सकेगा? उस समय मुझे वह घटना भी याद आई, जब मैंने एक प्रश्न के उत्तर में अपने एक साहित्यकार मित्र को बताया था कि अगर खुदा न भी हो, तो सिर्फ अपनी पनाह के लिए हमें एक खुदा की कल्पना जरूर कर लेनी चाहिए। फिर मैंने सोचा कि इस ताँगेवाले ने मुझे जरूर कोई साधु समझ लिया है। सिर के लंबे बालों और दाढ़ी को देखकर अकसर लोगों को मुगालता हो जाता है। और यदि उसे मालूम हो जाए कि सचमुच के खुदा पर विश्वास करने की बजाय मैं केवल एक काल्पनिक खुदा को मानता हूँ तो झट वह मुझे अपने ताँगे से उतार बाहर करे।

साथवाला मुसाफिर बोला, ‘‘आप क्या काम करते हैं?’’

मैंने उत्तर दिया, ‘‘लोकगीत-संग्रह करता हूँ।’’

‘‘किसी कंपनी की तरफ से?’’

‘‘नहीं साहब, यह मेरा निजी शौक है।’’

‘‘निजी शौक है? खूब! पर साहब, यह दुनिया है। रुपए कमाने ही के तो सब धंधे हैं।’’

‘‘पर साहब, मैं यह काम सिर्फ रुपया कमाने के लिए नहीं कर रहा हूँ।’’

‘‘घर से अमीर होंगे?’’

‘‘घर से मैं रुपए नहीं लेता।’’

‘‘तो रोटी और सफर का खर्च कैसे चलाते हो?’’

‘‘पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर थोड़े पैसे पैदा कर लेता हूँ, और सच कहता हूँ कि यदि ये पैसे मिलने बंद हो जाएँ तो भी यह काम नहीं छोड़ूँगा।’’

‘‘आप जरूर कोई साधु हैं।’’

‘‘नहीं साहब, मैं तो गृहस्थ हूँ। मेरी पत्नी और कन्या, जो अकसर सफर में मेरे साथ रहती हैं, इन दिनों घर पर गई हुई हैं।’’

‘‘खूब!’’

‘‘खूब हो या न हो, कुछ भी कह लीजिए। इस समय तो मैं मुफ्त में ताँगे की सवारी कर रहा हूँ। सच बात तो यह है कि मैं भी इस ताँगेवाले की तरह एक मजदूर हूँ। फर्क इतना ही है कि वह नकद मजदूरी पाता है, पर इस गरीब लेखक को पत्र-पत्रिकाओं वाले टालते चले जाते हैं, नहीं तो साहब आज यह नौबत न आती कि मुफ्त में ताँगे की सवारी माँगूँ। और यह तो इस आदमी की शराफत है कि इसने मेरे हिसाब के तीन आने खुदा से लेने की बात कहकर मुझे एहसान के बोझ से भी बरी कर दिया है।’’

सड़क पर बिजली की रोशनी थी और इसके मुकाबले में गरीब ताँगेवाले के लैंप की बत्ती बहुत धीमी जल रही थी।

ताँगेवाला हमारी बातें बड़े मजे से सुन रहा था। उसे खुश करने के लिए मैंने कहा, ‘‘साहब, मैं तो समझता हूँ कि ताँगेवालों की कमाई खून-पसीने की कमाई है। अगर कभी फिर इस दुनिया में मुझे आदमी का जन्म मिले तो मैं तो चाहता हूँ कि किसी ताँगेवाले के घर में ही जन्म लूँ।’’

ताँगेवाला बोला, ‘‘यह न कहो जी। हम तो दिन में सौ झूठ बोलते हैं और मैं तो चाहता हूँ कि आपको निजात मिले। पैदा होना और मर जाना—ये तो बहुत सख्त इम्तिहान है जी।’’

दिल्ली में वे सप्ताह मैंने बड़े असमंजस में गुजारे। खाने की कोई तकलीफ न थी, पर दिन में कई-कई मील पैदल चलना, वह भी चमड़े का भारी थैला उठाए हुए, यह कुछ आसान काम न था। मित्रों से मिलना और गीतों की तलाश में स्थान-स्थान पर पहुँचना—यह तो जरूरी था।

कुंडेश्वर से चौबेजी का पत्र आया। लिखा था—फौरन चले आओ। अब वहाँ जाना और भी जरूरी हो गया।

अपने मित्र से मैंने रुपए उधार लिये। पाँच रुपए पंद्रह आने किराए के लिए, एक रुपया और एक इकन्नी ऊपर के खर्च के लिए।

आठ आने तो स्टेशन तक ताँगेवाले को देने पड़े। बाकी बचे साढ़े छह रुपए। टिकटघर की खिड़की पर पहुँचा तो पता चला कि ललितपुर तक पाँच रुपए का नहीं, बल्कि पाँच रुपए ग्यारह आने का टिकट लगेगा। यह भी खूब रही। तो क्या उस कुंडेश्वरवाले मित्र ने मजाक किया था? अपनी कमजोर याददाश्त पर मैं बहुत झल्लाया। और कोई चारा भी तो नहीं था। जो होगा, देखा जाएगा। मैंने ललितपुर का टिकट लिया और कुली से असबाब उठवाकर गाड़ी में जा बैठा। एक इकन्नी कुली को दी।

अब जो बाकी पैसे गिने, तो कुल साढ़े दस आने बचे। अब याद आया कि डेढ़ आना दिन में ताँगे पर खर्च हो गया था। साढ़े दस आने—कुल साढ़े दस आने। दिल में कई उतार-चढ़ाव पैदा हुए। फिर किसी तरह दिल को समझाया कि ललितपुर तो पहुँचूँ, देखा जाएगा। रात भर रेलगाड़ी का सफर रहा, नींद नहीं आई। अगले सवेरे ललितपुर आ गया। कुली सामान को बाहर ले आया। पता चला कि लॉरी के अड्डे तक ताँगेवाले को एक दुअन्नी देनी होगी। मेरी जेब में कुल साढ़े दस आने थे। बड़ी मुश्किल से कुली को दो पैसे में भुगताया और ताँगेवाला एक आने में मान गया।

ताँगा चला जा रहा था।

साथ की सीटवाले युवक से मैंने पूछ लिया, ‘‘क्यों भाई! कुंडेश्वर का यहाँ से क्या लगेगा?’’

यह प्रश्न मैंने कुछ इस लहजे में किया था कि उसे यही महसूस हो कि मैं इस सिलसिले में बिलकुल अपरिचित हूँ।

वह बोला, ‘‘सिर्फ पंद्रह आने।’’

‘‘पंद्रह आने! पर भाई मेरी जेब में तो सिर्फ दस आने रह गए हैं, और इनमें से एक इकन्नी ताँगेवाले की हो चुकी समझिए। और मेरे पास रह गए सिर्फ नौ आने।’’

‘‘नौ आने! तो बाकी छह आने कहाँ से पाओगे?’’

‘‘यही तो चिंता है। कोई उपाय हो तो बताओ।’’

‘‘अब यह मैं क्या जानूँ, भाई? मैं तो अभी विद्यार्थी हूँ। सच जानो, मेरे पास होते तो मैं टिकट ले देता। और कठिनाई तो यह कि मैं बाहर से पढ़ने आता हूँ। कोई मुझे उधार देगा नहीं।’’

मैं चुप हो गया और सच मानो, मैं यहाँ पहुँचकर यों एकदम चुप हो जाने की वजह से उस विद्यार्थी पर असर डाल सका।

वह भी चंद मिनट तक खामोश बैठा रहा। ताँगा चला जा रहा था। मैंने ताँगेवाले से कहा, ‘‘अरे भाई, अगर तुम मुझसे अपनी इकन्नी न लो तो मेरी कठिनाई घटकर छह आने की बजाय पाँच आने की ही रह जाती है।’’

वह बोला, ‘‘साहब, मैं अपनी इकन्नी जरूर लूँगा। यों इकन्नियाँ छोड़ने लगूँ तो मेरा घोड़ा भूखा मर जाए और घर जाने पर बीवी की गालियाँ अलग खाऊँ।’’

उसे यह संदेह हुआ कि मैं अड्डे पर पहुँचकर इकन्नी देने से इनकार

न कर बैठूँ। उसने ताँगा रोक लिया। बोला, ‘‘अड्डा दूर नहीं है। इकन्नी निकालिए।’’

मैंने इकन्नी उसकी हथेली पर रखी, तब वह आगे चला।

वह विद्यार्थी पूछने लगा, ‘‘काम क्या करते हो?’’

‘‘मैं हर भाषा के लोकगीत संग्रह करता हूँ।’’

‘‘जी हाँ, ‘विश्वमित्र’ में मैंने गीतों पर एक लेख पढ़ा था। आप ही का होगा।’’

मैंने हाँ में सिर हिला दिया। काम बनता देखकर मैंने उसे बिगाड़ना मुनासिब न समझा। नहीं तो कोई और अवसर होता तो मैं पूछता कि किस महीने के ‘विश्वमित्र’ की बात है और लेख का क्या शीर्षक था।

वह बोला, ‘‘आपका नाम?’’

मैंने अपना नाम बताया तो वह बोला, ‘‘वह लेख मैंने बड़े ध्यान से पढ़ा था। अवश्य ही वह आपका लिखा हुआ होगा। यह तो बड़ा महान् कार्य है जी।’’

इस प्रशंसा ने मुझे और भी लज्जित कर दिया। यह बहुत महान् कार्य है!...यदि यह कार्य इतना महान् है तो मेरी आर्थिक अवस्था इतनी खराब क्यों है?...लॉरी का टिकट लगेगा पंद्रह आने और मेरे पास हैं सिर्फ नौ आने।

वह बोला, ‘‘आप अब चिंता न करें। मैं आपका प्रबंध अपने जिम्मे लेता हूँ। आप किसी से मत कहें कि आपके पास पैसे कम हैं। आप लॉरी पर सवार हो जाइए। अभी लॉरी दो घंटा बाद चलेगी। इतने में मैं देख लूँगा।’’

अड्डे पर पहुँचकर उसने मुझे लॉरी में बिठा दिया और वह स्वयं टिकट कंडक्टर से आकर मिला। कौन जाने, उसने उससे क्या-क्या सच्ची-झूठी बातें की होंगी। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि वह उसे लिये हुए आया और बोला, ‘‘वे नौ आने इन्हें दे दीजिए। ये आपको कुंडेश्वर का टिकट दिए देते हैं।’’

मैंने बटुआ खोला। नौ के नौ आने मैंने बड़े ध्यान से देखे, पर बाहर सिर्फ आठ आने निकाले। इन्हें उसे देते हुए कहा, ‘‘आप आज्ञा दें तो एक इकन्नी में रख लेता हूँ। कुंडेश्वर में जरूरत पड़ेगी। सड़क से चौबेजी के मकान तक असबाब ले जानेवाले कुली को दे दूँगा। वहाँ पहुँचते ही यह जो जाहिर करने से रहा कि मेरी जेब में एक इकन्नी तक नहीं।’’

‘‘हाँ-हाँ, इकन्नी आप शौक से रखिए।’’

वहाँ कुंडेश्वर में पहुँचा तो सड़क पर चौबेजी का एक मित्र मौजूद था। उसने मेरा असबाब पहुँचाने का बंदोबस्त कर दिया।

वह इकन्नी मेरे पास रह गई। इसे मैंने सँभालकर जेब में रख लिया।

जब कभी चौबेजी को गिलौरी की आवश्यकता पड़ती, मैं झट जेब से इकन्नी निकालता और कहता, ‘‘पैसे मैं दूँगा।’’

चौबेजी ‘नहीं’ कहते हुए इसे वापस कर देते।

और जब मैंने रामू से बूट की मरम्मत कराने के बाद यह कहा—इसे रख लो, इनकार मत करो, देखने में यह इकन्नी है, पर इसकी कीमत सचमुच इससे कहीं ज्यादा है—मेरी आँखें गीली हो गईं। मैंने देखा कि रामू की आँखें भी गीली हो गईं। उसे दिन भर में इस इकन्नी के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला था। उसने सोचा होगा कि उसने एक अंतर्यामी साधु का बूट मरम्मत किया है, नहीं तो वह कैसे जानता है कि घर में उसकी भूखी बीवी और बच्चे इसी इकन्नी की बाट जोह रहे हैं।

देवेंद्र सत्यार्थी
संपर्क ः ४४ शिव विहार, फरीदी नगर
लखनऊ-२२६०१५ (उ.प्र.)
दूरभाष ः ९४१५०४५५८४

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