सरस्वती तट से निकली सांस्कृतिक जय-यात्रा

सरस्वती तट से निकली सांस्कृतिक जय-यात्रा

विष्णु पुराण का यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है—

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र सन्तति॥

अर्थात् समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष स्थित है, उसका नाम भारत है और उसकी संतति को भारती कहते हैं। अपनी लोकप्रियता के कारण प्राचीन काल में भारत की भौगोलिक एकता के साक्षात्कार के प्रमाण के रूप में बहुधा इसी श्लोक को प्रस्तुत किया जाता है। आधुनिक विद्वत्ता ने विष्णु पुराण का रचना काल पाँचवीं शताब्दी ईस्वी में रखा है। इसलिए हम गर्व के साथ कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने भारत जैसे विशाल भूखंड की एकता का साक्षात्कार कम-से-कम पंद्रह सौ साल पहले कर लिया था। कोई भी अन्य सभ्यता या साहित्य अपने देश के बारे में ऐसा प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता, किंतु इसके पूर्व महाभारत और रामायण आदि ग्रंथ पूरे भारत का भौगोलिक परिचय दिग्विजय वर्णन, तीर्थयात्रा वर्णन एवं स्वयंवर वर्णन के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक विद्वत्ता ने इन ग्रंथों के रचनाकाल को विवादास्पद बना दिया है। महाभारत के बारे में यह धारणा बन गई है कि उसका महाभारत युद्ध से लेकर सातवाहन काल तक लगातार संशोधन, परिवर्तन होता रहा। अतः उसका कौन सा अंश किस काल की रचना है, यह कहना कठिन है। उसमें सरस्वती के प्रवाहमान होने का वर्णन भी है और उसके लुप्त होने के बाद का वर्णन भी।

किंतु कौटिल्य अर्थशास्त्र के रचनाकाल के बारे में तो अब आम सहमति बन चुकी है कि वह नंद वंश का उच्छेदन कर चंद्रगुप्त मौर्य को मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठाने वाले आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य उपनाम कौटिल्य की ही रचना है। इसलिए आधुनिक विद्वत्ता के द्वारा निर्धारित भारतीय इतिहास के तिथिक्रम में उसका रचना काल चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व अर्थात् विष्णुपुराण से लगभग एक सहस्त्र वर्ष पीछे चला जाता है। इस कौटिल्य अर्थशास्त्र के नवम् अधिकरण के १३५-१३६ प्रकरण में चक्रवर्ती क्षेत्र की व्याख्या निम्न सूत्र में की गई है—

देशः पृथिवी! तस्यां हिमवत्समुद्रांतर मुदीचीनम्।

योजन सहस्र परिमाणं तिर्यंक चक्रवर्तीक्षेत्रम्॥

अर्थात् हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्रपर्यंत, पूर्व से पश्चिम दिशा में एक हजार योजन तक फैला हुआ भू-भाग चक्रवर्ती क्षेत्र है।

कौटिल्य अर्थशास्त्र का यह सूत्र अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। वह उत्तर और दक्षिण की सीमाओं के साथ-साथ पूर्व-पश्चिम के विस्तार को भी स्पष्ट करता है। चक्रवर्ती क्षेत्र कहने का अर्थ है भारत की राजनीतिक एकता का लक्ष्य और यह लक्ष्य केवल भारत की प्राकृतिक सीमाओं तक सीमित है। अन्य देशों पर आक्रमण करने अथवा उन पर अपना साम्राज्य स्थापित करना अभिप्रेत नहीं है, किंतु इस सूत्र का महत्त्व इस बात में है कि यहाँ देश अर्थात् भूभाग को पृथिवी नाम दिया गया है। आजकल सामान्यतया पृथिवी शब्द से हम पूरे भूमंडल को संबोधित करते हैं। अतः प्रश्न खड़ा होता है कि कौटिल्य ने हिमालय से समुद्र तक के देश को पृथिवी क्यों कहा? इस प्रश्न ने हमें बहुत चक्कर में डाला और उसका उत्तर खोजने के प्रयास में हमें अनेक बहुमूल्य संदर्भ मिले, किंतु अभी उसे यहीं छोड़ देते हैं। अपने मन का दूसरा प्रश्न आपके सामने रखते हैं। कौटिल्य के सामने भारत की राजनीतिक एकता का लक्ष्य क्यों खड़ा हुआ? क्या उसकी प्रकृति प्रदत्त भौगोलिक एकता के कारण? किंतु उस भूगोल के भीतर विद्यमान भाषायी, उपासनात्मक, सामाजिक एवं आर्थिक, राजनीतिक विविधता से युक्त अनेक जनपदों में विभाजित देश पर किसी एक जनपद के राजा को दिग्विजय के द्वारा चक्रवर्ती के सिंहासन पर बैठाना क्या साम्राज्यवादी विजय का ही दूसरा नाम नहीं है? कौटिल्य अर्थशास्त्र के अध्ययन से प्रगट होता है कि इस बहुमुखी विविधता के बीच सांस्कृतिक एकता के सूत्र तब तक विकसित हो चुके थे और वह सांस्कृतिक एकता ही स्वयं को राजनीतिक एकता के रूप में अभिव्यक्त करने को बेचैन थी। उस युग में आवागमन और यातायात की कठिनाइयों को देखते हुए भारत जैसे विशाल भूखंड को एक राजनीतिक केंद्र से शासित और नियंत्रित करना लगभग असंभव था, अतः चक्रवर्ती व्यवस्था ही उसका सर्वोत्तम उपाय हो सकती थी।

यही भारत की इतिहास यात्रा की विशेषता है, इसी कारण यूरोपीय इतिहास में से उपजी अवधारणाएँ भारतीय इतिहास पर लागू नहीं हो पातीं। १८वीं और १९वीं शताब्दी में जनमे छोटे-छोटे यूरोपीय राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण राजनीतिक विस्तारवाद ने किया। उन्होंने पहले राजनीतिक एकता प्राप्त की, उसके आधार पर अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं की व्याख्या की और उन सीमाओं के भीतर रहनेवाले समाज पर भाषा, उपासना, नस्ल आदि सांस्कृतिक एकरूपता थोपने का प्रयास किया। इसी को उन्होंने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया कहा, जबकि भारत में इससे उलटा हुआ। यहाँ भौगोलिक एकता का साक्षात्कार पहले हुआ। उसमें विद्यमान विविधता को शिरोधार्य करते हुए विविधता के बीच एकता के सांस्कृतिक सूत्रों का विकास किया गया।

यहाँ यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि भारत जैसे विशाल भूखंड की भौगोलिक एकता का साक्षात्कार सर्वप्रथम किसने किया? दुर्गम जंगलों, विशाल नदियों, ऊँचे पहाड़ों को लाँघकर किस मानव समूह ने पूरे देश को छान मारा? उसकी प्रेरणा क्या थी? लक्ष्य क्या था? क्या पूरे भारतवर्ष का भौगोलिक परिचय किसी एक पीढ़ी के वश की बात रही होगी? कितनी शताब्दियाँ, सहस्राब्दियाँ लगी होंगी इस खोज में? क्या पे्ररणा थी इस खोज के पीछे? निश्चय ही राजनीतिक विजय तो नहीं ही थी। भारत की भोगौलिक एकता का साक्षात्कार करनेवाली प्रक्रिया और तंत्र की प्रेरणा राजनीतिक कदापि नहीं थी। यदि वह प्रक्रिया और तंत्र सांस्कृतिक था तो उसका उद्गम स्थान भारत में किस क्षेत्र में था, कहाँ था? और वह सांस्कृतिक प्रवाह अपने मूल निवास से बाहर कब निकला, कितने चरणों में कितनी शताब्दियों या सहस्राब्दियों में उसने पूरे भारत को आप्लावित कर दिया, इस विशाल भूखंड की विविधता को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में गूँथ दिया, उसे एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व या पहचान प्रदान की?

इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए जब हम आधुनिक शोध पद्धति से कौटिल्य से पीछे जाते हैं तो पाते हैं कि बौद्ध त्रिपिटक के सबसे पुराने अंश दीघ निकाय से भी पुराने माने गए महागोविंद सुत्त में भारत भूमि के स्वरूप का सटीक चित्रण उपलब्ध है। वहाँ भारत भूमि का स्वरूप बैलगाड़ी जैसा (शकरमुखी) बताया गया है। कहा गया है कि उत्तर का क्षेत्र आयताकार है और दक्षिण का क्षेत्र बैलगाड़ी के अगले भाग (शकटमुख) जैसा त्रिकोणीय। महत्त्व की बात यह है कि महा गोविंदसुत्त भी इस शकटाकार भूखंड को महापठवीं नाम से संबोधित करता है। आश्चर्य होता है कि उस युग में किस विधि से भारतीय मनीषियों ने सहस्रों योजन लंबे-चौड़े इस भूखंड के भौतिक स्वरूप को अपनी आँखों में बाँधा होगा। पुराणों में इस स्वरूप की उपमा कहीं गर्दन फैलाए कछुवे से दी गई है तो कहीं प्रत्यंचा खिंचे धनुष के साथ। ये सब उपमाएँ पंद्रह सौ-दो हजार वर्ष पुरानी तो हैं ही। बौद्ध और जैन साहित्य में भगवान् बुद्ध एवं तीर्थंकर महावीर की समकालीन जनपद सूचियों को देखने से विदित होता है कि ये जनपद पश्चिम में अफगानिस्तान और ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तक और दक्षिण में समुद्र तक फैले हुए थे।

बौद्ध साहित्य में भारत नामक बड़ी भौगोलिक इकाई के पाँच विभाजन यथा—उत्तरापथ, मध्यदेश, प्राच्यदेश, दक्षिणापथ एवं अपरांत का भी उल्लेख मिलता है। स्पष्ट ही, छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक किसी केंद्रीय व्यवस्था ने भारत नामक इकाई का पाँच भागों में विभाजन भी कर दिया था, जो उस समय तक पूरी तरह प्रचलित हो चुका था। भारत या इंडिया के इन पाँच विभागों का उल्लेख तीसरी-चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व के यूनानी साहित्य में भी मिलता है।

इसका अर्थ है कि भारत की भौगोलिक एकता का साक्षात्कार बुद्ध और महावीर के समय से काफी पहले किया जा चुका था। इससे निष्कर्ष निकलता है कि जिस सांस्कृतिक प्रक्रिया ने इस भौगोलिक एकता का साक्षात्कार कराया, वह भी पूरे देश को आप्लावित कर चुकी थी। इस सत्य का दर्शन हमें अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में होता है। अथर्ववेद को पाश्चात्य विद्वत्ता ने आठवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में रखा है, जबकि भारतीय परंपरा उसे राजा परीक्षित (३१०२ ई.पू.) के निकट रखती है, किंतु इस लेख में हम तिथिक्रम के झगड़ों को नहीं उठाना चाहते और पाश्चात्य विद्वत्ता द्वारा गढ़े गए तिथिक्रम के पूर्वापर्य को ज्यों-का-त्यों स्वीकार करके ही अपने प्रश्नों का उत्तर खोजना चाहते हैं।

६३ मंत्र लंबा पृथिवी सूक्त अपने ढंग की अनूठी रचना है। इसी सूक्त के १२वें मंत्र में माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या; अंश को भारतमाता के प्रति हमारी पुत्रवत् भक्ति भावना का प्रथम उद्घोष कहा जाता है। इस छोटे से अंश में ‘भूमि’ और ‘पृथ्वी’ दोनों शब्दों का प्रयोग है। क्या वे एक ही हैं या अलग-अलग हैं? यदि यहाँ ‘पृथिवी’ शब्द ‘भूमि’ का पर्याय है तो क्या हम पूरे भूमंडल को अपनी माता और स्वयं को उसका पुत्र बता रहे हैं? क्या इस सूक्त में ‘पृथिवी’ नामक भूखंड की पहचान के भी कुछ संकेत विद्यमान हैं? अगला ही मंत्र पृथिवी की सांस्कृतिक पहचान को स्पष्ट कर देता है कि जिस भूमि पर यज्ञवेदियों का निर्माण कर विश्वकर्मा यज्ञों का विस्तार करता है, जहाँ आहुति देने के लिए यज्ञस्तंभ खड़े हैं। पुनः २२वें मंत्र में कहा गया है, ‘जिस भूमि पर देवताओं के लिए यज्ञों में हवि दी जाती है, जहाँ मनुष्य यज्ञशेष को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं आदि-आदि।’ मंत्र ३७ में देव विरोधी असुरों पर, वृत्रासुर पर इंद्र की विजय का उल्लेख है। उससे अगले मंत्र में पुनः यज्ञ मंडपों के निर्माण, यूप की स्थापना और ऋग्वेद की ऋचाओं, सामवेद की अर्चना और यजुः मंत्रों से इंद्र को सोमरस पिलाने का वर्णन है। मंत्र ३९ में प्राचीन सप्तर्षियों द्वारा द्वाद्वश वर्षीय सत्र एवं सोमयाग के निमित्त तपस्या करने एवं वेद मंत्रों का गान करने की बात कही गई है। संक्षेप में कहना हो तो पृथिवी सूक्त की संस्कृति की पहचान यज्ञ संस्कृति में है। वस्तुतः पृथिवी सूक्त का पहला मंत्र ही यज्ञ संस्कृति का सारतत्त्व प्रस्तुत कर देता है। वह कहता है कि सत्य, ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ इस पृथिवी को धारण करते हैं। ४५वें मंत्र में पृथिवी पर रहनेवाले जनों की विविधता को भी स्वीकार किया गया है। यह मंत्र कहता है कि यह पृथिवी अनेक बोलियाँ बोलनेवाले (जन विभ्रती बहुधा विवाचसं) और नाना धर्मों (आचार-विचार) का पालन करनेवाले (नाना धर्माणं) जनों को धारण करती है और सबको समान रूप से माता की तरह अपना दूध पिलाकर पालती है। सूक्त में हिमवंत, समुद्र और सिंधु आदि के उल्लेख से स्पष्ट है कि सूक्तकार की पृथिवी महागोविंद सुत्त और कौटिल्य की पृथिवी से भिन्न नहीं है।

पर इस सूक्त में यह स्पष्ट नहीं होता कि इस यज्ञ संस्कृति का उद्गम कहाँ हुआ? किस क्रम से, किस तंत्र के द्वारा वह पूरे भारत में फैली? इसकी जानकारी हमें मनुस्मृति देती है। मनुस्मृति का दूसरा अध्याय (श्लोक १८-२५) न केवल यज्ञ संस्कृति का उद्गम क्षेत्र बताता है, बल्कि वहाँ से निकली सांस्कृतिक जय-यात्रा के विभिन्न चरणों का भी वर्णन करता है। यज्ञ संस्कृति का उद्गम सरस्वती नदी के पवित्र तट पर हुआ है, इसको रेखांकित करते हुए श्लोक १८ कहता है—

सरस्वती दृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।

तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते॥ १८॥

सरस्वती और दृषद्वती नामक देवनदियों का मध्यवर्ती भूभाग स्वयं देवों द्वारा निर्मित ब्रह्मावर्त नामक देश कहलाता है। उसका वैश्ष्टिय बताते हुए अगला श्लोक कहता है—

यस्मिन्दे शे यः आचारः पारम्पर्यक्रमागतः।

वर्णानां सांतरालानां स सदाचार उच्यते॥ १९॥

उस देश में जो आचार परंपरा से चला आ रहा है, उसे ही सब वर्णों के लिए सदाचार कहा गया है अर्थात् यह ब्रह्मावर्त्त क्षेत्र एक महान् संस्कृति का उद्गम प्रदेश है। कहाँ है यह ब्रह्मावर्त्त? कहाँ है सरस्वती और दृषद्वती नामक देवनदियाँ? आज तो भारत के मानचित्र पर इनमें से कोई भी नाम नहीं है। महाभारत के वन पर्व से हमें ज्ञात होता है कि सरस्वती और दृषद्वती के मध्य का क्षेत्र ही कुरुक्षेत्र कहलाया था। इसलिए गीता में उसे धर्मक्षेत्र भी कहा गया। इसका अर्थ हुआ कि ब्रह्मावर्त्त और कुरुक्षेत्र एक ही प्रवेश के दो नाम हैं, किंतु आधुनिक विद्वत्ता कहेगी कि मनुस्मृति और महाभारत तो बहुत बाद की रचनाएँ हैं, उन्हें प्रमाण कैसे मान लें? सौभाग्य से यहाँ ऋग्वेद हमारी मदद को आते हैं। ऋग्वेद (३.२३.४) मंत्र में कहा गया है—

दृष्द्वत्या मानुष आपयायां सरस्वत्यां देवग्ने दिदीहि।

अर्थात् हे अग्नि! हम तुम्हें दृषद्वती और सरस्वती के तट पर स्थित मानुष तीर्थ में स्थापित करते हैं। तुम पूरी पृथिवी को आलोकित करो।

आधुनिक विद्वत्ता ने ऋग्वेद के सूक्त विकास की जो कहानी गढ़ी है, उसके अनुसार यह मंत्र जिस मंडल में विद्यमान है, वह मंडल ऋग्वेद के सबसे प्राचीन भाग का अंश है।

मनुस्मृति के उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि ब्रह्मावर्त्त क्षेत्र में एक ऐसी संस्कृति का जन्म हुआ, जिसका मूल सदाचार में था। इस संस्कृति का प्रवाह ब्रह्मावर्त के चारों ओर फैला। अगला श्लोक कहता है—

मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसेनका।

एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तर॥ २०॥

ब्रह्मावर्त्त के चारों ओर के प्रदेश को जिसमें ब्रह्मावर्त्त या कुरुक्षेत्र से आगे के बाद मत्स्य, पांचाल और शूरसेन जनपद आते हैं, ब्रह्मर्षि देश कहा गया है। इस प्रदेश के अंतर्गत पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, बृजप्रदेश आते हैं। इस प्रदेश में पहुँचकर संस्कृति का चरित्र और भी निखरा, क्योंकि मनुस्मृति के अनुसार—

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ २१॥

अर्थात् इस प्रदेश में जन्मे अग्रजमाओं (ब्राह्मणों) से पृथिवी के सभी मानव अपने-अपने लिए चरित्र की शिक्षा प्राप्त करते हैं।

यह सांस्कृतिक प्रवाह या जय-यात्रा आगे बढ़कर मध्य देश में फैल जाती है। मनुस्मृति के अनुसार हिमालय से विंध्य पर्वत और पूर्व में प्रयाग से पश्चिम में विनशन (राजस्थान में वह जगह, जहाँ आगे चलकर सरस्वती नदी अदर्शनीय हो गई) के बीच का क्षेत्र ही मध्य देश है। यह यज्ञिय देश है। यहाँ तक यज्ञिय संस्कृति का विस्तार हो चुका है। (श्लोक २२) सांस्कृतिक जय-यात्रा के अगले चरण के रूप में मनुस्मृति आर्यावर्त का वर्णन करती है, जो हिमालय से रेवा नदी तक और पूर्व-पश्चिम में समुद्र से समुद्र तक फैला हुआ है। यह देश यज्ञिय देश है। यहाँ पवित्र काला मृग निःशंक विचरण करता है। मनुस्मृति का मानना है कि आर्यावर्त से बाहर के निवासी मलेच्छ हैं। स्पष्ट ही यहाँ आर्य और म्लेच्छ शब्दों का प्रयोग नस्ल के आधार पर नहीं, सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पर किया गया है। इसी अर्थ में ऋग्वेद ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ जैसी घोषणा करता है। यदि आर्य शब्द को नस्लवाचक मानें तो इसका अर्थ होगा पूरे विश्व में अन्य सब नस्लों का उच्छेदन कर केवल आर्य नस्ल का प्रभुत्व स्थापित करना।

सरस्वती के तट से निकली सांस्कृतिक जय-यात्रा का संदर्भ शत्पथ ब्राह्मण में माथव विदेघ की कथा में भी उपलब्ध है। इस कथा के अनुसार सरस्वती के तट पर संपन्न यज्ञ की अग्नि पूर्व दिशा की ओर चल पड़ी। माथव विदेघ उसके पीछे-पीछे चला। वह अग्नि सदानीरा नदी (वर्तमान गंडकी) के तट पर आकर रुक गई। माथव विदेघ भी वहीं ठहर गया। सदानीरा यहाँ वैदिक संस्कृति की सीमा बन गई।

मनुस्मृति की सांस्कृतिक यात्रा आर्यावर्त पर रुक जाती है। जनश्रुति के अनुसार लंबे समय तक यज्ञिय आर्य संस्कृति विंध्याचल को लाँघ नहीं पाई। उसे पहली बार लाँघा अगस्त्य ऋषि ने। परंपरा कहती है कि अगस्त्य ऋषि के आदेश को मानकर विंध्यपर्वत झुका का झुका रह गया और संस्कृति का प्रवाह उसे पारकर पूरे भारत में फैल गया। इसी सांस्कृतिक विस्तार के माध्यम से भारत की प्राकृतिक सीमाओं और भौगोलिक एकता का साक्षात्कार हो सका। इस साक्षात्कार की गाथा महाभारत, रामायण एवं पुराणों में भारत की नदियों, पर्वतों, पुण्यनगरियों एवं जनपदों की सूचियों के रूप में सुरक्षित है। यदि महाभारत भारत का कीर्तिगान करते हुए प्राचीन राजर्षियों के नाम गिनाता है तो विष्णु पुराण यज्ञिय संस्कृति के अगले सोपान अर्थात् ब्रह्म विद्या या मोक्षमार्ग की जन्मदात्री भारत भूमि की गोद में जनम पाने के लिए स्वर्ग के देवताओं की व्याकुलता का वर्णन करता है। संपूर्ण वाङ्मय में कहीं भी नस्ली आक्रमण या नस्लों के विनाश की चर्चा नहीं है, किंतु पश्चिमी विद्वानों ने पंद्रहवीं शताब्दी में अपनी गोरी नस्ल की राक्षसी विजयों के दर्पण में अपने चेहरे को भारत का चेहरा बना दिया। भारतीय विद्वत्ता के सामने यह चुनौती है कि वह अपने प्राचीन वाङ्मय में यत्र-तत्र बिखरे संदर्भों को खोज-बटोरकर उस सांस्कृतिक जय-यात्रा की कहानी को सूत्रबद्ध रूप में प्रस्तुत करे, जिसने सहस्राब्दियों पहले सरस्वती के पावन तट से निकलकर आसेतु हिमालय विशाल भारत को उसकी बहुविध विविधता के बीच एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व प्रदान किया।

(पत्र-पत्रिका, १८ अगस्त, २००२)
देवेंद्र स्वरूप

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