RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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लोकतंत्र का विराट् उत्सवमहाकवि दिनकर की कालजयी कविता की पंक्तियाँ याद कीजिए— सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो सिंहासन खाली करो कि जनता आती है! इस कविता में एक ओर भारत की भोली-भाली, मेहनतकश्ा, संघर्षशील जनता का भी चित्रण है, जो अनेकानेक चुनौतियों का सामना करती है, वहीं जनता की अपार शक्तियों, क्षमताओं का भी उल्लेख करके शासकों को चेताया गया है। वहीं इस कविता में जनता की शक्तियों का भी चित्र दिनकरजी ने प्रस्तुत किया है— लेकिन होता भूडोल बवंडर उठते हैं जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है दिनकरजी जनता की अपार शक्ति का सटीक निरूपण करते हैं। विश्व के देशों में हुई क्रांतियाँ इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। दक्षिण अफ्रीका में करोड़ों अश्वेतों के जीवन में सम्मानजनक परिवर्तन का आधार जनशक्ति ही थी, जिसे महात्मा गांधी ने जाग्रत् किया। जनशक्ति ही चंपारण में वर्षों से अन्याय, शोषण, दमन, अत्याचार के शिकार नील की खेती करने वाले लाखों किसानों की मुक्ति का कारण बनी, जिसे संगठित करके महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार को एक बार फिर झुकने पर विवश किया था। इस संदर्भ में उन अंग्रेज बुद्धिजीवियों की उन आशंकाओं को भी याद कर लेना जरूरी है, जो उन्होंने भारत में लोकतंत्र तथा भारत की जनता को लेकर व्यक्त की थीं। उनका मानना था कि भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ इतने धर्म हैं, इतनी जातियाँ हैं, अलग-अलग रीति-रिवाज हैं, अलग-अलग भाषाएँ हैं, तरह-तरह के बँटवारे हैं, अशिक्षा है, अंधविश्वास है, कुरीतियाँ हैं, वहाँ लोकतंत्र कैसे चल पाएगा? क्या सभी को मतदान का अधिकार देना उचित होगा? क्या सभी के मत को एक जैसा मूल्य प्रदान करना उचित होगा? लेकिन हमारे महान् राष्ट्र-निर्माताओं ने देश को ऐसा संविधान दिया, जिसमें जनता सर्वोपरि है, सारी शक्तियाँ जनता में ही निहित हैं। सभी को वोट की कीमत एक जैसी ही है, चाहे अरबपति हो या गरीब, विद्वान् हो या निरक्षर। महिलाओं को भी प्रारंभ से ही मताधिकार दिया गया, जबकि दूसरे देशों में उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। अंग्रेज बुद्धिजीवियों की सारी आशंकाएँ गलत साबित हुईं। जहाँ भारत के पड़ाेसी देशों में लोकतंत्र का गला घोंटा गया, सैनिक तानाशाही ने अपना फंदा कसा या नाम भर का लोकतंत्र रहा, भारत में लोकतंत्र के संवर्धन और संरक्षण के लिए आवश्यक ढाँचा भी विकसित किया गया। भारत के राष्ट्रपति का तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर होना तथा स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं का गठन एवं विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियों का समुचित बँटवारा आदि उल्लेखनीय व्यवस्थाएँ हैं। भारतीय लोकतंत्र की सात दशकों की गौरवशाली यात्रा पूरे विश्व के लिए एक मिसाल है। यहाँ इस बात का उल्लेख भी आवश्यक है कि जब लोकतंत्र को आघात पहुँचाने का प्रयास किया गया तो जनता ने पूरी शक्ति से उसका प्रतिकार किया। आपातकाल का उदाहरण देश के सामने है। एक बार फिर विराट् लोकतंत्र का उत्सव पूरा विश्व देखेगा। भारत का आम चुनाव पूरे विश्व में अपनी वैसी ही अलग छाप रखता है, जैसे विश्व को चमत्कृत करने वाला कुंभ मेला। आम चुनाव में हर मतदाता अपने मत का प्रयोग कर सके, इसके लिए व्यापक व्यवस्थाएँ की जाती हैं। पहाड़ हों या जंगल हों, द्वीप हों या अन्य दुर्गम स्थान, मतदान अधिकारी पूरे समर्पण से वहाँ पहुँचते हैं। सौ से भी ज्यादा देशों की कुल आबादी से अधिक संख्या भारत के मतदाताओं की है। इसीलिए अनेक देशों के अधिकारी तथा मीडिया के लोग भारतीय आम चुनावों के साक्षी बनने, अध्ययन करने, रिपोर्टिंग करने यहाँ आते हैं। जहाँ केंद्रीय चुनाव आयोग अनेकानेक व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से संपन्न करने का दायित्व वहन करता है, वहीं सबसे बड़ा दायित्व आम नागरिकों पर भी आता है कि मतदान अधिक-से-अधिक संख्या में हो। लोकतंत्र की सार्थकता इसी में है कि समस्त नागरिक हर स्तर पर अपनी भूमिका का निर्वाह करें। इस कार्य में समाजसेवी संस्थाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं, मीडिया, कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों आदि की भी विशेष भूमिका होनी चाहिए। यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा। बात है लोकसभा के ही आम चुनावों की। मतदान का पिछला अनुभव निराशाजनक था—मतदाताओं की संख्या के रूप में, जो लगभग चालीस प्रतिशत था। चुनाव आयोग ने व्यापक अभियान चलाने की एक योजना बनाई। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अनेकानेक ‘प्रोमो’ (गैर-व्यावसायिक विज्ञापन) प्रसारित किए गए, तरह-तरह के रोचक एवं प्रभावशाली नारे प्रसारित किए गए। प्रचार-प्रसार के अन्य साधनों का भी सहारा लिया गया। फिल्मी हस्तियों, मशहूर खिलाड़ियों का भी साथ मिला। इस मतदाता जागरूकता अभियान के सुखद परिणाम निकले तथा मतदाताओं की संख्या में खूब बढ़ाेतरी हुई और वह चालीस से बढ़कर लगभग साठ प्रतिशत तक पहुँच गई। सौभाग्य से आजकल हर किसी के पास मोबाइल फोन है। जागरूक नागरिक कहीं भी चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होते देखें तो तुरंत शिकायत कर सकते हैं। मतदान करते समय भी मतदाताओं का कर्तव्य है कि यदि किसी दल ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार को टिकट दिया है तो उसको वोट न दें और ऐसे तत्त्वों को लोकतंत्र के मंदिर में जाने से रोकें। चुनावों में अनाप-शनाप धन का व्यय भी एक बहुत बड़ी समस्या है। चुनाव सादगी से संपन्न हों, उम्मीदवार जनता से जुड़े हों तो सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार में निश्चय ही कमी आएगी। लोकतंत्र के उच्च सदनों में योग्य, ईमानदार, कर्मठ, समर्पित जनसेवक पहुँचेंगे तो देश का बहुत बड़ा हित होगा। किसी भी क्षेत्र से जीतकर जाने वाला जनप्रतिनििध्ा अपने क्षेत्र का तो विकास करे ही, साथ ही देश के शोषितों, वंचितों, उपेक्षितों की आवाज बने, देश की गंभीर समस्याओं से जुड़े सवाल पूछे तो देश का हित होगा। कई बार राजनीतिक दल लोकप्रियता और ग्लैमर के आधार पर फिल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों आदि को उम्मीदवार बनाते हैं, लेकिन वे अपनी व्यस्तताओं के कारण सदन में कम उपस्थित हो पाते हैं, उनके पूछे गए प्रश्नों की संख्या तथा गुणवत्ता भी अधिक नहीं होती और क्षेत्रवासियों को पाँच वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ती है। ऐसे लोग प्रायः अपने क्षेत्र में भी कम जाते हैं और जनता निराशा का शिकार हाेती है। आम चुनाव के समय जनता अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों का सही निर्वहन कर दे तो देश की अनेकानेक समस्याओं के समाधान का रास्ता निकल आए। मात्र एक दिन वोट डाल आने से ही बात नहीं बनती। जनता अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करे, सही उम्मीदवार को चुने, आचार संहिता के पालन की निगरानी करे तो भारतीय लोकतंत्र और सुदृढ़ होगा तथा विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र विश्व का आदर्श लोकतंत्र भी बनेगा। हिंदी गजल वर्तमान समय में हिंदी की पत्रिकाओं की संख्या तथा पाठकों की संख्या सीमित हो गई हो, किंतु इंटरनेट क्रांति के कारण सैकड़ों पटल प्रायः हर दिन व सप्ताह में दो-तीन बार या साप्ताहिक रूप से साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे हैं। हर दिन विविध पटलों के माध्यम से सैकड़ों कविताओं का प्रसारण किया जाता है। इनमें एक-एक घंटे के एकल काव्यपाठ भी होते हैं तथा काव्य-गोष्ठियाँ भी होती हैं। कविता-प्रेमियों ने महसूस किया होगा कि इन कविताओं में अस्सी से नब्बे प्रतिशत हिस्सा गजलों का होता है। ऐसे भी अनेक पटल हैं, जो मात्र गजल विधा को ही समर्पित हैं। कुछ पटल गजल सिखाने का भी कार्य कर रहे हैं। ऐसे परिदृश्य में हिंदी गजल की यात्रा पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। यों तो कबीर की भी एक गजल का जिक्र होता है, ‘हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन से होशियारी क्या’, फिर भारतेंदु हरिश्चंद्रजी की गजलें याद आती हैं, फिर महाकवि निराला से होते हुए यह सिलसिला शमशेर बहादुर सिंह तक पहुँचता है, लेकिन हिंदी गजल की पहचान नहीं बन पाई। हिंदी गजल की असली गाथा का शुभारंभ होता है आपातकाल से, जब प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ में दुष्यंत कुमार की गजलों का विशेषांक आया। हिंदी गजल का ऐसा जादू चला कि लगभग सभी प्रतिष्ठित गीतकारों ने हिंदी गजल विधा को अपना लिया। हालाँकि कुछ गीतकार दुष्यंत कुमार के पहले से गजलें लिख रहे थे, जैसे बालस्वरूप राही या सूर्यभानु गुप्त आदि, किंतु हिंदी गजल को पहचान तथा प्रतिष्ठा दुष्यंत कुमार से ही मिली। इसका कारण भी स्पष्ट था कि आपातकाल की भयावहता को इन गजलों में व्यक्त किया गया था तथा देशवासियों के आक्रोश को आवाज मिली थी— हो गई है पीर पत्थर सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहें, इस अँधेरी कोठरी में रोशनदान है। यहाँ सीधा-सीधा इशारा जयप्रकाश नारायण पर था, जब डर का वातावरण बना हुआ था, तब यह तेवर भी उल्लेखनीय था— मुझमें बसते हैं करोड़ों लोग, कैसे चुप रहूँ, हर गजल सल्तनत के नाम एक बयान है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तुलसीदासजी के बाद यदि किसी को सर्वाधिक उद्धरित किया जाता है, तो वे दुष्यंत कुमार हैं—चाहे नेता का भाषण हो या संत का प्रवचन या विद्यार्थियों की वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ...। यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदी गजल को लेकर कितना विवाद हुआ था। दुष्यंत कुमार की गजलों के संग्रह ‘साये में धूप’ की भी खूब आलोचना हुई थी। यह और बात है कि अब इसके पचास से अधिक संस्करण छप चुके हैं। न जाने कितने लेख लिखे गए, बहसें होती रहीं, लेकिन हिंदी गजल का कारवाँ आगे बढ़ता रहा। आज हिंदी गजलकारों के शेर भी उद्धृत होते हैं। सैकड़ों गजल-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। अधिकांश पत्रिकाओं ने हिंदी गजल विशेषांक प्रकाशित किए हैं। विश्वविद्यालयों में शोध हुए हैं, हो रहे हैं। पाठ्यक्रमों में हिंदी गजलें पढ़ाई जा रही हैं। हिंदी गजलकारों को देश-विदेश में उर्दू वाले मंचों पर भी सम्मान सहित बुलाया जा रहा है। हिंदी गजल वाले उर्दू गजल के व्याकरण का भी समुचित पालन कर रहे हैं। दुष्यंत कुमार की गजलों ने उर्दू गजलों का भी चेहरा बदल दिया। अब उर्दू गजल हो या हिंदी गजल, वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ी है। हिंदी गजल ने चार दशकों में जो प्रतिष्ठा पाई है, वह विश्व की किसी भाषा की किसी काव्यविधा ने शायद ही पाई हो। (लक्ष्मी शंकर वाजपेयी) |
सितम्बर 2024
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