प्यार और जिंदगी

प्यार और जिंदगी

जाने-माने लेखक। अब तक कालजयी, जटायु (खंड काव्य), चुटकी (द्विपदी हास्य-व्यंग्य-संग्रह), आसपास बिखरी हुई जिंदगी, जीवन के रंग (कहानी-संग्रह), खरी-खोटी (व्यंग्य-संग्रह), चरणों में (भजन-संग्रह), काव्य-रत्न (समीक्षाएँ एवं परिचय), दोहा गाथा प्रकाशित। छोटे-बड़े दर्जनों सम्मान प्राप्त।

मेरी पत्नी की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई थी। दाह- संस्कार के लिए उसका शव गंगा नदी के तट पर ले गए। साथ में बेटा और निकटतम रिश्तेदार थे। बेटा दाह-संस्कार की प्रारंभिक तैयारियाँ पूरी कराने में जुट गया। मैं गंगा तट के किनारे एक ईंट के ऊपर बैठा हुआ उदासीन नजरों से अपनी पत्नी को निहार रहा था।

बावन वर्षीय दांपत्य-सुख देकर आज मुझे बिलखता छोड़कर परम धाम जा रही थी। एक दिन चुहलबाजी में उसने कहा था, ‘देखो जी! सच्ची बात सुन लो। जाना तो पहले मुझे ही है। मुझे विधवा-मौत पसंद नहीं। और हाँ, यह भी सुन लो, मुझे गंगा किनारे ही जलाना। बड़ी साध है मेरी। अंतिम समय में गंगा मैया की गोद मिले।

‘एक बात और। सुन रहे हो न तुम? आपको सिंगार-पटका अच्छा नहीं लगता था तो मैं सधवा होते हुए भी माँग में सिंदूर नहीं भरती थी। किसके लिए सिंदूर भरा जाए?

‘मेरी माँग के सिंदूर तो आप ही थे। लेकिन मैं चाहती हूँ कि मेरे मरने के बाद मेरी माँग में ढेर सारा लाल सिंदूर अपने हाथों से जरूर भरना, ताकि जिंदगी भर की कसक मिट जाए। मुझे बहुत अच्छा लगता है माँग में भरा हुआ सिंदूर। दूर से ही पता चल जाता है कि कोई नसीबों वाली सधवा जा रही है।’

आज उसकी सारी बातें सही साबित हो रही हैं। मैं अंदर तक टूटा हुआ था। बिखरा-छितरा मन लिये। डबडबाई आँखों से उसकी माँग में गहरे लाल सिंदूर को निहारे जा रहा था। चेहरे पर असीम शांति थी। होंठों पर वही चिर-परिचित मुसकान। मानो मुझसे कह रही हो कि आपने मेरी सारी इच्छाएँ पूरी कर दी हैं। अब मैं तृप्त होकर जा रही हूँ। बस अपना ध्यान रखना।

चिता पूरी तरह सज चुकी थी। बेटे ने मुझे आवाज दी। मैंने उसके अंतिम दर्शन किए। उसकी आजीवन सेवा के लिए मैंने उसके चरण छूकर आभार व्यक्त किया। फिर जल्दी से लकड़ी का एक बोटा उठाकर उसके सीने पर सावधानी से रख दिया। बेटे ने मुखाग्नि दी। धीरे-धीरे शरीर पंचतत्त्व में विलीन होने लगा। हम सभी उसके शव का पूरी तरह दाहित होने का इंतजार करते रहे।

अचानक एक और अरथी दाह-संस्कार हेतु हमारे ही बगल में लाकर उतारी गई। उसके साथ आए परिजन प्रारंभिक तैयारियों में जुट गए। मैंने अरथी लाने वाले एक युवक से जिज्ञासावश पूछा कि “बेटे! आप कहाँ से आए हैं? यह मृतक शरीर किसका है?” युवक ने बताया कि हम बुलंदशहर से आए हैं और ये मेरी बुआजी हैं। इन्होंने शादी नहीं की थी, अतः इनके सारे अंतिम संस्कार मैं ही करूँगा। इन्होंने मुझे पुत्रवत् प्यार दिया था हमेशा।

बुलंदशहर नाम सुनकर मैं कुछ चैतन्य हुआ। मैंने उसी युवक से फिर पूछा कि आपके पिताजी और दादाजी का नाम क्या है? उसने दादाजी का नाम श्याम सुंदर और पिता का नाम रमेशचंद्र बताया। श्याम सुंदर नाम सुनते ही मेरी उत्सुकता और बढ़ गई। मैंने फिर उस मृतक महिला का नाम पूछा, तो उसने पुष्पा बताया। बुलंदशहर, श्याम सुंदर और पुष्पा—ये तीनों संज्ञाएँ मेरे कानों मे जोर-जोर से गूँजने लगीं। मैं उछलकर खड़ा हो गया। मेरी आँखों के आगे मेरा अतीत घूमने लगा।

जब मैं अपनी नौकरी की पहली पोस्टिंग पर बुलंदशहर में तैनात था तो मेरे किराए के मकान से सटा श्री श्याम सुंदरजी का मकान था। उनकी एक पुत्री थी पुष्पा और एक बेटा रमेश। पुष्पा बड़ी शोख और चंचल लड़की थी। हँसती थी तो उसके दोनों गालों के डिंपल अपनी ओर खींचने लगते थे। दोनों गालों पर एक-एक तिल था, गहरा काला। तब वह बारहवीं में पढ़ती थी। धीरे-धीरे हम दोनों में प्यार हो गया। हम दोनों चोरी-छुपे रोज मिलते। बिना मिले चैन ही नहीं पड़ता था। उसके घरवालों को कुछ भी जानकारी नहीं थी हम दोनों के प्यार के बारे में। श्री श्याम सुंदरजी कपड़े की दुकान चलाते थे। मुझे आज भी याद है कि वह दुकान भूड़-चौराहे के एक किनारे पर बनी थी। मेरा उस दुकान पर अकसर आना-जाना लगा रहता था। हमारा प्यार परवान चढ़ने लगा और हम दोनों ने आपस में शादी करने का वचन भर लिया। वह धार्मिक और सामाजिक सरोकारों की ज्यादा पाबंद थी। उन दिनों प्रेम विवाह करना सामाजिक अपराध समझा जाता था। वह घरवालों की सहमति से ही विवाह करना चाहती थी। लेकिन उसकी इंटर की पढ़ाई बीच में रुकावट डाले हुए थी। दोनों ने मिलकर यह तय किया कि पहले बोर्ड की परीक्षा हो जाए, तब ही शादी की बात शुरू की जाए।

अचानक मेरा तबादला लखनऊ हो गया। मुझे विदा करते समय वह मुझसे लिपटकर रोने लगी। फिर सुबकते हुए बोली, ‘देखो! अपना वचन याद रखना। मैं शादी करूँगी तो आपसे ही। अगर किसी भी कारणवश ईश्वर को यह रिश्ता मंजूर नहीं हो सका तो आजन्म कुँआरी ही रहूँगी। अगर घरवालों ने ज्यादा दवाब डाला तो कुएँ में कूदकर जान दे दूँगी, लेकिन किसी और से शादी नहीं करूँगी। चाहे कुछ भी हो जाए।”

मैंने उसे आश्वस्त किया और लखनऊ चला आया। चलते समय मैंने उसे दफ्तर का पता बता दिया। उन दिनों टेलीफोन सेवा अत्यंत दयनीय स्थिति में थी। मोबाइल तो ईजाद ही नहीं हुआ था। कुछ दिन बाद दफ्तर के पते पर उसका प्रेम-पत्र मिला। मैंने भी जवानी के जोश में उसे एक लंबा-चौड़ा इश्किया-पत्र लिखकर उसके पिता की दुकान के पते पर पोस्ट कर दिया। फिर तो जो होना चाहिए था, वही हुआ।

पुष्पा के पिता बड़े गुस्सैल थे। वह पत्र उन्होंने खोलकर अवश्य पढ़ा होगा। फिर घर आकर पुष्पा को भद्दी गालियाँ देते हुए उसकी जमकर पिटाई भी की होगी। स्कूल से नाम कटवा दिया गया होगा। घर से बाहर आना-जाना बिल्कुल बंद। उसकी शीघ्र ही शादी करने का प्रयास किया गया होगा। लेकिन पुष्पा की जिद पर अड़ी होने और आत्महत्या करने की धमकी के कारण वह आजन्म कुँआरी रही होगी। मैंने भी लखनऊ आने के बाद अनेक बार उससे संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन कभी मुलाकात नहीं हो सकी। मैं भी अपने मन में यह सोचकर शांत हो गया कि शायद परिस्थितियों से मजबूर होकर उसने शादी करके घर बसा लिया होगा।

लेकिन आज वही पुष्पा अपनी अंतिम-यात्रा पर जाने से पहले चार कंधों पर सवार होकर मुझसे मिलने श्मशान घाट आई। शायद मुझे याद दिलाने कि देखो! मैंने अपना वचन निभाया है। मैं आज भी, अपनी आखिरी सांस तक तुम्हारे इंतजार में वैसी ही कुँआरी बनी बैठी हूँ। और एक आप है, अपना वचन तोड़कर शादी रचा बैठे? किसी ने सच कहा है कि मर्द बड़े बेवफा होते हैं।

अचानक मुझे अहसास हुआ कि वह शायद मुझे अपने पास बुला रही है। मैं हड़बड़ाकर अतीत की धुंध से बाहर निकला और पुष्पा को चिता पर जाकर देखा। मुख पर झुर्रियों के बीच अब भी वे दोनों डिंपल मुझे आमंत्रण देते से लगे। दोनों गालों पर वही गहरे काले तिल। मैंने उसके चरण छूकर उससे क्षमा-याचना की। मैं आज स्वयं को कितना अभागा महसूस कर रहा था। एक तरफ मेरा प्यार जल रहा था, तो दूसरी तरफ मेरी जिंदगी। मुझे पत्नी का शोक और प्रेमिका के साथ अनजाने में हुई बेवफाई की शर्म जिंदा ही जलाए जा रही थी।

४०१-ए, उदय-१,

बंगला बाजार, लखनऊ (उ.प्र.)

दूरभाष : ८७०७४८२५९४

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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