हमके ओढ़ा द चदरिया हो, चलने की बेरिया

हमके ओढ़ा द चदरिया हो, चलने की बेरिया

हिंदी साहित्य की सुप्रसिद्ध लेखिका। रचना-संसार : ‘विवश विक्रमादित्य’, ‘दूबधान’, ‘कासवान’, ‘गिली पांक’, ‘जनम अवधि’, ‘घर से घर तक’, ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (कथा-संग्रह); ‘फागुन के बाद’, ‘सीमांत कथा’, ‘रत्नारे नयन’, ‘पानी पर लकीर’, ‘सिरजनहार’, ‘अगन हिंडोला’ (उपन्यास); ‘कहाँ गए मेरे उगना’, ‘हीरा डोम’ (नाटक); ‘डैडी बदल गए’, ‘नानी की कहानी’, ‘सात भाई और चंपा’, ‘चिड़िया चुग गई खेत’ (बाल-नाटक); ‘संस्कृति के कालपात्र’, ‘एक बम हजार गम’ (नुक्कड़ नाटक); ‘उड़ाकू जनमेजय’ (बाल उपन्यास); ‘वीर कुँवरसिंह’ (चित्रकथा)। मैथिली में ‘काचहीबाँस’ (लघुकथा-संग्रह), ‘हसीना मंजिल’, ‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘दूर्वाक्षत’, ‘भामती’, ‘पोखैर रजोखैर’ (उपन्यास), ‘जाहि सह पहिने’ (कविता), ‘फागुन’, ‘एक्सैर ठार’, ‘भुसकौल वाला’ (नाटक), ‘घंटी से बनहल राजू’, ‘बिरहो अबी घेल’ (बाल-नाटक)। पुरस्कार-सम्मान—पद्मश्री, साहित्य अकादमी अवॉर्ड, हिंदी-सेवी सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार, पं. विद्यानिवास सम्मान, कुसुमांजलि सम्मान एवं अन्य सम्मान। स्मृतिशेष : ११ फरवरी, २०२४।

हह-हह’ की बोली बोलकर बैलों को खड़ा कर दिया कोकाई ने। हल की नास पहले ही सीधी कर ली थी। बैल मूर्ति की तरह खड़े हो गए। कोकाई ने सिर पर से गमछा उतारा, पसीने से लथपथ अपना चेहरा पोंछा, घनी मूँछें सँवारीं, फिर बैलों की पीठ सहलाने लगा—“बड़ी गरमी है न! तुम्हारे मुँह से फेन निकलने लगा। अच्छा बेटे, अब घर ही चलते हैं। आराम से नमना ढेर सारा पानी, नाँद पर खाना खली-भूसा, कल तक करते रहना पागुर।”

बैलों ने अपने कान हिलाए। मालिक का हाथ बदन पर आह्ल‍ादित कर रहा था। कोने के धूर पर खड़े कोकाई ने देखा, पूरा खेत जुत चुका है। वाह, क्या सम पर सारे सीत खड़े हैं! एक जगह भी बेउरेब नहीं। कोकाई का कमाल है। बड़े मालिक हरदम कहा करते थे, ‘खेत जोतना कोकाई जानता है, बीज डालना कोई इससे सीखे। जब धान का पौधा बित्ता भर का होता है, तब खेत की लुनाई देखते ही बनती है। क्या स्वाभाविक कलाकार है कोकाई!’ उनके कहने से उत्साह बढ़ता इसका। ओह, क्या थे बड़े मालिक। सुना था कि कोकाई का पिता इसे माँ के पेट में छोडकर ऊपर चला गया था। माँ को चाचा-चाची ने सँभाल लिया। कोकाई चाचा की गोद में पलकर बड़ा हुआ। जब पाँच साल का था तब बैल ने आँख में सींग मार दिया। बड़े मालिक पटना तक ले जाकर इलाज कराते रहे, आँखें ठीक नहीं हुईं। ताजिंदगी एक आँख के सहारे काम करता रहा। अब क्या, कट गई इतनी, आगे भी कट जाएगी। जमीन का यह टुकड़ा मालिक ने स्वेच्छा से लिख दिया था। पुराने सेवक का बाल-बच्चा था कोकाई, न लिखते जमीन तो सीलिंग में जाती। जो भी हो, यह जी उठा एकबारगी।

गाँव के लोग पहले पूरब धन कमाने जाया करते थे, अब पश्चिम जाने लगे। कोकाई अपने युवाकाल में एक बार संगी-साथियों के साथ चौमासा करने, कुछ धन कमाने पूरब गया था; पर उसे रास नहीं आया। वहाँ पाट धोने के क्रम में तलुओं में कोई धारदार वस्तु गड़ गई। दवा लेने और ठीक होने में काफी दिन लग गए। कोई कमाई भी नहीं हुई, उलटे स्वास्थ्य की हानि हुई। डेढ़ मन का बोरा अकेले पीठ पर उठाकर चल देनेवाला कोकाई दो अढ़ैया भी उठा नहीं पाता। उसने कान उमेठे अपने—न, कभी ढाका-बंगाल कमाने नहीं जाएँगे। बाद के दिनों में जब बेटे पश्चिम जाने लगे तब बड़ा दबाव डाला—बाउ, पश्चिम की बात ही कुछ और है। बड़ा साफ काम है। क्या करोगे चौमासा में घर में रहकर? वहाँ धान रोपनी करना। देश देखोगे। नहीं रे, मुझे नहीं सहता पूरब-पच्छिम। हम कहीं नहीं जाएँगे और ये क्या बोलता है कि क्या करोगे? काम का कोई टोटा पड़ा है? ढेर काम है। चौमासा पर घर-छवाई का काम है। अकेले कारीगर हम हैं। तुम लोग सब गाँव छोडकर चले जाते हो, रह जाती हैं सिर्फ झोटिया पंच लोग। उन्हीं लोगों को खढ़ का पुल्ला फेंकना पड़ता है छप्पर पर। ‘काम नहीं है’ बोलता है। देर तक बड़-बड़ करता रहता कोकाई। बेटे सोचते, सच ही तो कहता है बाउ, इसे काम की क्या कमी है? बहुत तेज बारिश हुई और रोपनी खत्म हो गई हो तो टेरुआ लेकर सुतली कातने बैठता कोकाई। सुतली कती होती तो गोवर्धन-पूजन के वक्त गाय-बैलों के लिए रस्सी बनाने में देर नहीं होती। बरसात में ही कोकाई सुतली का जाबी बना लेता, जो धान दउनी के वक्त बैलों के मुँह पर जाली की तरह बाँधना होता। इन दिनों कुछ लोग कोकाई से बनवाने भी लगे थे। कोकाई कोई मेहनताना नहीं लेता। बनवानेवाला अपना पाट दे जाते, यह बना देता। अलबत्ता कोई अपने घर बैठाकर सुतली कतवाता और जाबी रस्सी बनवाता तो मजूरी देनी पड़ती। काम के लिए समय ही नहीं बचता और ये मूरख, लहेंगड़े कहते हैं कि चौमासा में घर पर रहकर क्या करोगे?

अरे, घर पर रहकर देखो कि क्या किया जाता है! हर साल बाढ़ में खेत-खलिहान डूब जाते हैं। गाय-बैल के लिए घास क्या अकेली औरत बेलसंडीवाली काटेगी? अब अलौंत ब्याई गायों को हरे चारे के बिना चंगा कैसे रखा जा सकता है? बहुओं को घास काटने भेजें? वे भी तो बच्चेवाली हैं। कोकाई यह सब सोच-विचारकर गाँव नहीं छोड़ता। ऐसा ही है यह। उस बार की सर्वग्रासी बाढ़ में जब गाँव छोडऩे की बारी आई तब कोकाई ने नावों पर ढोर-डंगर और औरत-बच्चों को ढोया था दिन भर तटबंध तक। अब भी वह दृश्य याद कर सिहर उठता है कोकाई। प्रलय था, प्रलय! गाँव के सारे नवयुवक और अधेड़ परदेस गए थे, मात्र स्त्रियाँ, वृद्ध और बच्चे थे। कौन समझदार व्यक्ति एकदम से गाँव छोडकर चला जाएगा?

ये नई पौध दूसरे की बगिया महकाने जाती है, अपनी भूमि को छोड़ दिया। जमीन को सुला दिया है।

अचानक ठंडी हवा का झोंका आया। कोकाई को अच्छा लगा। उसने आकाश की ओर निहारा। घने काले मेघ घिर आए हैं। वाह, रोहिणी के आते ही मेघ! बड़ा अच्छा संकेत है। आज जल बरसा तो साल भर बरसेगा। फसल अच्छी होगी, साधुओं के भंडारे का इंतजाम हो जाएगा। कोकाई अपने बाहुबल की कमाई से भंडारा देना चाहता है। कबिरहा है न! खुदमुख्तार है। देखा, दोनों बेटे दौड़े आ रहे हैं। मेघ की छाया से धरती सँवला गई थी। कैसे जान-बेजान दौड़े आ रहे हैं छोकरे।

“बाउ, हो बाउ!”

“क्या है रे?”

“बाउ, घर चलो, आँधी-तूफान का रंग है।”

“चल, बैलों का मुन्ही छिटका, खोल दे। हल खेत में पार दे। जल्दी कर!” लडके उधर दौड़े। कोकाई को हँसी आई—आँधी तो नहीं आएगी, बारिश होगी। आँधी के वक्त आकाश का रंग भूरा हो जाता है, यह तो काला कुच-कुच हो गया है। अनुभव का थोड़ा है बेटवा सब। खुद सँभलेगा, अभी तो हम हैं न आकाश बने हुए। सोचता है कोकाई।

“अरे हो कोकाई! खेत से भागो, झोंपड़ी में आओ। पहिला मेघ है, ठनका-उनका गिरेगा तो तुम ही...।” मनीजरा अपने मचान के नीचे से आवाज दे रहा था।

“आते हैं, आते हैं; बहुत गरमी थी जरा ठंढाने दो।” सचमुच ठनका काले रंग पर गिरता है। भैंस, हाथी लोग छुपा लेते हैं। उसके बाद बचा कोकाई, पक्के रंग का। कई बार चाचीजी मजाक करती हैं—“रे कोकाई, तू मेघ-बुन्नी में खेत में न जाया कर, काला पाथर जैसा है, बिजलौटा गिर जाएगा।”

“अरे, खोल न रे; बैलों को निकाल, घर हम भी चलते हैं। ई रोहिणी की बूँद देह को हलका ही करेगी।” टोकरी-गैंती समेटकर छोटे बेटे को बढ़ाते हुए कोकाई रपेटता है बड़े बेटे को। बहुत गुम थी हवा, बड़ा आतप था भारी। धरती की गरमी रोहिणी मैया हरने आ रही थी।

अम्मा को जाने कौन जानलेवा बीमारी ने ग्रसित कर लिया था, निज कोकाई के गौने के दिन चल बसी! इसे तो टुग्गर बना ही गई, बेलसंडीवाली ने सास का सुख ही न देखा। बेलसंडीवाली पहले से टुग्गर थी। उसके माँ-बाप हैजा टुनकी से चल बसे थे। मामा-मामी के घर पली थी वो। कोकाई कम-से-कम माँ के साए का सुख तो भोग सका था। माँ का बेटा होने के नाते इसके पल्ले गृहस्थी का गहरा ज्ञान आया। यह कायदे का खेतिहर और मितव्ययी गृहस्थ हो गया। कबिरहा होने के कारण ऊपर से स्वयं फक्कड़ और अंदर से बहता निर्मल सोता रहा। बेलसंडीवाली ने एक के बाद एक दो बेटे जने, बेटी नहीं। बिना किसी दवा-दारू के दो बच्चों के बाद तीसरा पैदा ही न हुआ। कोकाई को एक बेटी की चाह थी, जो पूरी न हो सकी। उसने गाँव भर की छोटी बच्चियों के लिए कई बार रंगीन क्लिप और फुँदने खरीदकर अपनी साध पूरी की।

नियम-कानून को माननेवाला कोकाई हर साल अपना बैल बदल लेता। नई खेती पर नया बैल खरीदता। पुराना बैल बेचकर जो पैसे हाथ में आते, उसमें और लगाकर नया बैल खरीद लेता। तीन साल पहले जो बैल इसने हाट पर चढ़ाया था, उसका खरीदार इलाके में शिकायत करता पाया गया कि कोकाई ने बेकार बैल उसे थमा दिया है। वह खेती के काम का नहीं, वह उसे बेच देगा। कोकाई ने इस कान से सुना उस कान से उड़ा दिया। अगहन में जब गोसाईं साहब गाँव आए तो यह भी चढ़ावा लेकर साहेब बंदगी करने पहुँचा। गुरु ने पहुँचते ही आड़े हाथों लिया।

“कोकाई, तूने बैल कसाई को बेचा सुना है, पराच्छित करना पड़ेगा।” उन्होंने फरमान जारी किया।

“नहीं गोसाईं साहेब, नहीं! हम नेवला गाँव के किसान के हाथ बैल बेचकर आए थे।”

“गलत बात, तेरा बैल कसाई ले जा रहा था, दस मुंड देखा है। बोलो, कौन-कौन देखा है?”

सचमुच कुछ लोग उछल खड़े हुए कि उन्होंने देखा है। कोकाई हक्का-बक्का रह गया। उसने कहा कि वह उस किसान को ढूँढ़ लाएगा, जिसने बैल खरीदा; पर सुनवाई न हुई। सजा सुना दी गई। सजा को कोई कबिरहा नकार ही नहीं सकता। गोसाईं साहब की दी हुई सजा जो थी।

“इस बार फसल नहीं हुई गोसाईं साहेब, सजा जरूर दीजिए।” वह गिड़गिड़ाया

“सजा जब फसल अच्छी हो, तभी पूरी करना। समय सीमा है साहेब के पास जाने तक की। चादर मैली लेकर जाओगे?” पैरों पर गिरे कोकाई से साहेब ने कहा था।

आकाश का यह काला रंग, रोहिणी नक्षत्र की बूँदें आशा की संचार करती हैं। अपनी एक रोशन और एक निस्तेज आँखों से आकाश की ओर निहारा। खुशी से खिले चेहरे के स्वामी के पोपले मुख में एकमात्र दाँत, बिजली की अभूतपूर्व कौंध और एक गड़गड़ाहट। फेंकना-बुधना, मनीजरा कान में उँगली डाल धरती की ओर मुँह झुकाकर बकने लगा, “सहोर-सहोर।”

पूँछ उठाकर भागते बैलों की जोड़ी थम गई। बारिश की मोटी-मोटी बूँदें भिगोने लगीं धरती को। बैल चलते हुए आकर अपने हलवाहे के पास खड़े हो गए। फेंकना-बुधना और मनीजरा दौड़कर पास आ गए। कोकाई गिरा पड़ा था झुलसे हुए पेड़ की तरह। उसके पैरों के पास एक बड़ा गढ़ा हो गया था। कोकाई की खुली आँखें आकाश निहार रही थीं, शरीर का रंग काला न रहकर भूरा हो गया था। वह निस्पंद, निस्पृह धरती पर लेटा हुआ था।

“बाउ, बाउ, कोकाई का...” के आर्त स्वर से उसमें कोई हलचल नहीं हुई। अपने-अपने मचान और खेतों से दौड़े हुए ग्रामीण आए।

वयोवृद्ध यदु ने कहा, “ठनका यहीं गिरा है, कोकाई चपेट में आ गया। देखते क्या हो? खाट लाओ, आँगन ले चलो। आधे घंटे की बारिश ने मौसम बदल दिया था। उमस भर गई थी।”

कोकाई के संस्कार के बाद बेटों ने, जैसा कि अकसर होता है, उधार लेकर भंडारे का आयोजन किया। भंडारा चूँकि साधुओं का था, सो शुद्ध घी का हलुआ-पूड़ी, बुँदिया-दही का प्रसाद रहा। संस्कार के वक्त ही साधु के प्रतिनिधि ने बड़े बेटे फेंकना से कहा, “तुम कोकाई को अग्नि कैसे दोगे? साँकठ जो हो, पहले कंठी धारण करो; साधु को पैठ होगा, वरना...”

रोता हुआ अबूझ-सा फेंकना कंठी धारण कर बैठ गया। बारहवीं का भोज समाप्त हुआ। गले में गमछा डालकर फेंकना-बुधना साधुओं के सामने खड़ा हुआ।

“साहेब, हम ऋण से उऋण हुए कि नहीं?” कान उऋण सुनने के लिए बेताब थे।

साधु घी की खुशबू में सराबोर थे; कीर्तनिया झाल-मृदंग बजाकर गा रहे थे—‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तिहारे जाऊँ।’

“नहीं रे फेंकना, तेरी ऋण-मुक्ति कहाँ हुई? गोसाईं साहेब ने दो साल पहले पचहत्तर मुंंड साधु का भोज-दंड दिया था। नहीं पूरा कर पाया बेचारा। यह तो तुम्हें ही पूरा करना पड़ेगा। उऋण होना है तो यह सब करना पड़ेगा।”

“पचहत्तर मुंड साधु! क्या कहते हैं? हम ऐसे ही लुट गए, अब कौन देगा ऋण भी हमको?” रोने लगा फेंकना।

“क्या? तो बाप का पाप कैसे कटित होगा?”

“आप लोग अन्याय कर रहे हैं। कबीरदास सभी रूढ़ियों के खिलाफ थे। उनका नाम लेकर रूढि़वाद की पराकाष्ठा पर चले गए हैं।” गाँव के एक मैट्रिक पास युवक ने आगे आकर कहा।

“तुमसे कौन पूछता है? यह फेंकना के उऋण होने की बात है, उसे बरगलाकर पाप के भागी बनने पर मजबूर न करो।”

“बड़का पढ़ुआ बने हो!” लेकिन प्रतिकार करने को भी बहुत सारे लड़के इकट्ठे हो गए। अच्छा हंगामा मच गया। फेंकना ने मेट साधु के पैर पकड़ लिये। बुधना रो-रोकर हलाकान हो गया। बेलसंडीवाली को गश पर गश आने लगे।

“ऐ प्राणी, अपनी माँ को बुलाओ। हम उसी से पूछेंगे, अपने आदमी को परलोक में किस स्थान पर रखना चाहती है?” उनकी निर्भय गर्जना ने फेंकना के अंदर साहस का संचार किया। वह ग्रामीणों की ओर मुड़ा, अपने आँसू पोंछे और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

“कहिए चाचाजी, भैयाजी लोग! हम गरीबों की मदद कैसे करेंगे आप?”

“कहने की बात है, जाते हैं साहुजी के पास। सब सामान लिखा देते हैं, तुरंत काम होगा।” एक खुर्राट ग्रामीण ने कहा। साहुजी दौड़े हुए सामान गिरा गए। हलवाई बैठ गए। बारहवीं से लेकर तेरहवीं तक सत्तर मुंड साधुओं का जीमने लगा। यह अतिरिक्त मुंड प्रायश्चित्त का था।

कीर्तनिया अलाप ले रहे थे—‘हमके ओढ़ा द चदरिया हो चलने की बेरिया।’

“बबुआ फेंकन, इस लिस्ट पर दसखत कर दो, मेरे पास रहेगा। कमाकर देते रहना दोनों भाई। पढ़ लो ठीक से।” साहुजी ने कहा।

फेंकन ने टो-टा कर पढ़ लिया—‘दो पैसा सैकड़ा सूद।’ भरी आँखों से सकल समाज की ओर देखता रहा, फिर दस्तखत कर दिए।

“आह, बाप का काम संपन्न हुआ। दंड भी पूरा किया। वाह बेटा!” खुर्राट ग्रामीण ने कहा। धीरे-धीरे अतिथि जाने लगे। फेंकना भारी कदमों से गश खाती माँ के पास आ खड़ा हुआ। धीमे से बैठा। माँ ने उसकी ओर कातर निगाहों से देखा।

“माँ, कल भोरे गाँव से निकलना है, होश करो। बुधना खेत सँभालेगा, तुम पीठ पर रहना। बाउ के काम का कर्ज जब तक नहीं उतारेंगे, उनके ऊपर चादर कैसे ओढ़ाएँगे? बाउ यहीं कहीं रहेगा, पैठ नहीं होगा।” बेटे से लिपटकर जी भर रो चुकी बेलसंडीवाली फिर कभी होश नहीं खो सकी।

बनारस में डबल शिफ्ट रिक्शा चलाता फेंकन हलाकान होकर कबीर चौरा चौक पर सो जाता है कुत्ते की नींद और जागता है बिल्ली की नींद। कीर्तन के उदास स्वर हवा में तैरते रहते हैं—‘हमके ओढ़ा द चदरिया हो...’

रिक्शे पर पैडल जोर से मारने लगता है फेंकन—कर्ज की कई किस्तें बाकी हैं।

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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