दिल्ली तीर्थ दर्शनम्-२

दिल्ली तीर्थ दर्शनम्-२

प्रेमपाल शर्मा : सुपरिचित लेखक-संपादक। बुलंदशहर (उ.प्र.) के मीरपुर-जरारा गाँव में जन्म। देसी चिकित्सा लेखन में विशेष दक्षता। ‘जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ’, ‘स्वास्थ्य के रखवाले’, ‘घर का डॉक्टर’, ‘स्वस्थ कैसे रहें?’ तथा ‘शुद्ध अन्न, स्वस्थ तन’ एवं ‘नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे’ (यात्रा-संस्मरण) कृतियाँ चर्चित। ‘साहित्य मंडल’ नाथद्वारा द्वारा ‘संपादक-रत्न’ एवं ‘साहित्य-मनीषी’ की मानद उपाधियाँ। आकाशवाणी मथुरा तथा नई दिल्ली से परिचर्चा, वार्त्ता आदि प्रसारित।
नाथद्वारा द्वारा ‘संपादक-रत्न’ एवं ‘साहित्य-मनीषी’ की मानद उपाधियाँ। आकाशवाणी मथुरा तथा नई दिल्ली से परिचर्चा, वार्त्ता आदि प्रसारित।

‘दिल्ली तीर्थ दर्शनम्’ का पहला भाग पाठकगण ‘साहित्य अमृत’ के अप्रैल, २०१९ अंक में पढ़ चुके हैं, अब यह दूसरा भाग प्रस्तुत है। कई-कई बार कोरोना की लहर की मार झेल चुकी दिल्ली में जनवरी से टीकाकरण शुरू हो गया था। कोरोना की रफ्तार भी धीमी हो गई तो सबकुछ अनलॉक कर दिया सरकार ने। सो कई महीनों से दिल्ली तीर्थ-दर्शन की योजना बना रहे मैं और मेरे परम मित्र आनंद शर्मा नौ फरवरी, २०२२ को एक ऑटो में बैठ दिल्ली दर्शन के लिए निकल पड़े। सबसे पहले हमारा गंतव्य बना गुरुद्वारा नानक प्याऊ। इसे दिल्ली का प्रथम गुरुद्वारा होने का गौरव प्राप्त है। इतिहास में प्रसिद्ध है कि सन् १५०५ ई. में गुरु नानक देवजी पहली बार दिल्ली आए तो वे इसी स्थान पर ठहरे थे। ऐसा बताया जाता है कि उन दिनों इस इलाके में पीने के पानी की किल्लत थी, जमीन का पानी खारा था। दिल्ली सल्तनत के सिपहसालार पीने के पानी पर टैक्स वसूलते थे। गरीब लोग पीने का पानी नहीं खरीद पाते थे। विवशता में गंदा पानी पीकर बीमार पड़ते रहते थे।

तब गुरु नानकदेव ने यहाँ एक बावली (कुआँ) खुदवाई। गुरु नानकदेव की आध्यात्मिक शक्ति के स्पर्श से उस बावली का पानी मीठा और स्वादु निकला, और तब से यह लोगों के लिए मीठे पानी की प्याऊ बन गई और इसे ‘नानक प्याऊ’ पुकारा जाने लगा। यहीं पर गुरु नानक देवजी के नाम पर एक गुरुद्वारा बनवाया गया, जो ‘नानक प्याऊ गुरुद्वारा’ नाम से विख्यात हुआ। गुरुद्वारे में आनेवाले तीर्थयात्री यहाँ स्थित ‘नानक बावली’ का जल जरूर पिया करते। गुरु नानकदेवजी के द्वारा निकाला गया यह जलस्रोत अमृत समान और गुरु नानकदेवजी का प्रसाद माना जाता है। इस गुरुद्वारे में चलनेवाले लंगर की शुरुआत स्वयं नानकदेवजी ने ही की थी, जो सैकड़ों वर्षों से निरंतर आज भी चल रहा है।

वर्तमान में यह गुरुद्वारा उत्तरी दिल्ली में बैंक कॉलोनी के पास स्थित है। दक्षिण मुखी यह गुरुद्वारा विशाल क्षेत्र में फैला है। भव्य प्रवेश द्वार के घुसते ही बाईं ओर थोड़ा नीचे उतरकर जूता-चप्पल रखने का निशुल्क स्थान है। यहीं पर अपने जूता-चप्पल रख हम दर्शनार्थ आगे बढ़े। मेरे ठीक सामने भव्य विशाल हॉल में श्रीगुरुग्रंथ साहिबजी विराजमान हैं। सबद-कीर्तन चल रहा है, एक सेवादार चँवर डुला रहा है। इसके ठीक ऊपर विद्युत् की रोशनी में दिप-दिप करता विशाल झाड़फानूस यहाँ की शोभा को द्विगुणित कर रहा है। विशाल हॉल में बिछे कालीन पर भक्तजन दूरी बनाकर बैठे भक्तिभाव में डूबे हैं। हमने गुरुग्रंथ साहिबजी की एक परिक्रमा कर उनके सम्मान में दंडवत््् प्रणाम किया।

मुख्य गुरुद्वारे के बाईं ओर नानक बावली है, तो दाईं ओर विशाल लंगर हॉल। हम यहाँ के बारे में और भी जानना चाहते थे, सो द्वार पर बैठे एक सज्जन से पूछा। उन्होंने उधर ही आ रहे एक सज्जन की ओर इशारा करते हुए बताया कि उनसे पूछ लें। हम दोनों मित्र उनकी ओर उन्मुक्त हुए, उन्हें प्रणाम किया और अपनी इच्छा व्यक्त की। वे सज्जन बोले, मैं यहाँ का मुख्य ग्रंथी ज्ञानी विचित्तर सिंह हूँ। अभी मैं कुछ बता नहीं सकता, मेरे एक रिश्तेदार की मौत हो गई है और मैं पंजाब जाने के लिए कार की तरफ ही जा रहा हूँ। हमने खेद प्रकट किया। वे अपना मोबाइल नंबर देकर बोले कि इस नंबर पर मेरे से बात कर सकते हैं, चाहें तो तेरह फरवरी काे आ जाएँ, मैं आपको सबकुछ बताऊँगा। उनको प्रणाम कर हम अपने ऑटो पर लौटे और गुरुद्वारा मजनूँ का टीला देखने के लिए निकल पड़े। आजकल मेट्रो रेल के विस्तार का काम प्रगति पर है तो कई रास्ते बंद कर दिए गए हैं।

जब तक हम लोग गुरुद्वारा मजनूँ का टीला पहुँचें, तब तक इसके बारे में कुछ जानकारी मैं आपके साथ साझा करता हूँ। बताया जाता है कि कभी यहाँ यमुना तट पर एक रमणीक पहाड़ी थी, जो अब टीला मात्र रह गई है। बादशाह सिकंदर लोदी के समय में यहाँ एक सूफी फकीर रहता था, जो भक्तिभाव में उन्मत्त रहता और जिसकी मजनूँ से तुलना की जाती थी। वह फकीर नाव से यात्रियों को निशुल्क यमुना पार कराया करता था। उन्हीं दिनों जब गुरु नानकदेवजी दिल्ली प्रवास पर आए तो वे इस स्थान पर भी आए। फकीर की उनसे भेंट हुई तो गुरु नानकदेवजी के मार्गदर्शन में फकीर को आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। यहीं टीले पर उस फकीर की कुटिया हुआ करती थी, जिसमें वह रहता था। कालांतर में जब सरदार बघेल सिंह ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया, तब १७८३ ई. में उन्होंने जहाँ-जहाँ गुरुओं ने प्रवास किया, उन-उन पवित्र स्‍थलों पर कई गुरुद्वारों के साथ इस स्‍थान पर भी गुरुद्वारे का निर्माण कराया, जो ‘गुरुद्वारा मजनूँ का टीला’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इसके अलावा छठवें सिक्ख गुरु हरगोविंदजी (१५९५-१६४४) भी दिल्ली यात्रा के दौरान यहाँ एक बार ठहरे थे, जब सम्राट् जहाँगीर ने उन्हें दिल्ली आमंत्रित किया था। पहले-पहल तो पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह ने यहाँ पर गुरुद्वारा बनवाया था। उनकी जागीर से होनेवाली आय की एक निश्चित रकम इसके रखरखाव पर खर्च की जाती थी। सन् १९५० में दिल्ली सिक्ख संगत ने इसका विस्तार करके भव्य गुरुद्वारे का पुनर्निर्माण कराया। वर्तमान में यह गुरुद्वारा तिमारपुर के पास बिल्कुल यमुना किनारे स्थित है। इसका पूरा वास्तु सफेद दूध‌िया संगमरमर से बना है। पिछले दिनों दिल्ली में किसान आंदोलन की आड़ में हुए हुड़दंग के चलते गुरुद्वारे के प्रवेश द्वार पर भारी पुलिस बल तैनात है, सो बाहर से ही इस भव्य गुरुद्वारे में दंडवत् प्रणाम कर हम आगे की यात्रा पर बढ़ गए।

अब हम लोग पांडवकालीन नीली छतरीवाला मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे हैं। यह दिल्ली का अति प्राचीन मंदिर है, जो भगवान् शिव को समर्पित है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के सुझाव पर पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तो इस यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए पांडवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर ने विधिवत् शिवलिंग स्थापित कर एक शिवालय बनवाया और यहीं से विद्वान् आचार्यों के मार्गदर्शन में अश्वमेध यज्ञ का संचालन किया था। इस मंदिर का गुंबद नीली टाइलों से बना होने के कारण अब इसे ‘नीली छतरी वाला मंदिर’ कहा जाता है। वर्तमान में यह यमुना बाजार इलाके में स्थित है। भीड़ भरे बाजार से गुजरते हुए हमारा ऑटो भी मंदिर तक आ पहुँचा है। ऑटो सड़क किनारे खड़ा कर दिया गया।

मैं अकेला ही मंदिर में दर्शन करने गया। मैं देख रहा हूँ, मंदिर के दोनों ओर सड़क है, जहाँ ट्रै‌िफक की भारी रेलमपेल है। मंदिर सड़क से काफी नीचे पड़ गया है, सो मुख्य द्वार से बहुत सारी सीढ़‌ियाँ नीचे उतरनी पड़ती हैं। मंदिर प्रांगण का जो दरवाजा है, उसके बाईं ओर एक पीपल वृक्ष सीना ताने खड़ा है। मंदिर के आँगन से और दो-तीन सीढ़‌ियाँ उतरकर ठीक सामने गर्भगृह में धातु का शिवलिंग स्थापित है। यहाँ आए हुए भक्तजन शिवलिंग का जलाभिषेक कर रहे हैं। मंदिर के गर्भगृह में ठीक सामने की दीवार में भोलेशंकर और माता पार्वती की सुंदर मूर्तियाँ विराजमान हैं। दाईं ओर पवनपुत्र हनुमान तथा अन्य मूर्तियाँ शोभित हैं। मंदिर के शीर्ष पर चार छोटे तथा मध्य में बड़ा गुंबद है, जो सब के सब नीली टाइलों से बने हैं। पूरा स्थापत्य छह मोटे खंभों पर टिका है। मंदिर की छत ज्यादा ऊँची नहीं है, शिवलिंग के ठीक ऊपर फूलों का सुंदर झाड़-फानूस टँगा है। गर्भगृह का मुख्य दरवाजा चाँदी जैसी धातु का बना है। गर्भगृह में असीम शांति तथा आध्यात्मिक तरंगों का आभास होता है। गर्भगृह के बराबर में अन्नपूर्णा भंडार है और इसके सामने ही यज्ञवेदी बनी है, जिसके चारों ओर बैठे आचार्य श्लोक वाचन कर रहे हैं। यज्ञवेदी के पश्चिम में नवग्रह मंदिर है। उत्तर के कोने में पुजारी-निवास है। पूर्व में रमेशचंद्रजी यहाँ के महंत होते थे। उनके दिवंगत होने पर उनके पुत्र मनीष शर्मा वर्तमान में इस मंदिर के महंत हैं।

मंदिर में दंडवत् प्रणाम कर मैं बाहर निकला तो देखा, मंदिर के शीर्ष पर भी पूजा-अर्चना हो रही है। मंदिर के ठीक सामने सड़क के इस पार चिंताहरण शिव-शनि मंदिर है, यमुनाजी एक धरा इधर निकल आई है। यहीं एक गौशाला भी है। शिवरात्रि पर इस मंदिर को खूब सजाया जाता है। सोमवार को शिवभक्‍त विशेष रूप से यहाँ दर्शन करने आते हैं। यह मंदिर सभी जाति-पंथ के लिए सदैव खुला रहता है। यहाँ पर दर्शन कर अब हम पुराने किले के पीछे स्थित दूध‌िया भैरवनाथ के दर्शन करने निकल पड़े।

दोपहर हो गई है। मित्र आनंद शर्माजी कहने लगे कि पहले भोजन कर लिया जाए, सो पुराना किला के पीछेवाली सड़क पर ऑटो सड़क किनारे खड़ा कर दिया गया। वहीं पर एक छोले-कुलचे वाला खड़ा है। आनंदजी घर से पराँठे तथा नीबू का अचार लेकर आए हैं। ऑटो ड्राइवर लाला भैया आनंद शर्माजी के शिष्य और मित्र दोनों हैं। जटाजूटधारी भगवा धारण करनेवाले लाला भैया सात्त्विक, संयमित, गृहस्थ संन्यासी हैं। बड़े ही नेम-धरम से रहकर शिव-आराधना करते हैं। आनंदजी के आदेश पर वह छोले-कुलचे ले आए। हम दोनों ने ऑटो में बैठकर और लाला भैया ने छोले-कुलचे वाले के पास खड़े होकर भोजन का आनंद लिया। छोले में पड़ी लाल मिर्च बड़ी तीखी थी। आनंद शर्माजी खाते-खाते ही सी-सी करने लगे और मेरे भी आँसू निकल आए। खैर, भोजन समाप्त कर मैं अकेला ही दूध‌िया भैरवनाथ के दर्शन करने गया।

दूध‌िया भैरवनाथ मंदिर पांडवों के किले के बिल्कुल पीछे ही है। इसे भी द्वापर युग का पांडवकालीन बताया जाता है। इसका रास्ता भी किलकारी भैरव मंदिर से होकर जाता है। ऐसा कहा जाता है कि महाभारत युद्ध से पूर्व पांडव भीमसेन ने यहाँ भैरव-सेवा करते हुए कई सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। जिस प्रकार किलकारी भैरव मंदिर में शराब चढ़ाई जाती है, वैसे ही दूध‌िया भैरव मंदिर में कच्चा दूध चढ़ाया जाता है। कुत्ते को भैरव का वाहन माना जाता है। कई तरह के कुत्ते यहाँ विचरण करते मिल जाएँगे। भैरव जयंती यहाँ बड़े स्तर पर मनाई जाती है। अभी २:१० हुए हैं, मंदिर के कपाट तीन बजे खुलेंगे। अतः बाहर से ही दंडवत् कर मैं अपने वाहन पर लौट आया और फ‌िर हमारा ऑटो महरौली की ओर दौड़ने लगा। जब तक हम महरौली पहुँचें, तब तक आपको प्राचीन योगमाया मंदिर के बारे में बताए देता हूँ।

पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि द्वापर युग में जब भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ, तब अनेक देवी-देवता उनके महत्त्वपूर्ण कार्य ‘धर्म की स्थापना’ में सहयोग करने नाना रूपों में पृथ्वी पर आए। देवी भगवती योगमाया ने कन्या रूप में नंदबाबा के घर जन्म लिया। भगवान् कृष्ण का जन्म कंस के कारागार मथुरा में हुआ। वसुदेवजी नवजात कृष्ण को गोकुल में छोड़ नंद कन्या को कारागार में ले आए। शिशु के जन्म की खबर सुनते ही कंस उपस्थित हुआ। क्रूर कंस ने कन्या को गरदन से पकड़ पत्थर पर पटक मारना चाहा तो वह कन्या कंस के हाथ से छिटककर आकाश में चली गई। उस कन्या ने आकाश में माँ दुर्गा का रूप धारण किया। कन्या का शरीर खंडित हो गया। कन्या का शीश महरौली स्थित अरावली पर्वत पर गिरा, जहाँ आज यह योगमाया मंदिर है। माँ के चरण विंध्याचल पर्वत पर गिरे। जहाँ आज उस स्थान पर विंध्यवासिनी के नाम से माँ के चरणों की पूजा होती है। माँ के बीच का हिस्सा आकाश में यह घोर गर्जना करता हुआ विलुप्त हो गया कि ‘कंस तुझे मारनेवाला तो जन्म ले चुका है।’ महरौली स्थित इस मंदिर में माँ का शीश पिंडी रूप में स्थित है और आज भी यहाँ योगमाया के शीश की पूजा होती है।

वर्तमान में यह योगमाया मंदिर महरौली में कुतुब मीनार के पास है। योगमाया श्रीकृष्ण की बहन हैं, अतः यह मंदिर पांडवकालीन ठहरता है। यहाँ के पुजारीजी की मानें तो यह उन सत्ताईस मंदिरों में से एक है, जिन्हें महमूद गजनबी और बाद में मुगल सैनिकों ने नष्ट कर दिया था। यह एकमात्र मंदिर है, जो पूर्व सल्तनत काल से अब तक जीवंत है। ऐसा विवरण मिलता है कि हिंदू राजा हेमू ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, जो उसे खँडहर रूप में मिला था। औरंगजेब के शासनकाल में इस मंदिर में एक आयताकार कक्ष जोड़ दिया गया, जो मुगलों द्वारा इस मंदिर को एक म‌सजिद में बदले जाने का असफल प्रयास था। बाद में इस कक्ष को देवी योगमाया का वस्त्र-भंडार बना दिया गया। यह मंदिर बार-बार विध्वंस किया गया, इस कारण इसे मूल स्वरूप में फ‌िर से नहीं बनाया जा सका। आक्रांताओं द्वारा मंदिर का बार-बार विध्वंस होता रहा, पर स्थानीय निवासियों द्वारा इसे पुनः-पुनः बनवाया जाता रहा और पूजा-अर्चना भी बराबर होती रही।

वर्तमान में मंदिर का जो वास्तुशिल्प है, इसका निर्माण उन्नीसवीं शताब्दी में कराया गया। इस मंदिर के निकट एक तालाब भी था, जिसे ‘अनंगताल’ कहा जाता था। दिल्ली के शासक अनंगपाल की मृत्यु के बाद इसके चारों ओर वृक्षारोपण कर बाड़ बना दी गई थी। योगमाया देवी दिल्ली सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की भी आराध्या देवी रहीं। १२वीं शताब्दी के जैन ग्रंथों में इस मंदिर के कारण ही महरौली को ‘योगिनीपुर’ के नाम से भी वर्णित किया गया है। यह भी विश्वास किया जाता है कि पहले-पहल पांडव पुत्रों ने महाभारत युद्ध में विजय-प्राप्ति के लिए इस मंदिर का निर्माण कराया था और उस अवसर पर भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं योगमाया की पूजा-आरती की थी।

बाद के समय में योगमाया मंदिर को यहीं के एक लाला सेठमल ने फ‌िर से बनवाया था। यह दिल्ली के पहले गढ़ किले लालकोट के भीतर है, जिसका निर्माण तोमर राजा अनंगपाल ने कराया था। यह महरौली उन सात नगरों में से एक है, जो दिल्ली को वर्तमान स्वरूप देते हैं। महरौली गाँव जानेवाले मार्ग पर लौह-स्तंभ के ठीक सामने एक द्वार है, यह गलीमार्ग योगमाया मंदिर तक जाता है—मंदिर के आगे खुला स्थान है, जहाँ पर आसपास के घरों की गाड़‌ियाँ खड़ी हैं। उत्तरमुखी मंदिर के मुख्य दरवाजे के ऊपर लिखा है ‘सिद्धपीठ श्री योगमाया मंदिर’। मंदिर के श्वेत शिखर पर लाल रंग से हिंदू धर्म की प्रतीक आकृतियाँ बनी हैं। मंदिर के मुख्य द्वार से कुछ सीढ़‌ियाँ उतरते ही दाईं ओर मंदिर की दीवार शुरू हो जाती है, जो नक्काशीदार हल्के लाल बलुआ पत्थरों से बनी है। थोड़ा सा आगे चलकर इसी दीवार में पूरब मुखी मंदिर का प्रवेश द्वार है। ठीक सामने ही गर्भगृह में माँ योगमाया के शीश के रूप में उनका चाँदी का मुकुट विराजमान है। दाएँ-बाएँ इस विशाल हॉल में भगवान‍् गणेश, हनुमान, शक्तिमाता एवं कल्कि भगवान् की सुंदर झाँकियाँ हैं। उत्तर के कोने में माँ के भक्तों ने एक रेलिंग पर मनौती की बहुत सारी चुनरियाँ बाँध रखी हैं। दक्षिण कोने में शिवालय है, जिसमें शिवलिंग तथा शिव-पार्वती की मनोहारी मूर्तियाँ विराजमान हैं। दक्षिण-पूर्व के कोने में देवी दुर्गा शोभायमान हैं। यहीं पर भक्तजन दीप प्र‍ज्वलित करते हैं। पूरे मंदिर प्रांगण में सुंदर कालीन बिछा है।

मंदिर की साज-सज्जा भव्य और दिव्य है। यहाँ पर असीम शांति का अनुभव हो रहा है। भक्तजन बराबर दर्शनार्थ आते जा रहे हैं और माँ योगमाया के सम्मुख बैठ उनका ध्यान कर रहे हैं। इनमें महिला भक्तों की संख्या ज्यादा है। प्रयागराज के पांडेजी यहाँ के सेवादार हैं। हमारे पूछने पर उन्होंने बताया कि सामने जितने मकान आप देख रहे हैं, वे सब इस मंदिर के पुजारियों के हैं। यह उनका निजी मंदिर है, हम तो सेवादार हैं। हमें योगमाया की सेवा का सौभाग्य मिला है। पुजारीजी ने हमें योगमाया के यहाँ होने की कथा सुनाई और फ‌िर हमें केले तथा नारियल का प्रसाद दिया। पुजारीजी का धन्यवाद कर और माँ योगमाया को दंडवत् प्रणाम कर हम लोग मंदिर से बाहर निकले। सामने ही छोटा सा बरामदा है, जिसमें दो योगी मूर्तियाँ स्थापित हैं। इस सिद्धपीठ योगमाया मंदिर में सभी त्योहार उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। दुर्गापूजा तथा नवरात्रे विशेष धूमधाम से मनाए जाते हैं। इस अवसर पर यहाँ विशेष पूजा का भी आयोजन होता है, तब मंदिर को फूलों तथा विद्युत् लड़‌ियों से सजाया जाता है।

माता के दर्शन कर और प्रसाद ग्रहण कर अब हम यहाँ से थोड़ा आगे बस स्टैंड के पास ‘वीर बंदा बहादुर गुरुद्वारा’ देखने जा रहे हैं। वीर बंदा बैरागी अद्वितीय योद्धा हुए हैं, उनका जन्म कश्मीर के पुँछ-राजौरी में हुआ। उनका मूल नाम लक्ष्मण देव था, पढ़ाई के प्रति उदासीन बालक लक्ष्मण को कसरत और शिकार खेलने का बड़ा शौक था। अभी वह पंद्रह साल के ही थे कि उनसे एक गर्भवती हिरणी की हत्या हो गई, इससे उनके मन को गहरी चोट लगी और वे घर से निकल बैरागी बन गए। घूमते-फ‌िरते एक संत की शरण जाकर बाबा माधवदास बैरागी बने। फ‌िर उन्होंने महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर आश्रम बनाया, यहीं पर उनकी मुलाकात गुरु गोविंद से हुई। गुरु गोविंद सिंह से प्रभावित होकर ३१ सितंबर, १७०८ में वे सिख धर्म में दीक्षित हुए और गुरु के शिष्य बन गए। गुरुजी ने उनका नाम ‘बंदा बहादुर सिंह’ रखा। गुरु गोविंद सिंह ने उन्हें पंजाब की स्थिति बताई और सनातन धर्म पर छाए भीषण संकट से अवगत कराया। गुरुजी के बताए अनुसार बहादुर सिंह बंदा ने सिख सेना संगठित कर मुगलों के विरुद्ध युद्ध लड़े और मई १७१० में सरहिंद को जीत लिया। सरहिंद के नवाब वजीर खाँ का वध करके गुरु गोविंद सिंह के दोनों साहबजादों की शहादत का बदला लिया।

इतना ही नहीं, सतलुज नदी के दक्षिण में लौहागढ़ में ‘खालसा राज’ की स्थापना की। उन्होंने गुरु नानकदेव तथा गुरु गोविंद सिंह के नाम के सिक्के (मुद्रा) चलाए। शासन में अनेक सुधार किए, छोटे किसानों को जमींदारों की दासता से मुक्त कराया। एक सिख सेनानायक के रूप में खालसा के लिए शासन किया और खालसा राज्य का विस्तार लाहौर तक कर दिया। बंदा बहादुर ने अनेक दुष्ट राजाओं और नवाबों को परास्त किया। गुरदासपुर के धारीवाल में, जहाँ बंदा बहादुर अपने वीर सैनिकों के साथ थे, बादशाह फर्रूखसियर के आदेश पर अब्दुल समद खान के नेतृत्व में कई महीनों तक किले का घेरा डाल दिया तो रसद समाप्त हो जाने पर फरवरी १७१६ में बंदा बहादुर को समर्पण करना पड़ा। अपने ७९४ सिख सैनिकों के साथ बंदी बनाकर उन्हें दिल्ली लाया गया। बादशाह फर्रूखसियर ने उन्हें इसलाम कबूल करने को कहा, पर बंदा बहादुर ने ऐसा नहीं किया तो महरौली स्थित कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के पास ५ से १२ मार्च तक रोजाना सौ से अधिक सिख सैनिकों का सरेआम कत्ल किया गया और ‌िफर १६ जून को बंदा बहादुर के शरीर के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए।

सल्तनतों के दौर के बाद एक समय ऐसा आया, जब सरदार बघेल सिंह ने दिल्ली पर अधिकार किया, तब अद्भुत वीर बैरागी योद्धा के शहादत स्थल पर भी उनकी स्मृति में एक गुरुद्वारे का निर्माण कराया, जो आज ‘गुरुद्वारा बंदा बहादुर’ कहलाता है। वर्तमान में श्री सिंह सभा इसकी देखरेख करती है। गुरुद्वारे के सामने ही बाबा बंदा बैरागी विद्यालय है। श्वेत-ध्वल तीन मंजिला गुरुद्वारा बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन यह अपने आप में एक अमिट यादगार है, जो धर्म-देश पर मर-मिटनेवाले योद्धाओं की कीर्ति को अक्षुण्ण रखे हुए है। बाबा बंदा बहादुर की शहादत को नमन करते हुए हम गुरुद्वारा रकाबगंज देखने के लिए लौट पड़े।

पुरा काल में, विशेषतः मुगलिया सल्तनत के दिनों में, जहाँ पर आज रकाबगंज गुरुद्वारा स्थित है, वहाँ रायसीना पहाड़ी पर बनजारों का एक गाँव हुआ करता था। इसी गाँव के रकाबगंज मोहल्ले में कुछ बनजारे मुगल बादशाह की सेना के घोड़ों की रकाब (घोड़े पर चढ़ने के लिए दोनों तरफ पैर रखने के खाँचे) बनाया करते थे। बनजारों के इसी मोहल्ले में भाई लखी शाह नाम का बनजारा भी रहता था, जो सिख धर्म को अपना चुका था और गुरु तेग बहादुर का परम भक्त था। वह अपनी बैलगाड़ी में भाड़े पर दुकानदारों का सामान लाया, ले जाया करता था। जब वह अपनी बैलगाड़ी में सामान लादकर दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार से लौट रहा था, तब वहीं उसे गुरु तेग बहादुरजी की शहादत का पता चला। गुरु तेग बहादुर की शहादत पर प्रकृति भी कुपित हो गई तो भारी आँधी-तूफान उठा, तब उसने मुगल सैनिकों की नजर बचाकर शहीद गुरु तेग बहादुरजी का धड़ अपनी बैलगाड़ी में सामान के बीच छुपा लिया और अपने गाँव पहुँचा, अपने घर में गुरुजी के धड़ को अपनी चारपाई पर रखकर चुपचाप घर में आग लगा दी।

इस तरह सबकी नजरों से बचाकर और किसी को कानोकान खबर न होने देकर गुरुजी का अंतिम संस्कार कर दिया। गाँववालों ने यही समझा कि आँधी में लापरवाही से लखी शाह का घर जलकर खाक हो गया। बाद में लखी ने चुपचाप गुरुजी की अस्थियों का कलश भी उसी स्थान पर गाड़ दिया। लखी ने कितने ही गुप्त तरीके से इस काम को अंजाम दिया था, पर मुगल सैनिकों को इसका पता चल गया, तब बादशाह के अमलदारों ने यहाँ पर मसजिद बनवानी शुरू कर दी। परंतु काफी बाद में सिखों ने दिल्ली के शासक आलमगीर द्वितीय के दरबार में अपना दावा पेश किया कि यह हमारे गुरु का स्थान है। बादशाह ने उनकी बात सुनकर फरमान दिया कि अगर इस स्थान पर अस्थि-कलश निकला तो यहाँ पर गुरुद्वारा बना लिया जाए।

बताए गए स्थान पर खुदाई की गई तो वह अस्थि-कलश निकल आया। तब वह स्थान सिक्खों को मिल गया। सन् १७६३ में जब सरदार बघेल सिंह ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया, तब उन्होंने यहाँ भी एक गुरुद्वारे का निर्माण कराया, क्योंकि यहाँ पर बनजारों का रकाबगंज मुहल्ला था, इसलिए इस गुरुद्वारे का नाम ‘गुरुद्वारा रकाबगंज’ प्रसिद्ध हो गया। वही गुरुद्वारा आज अपने भव्य-दिव्य रूप में खड़ा है। संसद् भवन के पास यह दिल्ली का सबसे वी.आई.पी. इलाका है। गुरुद्वारे में हमेशा लंगर की सेवा चलती रहती है। सुंदर भव्य हॉल में जहाँ श्रीगुरुग्रंथ साहिब विराजमान हैं, वहाँ आकर अपूर्व शांति और सुकून का एहसास होता है। गुरु की शान में हमने मत्था टेका और फ‌िर पांडवकालीन विश्वकर्मा मंदिर के दर्शनार्थ पहाड़गंज की ओर हमारा ऑटो दौड़ने लगा।

दिल्ली में ट्रैफ‌िक की बड़ी मारामारी है। अपराह्न‍ के तीन बज रहे हैं, जब तक हम पहाड़गंज पहुँचें, तब तक मैं इस मंदिर के बारे में आपको कुछ बताता चलता हूँ। हस्तिनापुर के कुरुराज्य की सीमाएँ दूर-दूर तक फैली हुई थीं। कुरुराज्य का बँटवारा कौरव और पांडवों के बीच हुआ। राजा धृतराष्ट्र ने सबसे उजाड़ पथरीला-कँटीला खांडव वन पांडु पुत्रों को दिया। खांडव वन आज के मेरठ से लेकर दिल्ली तक के विस्तृत भू-भाग में फैला था। खांडव वन में जहाँ पर आज मेरठ नगर है, यहीं पर ‘दानव सूर्यकुंड’ नामक सरोवर था, जहाँ पर विश्वकर्मा मय का निवास बताया जाता है। ‘मयराष्ट्र’ का बिगड़ा रूप ही कालांतर में ‘मेरठ’ हो गया। भगवान् कृष्ण की अनन्य कृपा से विश्वकर्मा मय ने यमुना के तीरे खांडव वन में इंद्रप्रस्थ नामक अद्भुत नगर का निर्माण किया और अपना सारा शिल्प-ज्ञान उसमें उँड़ेल दिया। विश्वकर्मा देव शिल्पी कहे जाते हैं। नवनिर्मित इंद्रप्रस्थ नगर ही पांडवों की राजधानी बना। जब इंद्रप्रस्थ का निर्माण कार्य चल रहा था, तब विश्वकर्मा मय, आज जहाँ यह मंदिर है, इस स्थान पर रात्रि में अपनी कुटिया में विश्राम किया करते थे, यहीं पर मीठे जल की एक कुइया थी। इंद्रप्रस्थ किला बन जाने के बाद पांडु ज्येष्ठ सम्राट् युधिष्ठ‌िर ने आभार स्वरूप और देवशिल्पी को सम्मान देने के लिए उसी स्थान पर विश्वकर्माजी का एक मंदिर बनवाया। यह छोटा सा मंदिर भगवान् विश्वकर्मा को समर्पित है। मंदिर की देखरेख भगवान् विश्वकर्मा समुदाय करता है। अन्य मंदिरों की तरह यहाँ विश्वकर्मा जयंती के अलावा महाशिवरात्रि, नवरात्रे, हनुमान जयंती आदि उत्सव हर्षाेल्लास के साथ मनाए जाते हैं। वर्तमान में यह मंदिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के परिसर में कशेरू वालान की रतनलाल मार्केट के ठीक सामने स्थित है।

हमारा ऑटो अब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया है। मैं अकेला ही मंदिर में दर्शन करने गया। मंदिर का धवल-श्वेत गुंबद ज्यादा ऊँचा नहीं है। मंदिर का प्रवेश द्वार दक्षिण की ओर है, जूते बाहर उतारकर मैं अंदर उतर गया। सामने ही गर्भगृह में मध्य में उच्च आसन पर भगवान् विश्वकर्मा विराजमान हैं, इनके बाईं ओर माँ भगवती, दाईं ओर पवनपुत्र की भव्य मूर्तियाँ शोभायमान हैं। संगमरमर के फर्श वाला यह मंदिर एकदम साफ-सुथरा है। मंदिर के बड़े हॉल में दीवारों में भगवान् खाटू श्याम एवं अन्य देव-मूर्तियाँ स्थापित हैं। भीड़भाड़ वाला इलाका होने के बावजूद मंदिर में गजब की शांति है। यहाँ बैठकर मन को बड़ा सुकून मिला। पूछने पर बुजुर्ग पुजारीजी ने उँगली के इशारे से बताया कि जो पत्थर थोड़ा नीचे दबा हुआ है, यहाँ पर पहले पानी की कुइया थी, दिल्ली मेट्रो की गहरी खुदाई होने के कारण वह बंद कर दी गई है। मंदिर के एक ओर रेलवे स्टेशन की ऊँची इमारत है तो सामने बहुमंजिला इमारतें बन जाने के कारण मंदिर का शिखर दूर से दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन अंदर से मंदिर भव्य और शानदार है।

वैसे तो दिल्ली में और भी ऐतिहासिक तीर्थ-स्थल हैं, जैसे गुरुद्वारा माता सुंदरी, गुरुद्वारा दमदमा साहिब, गुरुद्वारा मोती बाग, गुरुद्वारा बाला साहिबजी, गुफावाला शिव मंदिर, श्रीराधा पार्थसारथी, यानी इस्कॉन मंदिर, साईंबाबा मंदिर, करोल बाग का हनुमान मंदिर, मध्य दिल्ली के करोल बाग में मानस मंदिर, गंगेश्वर धाम मंदिर, जीटी करनाल रोड पर पद्मावती देवी मंदिर इत्यादि भी दर्शनीय हैं। दिनभर में हम इतने ही पवित्र स्थलों के दर्शन कर सके। दिल्ली ऐतिहासिक ही नहीं, पौराणिक नगरी भी है। सत्युग, त्रेता, द्वापर तानों युगों से इसके संबंध के प्रमाण ये तीर्थ हैं। आगे भी यहाँ के पवित्र तीर्थ-स्थलों की खोज-यात्रा जारी रहेगी। दिल्ली के तीर्थों का भ्रमण कर मन गद्गद हो गया।

प्रेमपाल शर्मा 
जी-३२६, अध्यापक नगर
नांगलोई, दिल्ली-११००४१
दूरभाष : ९८६८५२५७४१

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