संपूर्ण विश्व के राम

ह ‘थाई एयरवेज’ की उड़ान थी, अर्थात् एक बौद्ध देश थाईलैंड की राष्ट्रीय एयरलाइंस;‌ इस उड़ान में हर यात्री के लिए समाचार-पत्र, सुरक्षा संबंधी पत्रक के अतिरिक्त ‌चित्रकथा के रूप में रामकथा भी रखी हुई थी। मुझ भारतीय के लिए यह कितनी सुखद अनुभूति थी। श्रीराम थाईलैंड के लिए एक आदर्श प्रेरणास्रोत हैं। वहाँ के राजा को ‘राम’ के रूप में ही माना जाता रहा है। उनका विश्वास है कि अयोध्या थाईलैंड में थी।

इसी तरह दुनिया के सबसे बड़े इसलामी देश इंडोनेशिया में भी राम राष्ट्रीय महापुरुष हैं। वहाँ स्‍थान-स्‍थान पर रामकथा का मंचन किया जाता है। एक और इसलामी देश मलेशिया में नौसेना प्रमुख को ‘लक्ष्मण’ कहा जाता है। वहाँ भी जगह-जगह रामकथा का मंचन होता है। रामकथा दुनिया की हर बड़ी भाषा में अनूदित की गई है। दुनिया के १००० से अधिक नगरों, कस्बों के नाम राम के नाम पर मिलते हैं, फिर वे ईसाई देश हों या मुसलिम या बौद्ध या अन्य धर्मावलंबी। राम एक आदर्श हैं, मानव सभ्यता के लिए एक सुदृढ़ संबल, एक विराट् प्रेरणा। आज पूरे विश्व में जब राजतंत्र ढह चुका है, लोकतंत्र मजबूती से जड़ें जमा चुका है, तब राम कितने प्रासंगिक प्रतीत होते हैं, जो मात्र एक व्यक्ति के आक्षेप लगाने पर अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर देते हैं, जबकि उन्हें सीता की पवित्रता का पूरा ज्ञान है। राम के लिए लोकमत सर्वोपरि है, सबसे पवित्र है, भले ही वह किसी एक व्यक्ति से अभिव्यक्त हुआ हो।

जब पूरा विश्व राम के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करता हो तो राम के देश के नाते यह आवश्यक हो जाता है कि हम स्वयं को राम के आदर्शों की कसौटी पर जाँचने का प्रयास करें। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नाते भी हमें एक आदर्श लोकतंत्र होना चाहिए। इस कसौटी पर विचार करते हुए सोचना होगा कि अनेकानेक संवैधानिक व्यवस्‍थाओं के बावजूद क्या एक आम आदमी किसी सरकारी कार्यालय में बिना किसी सिफारिश के अपना उचित कार्य करा सकता है? क्या हमने अभी भी अपने लोकतंत्र को ‘वीआईपी तंत्र’ नहीं बना रखा है? जब तक मीडिया आवाज न लगाए या न्यायपालिका निर्देश न दे तो नौकरशाही स्वयं संज्ञान लेकर जनहित के कार्य करती है? फिर ‘रामराज’ का आदर्श कैसे सार्थक होगा?

शहरों में वृद्धाश्रमों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा हो रही है तो फिर पिता की एक आज्ञा पर राजसिंहासन त्यागकर चौदह वर्ष वनों में कष्ट भोगने को सहर्ष स्वीकार करने वाले राम के आदर्श का क्या अर्थ?

घर-घर में भाइयों में झगड़े और अदालत में मुकदमे चल रहे हों तो फिर राम-लक्ष्मण या राम-भरत के आदर्श का क्या मतलब? राम तो केवट को मित्र बनाते हैं, शबरी के झूठे बेर खाते हैं, सुग्रीव और जामवंत से मित्रता करते हैं, किंतु हम उन्हीं राम के देश में जातिगत वैमनस्य पालते हैं, ऊँच-नीच का भेदभाव मानते हैः हम बहुत बड़ा प्रपंच कर रहे हैं। राम तो करुणा का साकार रूप हैं; सहनशीलता, धैर्य, संयम के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यहाँ उस प्रसंग का उल्लेख उचित होगा, जब अनेक संहारक शस्‍त्रों से सुसज्जित रावण की विशाल सेना के समक्ष खड़े राम-लक्ष्मण को देख विभीषण व्यथि‌त हो उठते हैं और राम मानवीय मूल्यों, मानवीय गुणों को ही शक्ति का स्रोत बताते हैं। यही रामकथा का सबसे महत्त्वपूर्ण संदेश है। यदि हम मानवीय गुणों से तनिक भी दूर होते हैं तो फिर कितनी ही बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त कर लें, सब व्यर्थ हैं।

रामनवमी के पवित्र अवसर पर प्रभु श्रीराम के आदर्शों को पुनः अपने जीवन में उतारें, अपने आप को, अपने समाज को, अपने देश को राम के संदेश के अनुरूप ढालें, तभी हम प्रभु श्रीराम की सच्ची वंदना के योग्य बन सकेंगे।

साहित्य अकादेमी सम्मान

उन दिनों आकाशवाणी कठुआ (जम्मू-कश्मीर) में कार्यरत था। एक अवसर विशेष पर ‘डोगरी’ में एक भव्य कवि-सम्मेलन आयोजित करने का विचार बना। केंद्र पर वर्षों से कार्य कर रहे उद्घोषकों आदि ने सलाह दी कि छोटे से शहर कठुआ में इतने बड़े कार्यक्रम के लिए स्‍थानीय डोगरी कवियों से बात नहीं बनेगी। तय किया गया कि जम्मू से कुछ प्रतिष्ठित डोगरी कवियों को आमंत्रित कर लिया जाए। जम्मू से छह डोगरी कवि बुलाए गए। इन छह कवियों में पाँच को ‘साहित्य अकादेमी’ सम्मान प्राप्त हो चुका था। छठे कवि युवा कवि से प्रौढ़ कवि की राह के मध्य थे तथा अगले वर्ष अथवा उसके अगले वर्ष ‘साहित्य अकादेमी’ सम्मान प्राप्त कर लेने के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे। उनका विश्वास पूरी तरह सही निकला और दो वर्ष बाद उन्हें साहित्य अकादेमी सम्मान मिल गया। यहाँ डोगरी कवियों-लेखकों के लेखन पर कोई आक्षेप नहीं है, वरन् एक विषमता की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास मात्र है। डोगरी भाषा एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती है, इसलिए स्वाभाविक है कि उसमें लिखने वालों की संख्या भी सीमित है। अतः जो भी अच्छा कवि या लेखक होगा, उसे ‘साहित्य अकादेमी’ सम्मान मिलना भी सुनिश्चित है। नेपाली, बोडो आदि भी बहुत सीमित आबादी, सीमित क्षेत्रों की भाषाएँ हैं तो साहित्य अकादेमी सम्मान प्राप्त करना कठिन या असंभव जैसा कार्य नहीं होता, जैसाकि हिंदी में है।

तुलना करें तो मात्र ‘चौदह लाख’ बोडो भाषियों के लिए भी एक साहित्य अकादेमी सम्मान तथा ‘नौ हजार लाख’ हिंदी भाषियों के लिए भी एक ही साहित्य अकादेमी सम्मान।

इसी कारण हिंदी में अमृतलाल नागर और धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकार साहित्य अकादेमी सम्मान से वंचित रह जाते हैं। इन दो नामों के अलावा ऐसे कितने ही यशस्वी साहित्यकारों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्हें अपने मूल्यवान साहित्यिक योगदान के बावजूद साहित्य अकादेमी सम्मान नहीं मिल पाया। नागार्जुनजी को मैथिली भाषा के लिए सम्मान मिला अन्यथा हिंदी में मिल पाता या नहीं, कहना मुश्किल है। नब्बे करोड़ की हिंदी भाषा में स्वाभाविक है कि सैकड़ों उत्कृष्ट कवि, कहानीकार, नाटककार या अन्य विधाओं के रचनाकार सक्रिय रहते हैं। अब दर्जनों देशों में श्रेष्ठ लेखन कर रहे भारतवासी या भारतवंशी भी इसमें जुड़ गए हैं।

इस भयानक विषमता का एक उपाय तो यही हो सकता है कि हिंदी भाषियों की विराट् संख्या को ध्यान में रखते हुए हिंदी के लिए एक से अधिक सम्मान दिए जाने पर विचार हो; जैसे कि कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, अन्य विधाएँ (जीवनी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत आदि), यदि बड़ी भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगु, बांग्ला आदि के रचनाकारों से आपत्ति का प्रश्न उठता है तो गंभीर विचार-विमर्श से कुछ सूत्र निकाले जा सकते हैं। लेकिन ‘कुछ लाख’ और ‘नौ हजार लाख’ की भयानक विषमता तो विचारणीय प्रश्न है ही, इससे कौन इनकार कर सकता है? इस बार हिंदी में मिलने वाले साहित्य अकादेमी सम्मान की बात करें तो यह अत्यंत सुखद है कि इतने वर्षों के इतिहास में पहली बार कविता के लिए एक कवयित्री को यह सम्मान मिला है। महादेवी वर्माजी का स्मरण हो आना स्वाभाविक है, किंतु उन्हें भी यह सम्मान नहीं मिल सका। एक सुखद बात यह भी है कि इस बार अनामिकाजी को यह सम्मान मिलने पर भरपूर हर्ष व्यक्त किया गया तथा स्वागत किया गया। एक-दो विवादी स्वर उठे किंतु वे भर्त्सना और निंदा के ही पात्र बने।

अमूमन हर सम्मान-पुरस्कार की घोषणा के उपरांत वाद-विवाद का एक लंबा सिलसिला चल निकलता है और यह एक स्वस्‍थ विमर्श न होकर प्रायः अत्यंत कड़वाहट भरा होता रहा है। विचारधाराओं में विभक्त साहि‌‌त्यिक संगठनों, गुटों का टकराव ही उनमें प्रमुख रहता रहा है।

याद आता है कि जब कुँवर नारायणजी को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ सम्मान मिला तो एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के यशस्वी संपादक ने संपादकीय में लिखा—“इस बार का ज्ञानपीठ ‘किन्हीं’ कुँवर नारायणजी को दिया गया है!” क्या यह सचमुच माना जा सकता है कि संपादकजी कुँवर नारायणजी के साहि‌त्यिक योगदान से अपरिचित थे। यों भी आए दिन किसी-न-किसी बयान पर, किसी आलोचना या टिप्पणी पर जोरदार बहस सोशल मीडिया पर छिड़ी ही रहती है। इससे हिंदी साहित्य का क्या भला हो सकता है—सिवाय एक तुच्छ अहंपूर्ति के। होना तो यह चाहिए कि सभी साहित्यिक संगठन एवं रचनाकार मिलकर साहित्यकारों के समक्ष उपस्थित अनेकानेक चुनौतियों के समाधान पर विचार करें कि कैसे साहित्य का प्रकाशन सुगम हो, पुस्तकें देश भर में सरलता से उपलब्‍ध हों, साहित्य-समाज में अपनी स्वस्‍थ-सार्थक भूमिका का निर्वाह कर सके।

अनामिकाजी के अतिरिक्त साहित्य अकादेमी बाल साहित्यकार सम्मान बालस्वरूप राहीजी को मिला है, यह भी अत्यंत हर्ष का विषय है। ‘साहित्य अमृत परिवार’ की ओर से अनामिकाजी एवं बालस्वरूप राहीजी तथा सभी सम्मानित रचनाकारों को अनेकानेक बधाइयाँ।

 

 

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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