रामजन्मभूमि विवाद का पटाक्षेप

रामजन्मभूमि और बाबरी मसजिद के करीब एक सौ पैंतीस साल से चले आ रहे विवाद का पटाक्षेप शीर्ष न्यायालय के निर्णय के बाद हो जाएगा, देश में ऐसी आशा थी। पिछले दस-पंद्रह साल से देश में एक विचित्र सा तनाव का माहौल बना हुआ था, जिससे देश के विकास की गति अवरुद्ध हो रही थी। आशा का कारण यह था कि कुछ लोगों के एतराज के बाद भी शीर्ष न्यायालय ने दिन-प्रति-दिन मुकदमा सुनने का फैसला किया। यह भी स्पष्ट हो गया कि फैसला १७ नवंबर के पहले आ जाएगा, क्योंकि पाँच न्यायाधीशों की पीठ के अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई १७ नवंबर को अपने पद से निवृत्त हो जाएँगे। शीर्ष न्यायालय ने कुछ दावेदारों के कहने पर कि शायद विवाद का हल मध्यस्थों के माध्यम से हो जाए, तो तीन सदस्यों की एक समिति गठित कर दी, जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के एक निवर्तमान न्यायाधीश जस्टिस कैफुल्ला थे। एक हिंदू संत श्री श्री रविशंकर और एक मध्यस्थता विशेषज्ञ भी सदस्य थे, पर समय-सीमा बढ़ाने पर भी आपसी समझौता न हो सका। अतएव सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमे की सुनवाई शुरू करना ही उचित समझा। किंतु सुनवाई के बीच में भी सर्वोच्च न्यायालय के पास फिर कुछ मुद्दई पहुँचे और मध्यस्थता का मुद्दा उठाया तो उसने कहा, ठीक है, प्रयास कीजिए और यदि समझौता बातचीत से हो जाता है तो अदालत उस पर विचार करेगी, ताकि मध्यस्थता और बातचीत द्वारा किए गए समझौते पर न्यायालय की मुहर लग जाए। पर बात बनी नहीं और विवादित मामले की जिम्मेदारी शीर्ष न्यायालय की ही रही।

आशा का एक कारण और भी था कि मुसलिम समुदाय के बड़े रहनुमाओं एवं उनके अनेक नामी-गिरामी नेताओं ने बार-बार कहा कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय उन्हें मान्य होगा। उसी प्रकार विश्व हिंदू परिषद्, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य हिंदू संगठनों और राजनीतिक दलों एवं देश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी कहा कि शीर्ष न्यायालय का निर्णय सबको मान्य होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होने लगा कि शीर्ष न्यायालय का जो निर्णय होगा, वह सभी दावेदारों व दोनों समुदाय के लोगों को मान्य होगा। इस आम सहमति के कारण भी अच्छा वातावरण बनता दिखाई दिया।

शीर्ष न्यायालय ने शनिवार ९ नवंबर को अपना निर्णय दे दिया और निर्णय में पाँचों न्यायाधीशों की सहमति रही। एक न्यायाधीश ने कुछ विषयों को स्पष्ट करने की दृष्टि से एक एपेंडिक्स जोड़ दिया। लेकिन निर्णय एकमत से हुआ, यानी पाँचों न्यायाधीशों, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस बोबडे, जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस भूषण और जस्टिस नजीर अहमद, सबका फैसला एक ही था एवं सर्वसम्मति से था। गंभीर व विवादास्पद मुकदमों में ऐसा बहुत कम होता है। कोई-न-कोई असहमति या dissenting judgment दे देता है। यदि ऐसा न भी हो और निर्णय से सब सहमत हों, तब भी न्यायाधीश अपने-अपने तर्क देते हुए अलग लिखे फैसले देते हैं। यहाँ प्रसन्नता की बात यह है कि पूरी बेंच का एकमत से एक ही फैसला रहा। टी.वी. और समाचार-पत्रों से लगा कि अब कोई कठिनाई नहीं है। सर्वसम्मति से देश को यह स्वीकार्य है और इसी के अनुसार सरकार की आगे की कार्रवाई होगी। वैसे अत्यंत संवेदनशील मुकदमा होने के कारण तथा पिछले दंगों को ध्यान में रखते हुए सुरक्षा तथा अमन-शांति बनी रहे, इसके लिए केंद्र सरकार ने बहुत अच्छी व्यवस्था की थी। शांति स्थापित रहे, इसके लिए राज्य सरकारों को भी केंद्र ने विशेष परामर्श-पत्र जारी किया। उत्तर प्रदेश में शांति और सुरक्षा का विशेष प्रबंध हुआ। अयोध्या में भी केंद्र और राज्य सरकार द्वारा बड़ी संख्या में सुरक्षा बल तैनात किए गए। परमात्मा की कृपा से पूरे देश में शांति का माहौल रहा। हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के मुख्य प्रतिनिधि संगठनों ने भी निर्णय जैसा भी हो, जनता से शांति बनाए रखने की अपील की।

प्रधानमंत्री ने भी अपने दो उद्बोधनों में हर हाल में शांति बनाए रखने के लिए आमजन से अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि शीर्ष न्यायालय के निर्णय से न किसी की जीत और न किसी की हार होगी, वहाँ तो केवल निष्पक्ष न्याय की ही वाणी ध्वनित होगी। न किसी के रंज का और न किसी की खुशी का इजहार, वहाँ धर्म, समुदाय या और किसी बात का प्रश्न नहीं। संविधान, विधि-विधान तथा साक्ष्य व तथ्यों पर आधारित निर्णय होगा, जो सभी देशवासियों को मान्य होना चाहिए। फिर भी शांति बनाए रखने के लिए जुलूस और प्रदर्शन आदि प्रतिबंधित कर दिए गए। यह भी कि मीटिंग न की जाए, वहाँ भड़काऊ भाषण न दिए जाएँ, जिससे उत्तेजना न फैले। सोशल मीडिया पर भी निगरानी रखी गई, ताकि अफवाहों को रोका जाए, गलत बातों को या उत्तेजित करनेवाली बातों का प्रचार न हो सके। फिर भी सोशल मीडिया पर अनुचित बात प्रसारित करनेवाले सौ से अधिक लोगों के खिलाफ पुलिस को कार्रवाई करनी पड़ी। ९ नवंबर को शीर्ष न्यायालय का निर्णय आने के बाद भी प्रधानमंत्री मोदी ने देश की जनता को उद्बोधित करते हुए कहा कि संयोग है, आज के दिन बर्लिन की दीवार ध्वस्त हुई थी, उसी प्रकार समुदायों के बीच भी अविश्वास की दीवार टूटनी चाहिए और सौहार्द व मेल-मिलाप का वातावरण पैदा होना चाहिए।

जैसाकि पहले कहा जा चुका है, अधिकतर प्रतिक्रियाएँ सकारात्मक थीं। ओवैसी, सी.पी.एम. तथा सी.पी.आई. के महासचिवों ने प्रश्न उठाए कि १९४९ में जो रामलला की मूर्ति मसजिद में रखी गई तो उनके खिलाफ कार्रवाई के आदेश क्यों नहीं दिए गए? ज्ञात नहीं कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने कोई जाँच कमेटी बैठाई थी या नहीं; उस समय के प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश से इसका पता नहीं चलता है। फिर यह भी सोचने का मुद्दा है कि अब उनमें से कितने अधिकारी या अन्य व्यक्ति जीवित हैं। निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि बाबरी मसजिद का ढाँचा जिस प्रकार ६ दिसंबर १९९६ को ध्वस्त किया गया, वह एक बड़ा अपराध था। उस समय तथाकथित अपराधियों को गिरफ्तार किया गया और मुकदमे दाखिल हुए। मुकदमे में देरी की शिकायत और कुछ व्यक्तियों के खिलाफ षड्यंत्र का मामला निरस्त कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय की एक दूसरी पीठ ने संविधान के अनुच्छेद १२५ के टोटल जस्टिस अथवा संपूर्ण न्याय के विशेषाधिकार के अंतर्गत बाबरी मसजिद गिराने के सब मुकदमे एकत्र कर एक अदालत सुने और समय-सीमा भी निर्धारित कर दी, जिसमें संबंधित अदालत को फैसला करना है। यही नहीं, बल्कि अदालत ने आदेश दिया कि अदालत के जज का स्थानांतरण नहीं होना चाहिए। चूँकि जज महोदय रिटायर होनेवाले थे, सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया कि मुकदमे के निर्णय तक उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाए। उत्तर प्रदेश सरकार इसका अनुपालन कर रही है। व्यर्थ में भ्रम फैलाने की कोशिश की जा रही है, गड़े हुए मुरदे उखाड़ने का प्रयास है। मंतव्य है केवल मोदी सरकार को कठघरे में खड़े करने का, ताकि मुसलिम अल्पमत का परोक्ष रूप से वोटों की खातिर तुष्टीकरण हो, वह इस तरह की माँग करनेवालों को अपना पक्षधर समझे।

एक मुद्दा ओवैसी ने उठाया कि इस फैसले से काशी और मथुरा में जो विवाद हैं, उनको उठाया जाएगा, यह भी गलत है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि मुगलों के समय अन्य मंदिर या पुण्य स्थल तोड़े गए, उनको उठाने का सवाल ही नहीं है और न वह उसमें जाएँगे। इसके अतिरिक्त उन्होंने कहा कि बाबरी मसजिद के ढाँचे के टूटने के उपरांत प्रधानमंत्री नरसिंह राव की पहल पर पार्लियामेंट ने कानून पारित किया था कि १५ अगस्त, १९४८ में जो स्थिति थी, उसमें रद्दोबदल का सवाल नहीं है, वह यथावत् रहेगी। इस तरह की अनर्गल बातें केवल भावनाएँ भड़काने के लिए की जाती हैं, जो अनुचित है। हिंदुओं की भावनाओं के बावजूद काशी में शिवमंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान के विषय में एक प्रकार से कानूनी भाषा में ‘इस्टापेल’ लगा है। वहाँ स्थिति यथावत् रहेगी। रामभूमि के मुकदमे के निर्णय में आए तर्कों के आधार पर उनको पुनः अदालत के विचारार्थ नहीं लाया जा सकता। शीर्ष अदालत ने २.७७ एकड़ विवादित भूमि रामलला को दी है और उसकी व्यवस्था के लिए सरकार को एक न्यास बनाना होगा। अतएव भूमि पर विश्व हिंदू परिषद् का ट्रस्ट नहीं, प्रत्युत जो नया ट्रस्ट सरकार बनाएगी, उसके द्वारा राम मंदिर का निर्माण होगा। विश्वास यह है कि नया ट्रस्ट हिंदू समुदाय का उचित प्रकार से प्रतिनिधित्व करनेवाला न्यास या ट्रस्ट होगा। मुसलमानों को मसजिद बनाने के लिए पाँच एकड़ जमीन अयोध्या में उचित स्थान पर दी जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में तथ्यों के साथ पूर्ण रूप से मुसलमानों की भावनाओं की संवेदनशीलता का पूरा ध्यान रखा है।

ध्यातव्य है कि मुकदमे की सुनवाई प्रारंभ होने के समय ही सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि वह इस विवाद को ‘मालिकाना हक किसका’ इस दृष्टि से देखेगा। उनके लिए यह सिविल विवाद है, वे किसी धार्मिक या थियोलॉजिकल क्षेत्र में नहीं जाएँगे। उन्होंने निरंतर इस पर पूरा ध्यान रखा। पक्षधरों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से अपने-अपने सबूत पेश किए। एक हजार पृष्ठों से अधिक का यह निर्णय और इतने कम समय में दिया गया निर्णय अभूतपूर्व है। पूरे विवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा दोनों ओर के पक्षधरों के तर्कों व साक्षियों का समुचित विश्लेषण है। न्यायालय का ध्यान विवाद के सिविल नेचर अथवा किसका मालिकाना हक है, इस पर रहा है। उन्होंने सब साक्षियों और तर्कों का विवेचन करने पर पाया कि दो विरोधी प्राबेबिलिटीज अथवा संभावनाओं का आकलन करते हुए रामलला केपक्ष का पलड़ा भारी लगा, रामलला को अपना जन्मस्थान मिल गया। निर्णय सुविचारित और अत्यंत संतुलित है। इसीलिए आशा है कि विवाद का अंत होगा। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कहा है कि वे पूर्णतया संतुष्ट न होते हुए भी पुनर्विचार के लिए न्यायालय नहीं जाएँगे। मौ. मदनी ने भी पहले यही कहा, फिर राय बदल ली। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौ. अरशद मदनी ने कहा है कि उनका संगठन पुनर्विचार की याचिका पेश करेगा। मुकदमे में पक्षधर रहे सुन्नी वक्फ बोर्ड न्यायालय न जाने की अपनी राय पर कायम है। मुख्य वादी इकबाल अंसारी, जिनके पिता १९४९ से यह मुकदमा लड़ रहे थे, ने कहा कि पुनर्विचार की माँग का कोई मतलब नहीं है। नतीजा वही रहेगा। यह कदम सौहार्दपूर्ण वातावरण को केवल खराब करेगा।

सुन्नी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष जफर फारुखी ने कहा कि अजीब जात है, पहले मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड बार-बार कह रहा था, निर्णय मान्य होगा, अब पैंतरा बदल गया। जफर फारुखी ने यह अवश्य कहा कि बाबरी मसजिद के एवज में पाँच एकड़ जमीन लेने के विषय में सुन्नी वक्फ बोर्ड २७ नवंबर को फैसला करेगा। जामा मसजिद के इमाम ने भी रिव्यू में न जाने की राय व्यक्त की। जफरयाब जिलानी, जो सुन्नी वक्फ बोर्ड और मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील थे, ने कहा कि १७ नवंबर की अपनी बैठक में फैसला किया कि मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड शीर्ष न्यायालय के ९ नवंबर के निर्णय पर पुनर्विचार करने का आवेदन करेगा। देखादेखी हिंदुओं के एक संगठन ‘हिंदू महासभा’ और कुछ अन्य दावेदारों ने भी कहा कि वे भी पुनर्विचार के लिए न्यायालय जाएँगे। पर विधि विद्वानों का मत है कि रिव्यू हेतु कोई ठोस सामग्री बची नहीं है। देखना है कि अब क्या होता है!

रामजन्मभूमि के विवाद को शीर्ष न्यायालय के निर्णय के उपरांत और बढ़ाने की किसी प्रकार की कोशिश देश के हित में नहीं होगी। काँटों से भरा एक मार्ग समाप्त हुआ है; अब काँटों से उलझना व्यर्थ है। डर इस बात का है कि टी.वी. की बहस में कभी-कभी भागीदार ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो दूसरे पक्ष को आहत कर सकते हैं। इससे वैमनस्य बढ़ने की आशंका बनी रहती है। मुसलिम समाचार-पत्र किस प्रकार से निर्णय पर राय व्यक्त करते हैं, वह महत्त्वपूर्ण है। क्यों अखबार मुसलिम समुदाय में नीचे से नीचे के तबकों तक पहुँचते हैं और उनकी राय बनाते हैं। उनमें नकारात्मक बातें नहीं होनी चाहिए। दूसरा डर है कि मसजिदों में जुम्मा की नमाज में इस मामले पर क्या कहा जा रहा है, यह भी अपनी अहमियत रखता है। इसके अतिरिक्त देखने में आता है कि एक तथाकथित और अपने को उदारवादी कहलानेवालों का गुट है, जिसे नरेंद्र मोदी और भाजपा से मानसिक घृणा है, जो अवसर ढूँढ़ता रहता है कि कैसे दोषारोपण किया जाए। निर्णय में गलतियाँ निकालने की कोशिश करने वाले लिख-छप रहे हैं। अधिकतर इनकी पहुँच अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं के पढ़नेवालों में ही है, वह भी सीमित है। वे स्वयं क्या सही है, क्या नहीं, इसका विवेचन करने की क्षमता रखते हैं। इस मध्यम वर्ग को देशहित और राष्ट्रीयता के महत्त्व की भी पहचान है। अब एक नया वर्ग उभरता दिखता है, उसमें कुछ विधिवेत्ता भी शामिल होते हैं, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना करके अपने महत्त्व को बढ़ाने की ललक दिखाई देती है। कुछ और अकादमिक, पत्रकार भी इस श्रेणी में आते हैं। वे कुछ इस प्रकार से लिखते हैं, मानो शीर्ष न्यायालय ने एक कठिन सवाल का हल नहीं निकाला है, वरन् उनके निर्णय से अल्पसंख्यकों में दहशत व्याप्त हो रही है, उनको दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है, उनकी भावनाओं की हर तरह से अवमानना हो रही है, ऐसी गंध उन लेखों से निकलती है। हम अभिव्यक्ति के अधिकार के समर्थक हैं, किंतु हम पर समय की नजाकत को याद रखने का दायित्व है। हम मानव अधिकारों के हर प्रकार से पक्षधर हैं। भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार दिए हैं। हमारा संवैधानिक न्यायालय इन विशेष अधिकारों के सजग प्रहरी है, इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है। इंदिरा गांधी के आपात काल के दौरान भी कई उच्च न्यायालयों के फैसले और शीर्ष न्यायालय में भी न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना का एडीम जबलपुर के मामले में अपना एकल dissenting judgment न्यायपालिका की संवैधानिक प्रतिबद्धता के प्रमाण हैं। मुसलिम लॉ बोर्ड की पैंतरेबाजी कुछ रहस्यमय लगती है। टी.वी. पर उनके रहनुमाओं ने मुसलमानों के घाव आदि की बात की। हिंदुओं की भी प्रतिक्रिया हो सकती है तो हमारे हजार सालों के घाव का क्या होगा। संवेदनशील मामले में शब्दावली का इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए। दोनों समुदायों के पक्षधरों को संयम से व्यवहार करना चाहिए। कुछ समझदार मुसलिम बुद्धिजीवियों ने कहा है कि आपस में समझौता हो जाता और रामजन्म की भूमि हिंदुओं को सौंप देने पाँच एकड़ जमीन न लें तो अच्छा है, अगर लें भी तो मंदिर की जगह अनाथालय आदि स्थापित करें। आगे के लिए शांति का वातावरण ही सबके लिए वांछित है और उस ओर ध्यान देना चाहिए।

इस प्रकरण से कुछ अलग, किंतु मानव अधिकारों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित एक प्रकरण में हम गृह मंत्रालय के एक निर्णय से नितांत असहमत हैं, वह है—आतिश तासीर को ओवरसीज इंडियन सिटीजन के अधिकार से वंचित करना। ऐसा करने के पहले उससे पूछना तो चाहिए कि क्यों उन्होंने अपना पाकिस्तानी संबंध स्पष्ट नहीं किया। वैसे समाचार पढ़नेवाला हर एक जानता है कि वह प्रसिद्ध पत्रकार तलबीन सिंह के लड़के हैं। तलबीन सिंह ने स्वयं यह कई बार लिखा है। उन्होंने ही उसका लालन-पालन किया। इंग्लैंड में शादी के बगैर तासीर के पिता सलमान से उनके संबंध हो गए थे, जो पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश नागरिक थे। बाद में वह पाकिस्तान में मंत्री भी रहे और पंजाब के गवर्नर थे, जब उनके सुरक्षा गार्ड ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी, क्योंकि सलमान तासीर ईश निंदा बिल के विरुद्ध थे और उन्होंने ईसाई मत की महिला, जो इस कानून के मातहत दोषी पाई गई थी, उसकी हिमायत की थी। यदि तासीर ने कुछ छिपाया था तो गृह मंत्रालय क्यों निष्क्रिय रहा। उनके पास तो पूरी जानकारी होनी चाहिए थी। उसके अपने तंत्र हैं। गृह मंत्रालय में अखबार भी जाते हैं। उन्हें मना कर देना चाहिए था। टेक्नीकली गृह मंत्रालय की कार्रवाई सही है, पर यह समय प्रतिकूल है। इस प्रकार से यकायक निरस्त कर देने के कारण मोदी विरोधियों को सरकार को कोसने का एक मौका मिल गया।

‘टाइम’ मैगजीन में उसके लेख को, जिसमें उसने प्रधानमंत्री मोदी को ‘मुख्य विभाजक’, डिवाइडर इन चीफ कहा था, उससे जोड़ दिया। आतिश तासीर ने एक और लेख ‘टाइम’ मैगजीन को दे दिया। गृह मंत्रालय को सोचना चाहिए था कि आखिर भारत में कितने लोग ‘टाइम’ मैगजीन पढ़ते हैं! जिन्होंने भारत के अखबारों में अगर इस बारे में कुछ पढ़ा भी, वह भी शायद अबतक भूल चुके थे। लेकिन गृह मंत्रालय की कार्रवाई ने उनको भी याद दिला दिया। जल्दबाजी में किया हुआ काम शैतान का होता है। आतिश तासीर ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा है कि अब उसने गृह मंत्रालय के निरस्त करने के निर्णय को अदालत में कानूनी चुनौती देने का निश्चय किया है। यही नहीं, विश्व के करीब २१८ प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों और लेखकों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर निवेदन किया है कि गृह मंत्रालय अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे। विदेशी अखबारों में वैसे भी भारत के खिलाफ काफी कुप्रचार हो रहा है। शायद हम अपनी बात को अच्छी तरह प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। विदेशी मीडिया से हमें अपने अच्छे संबंध बनाने की कोशिश करनी चाहिए। छोटी-छोटी घटनाएँ अतिरंजित होकर विदेशों में प्रकाशित होती हैं। भारतीय नागरिक और भारतीय मूल के अन्य देशों के नागरिक असमंजस में पड़ जाते हैं। इसी प्रकार की और छोटी-छोटी घटनाएँ हैं, जैसे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शाखा के लिए आरोपित ध्वज का विवाद। एक घटनाक्रम का बयान है शाखा का और दूसरा है डिप्टी प्रॉक्टर का। उसने इस्तीफा भी दे दिया है। पुलिस में प्राथमिकी दर्ज कराने की कोशिश उचित नहीं लगती। उसने तैश में कार्य किया, क्षमा माँग ली। यह अध्याय समाप्त हो जाना चाहिए, वरना बातों का बतंगड़ बनेगा। इसी भाँति एक मुसलमान फिरोज खाँ सहायक प्रोफेसर की संस्कृति विभाग में नियुक्त का विरोध। हमें खुश होना चाहिए कि अन्य धर्मावलंबी संस्कृत पढ़ रहे हैं। वे हमारे धर्मग्रंथ पढ़ेंगे तो उनको भारतीय सांस्कृतिक परंपरा और धरोहर की जानकारी होगी। नियुक्ति के नियमों के अनुसार है। अठारह और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्राह्मणों ने योरप के ईसाइयों को संस्कृत पढ़ाई और इस आदान-प्रदान से नवजागरण का प्रारंभ हुआ। दारा शिकोह को बनारस के पंडितों ने संस्कृत पढ़ाई और ५२ उपनिषदों का अनुवाद हुआ। कमलापति त्रिपाठी के पूर्वज उनमें से थे। बदलते समय की नब्ज परखने में ही बुद्धिमानी है। हम अपने मुख्य विषय से विलग हो गए कि शीर्ष न्यायालय का रामजन्मभूमि संबंधी निर्णय पूरी तरह संवैधानिक है और अपने में ऐतिहासिक महत्त्व का है। भविष्य में बौद्धिक स्तर पर पोथे-के-पोथे इस निर्णय के विषय में विश्लेषण होगा। हमें संतोष है कि आज की विषम परिस्थितियों में शीर्ष न्यायालय ने एक दीर्घकालीन विवादग्रस्त मुकदमे का निस्तारण कर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।

पाँचों न्यायमूर्ति तो हमारी बधाई के पात्र हैं ही, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने न्यायिक नेतृत्व का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। एक सर्वसम्मति का निर्णय देश को उपलब्ध हुआ। साथ ही साथ हमें दोनों दावेदारों के मुख्य अधिवक्ताओं की भी प्रशंसा करनी चाहिए। गरमागरमी के माहौल में भी उनकी विद्वत्ता और प्रतिबद्धता प्रतिलक्षित होती है। रामलला की पैरवी करनेवाले भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल के. परासरन से हमारा पुराना परिचय है। वे विधिवेत्ता होने के साथ-साथ अत्यंत आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। संस्कृत के प्रकांड विद्वान् होने के कारण उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों का गहरा अवगाहन किया है। अत्यंत सज्जन एवं जीवन-मूल्यों और आदर्शों से प्रेरित व्यक्ति हैं। श्रीमती गांधी के द्वितीय कार्यकाल में जब हम भारत सरकार के गृह सचिव और वित्त मंत्रालय के न्याय विभाग के सचिव थे, प्रायः उनसे अनेक महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर परामर्श करते थे, कानूनी राय लेते थे और अनेक विषयों पर विचार-विमर्श करते थे। वे धैर्यवान और न्यायालय की गरिमा को ध्यान में रखते थे। रामजन्मभूमि विवाद के समय भी सर्वोच्च न्यायालय ने उनसे उनकी वय और स्वास्थ्य के कारण बैठकर अपनी बहस करने को कहा, पर उनका उत्तर था कि न्यायालय की मर्यादा का ध्यान रखते हुए सदैव की तरह वे खड़े होकर ही अपना पक्ष प्रस्तुत करना चाहेंगे। परासरनजी की सफलता पर हम उनको आदरपूर्वक बधाई देना चाहेंगे। निर्णय से उन्हें अत्यंत संतोष तो होगा ही, हिंदू समुदाय को भी लंबे समय के बाद सांत्वना प्राप्त हो सकी।

मुसलिम संगठनों के पैरोकार डॉ. धवन साहब ख्याति प्राप्त वरिष्ठ एडवोकेट हैं। मिजाज के तेज-तर्रार, सिद्धांतप्रिय धवन अपनी बात बड़ी स्पष्टता से रखते हैं। इसलिए बहस के समय कभी-कभी गरमी नजर आई, लेकिन धावन अति सुसंस्कृत एवं विचारशील व्यक्ति हैं। गोष्ठियों में हमारी और उनकी कई बार भागीदारी रही है। अच्छी जान-पहचान है। उनके पिता डॉ. धवन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जानेमाने एडवोकेट थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पार्टटाइम लैक्चरर भी थे। एल-एल.बी. के एक कोर्स में उन्होंने हमें पढ़ाया भी था। आनंद भवन से उनके अच्छे संबंध थे। वे लेफ्टिस्ट विचारधारा के चिंतकों में माने जाते थे। प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल भी नियुक्त किया था। सर्वोच्च न्यायालय में धवन अपने पूज्य पिता की धरोहर सँजोऐ हुए हैं। न्यायालय में एक पेशेवर वरिष्ठ विधिवेत्ता के नाते धवन साहब ने मुसलिम पक्ष को जिस कुशलता से प्रस्तुत किया, वह भी सराहनीय है। वह उनका वकालत पेशे का कर्तव्य था, वह बखूबी उन्होंने पूरा किया।

वीर सावरकर के खिलाफ जिहाद

पिछले कुछ दिनों से वीर सावरकर के खिलाफ, विशेषतया उनको ‘भारत रत्न’ से अलंकृत करने के प्रस्ताव के उपरांत एक जिहाद शुरू कर दिया गया। प्रस्ताव भाजपा और शिवसेना के मैनीफेस्टो में सन्निहित था। वैसे भारत रत्न देने या न देने का निर्णय भारत सरकार और राष्ट्रपति महोदय करेंगे। भाजपा और शिवसेना के चुनाव के पहले गठबंधन के बावजूद सरकार बनाने के समय शिवसेना की माँग कि उनका मुख्यमंत्री हो अथवा ढाई-ढाई साल के लिए दोनों दलों का मुख्यमंत्री हो; और मंत्रियों के पद आधे-आधे दोनों दलों में बाँटे जाएँ। इस माँग को भाजपा ने नकार दिया और कहा कि चुनाव के पहले ऐसा कोई निर्णय नहीं हुआ था। भाजपा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषणों में साफ-साफ कहा था कि फड़णवीस ही अगली सरकार में मुख्यमंत्री बनेंगे। लिखते समय तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर शिवसेना, शरद पवार की एन.आर.सी.पी. और कांग्रेस मिलकर सरकार बनाएँगे। यही नहीं, यह भी खबर है कि जो समझौता इन तीन दलों में हुआ है, उसमें वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ प्रदान करने के मुद्दे को हटा दिया गया है। फिर भी टी.वी. पर और कुछ समाचार-पत्रों में वीर सावरकर के व्यक्तित्व एवं कार्यकलापों की जमकर आलोचना हो रही है।

चंद बुद्धिजीवी, जो अपने को उदारवादी और सहिष्णु भी कहलाने का दम भरते हैं, कभी इस चैनल पर तो कभी उस चैनल पर अपने कुतर्कों को दोहराते रहते हैं। गोइवोल्स की तरह उनका विश्वास है कि दिनोदिन आलोचना की जाए तो झूठ भी सच लगने लगेगा, खासकर उन लोगों को, जिन्हें इस विषय की विस्तृत जानकारी नहीं है। हद तो तब हो गई, जब राहुल गांधी ने वीर सावरकर को भीरू-डरपोक (कावर्ड) कहा। काश, वीर सावरकर के विषय में उनकी दादी ने क्या कहा, किस प्रकार के शब्द उनके सम्मान में कहे, वे उनको पढ़ लेते। करीब ७० वर्ष पूर्व धनंजय कीर की लिखी जीवनी के पन्ने उलट लेते तो शायद उन्हें वीर सावरकर के त्याग, तपस्या, बलिदान और देशभक्ति का कुछ ज्ञान हो जाता। चूँकि महाराष्ट्र में चुनावी माहौल था, अतः डॉ. मनमोहन सिंह ने स्थिति को सँभालने की कोशिश की, क्योंकि वे जानते हैं कि महाराष्ट्र में वीर सावरकर के प्रति जनसाधारण में कितनी श्रद्धा है। डॉ. सिंह ने कहा कि हम सावरकर का आदर करते हैं, किंतु उनकी हिंदुत्व की विचारधारा से असहमत हैं। यह ठीक है कि विचारधाराओं की भिन्नता तो लोकतंत्र का आधार है। यह जरूरी नहीं है कि किसी महान् विभूति की हर बात से सहमत हुआ ही जाए। वीर सावरकर के बहुत से विचार हमें भी हृदयग्राही नहीं हैं। वैचारिक मतभेद के कारण उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय अवदान की अवमानना तो नहीं होनी चाहिए। वीर सावरकर के अदम्य साहसी व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालने की कोशिश चंद्रमा पर कीचड़ उछालने जैसा बेहूदा कार्य है। वीर सावरकर की ‘१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक ने, जो प्रकाशित होने के पहले ही अंगे्रजों द्वारा जप्त कर ली गई थी, हजारों भारतवासियों को प्रेरणा प्रदान की।

वीर सावरकर को लांछित करने की मुहिम के दो मुख्य तर्क हैं। पहला यह कि उन्होंने अंडमान से ब्रिटिश सरकार को पाँच बार माफीनामा दिया। ऐसा कहनेवाले लोग उस समय की पृष्ठभूमि भूल जाते हैं। मांटेस्गू चेम्सफोर्ड सुधारों से आशा बनी थी कि अब अपने अधिकारों का वैधानिक रास्ता खुल रहा है। ऐसा नहीं था कि क्रांतिकारी अंग्रेजों के खून के प्यासे थे। बाद के क्रांतिकारियों की पीढ़ी ने गांधीजी के साथ विवाद में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया था। यह प्रकाशित ‘गांधी साहित्य’ में उपलब्ध है। प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर ब्रिटिश शहंशाह ने बहुत से क्रांतिकारियों को कालेपानी से छोड़ दिया था तो उन्होंने भी इस प्रकार के शर्तनामों पर हस्ताक्षर किए थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचींद्र सान्याल ने अपने संस्मरण ‘बंदी जीवन’ में इसकी चर्चा की है। वारींद्र घोष और मनिक लोका केस के अभियुक्त अन्य क्रांतिकारी साथियों ने भी शर्तनामे की शर्तों को स्वीकार किया था। वीर सावरकर राजनैतिक कैदियों के आमरण अनशन का विरोध करते रहते थे। उनका कथन था कि किसी प्रकार यातना सहते हुए, विरोध करते हुए जीवित रहना बेहतर है, ताकि फिर से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से टक्कर लेने का अवसर मिले।

अंडमान जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ हुए तरह-तरह के दुर्व्यवहार के समाचार सुरेंद्रनाथ बनर्जी के अखबार ‘बंगाली’ में छपे। भारत में भी इसकी अधिक जानकारी की माँग हुई। ब्रिटिश पार्लियामेंट में सवाल पूछे गए। तब उस समय वायसराय की कार्यकारिणी के होम मेंबर (आज के गृहमंत्री) सर रेजीनॉल्ड क्रैडक स्थिति के अध्ययन के लिए स्वयं अंडमान गए। क्रेडक ने सावरकर से भी दो बार लंबी बातचीत की। पर अंत में लिखा कि सावरकर खतरनाक व्यक्ति है। उसकी बात पर विश्वास नहीं कर सकते हैं; और उनको नहीं छोड़ा गया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश शासन परेशान था, क्योंकि उसके पास ऐसी सूचना थी कि जर्मन जहाज ‘एमडेन’ प्रशांत महासागर में चक्कर लगा रहा है और उसमें एक अन्य क्रांतिकारी चंपक पिल्लई हैं; संभवतः सावरकर को मुक्त कराने की कोशिश की जाएगी।

एक और बात ध्यान देने की है कि क्रांतिकारी छूटकर पुनः अपने लक्ष्य-प्राप्ति में संलग्न हो जाते थे। यह एक स्ट्रेटेजी थी। वीर सावरकर शठ के साथ शठ जैसा व्यवहार करने में विश्वास रखते थे। उनके सामने शिवाजी का उदाहरण था, जो कई बार सत्तारूढ़ नवाबों आदि से खेद व्यक्त किया और स्वामिभक्त का नाटक किया। औरंगजेब के साथ भी उनहोंने ऐसा ही किया और किसी प्रकार मुगलों के चंगुल से भाग निकले। श्रीकृष्ण ने हथियार न उठाने का प्रण लिया था और अपनी सेना कौरवों को दे दी थी, किंतु पूरे महाभारत के युद्ध में उनके शब्द व व्यवहार पांडवों के प्रोत्साहन के स्रोत थे। सावरकर ने मैजिनी और उसके आंदोलन को पढ़ा था और लिखा भी। भारत की स्वतंत्रता सावरकर का लक्ष्य था। स्वराज प्राप्त करना उनका साध्य या उसके लिए वे हर प्रकार के साधनों का उपयोग करने को तत्पर थे। जहाँ तक देश की आजादी का सवाल था, उनके लिए साध्य और साधन के वैषम्य का कोई प्रश्न नहीं था।

दूसरा कारण, जिसकी वजह से उन पर लांछन लगाए जा रहे हैं, वह कि वे गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल थे और उन पर लालकिले में मुकदमा चला। दो जीवन के लिए कालापानी को निष्कासित वीर सावरकर को आशा नहीं थी कि आजाद भारत में, जिसके लिए उन्होंने पूरा जीवन समर्पित किया, उन्हें पुनः जेल जाना पड़ेगा। अधिक लोगों को पता नहीं है कि १९०९ के पहले लंदन में दो बार गांधीजी और सावरकर की मुलाकात हुई थी। विजयादशमी के अवसर पर एक मीटिंग में गांधीजी ने अध्यक्षता की, जहाँ सावरकर को भी बोलना था। दोनों की विचारधारा स्पष्ट हो गई थी। आसफ अली, जो विजयादशमी की बैठक में मौजूद थे, ने लिखा है कि सावरकर का भाषण सबसे प्रभावी था। तेंदुलकर और प्यारेलाल की कई वॉल्युम की जीवनी में उसको देखा जा सकता है। गांधीजी की अन्य जीवनियों में भी इसका जिक्र है। सावरकर को जनता की माँग पर अंडमान से भारत में लाने के बाद, जेल में रखा गया। बाद में उनको रत्नागिरि में रहने के आदेश हुए। वे जिले के बाहर नहीं जा सकते थे। यह हाउस एरेस्ट की तरह था। वहाँ सावरकर से मिलने गांधीजी और कस्तूरबा गए और काफी समय तक बातचीत होती रही। अछूत समस्या पर विचार-विमर्श हुआ, पर दोनों के राजनैतिक विचारों और समस्याओं के विषय में साम्य नहीं हो सका। सावरकर को गांधी हत्याकांड में तत्कालीन प्रधानमंत्री की जिद के कारण शामिल किया गया। डॉ. अंबेडकर, जो कानून मंत्री थे, उनको पूरे मामले से अलग रखा गया। डॉ. अंबेडकर ने किस प्रकार एल.बी. भोपटकर, जो सावरकर के वकील थे, को गोपनीय रूप से बताया कि वीर सावरकर के विरुद्ध कोई सबूत नहीं है और वे शीघ्र छूट जाएँगे। इस पूरे प्रकरण को मोहन मोलगाँवकर की पुस्तक ‘द मेन हू किल्ड द’ में सुधी पाठक देख सकते हैं। विशेष अदालत के न्यायाधीश जस्टिस आत्माचरण ने उन्हें रिहा कर दिया कि सावरकर के खिलाफ कोई विश्वसनीय सबूत नहीं है। इसका तात्पर्य है कि वे निर्दोष हैं। यही कानून की मान्यता है कि नामी-गिरामी एडवोकेट श्री पी.आर. दास, जिन्होंने सावरकर की पैरवी की, वे प्रसिद्ध कांग्रेस नेता सी.आर. दास के छोटे भाई थे। फैसले के उपरांत जब वीर सावरकर ने उनको धन्यवाद दिया तो पी.आर. दास ने कहा कि भाई, आपके खिलाफ कोई उचित साक्ष्य था ही नहीं, आपको हर हालत में रिहा होना ही था। एल.बी. भोपटकर चाहते थे कि एक इनक्वायरी की माँग रखी जाए कि सावरकर को गांधी हत्याकांड में क्यों फँसाया गया? वीर सावरकर ने कहा कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं, इससे कटुता ही बढ़ेगी। देश की आवश्यकता है—एकता की और एकजुट होकर देश को मजबूत बनाने की। फिर भी कुछ कांग्रेसी तथा कम्युनिष्ट नेता वीर सावरकर का नाम गांधी हत्याकांड से जोड़ते रहते हैं।

सावरकर बंधुओं को रिहा करने के लिए १९२० के करीब अपने पत्र में जोरदार सिफारिश की थी। उसमें विशेषकर गांधीजी ने छोटे भाई दामोदर सावरकर के विषय में लिखा कि वह उनको लंदन के दिनों से जानते हैं। वह एक महान् देशप्रेमी हैं। उनके राजनैतिक विचारों से उनका मतिभेद है, यह भी गांधीजी ने कहा। सावरकर के गोडसे और आपटे के पुराने संबंधों के कारण उन्हें अभियुक्त बना दिया गया। ‘गिल्ट वाई एसोशियन’ अथवा संबंधों के आधार पर उनको गांधीजी के हत्याकांड के मामले में शामिल किया गया। कोई सीधा साक्ष्य था ही नहीं। वीर सावरकर जैसा दूरदर्शी चिंतक गांधीजी की हत्या के बारे में सोच ही कैसे सकता था। गांधीजी की हत्या से लाभ क्या था? गांधीजी स्वयं उन दिनों बार-बार कहते थे कि अब उनकी बात कोई नहीं सुनता। १५ अगस्त को उन्होंने कोई संदेश नहीं दिया। वे विभाजन के खिलाफ थे, पर उनके प्रमुख अनुयायियों ने दूसरा ही निर्णय उनकी पीठ पीछे ले लिया। सांकेतिक रूप से कहा जाए तो गोडसे ने एक नहीं तीन गोलियाँ चलाईं। एक ने गांधीजी की जघन्य हत्या की। दूसरी ने सावरकर को निशाना बनाया और उनको जेल जाना पड़ा तथा सदैव के लिए उनको संदेह के घेरे में डाल दिया। तीसरी गोली ने हिंदू महासभा को मृतप्राय कर दिया। आज की महासभा तो कुछ सिरफिरों का डेरा है।

सावरकर के देहांत के बाद जाँच के लिए ‘कपूर कमीशन’ की घोषणा की गई। यह जान-बूझकर सावरकर को बदनाम करने का एक ‘मोटिवेटेड’ प्रयास था। उनकी रिपोर्ट में इतनी खामियाँ हैं कि उसके विवरण में जाना व्यर्थ है। यदि नेहरू सरकार को जस्टिस आत्माचरण के फैसले से संतोष नहीं था तो उसके लिए सीधा रास्ता था कि हाई कोर्ट में अपील करते। वह नहीं किया गया, क्योंकि सफलता की आशा नहीं थी। वीर सावरकर के देहांत के बाद ‘कपूर कमीशन’ बनाया गया। प्रधानमंत्री नेहरू से जस्टिस कपूर के अच्छे सलूक रहे थे; और वे अपनी वामपंथी विचारधारा के लिए जाने जाते थे। इस विषय में विस्तृत जानकारी के लिए हम सुधी पाठकों से निवेदन करेंगे कि वे आशुतोष देशमुख रचित सावरकर की जीवनी ‘ब्रेवहार्ट सावरकर : कीपर ऑफ द सेकुलर सैफ्टन फ्लेम’ को देखने का कष्ट करें। ‘साहित्य अमृत’ के एक अंक में हमने इस पुस्तक की चर्चा की थी। २०१९ में ‘द राइट प्लेस’ द्वारा मुंबई से प्रकाशित। अमेजन पर सुविधा से उपलब्ध है। खेद है कि हम अधिक विवरण में नहीं जा पा रहे हैं।

साथ ही वैभव पुरंदरे की पुस्तक ‘सावरकर द ट्रयू स्टोरी ऑफ द फादर ऑफ हिंदुत्व’ (जगरनाट, नई दिल्ली) को भी देखें तो सच्चाई पता लग सकती है। तटस्थ दृष्टि से बिना पढ़े, जो भी मन में आए टी.वी. की बहस में अंटशंट कहते हैं। १५ नवंबर को नेहरू मेमोरियल और लाइब्रेरी में माननीय उपराष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू ने विक्रम संपत के बृहत् ग्रंथ ‘सावरकर इ’कोज फ्रॉम द फारगाटेन पास्ट’ अर्थात् ‘भूले हुए समय की गूँज’ का लोकार्पण किया था। अत्यंत विशद शोध पर आधारित वीर सावरकर की १८८१-१९२४ तक की जीवनी है। उपराष्ट्रपति महोदय ने इस अवसर पर वीर सावरकर की बहुमुखी प्रतिभा और बहुपक्षीय कृतित्व पर प्रकाश डाला। अगले वर्ष जीवनी के दूसरे भाग के आने की संभावना है। यह अपने में वीर सावरकर का एक आधिकारिक एक और जीवन-चरित्र होगा। प्रकाशक है—पेंगुइन। उपर्युक्त तीन लेखकों ने पूरे मराठी लेखन का भी अच्छा इस्तेमाल किया है। सत्य को समझने के लिए इन पुस्तकों का अध्ययन भारतीय राजनीति के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है। इससे जानबूझकर जो भूल और गलतफहमियाँ फैलाई जा रही हैं, उनका निराकरण होगा।

बहुत लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि जब वीर सावरकर रत्नागिरि में थे, उन्हें जिले से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी, तब वे अछूतों द्वारा छुआछूत के उन्मूलन के लिए और तथाकथित दलितों के शिक्षा प्रबंधन में संलग्न रहे। यही नहीं, जब उनको सांस्कृतिक विषयों पर बोलने की आज्ञा मिल गई तो बड़ी चतुराई से वे इस सुविधा का उपयोग करने लगे, अपने भाषणों में, जिससे परोक्ष रूप से सुननेवालों का देशभक्ति और स्वराज प्राप्ति की इच्छा को बल मिले। संयोग से वहाँ के एक पारसी कलेक्टर ने आगाह किया कि आपके ऊपर तरह-तरह की निगरानी है, इसलिए आपको अपने कथन में सावधानी बरतनी होगी। अन्यथा रत्नागिरि में जिन शर्तों पर रहने की इजाजत मिली है, बॉम्बे सरकार उसको वापस ले सकती है और शर्तों को तोड़ने के अपराध में पुरानी सजा की फिर शुरुआत कर सकती है। किंतु वीर सावरकर कभी भी अपनी स्वतंत्रता के लिए सवार धुन से अलग नहीं हुए।

एक महाशय ने टी.वी. पर यह बार-बार कहा कि जब नेताजी की आई.एन.ए. देश की पूर्वी सीमा पर थी, तब सावरकर हिंदुओं को सेना में भरती होने को कह रहे थे। यह विदित है कि आई.एन.ए. को स्थानीय सहयोग प्राप्त न हो सका। सुभाष बोस सावरकर का बहुत आदर करते थे। उनसे मिलने बंबई भी गए थे। सिंगापुर और मलाया में उन्होंने वीर सावरकर की पुस्तक का पुनः प्रकाशन कराया और उसे वितरित किया गया। वीर सावरकर का मंतव्य था कि अधिक-से-अधिक हिंदू सेना में शामिल होकर शस्त्र प्रयोग करना सीखें। उनका नारा था, ‘हिंदुआइज पॉलिटिक्स और मिलीटराइज हिंदूज्म’ अर्थात् राजनीति में हिंदू हितों का ध्यान रखो और हिंदू समुदाय का सैनीकरण करो, ताकि वह डरपोक व कमजोर न माना जाए। उन्होंने कोई रेक्रूटिंग एजेंट का काम नहीं किया। जो कहा, वह समय की माँग थी, आवश्यकता थी। ब्रिटिश सरकार और वायसराय ने मोहम्मद अली जिन्ना को हर तरह का प्रोत्साहन दिया, पर वीर सावरकर की सदैव अवहेलना ही की। ब्रिटिश सरकार सदैव उनको संदेह की दृष्टि से देखती रही और उसी प्रकार का व्यवहार करती रही।

वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ देने की माँग आज की नहीं है, यह पुरानी है। उनका विरोध भी पुराना है। जब वीर सावरकर के चित्र को संसद् के केंद्रीय हॉल में लगाने का निश्चय हुआ, तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने चित्र के उद्घाटन या परदा हटाने की रस्म में आनाकानी की। किंतु वीर सावरकर का चित्र आज संसद् के सेंट्रल हॉल में आदर का पात्र है, और प्रतिवर्ष उनके जन्मदिवस पर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की जाती है। आमजन को यह जानकारी भी नहीं है कि वाजपेयी सरकार ने राष्ट्रपति महोदय के पास ‘भारत रत्न’ वाला प्रस्ताव प्रेषित किया था, किंतु राष्ट्रपति ने अपनी विचारधारा के अनुसार स्वीकृति प्रदान न करके फाइल अपने पास रख ली। प्रधानमंत्री वाजपेयीजी की शालीनता प्रसिद्ध है। राष्ट्रपति ने ‘हाँ’ या ‘ना’ कर प्रस्ताव वापस नहीं किया। वाजपेयीजी ने स्मरण पत्र नहीं भेजा। यदि सरकार द्वारा प्रस्ताव दुबारा भेजते तो राष्ट्रपति को संविधान के अनुसार स्वीकृति देनी ही पड़ती। वाजपेयीजी धैर्यवान् थे। वे तत्कालीन राष्ट्रपति की भावनाओं को किसी प्रकार चोट पहुँचे, यह नहीं चाहते थे। इसीलिए यह मामला अधर में लटक गया। वीर सावरकर के लिए ‘भारत रत्न’ अब क्या मूल्य रखता है। ऐसे इतिहास-पुरुष के उत्कृष्ट देशप्रेम, आत्मोत्सर्ग की ललक, निडरता और साहस के मूल्य का कोई आकलन नहीं हो सकता। हम अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं कि कानपुर हिंदू महासभा के तीन दिवस के सत्र में कई बार वीर सावरकर के दर्शन करने और सुनने का अवसर मिला, उस समय मैं इंटरमीडिएट का विद्यार्थी था और अपने चाचा के साथ कानपुर के हिंदू महासभा के अधिवेशन में गया था। उस समय की वीर सावरकर की सौम्य छवि और उनके जोशीले शब्द चलचित्र की तरह आज भी आँखों के सामने तैर रहे हैं।

 

(त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी)

हमारे संकलन