खनक

बत्ती बुझाकर वह अपने बिस्तर पर लेट गई, उसे किसी के घुँघरुओं के खनकने की आवाज सुनाई दी, एक बार तो उसे लगा कि शायद यह उसका वहम है। पर बाद में उसे यह आवाज रोज सुनाई देने लगी। सचमुच! हर रोज वह आवाज उसकेआस-पास ही कहीं से आती थी। तभी उसकी आँखों में खुमारी उतरी और वह गहरी नींद में जा समाई—देखती क्या है कि तीन देवियाँ एक-एक कर उसकेघर के मुख्यद्वार से बाहर जा रही हैं। लपककर उसने उन्हें पकड़ना चाहा, पर वे तेजी से मुख्यद्वार की ओर चल पड़ी। उसने उन्हें पुकारा और पूछा, ‘कहीं जा रही हैं आप सबलोग?’ फिर से पुकारा और गुहार लगाई—‘नहीं जा सकती हैं आप मुझे छोड़कर।’

देवियों में से एक ने जवाब दिया—‘नहीं, हम नहीं रुक सकती हैं यहाँ। तुम्हारे घर पर अब हमारा दम घुटता है। तुम्हारे घर के लोग हर दिन क्लेश किया करते हैं, कोई किसी का सम्मान नहीं करता। अतः अब हमें यहाँ से जाना ही होगा।’ दौड़कर उसने माँ लक्ष्मी का हाथ पकड़ना चाहा, वे बोली, ‘मैं तो सबसे पहले जाऊँगी।’ सरस्वतीजी के सामने वह गिड़गिड़ाई—‘माँ बोली, जहाँ आचार-विचार अच्छे न हों, वहाँ मैं कभी ठहरी हूँ भला?’

उसे घुँघरुओं की आवाज दूर जाती सुनाई दे रही थी। पागलों के समान वह रोती हुई उस दिशा में दौड़ी, परंतु सामने अंधकार के अलावा और कुछ न था।

७/२०२, स्वरूप नगर, कानपुर (उ.प्र.)

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