राजनीति के रंग, न्यायपालिका और कॉलेजियम तथा कुछ अन्य समस्याएँ

हमारे लोकतंत्र के तीन मुख्य स्तंभ हैं—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। तीनों अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र में स्वायत्तापूर्वक कार्य करें, एक-दूसरे के क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप न हो और तीनों मिल-जुलकर जनहित में कार्य करें। संविधान निर्माताओं का मंतव्य यही था कि तीनों में टकराव की स्थिति पैदा नहीं होनी चाहिए। संविधान में पारस्परिक-संतुलन की व्यवस्था है, ताकि इनमें से कोई संस्था अपने वैधानिक दायित्वों से विमुख न हो। उच्च न्यायपालिका को एक अधिकार संविधान ने यह अवश्य दिया है कि किसी कानून, आदेश या कार्य का वह पुनर्निरीक्षण कर सकती है कि वह संविधान के प्रावधान या मंशा का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा है। न्यायपालिका को नागरिकों के आपसी विवादों के अतिरिक्त यदि नागरिक को कार्यपालिका या प्रशासन के विरुद्ध कोई शिकायत, अभाव, अभियोग है तो उसका समाधान करने का अधिकार उसके पास है। इसलिए न्यायपालिका को नागरिक अधिकारों का संरक्षक भी कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने का अंतिम अधिकार न्यायपालिका को है। यही नहीं, न्यायालय के प्रत्येक आदेश के कार्यान्वयन का दायित्व कार्यपालिका का है।

सामाजिक, आर्थिक, तकनीकों और वैज्ञानिक विकास के कारण नागरिक समाज में नई अपेक्षाएँ, आकांक्षाएँ भी पैदा होती हैं। उनका संविधान के अंतर्गत ही समाधान होना चाहिए, इसलिए संविधान में कुछ लचीलापन आवश्यक होता है, ताकि समयानुकूल हल भी निकले, किंतु संविधान के दायरे में। इसीलिए निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता होती है। संस्थाएँ व्यक्तित्वों द्वारा चलती हैं, स्वचालित नहीं होती हैं, अतएव जिनको इन संस्थाओं को चलाने का दायित्व मिला है, वे योग्य हों और उनमें भी आत्मनियंत्रण आवश्यक होता है, ताकि संविधान की आत्मा को चोट न पहुँचे। उभरती हुई समस्याओं और परिस्थितियों को जानते हुए, आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संविधान में करीब सौ से अधिक संशोधन हुए हैं। उनमें से ज्यादातर परिवर्तन सर्वोच्च न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के निर्णयों के कारण हुए हैं। १९४९ में संविधान बना और २६ जनवरी, १९५० में लागू, उसी संविधान के अंतर्गत भारत का लोकतंत्र कार्यशील है। इसी काल में जब हम पड़ोसी देशों में होनेवाली उलटफेर पर दृष्टि डालते हैं तो पता चलता है कि अपने मुख्य उद्देश्यों की रक्षा करते हुए भारत का संविधान कितना गतिशील और संवेदनशील है।

ऐसा नहीं है कि भारत में कभी तनाव की स्थिति नहीं आई। आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में श्रीमती गांधी की सरकार ने समाजवाद और सेक्यूलरिज्म शब्द जोडे़, यद्यपि प्रथम प्रधानमंत्री जवहार लाल नेहरू ने संविधान सभा में विचार व्यक्त किए थे कि ये शब्द ऐसे हैं, जिनको अलग-अलग ढंग से व्याख्यायित किया जाता है, अपने दृष्टिकोण से लोग अलग-अलग अर्थ लगाते हैं, अतएव इनकी आवश्यकता नहीं है। जो मूल भावना इन शब्दों के पीछे है, वह हमारे समूचे संविधान में निहित है और परिलक्षित भी होती है। कुछ और दीर्घगामी परिवर्तन किए गए थे, पर उनमें से जनता सरकार के समय कुछ को छोड़कर अधिकतर को निरस्त किया गया, क्योंकि उनको संविधान की मूलभावना के विपरीत माना गया, किंतु प्रस्तावना में समाजवाद और सेक्यूलरिज्म को रहने दिया गया, यद्यपि कांग्रेस सरकार, जो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी, वह सोशलिज्म को तो भूल ही गई। उसके बाद निजीकरण व वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ और अब भी जारी है। खैर, यहाँ इस प्रकरण के विवरण में नहीं जाना है।

अदालतों में काफी पुराने मुकदमे लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में भी दशकों से मुकदमे लंबित पडे़ हैं, जितने मुकदमों का फैसला होता है, उतने ही नए मुकदमे दाखिल हो जाते हैं। आँकड़ों में नहीं जाना चाहते हैं। समय-समय पर उनका आकलन होता है। विधि आयोग ने अपनी कई रिपोर्टों में जल्दी निर्णय हो सकें, इस विषय में अपने सुझाव भी दिए हैं, पर कोई हल अभी तक नहीं निकल सका है। भाषणों में सरकार के प्रतिनिधि और न्यायाधीश भी दोहरा देते हैं कि न्यायिक निर्णय में देरी होने का मतलब है कि न्याय नहीं मिला। अकसर न्यायपालिका माँग करती है कि अदालत में न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि हो। अलग-अलग तर्क दिए जाते हैं, उनके काट भी प्रस्तुत होते हैं। बहरहाल स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है। अखबारों में लेख आते हैं, टी.वी. पर जोर-शोर से बहस होती है, फिर भी वांछित बदलाव नहीं आता है। अबकी बार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने यह अच्छा कदम उठाया है कि कुछ संवैधानिक मामलों को सुनने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने तीन बैंचों का प्रावधान किया है, जो गरमियों के अवकाश में मामलों को निपटाने की कोशिश करेंगे। एक शिकायत रही है कि अंग्रेजी हुकूमत के जमाने की छुट्टियों की प्रथा अभी भी चल रही है, जबकि उच्च न्यायालयों में छुट्टियों को कम करने की जरूरत है। जिलों में, नीचे की अदालतों में तो हालत और भी खराब है। आवश्यकता है कि सरकार के प्रतिनिधि और न्यायालय के प्रतिनिधि, साधनों की सीमाओं को देखते हुए अदालतों में आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराया जाए। आज की टेक्नोलॉजी भी मुकदमों के जल्दी फैसलों में सहायक हो सकती है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर कई बार जोर दिया है। जितने स्वीकृत पद न्यायपालिका में विभिन्न स्तरों के हैं, उनमें भरती होनी चाहिए। विशेषतया उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में पद भरने में देरी हो, यह उचित नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश तीर्थराज ठाकुर ने यह मामला कई अवसरों पर उठाया, सरकार ने अपना पक्ष स्पष्ट किया कि विलंब के लिए केवल सरकार ही उत्तरदायी नहीं है। इस पर व्यर्थ का विवाद उत्पन्न हो गया और फिर मीडिया को मामले को और उछालने का मौका मिल गया।

संविधान में स्पष्ट शब्दावली है कि राष्ट्रपति उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। कुछ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने व्याख्या की कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश समेत पाँच वरिष्ठ न्यायाधीश राष्ट्रपति को सिफारिश करेंगे कि किन-किन को उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त किया जाए। यदि राष्ट्रपति और कार्यपालिका को कोई एतराज हो तो कॉलेजियम को कारण बताया जाए, पर यदि कॉलेजियम अपनी पुरानी सिफारिश को फिर दोहराए तो उसको मानना होगा। इस प्रकार संविधान की भाषा की नई व्याख्या कर न्यायपालिका ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूरे अधिकार स्वयं ले लिये। तर्क यही है कि इस प्रकार न्यायपालिका की स्वायत्तता अक्षुण्ण रहेगी। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ न्यायपालिका ही अपने सदस्यों या न्यायाधीशों का चुनाव करती है। कहानी लंबी है, विवरण में जाना संभव नहीं है।

कॉलेजियम प्रणाली आने के पहले शायद ही कोई बड़ा विवाद उठा हो। भारत सरकार के विधि मंत्रालय के न्याय विभाग के सचिव रहने के आधार पर हम कह सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ही सिफारिशों को अधिकतर माना जाता रहा है। कभी-कभी कुछ स्पष्टीकरण जरूरी होते थे। उस समय कभी किसी टकराव की नौबत नहीं आई। बातचीत द्वारा स्थिति साफ हो जाती थी। विवाद का सवाल नहीं था। कॉलेजियम प्रणाली आने के कुछ दिनों के बाद बार एसोसिएशनों आदि के द्वारा शिकायत आने लगी कि कॉलेजियम के माध्यम से न्यायपालिका में परिवारवाद और भाई-भतीजावाद पनप रहा है। उदाहरण दिए गए, यही नहीं, जाति व क्षेत्रीय दृष्टिकोण भी घर करता जा रहा है। इस प्रणाली में पारदर्शिता का सर्वथा अभाव है। बहुत लोगों ने विकल्प स्वरूप राष्ट्रीय ज्यूडिकल कमीशन का सुझाव दिया। किस प्रकार के लोग हों, ताकि न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता आ सके। अतएव सरकार ने एक नेशनल ज्यूडिकल कमीशन की कल्पना को बिल का रूप दिया, जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस होंगे। कमीशन के सदस्यों में विविधता लाने की कोशिश की गई, ताकि जनता को जजों के बारे में आवश्यक जानकारी हो। बिल में प्रावधान रखा गया कि न्यायाधीशों के विरुद्ध अभाव अभियोग में क्या काररवाई हो, वह भी कमीशन तय करेगा। महाभियोग का जो संवैधानिक प्रावधान था, वह अभी तक असफल रहा। एक मामले में राजनीतिक दवाब के कारण वह संसद् में गिर गया, क्योंकि इसके पास होने के लिए जितने सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता थी, उतना समर्थन नहीं मिला। दो अन्य मामलों में महाभियोग से बचने के लिए न्यायपालिका ने  इस्तीफा दे दिया। अतएव उनको इसके बाद पेंशन आदि की सभी सुविधाएँ मिलती रहेंगी। संभावित काररवाई से वे बच गए। नेशनल ज्यूडिशल कमीशन बिल संसद् द्वारा सर्वसम्मति से पारित हो गया, किंतु आज के चीफ जस्टिस श्री केहर की अध्यक्षता वाले पाँच न्यायाधीशों की संविधान बेंच ने उसे बहुमत से अवैध करार कर दिया। एक जस्टिस चलमेश्वर ने बहुमत की राय के विरुद्ध अपना अलग निर्णय दिया और कमीशन की व्यवस्था को उचित ठहराया। दिलचस्प बात यह है कि संवैधानिक बेंच के हर सदस्य ने कॉलेजियम प्रथा में पारदर्शिता की कमी को माना, पर उनका कहना था कि इस अभाव को सरकार और चीफ जस्टिस मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर के द्वारा दूर कर सकते हैं, पर अभी तक मेमोरेंडम स्वीकृत नहीं हुआ है। चीफ जस्टिस ठाकुर के कार्यकाल और चीफ जस्टिस केहर के कार्यकाल में भी नेशनल सिक्योरिटी के आधार पर नियुक्ति न हो, इसको कॉलेजियम ने नहीं माना और कहा कि सरकार के पास जो सूचना हो, वह लिखित रूप में दे। पर अंतिम निर्णय की सुविधा कॉलेजियम को होगी। इसके अलावा कॉलेजियम के लिए सेक्रेटरिएट बनाना, जो सब सूचना रखे और वह कहाँ स्थापित हो तथा किस रूप में हो, इसकी भी सहमति नहीं बन सकी। यह कहना उचित होगा कि जस्टिस चलमेश्वर ने अपने को कॉलेजियम से अलग कर लिया था। उनका कहना था कि हर सदस्य को अपनी लिखित राय देनी चाहिए कि किस आधार पर नियुक्ति की सिफारिश है और अगर नहीं तो क्यों नहीं, तभी कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता आएगी और उसकी विश्वसनीयता बढे़गी। चीफ जस्टिस ठाकुर की कोशिशों के बाद भी वे उस समय नहीं माने। इस पर भी मीडिया में बड़ी चर्चा रही। खैर, अब विधिमंत्री ने कहा है कि मेमोरेंडम पर सहमति न होते हुए भी सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों को जल्दी से प्रोसेस करेगी, ताकि खाली पद भरे जा सकें। प्रक्रिया शुरू हो गई है। यह अच्छा शगुन है। सरकार का भी कहना है कि वह निरपेक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता को समझती है और उसमें विश्वास करती है।

एक और पक्ष है, जिसकी ओर इशारा जरूरी है। एक समय था, जब उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बारे में, उनकी ईमानदारी के बारे में कोई उँगली नहीं उठाता था। पिछले कुछ वर्षों से स्थिति में बदलाव आया है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रसिद्ध एडवोकेट और पूर्व विधिमंत्री शांति भूषण व उनके पुत्र प्रशांत भूषण ने एक मामले में एक बंद लिफाफे में एक पत्र सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के छह पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के विषय में कुछ आरोप और संदेह प्रस्तुत किए गए थे। यद्यपि लिफाफा गोपनीय था, फिर भी एक पत्रिका ने वे नाम प्रकाशित कर दिए थे। उस मामले का क्या हुआ, पता नहीं है। समय-समय पर ये आरोप भी समाचार-पत्रों में आए कि परिवार के एक सदस्य के जज होने का फायदा अन्य नाते-रिश्तेदार, जो अदालतों में प्रैक्टिस करते हैं, उठाते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में यदाकदा समाचार आते हैं, जिनमें किसी मामले के संबंध में किसी न्यायाधीश का नाम आ जाता है। एक मैगजीन ‘कैरवाँ’ में एक ऐसा ही लेख था, पर उसका कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिखा। पिछले दिनों एक उत्तर-पूर्व राज्य अरुणाचल के मुख्यमंत्री पुल को पद से इस्तीफा देना पड़ा था। उन्होंने आत्महत्या कर ली और उनके शव के पास एक परचा पाया गया, जिसमें उन्होंने आज के कुछ न्यायाधीशों पर आरोप लगाए। उनकी पत्नी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को अरजी दी कि इस मामले की एडमिनिस्टे्रटिव साइड से जाँच की जाए, पर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे ज्यूडिशल साइड या न्यायिक रूम में ले लिया, अतएव उनके वकील ने वह अरजी वापस ले ली। उनके वकील ने एक सनसनीखेज बात यह कही कि सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त जज इस मामले में उनसे मिलने आए थे। ऐसी बातों से भ्रम तो उत्पन्न हो ही जाता है। जो कीचड़ उछलता है, वह कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत चिपक ही जाता है। इस तरह के संदेह का वातावरण अवांछनीय है। एक कठिनाई यह है कि पारदर्शिता को न्यायपालिका और सबके लिये तो आवश्यक बताती है, पर अपने संबंध में ऊहापोह की स्थिति पैदा करती है। चीफ विजिलेंस कमिशनर ने न्यायपालिका के विषय में कहा, वह केवल प्रशासनिक पक्ष के बारे में पारदर्शिता उचित मानती है और दिल्ली हाई कोर्ट उसको उचित ठहराता है, पर सर्वोच्च न्यायालय उस पर रोक का आदेश करता है। मामला ठंडे बस्ते में पड़ जाता है। पारदर्शिता यदि एंटीसेप्टिक अन्यों के लिए है तो वह न्यायपालिका के लिए भी होनी चाहिए। यह विश्वसनीयता के लिए आवश्यक है।

कॉलेजियम के होते हुए भी कभी-कभी कैसे लोग नियुक्त हो जाते हैं, उसका एक उदारहण कलकत्ता (कोलकाता) हाई कोर्ट के जज जस्टिस करनान का है। वे एक अनुसूचित जाति से आते हैं। वे पहले मद्रास हाईकोर्ट में थे। उनको एक मानसिक भूत यह लग गया कि उनके अन्य सहयोगी उनसे भेदभाव करते हैं, उचित व्यवहार नहीं करते। वे अपने सहयोगियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतें भी करते रहते थे। मद्रास उच्च न्यायालय में एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई। उनका स्थानांतरण कोलकाता उच्च न्यायालय में हो गया। अपने स्थानांतरण पर स्वमेव एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने की हैसियत से रोक लगा दी। गतवर्ष तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को आश्वासन दिया कि अब वे सौहार्द का वातावरण बनाए रखेंगे। उन्होंने खेद भी प्रकट किया कि उनका आदेश गलत था, कुछ मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। कलकत्ता हाईकोर्ट में जाने के बाद भी उनमें कोई वांछित परिवर्तन नहीं आया। पर कलकत्ता उच्च न्यायालय में जाने के बाद भी उनके मन का वह भूत कि उनके अनुसूचित जाति से होने के कारण भेदभाव होता है, उनके मन से गया नहीं, यही नहीं, उन्होंने कुछ जजों के विरुद्ध प्रधानमंत्री को एक पत्र भेजा। पत्र में तरह-तरह के आरोप लगाए गए बताए जाते हैं। उन्होंने अनुसूचित जातियों के कमीशन से भी शिकायत की। सर्वोच्च न्यायालय ने इस अनुचित व्यवहार या कदाचार का संज्ञान लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें बुलाया। जस्टिस करनान ने सम्मन लेने और सर्वोच्च न्यायालय में पेश होने से इनकार कर दिया। पुलिस के द्वारा उन पर सम्मन सर्व हुआ। डीजीपी पश्चिम बंगाल और अन्य पुलिस अधिकारी उनके घर गए। सर्वोच्च न्यायालय को पुलिस अधिकारियों ने सूचित कर दिया कि करनान को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की जानकारी हो गई है। अंत में वे ३१ मार्च को सर्वोच्च न्यायालय में हाजिर हुए और उनको चार सप्ताह का समय दिया गया कि वे सर्वोच्च न्यायालय के मानहानि के बारे में स्पष्टीकरण दें। सर्वोच्च न्यायालय ने उनके न्यायिक और प्रशासनिक दोनों अधिकार छीन लिये हैं। एक उच्च न्यायालय के जज द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की मानहानि या अवमानना का मामला है।

पूर्व चीफ जस्टिस बाला कृष्णनन, जिनके कार्यकाल में वे नियुक्त हुए थे, ने एक बयान में कहा कि वे उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे। पुलिस से घिरे जस्टिस करनान की फोटो टी.वी. और समाचार-पत्रों में आती है। करनान अपने मत पर दृढ हैं कि सर्वोच्च न्यायालय की सब काररवाई उनके खिलाफ अवैध है। जस्टिस करनान ने इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के छह अन्य न्यायाधीशों, जो उस संवैधानिक बेंच के सदस्य थे, जिन्होंने उनको सर्वोच्च न्यायालय में पेश होने के आदेश दिए थे, के विरुद्ध आदेश दिया है कि वे उनके घर की अदातल में अमुक दिन पेश हों। उनका कहना है कि अस्पृश्यता विरोधक कानून का उन्होंने उल्लंघन किया है, उनका मानसिक और शरीरिक उत्पीड़न किया है, अतएव उनके घर पर होनेवाली अदालत में आकर सफाई दें। यही नहीं, आदेश है कि उनके पासपोर्ट दिल्ली के डीजीपी के यहाँ जमा करा लिए जाएँ, ताकि वे देश के बाहर न जा सकें। आगे उनका आदेश है कि उनके इस हुक्म को कोई अन्य अदालत रोक नहीं लगा सकती है। हाँ, यदि चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय के ये न्यायमूर्ति संसद् में उनके अपने आदेश के विरुद्ध में जा सकते हैं। यह सर्वोच्च न्यायालय की खुली अवमानना है। यह अप्रत्याशित और अभूतपूर्व स्थिति है। जिसका समाधान शीघ्र निकालना होगा। यह एक प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय की खिल्ली उड़ाना है और वह भी एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा। देखें आगे क्या होता है। वैसे ऐसा प्रतीत होता है कि जस्टिस करनान इस मामले का राजनीतीकरण करना चाहते हैं। महा अभियोग एक राजनैतिक प्रक्रिया है। वे चाहते हैं कि उनका मामला संसद् में जाए तो वे सर्वोच्च न्यायालय या अपने अन्य सहयोगियों के विरुद्ध जो कहना चाहें कह॒सकें।

जस्टिस करनान के अप्रत्याशित व्यवहार ने कॉलेजियम सिस्टम की कमियों और कमजोरियों को उजागर कर दिया है। आवश्यकता है कॉलेजियम में और पारदर्शिता की। ऐसे प्रावधानों की भी आवश्यकता हैं जिनके अनुसार प्रारंभ में ही अनुचित कार्य न्यायालय या छोटे-मोटे कदाचार का संज्ञान लिया जा सके और सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना की नौबत न॒आए।

इतना तो निश्चित है कि ऐसे प्रकरणों से न्यायपालिका की छवि को धक्का लगता है। जिस न्यायपालिका में लोकतंत्र का विश्वास निहित है और जिसे रोल मॉडल मानते हैं, यदि न्यायपालिका में भी अनुशासन-हीनता घर कर लेती है, तो आवश्यकता होने पर वह किस प्रकार नागरिकों और कार्यपालिका तथा विधायिका को संविधान के अनुसार अनुशासित कर सकती है।

फारुख की कलाबाजियाँ

राजनीति में अलग-अलग रंग देखने को मिल रहे हैं। यह इस बात का परिचायक है कि आज राजनीति में कितनी नीति या नैतिकता है, जिसका उद्देश्य केवल येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाना है। फारुख अब्दुल्ला जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री तथा वाजपेयीजी की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। २०१४ के लोकसभा चुनाव में हार गए थे। अब वे फिर एक खाली सीट पर प्रत्याशी बने। वोटों के लालच में उन्होंने पुलिस तथा सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले युवाओं को देश के लिए लड़नेवाले और रक्षक कहा है। जब वे मुख्यमंत्री थे, तब ऐसे लोग देशद्रोही थे। समय-समय पर परस्पर विरोधी बातें कहते रहते हैं। टीवी पर ऐसे जोश-खरोश से बोले, मानो उनसे बड़ा देशभक्त व देश की एकता का संरक्षक कोई नहीं है। भावनात्मक संतुलन का उनमें बहुत अभाव मालूम होता है। अब वह स्वायत्ता की बाँग लगा रहे हैं। यही नहीं, हाल ही में एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक को एक साक्षात्कार दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि १९५३ की संवैधानिक राजनैतिक स्थिति में बिना जाए हुए जम्मू-कश्मीर में शांति नहीं होगी। इसका मतलब होगा कि सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग, सीएजी आदि को जम्मू-कश्मीर में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं होगा। १९५३ के बाद बहुत से कानून जो वहाँ की जनता के हित में लागू किए गए, वे निरस्त करने होंगे। वह कुछ-न-कुछ ऐसा कहते रहते हैं, जिससे परोक्ष और अपरोक्ष रूप में अलगाववादियों और उग्रवादियों का हौसला बढ़ता है। एक अन्य नेता प्रो. सोज हैं, जो पहले नेशनल कॉन्फ्रेंस में थे, फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और केंद्र में मंत्री भी बन गए। हाल ही में भारत-पाकिस्तान के संबंध विषय पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक गोष्ठी हुई, जिसमें पाकिस्तानपरस्ती करनेवाले, जैसे मणिशंकर अय्यर, सुधींद्र कुलकर्णी आदि व पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल वाजित भी थे। काफी गरमी-गरमी रही, पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने कुलभूषण जाधव को एक टीवी के बयान में आतंकवादी कहा था। पाकिस्तान की सैनिक अदालत द्वारा दी गई मौत की सजा को जायज बताया और कहा था कि जैसा उसने किया, वैसा उसको अंजाम मिला। इसके कारण माहौल काफी गरम हो गया था। वरिष्ठ एडवोकेट और राज्यसभा के सदस्य राम जेठमलानी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि पाकिस्तान इस समय जम्मू-कश्मीर में गड़बड़ी करा रहा है। वैसे वे उन लोगों में से हैं, जो पाकिस्तान के पक्ष को भी अपने ढंग से प्रस्तुत करते हैं। प्रो. सोज ने कहा कि कश्मीर की गड़बड़ी के लिए भारत जिम्मेदार है। वे कांग्रेस के नेता हैं और मंत्री पद पर रहकर संविधान की शपथ ले चुके हैं तथा देशभक्ति का दम भरते हैं। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस प्रकार के दुमुँहे नेता जम्मू-कश्मीर को मिले हैं।

पत्थरबाजों की सरपरस्ती कर फारुख लोकसभा की श्रीनगर सीट तो जीत गए, पर आगे यह उनके लिए महँगा पड़ सकता है। वैसे फारुख यह कहते भी नहीं चूके कि पत्थरबाजी सरकार करा रही है। पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आएगा और वह तो पैसा देकर ऐसे हादसे करवाना चाहता है, ताकि वह अंतरराष्ट्रीय जगत् में जम्मू-कश्मीर में मानव अधिकारों का हनन हो रहा है, इस आरोप को दोहराता रहे। फारुख साहब न केवल पत्थरबाजी को, जो पाकिस्तान के इशारों और आर्थिक मदद के कारण सैन्य दलों के लिए पेचगीदियाँ पैदा करने को उचित ठहराते हैं, बल्कि जमायत इसलाम, जो अति रूढि़वादी संस्था है और जिसके वे आलोचक रहे हैं, चुनाव में उनकी भी मदद॒ली।

आप अधर में

जब शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो आम आदमी पार्टी की साख को और धक्का लगा। अनियमितताओं और कानून के उल्लंघन के १०-१२ आरोप लगे हैं, साथ-साथ अंधा बाँटे रेवड़ी की तरह परिवार और अपने रिश्तेदारों को अनुचित लाभ पहुँचाने के आरोपों को दोहराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि टीवी और पत्र-पत्रिकाओं में उन पर काफी चर्चा हो चुकी है। कुछ मामलों को सी.बी.आई. और अन्य एजेंसियाँ देख रही हैं।

केजरीवाल ने चालीस अतिथियों के भोजन के लिए ग्यारह लाख रुपए खर्च किए। जो करोड़ों का अपव्यय जनहित के बजाय, पार्टी के प्रचार में हुआ, उपराज्यपाल ने उसको सरकारी खजाने में जमा कराने का आदेश दे दिया है। सीएजी ने अपने ऑडिट में इसका खुलासा किया था। मानहानि के मुकदमें में फँसे केजरीवाल अब वरिष्ठ एडवोकेट जेठमलानी की फीस की अदायगी सरकारी खजाने से करवाना चाहते हैं। यद्यपि उन्होंने अदालत में कहा कि उनके जिस बयान को अरुण जेटली ने मानहानि का आधार बनाया, वह अपनी निजी हैसियत और निजी जानकारी के आधार पर दिया था, मुख्यमंत्री की हैसियत से नहीं। आप पार्टी में केजरीवाल या सिसौदिया की मरजी कानून के ऊपर है, जब अपने कृत्यों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं, तो यही शोर मचाना शुरू कर दिया है कि दिल्ली निगम के चुनाव दो महीनों के लिए स्थगित करके मतपत्रों के द्वारा हों। उनका कहना है कि उनके और उनकी पार्टी के खिलफ जो आरोप हैं, वे बीजेपी और कांग्रेस के द्वारा लगाए गए झूठे आरोप हैं।

अन्ना हजारे, भ्रष्टाचार निवारण आंदोलन के समय जिनके कंधों पर चढ़कर उन्होंने सत्ता पाई थी, उन्हें भी कहना पड़ा कि केजरीवाल ने संविधान और कानूनी-नियमों का खुला अतिक्रमण किया है। अपने ऑफिस के लिए आम आदमी पार्टी ने एक बहुत बड़ा प्लॉट दीनदयाल मार्ग पर घेर लिया था। उसे उपराज्यपाल ने गैर-कानूनी और नियमों के विरुद्ध बताया है। उसकी वापसी के आदेश भी दे दिए हैं। पंजाब और खासकर गोवा के चुनावों के बाद आम आदमी पार्टी की रीढ़ ही टूट गई, यद्यपि उसके नेता अब भी डींग हाँकते हैं।

गोवा में तो प्रायः एक को छोड़कर सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। दिल्ली के राजौरी गार्डन की सीट, जो आम आदमी पार्टी ने जीती थी, किंतु पंजाब में चुनाव लड़ने के लिए विधायक ने इस्तीफा दे दिया। अब यहाँ पर हुए उप चुनाव में पार्टी के प्रत्याशी की जमानत भी जब्त हो गई। अहं और विवाद से ग्रस्त आम आदमी पार्टी का सुनहरा सपना तो टूट ही गया, एक नई राजनीति की झलक, जो प्रारंभ में दिखाई दी, वह भी धूमिल हो गई। केजरीवाल को फोबिया हो गया, सब उनके खिलाफ हैं। अब उनकी लड़ाई ई.वी.एम. के खिलाफ है कि मतपत्रों द्वारा चुनाव होना चाहिए। हालाँकि राजौरी गार्डन की हार को उन्होंने चुनावी मशीन से नहीं जोड़ा है। चुनाव आयोग ने खुली चुनौती दी है कि चुनावी मशीनों को हैक करके कोई दिखाए। कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने कहा कि वे ई.वी.एम. के कारण ही पंजाब के मुख्यमंत्री बने हैं। शायद दिल्ली में निगम निकाय चुनावों में उन्हें हार नजर आ रही है, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। लेकिन मतपत्र के द्वारा चुनाव के अपने बयान पर वे अब भी अडिग हैं। अब तो वे पंजाब के चुनाव को भी रिग्ड या गड़बड़ चुनाव कह रहे हैं, जहाँ वे मुख्य विरोधी हैं। वे राजनीतिक सद्बुद्धि और संतुलन खो बैठे हैं। केजरीवाल के स्वास्थ्य के बारे में भी अटकलें चल रही हैं। आप पार्टी का भविष्य अँधेरे में लटकता दिखाई दे रहा॒है।

उत्तर प्रदेश में नई सरकार

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने अपना दायित्व गंभीरता से निर्वहन करना शुरू कर दिया है। पार्टी घोषणा-पत्र में जो चुनावी वादे थे, उन पर काररवाई शुरू कर दी है। गरीब किसानों के कर्जे माफ कर दिए हैं। शांति और कानून व्यवस्था पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है। इसको ठीक करने में समय लगेगा। महिलाओं की सुरक्षा के लिए जो आदेश दिए, उनके अनुपालन में निम्न स्तर पर कुछ एक जगह जो ज्यादती हुई, उसको दुरुस्त करने के लिए डी.जी.पी. को आग्रह किया है। पूरी नौकरशाही में संदेश गया है कि समय से दफ्तर आना होगा और नागरिकों के अभाव अभियोग का समयबद्ध ढंग से निस्तारण होना चाहिए। सरकार के सब विभागों में उनके मंत्रियों द्वारा संदेश पहुँच गया है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार, जो स्थिति अभी तक यथावत् रही है, उसमें परिवर्तन करने के मामले में गंभीर है। अवैध बूचड़खानों को तत्काल बंद करने की काररवाई को गलत ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है। काफी समय से हरित ट्रिब्यूनल और न्यायालय के आदेश हैं, उनका पालन करवाने को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है। अजीब लगता है कि अवैध बूचड़खानों को चलने देना उचित ठहराया जा रहा है, कानून का पालन करवाकर उन्हें बंद करने को गलत कहा जा रहा है, क्योंकि मुसलमानों की रोजी-रोटी पर असर पड़ रहा है। सरकारी डॉक्टर जो चोरी-छिपे निजी प्रैक्टिस कर रहे थे, उनको आगाह किया है। कुछ सरकारी योजनाओं का दुरुपयोग तथा घोटालों के कुछ प्रकरण और आरोप थे, उनकी जल्दी जाँच के आदेश दिए हैं। आवश्यक है कि उत्तर प्रदेश सरकार की नई सरकार को काम करने का मौका मिले। उत्तर सरकार से हमारी अपेक्षा है और निवेदन भी है कि इलाहाबाद का जो हवाई अड्डा है, उसको मदनमोहन मालवीयजी का नाम दिया जाए। प्रयाग जो मालवीयजी की प्रारंभ से कर्मभूमि रही है, उनके नाम पर वहाँ कोई बड़ा संस्थान नहीं है। एक बात की ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ध्यान देना होगा कि उनके द्वारा स्थापित हिंदू युवा वाहिनी या आनुषंगिक संगठन कानून की मर्यादा भंग न करे, कानून को अपने हाथ में न ले। अनुशासित तरीके से कार्य करे। उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों से गायों के संरक्षण में गौरक्षकों की ज्यादितियों के समाचार आए हैं। उन पर तुरंत और कड़ी काररवाई करनी चाहिए। भारत बनाना रिपब्लिक नहीं है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत को कुछ लोग जनता का आदेश नहीं मानते हैं। अपने हतोत्साह को वे आक्रामकता से छिपाना चाहते हैं। मीडिया में कुछ घटनाओं को तूल देकर, बार-बार बहस कराकर उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार दोनों को बदनाम करने की साजिश चल रही है। कुछ तथाकथित सेकुलरिस्ट और स्वयं को उदारवादी कहलानेवाले बुद्धजीवी, जो अंग्रेजी मीडिया में तरह-तरह के लेख लिखने में लगे हुए हैं, ताकि योगी और मोदी की सरकारों की छवि धूमिल हो। उत्तर प्रदेश को योगिस्तान भी कहा जा रहा है। मीडिया के अतिरिक्त गोष्ठियों, कवि-सम्मेलनों आदि सभी माध्यमों का भारत सरकार के विरुद्ध वातावरण बनाने में बड़ी चतुराई से प्रयोग हो रहा है।

इस दिशा में सावधानी अनिवार्य है। न केवल भाजपा को बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ऐसे हादसों में घसीटा जाता है। संघ सरसंघसंचालक मोहन भागवत स्वयं गोरक्षा के विषय में निर्देश दे चुके हैं कि अपना उद्देश्य कुशलता से पूरा करो, किंतु कानून का उल्लंघन नहीं। इसी प्रकार प्रधानमंत्री ने भी काफी कड़े शब्दो में गौरक्षा के नाम पर अनुचित कार्य करनेवालों की भर्त्सना की है। यही नहीं सरकार के कुछ समर्थक समय-समय पर भावनाओं में बहकर अनाप-शनाप और अनर्गल बातें कह जाते हैं। तेलंगाना के एक बीजेपी विधायक ने कहा कि जो राम मंदिर बनने का विरोध करेगा, उसका हम सिर काट डालेंगे। पश्चिम बंगाल में रामनवमी के जुलूस पर पुलिस के लाठीचार्ज करने से रोष में आकर एक महाशय ने घोषणा कर दी कि जो मुख्यमंत्री का सिर काटकर लाएगा, उसको ११ लाख का पुरस्कार देंगे। इस तरह के कथन असभ्य, जंगली हैं और हर तरह से निदंनीय भी। वे भूल जाते हैं कि इस प्रकार की अनर्गल बातें उनके अपने लक्ष्य को ही नुकसान पहुँचाती हैं। इससे भारत सरकार और समूचे देश की छवि विश्व में धूमिल होती है। इसे भारत की संस्कृति नहीं कह सकते। ऐसे तत्त्वों पर नकेल कसी जानी चाहिए। जो सरकार की नीतियों के समर्थक हैं, वे शांति व्यवस्था चाहते हैं, कानून के राज्य की उनको अपेक्षा है, पर इस प्रकार के प्रसंग उनके मन में संशय पैदा करते हैं। अमर्यादित बोल ऐसे समुदाय को सरकार से विमुख कर सकते॒हैं। सहिष्णु व्यवहार और कानून-पालन का सदैव ध्यान रखना चाहिए।

जलियाँवाला कांड और ब्रिटेन

इस अंक में डॉ. उषा निगम का कामागाटा मारू के विषय में एक लेख प्रकाशित कर रहे हैं। अमरीका में गदर आंदोलन के प्रारंभ और उसके विस्तार की चर्चा काफी पहले की थी और कहा भी था कि इस पर एक अलग लेख प्रकाशित करेंगे। गदर की शती का वह अवसर था। कामागाटा मारू एक बड़ा कारण बना गदर आंदोलन का इंडियन कौंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च ने दिल्ली में गदर आंदोलन विषयक एक गोष्ठी आयोजित की थी। कोलकाता, मुंबई और चंडीगढ़ में भी गोष्ठियाँ होनी थीं, ताकि गदर में भाग लेनेवालों के बलिदान की कहानी देशवासी जान सकें। पता नहीं आगे कुछ हुआ या नहीं। जो पत्र पढ़े गए, वे पुस्तकाकार छप रहे हैं या नहीं। आई.सी.एच.आर. को यह जानकारी देनी चाहिए। कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडू ने एक गुरुद्वारे के आयोजन में इस घटना के विषय में और उसके उपरांत वहाँ की संसद् में जो-जो अत्याचार भारतीयों पर हुए, उसके लिए खेद प्रकट किया और क्षमा माँगी।

ब्रिटिश सरकार के प्रधानमंत्री से हम अपेक्षा करते हैं कि वह जलियाँवाला बाग के हत्याकांड के बारे में क्षमा-याचना करें, क्योंकि वह भारतीय हृदय पर किसी हद तक मलहम का कार्य करेगा। कटुता दूर होगी। क्या ब्रिटिश सरकार यह दूरदर्शिता दिखाएगी? इसी प्रकार जर्मन चांसलर एन्जेला मेरकेल ने २००८ में इजरायल में जर्मनी द्वारा यहूदियों पर हुए अत्याचारों के लिए खेद प्रकट कर क्षमा-याचना की। कुछ ही समय पहले जापान के प्रधानमंत्री शिन्जो आबे ने प्रेसीडेंट ओबामा के साथ पर्लहार्बर हवाई में जाकर द्वितीय विश्व युद्ध में हताहत हुए लोगों के प्रति संवेदना प्रकट की और उस दौरान, दिसंबर १९४१ के आक्रमण में जीवित बचे कुछ लोग उनसे मिले। इसी प्रकार प्रेसीडेंट ओबामा प्रधानमंत्री शिन्जो आबे के साथ हिरोशिमा गए, वहाँ उन्होंने आण्विक बम द्वारा हताहत लोगों के प्रति संवेदना प्रकट की और उस समय के कुछ बचे हुए लोगों से मिलकर अपनी संवेदना प्रकट की।

प्रधानमंत्री का इशारा

विगत दिनों मान. स्पीकर श्रीमती सुमित्रा महाजन द्वारा रचित पुस्तक ‘अहल्याबाई होलकर’ का  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकार्पण किया। अहल्याबाई का एक कुशल प्रशासक, महान् दानी और धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण के लिए भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान है। आयोजन में उपस्थित महानुभावों ने देखा कि विमोचन के लिए पुस्तक के रैपर को किसी और को देने या नीचे फेंक देने के स्थान पर प्रधानमंत्री ने उसको अपनी जेब में रख लिया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सबके मुँह पर हास्य था। प्रधानमंत्री के एक छोटे लगनेवाले कार्य से एक बड़ा संदेश देश को गया—गांधीजी के स्वप्न स्वच्छ भारत बनाने का हर एक नागरिक का कर्तव्य है। यह वीडियो वायरल हो गया॒है।

टिप्पणियों, पत्राचार, भाषण आदि का संचयन

जवाहरलाल नेहरू की दूसरी चयन शृंखला में ७०वाँ ग्रंथ हाल ही में प्रकाशित हुआ। उसमें एक दिलचस्प प्रसंग देखने को मिला। इस प्रकार का हास्य आज राजनीति में लुप्त हो गया मालूम होता है। कांग्रेस की नेता और पूर्व में केंद्रीय मंत्री रहीं राजकुमारी अमृतकौर ने नेहरू को अपने रोष भरे पत्र में लिखा कि कांग्रेस में ए से लेकर जेड तक (यानी सब के सब) भ्रष्ट हैं। नेहरू ने उत्तर में कहा कि इस ए और जेड में कहीं-न-कहीं तो मैं भी होऊँगा। राजकुमारी अमृतकौर की क्या प्रतिक्रिया हुई, वह ज्ञात नहीं है।

द्विभाषी पत्रिका ‘आधुनिक साहित्य’

‘आधुनिक साहित्य’ के कुछ अंक पहले भी देखने का अवसर मिला था। पत्रिका के उद्देश्य और सामग्री पसंद आई। संपादकीय भी काफी अच्छे लगे। चाहता था कि आधुनिक साहित्य पत्रिका की चर्चा सुधी पाठकों से करूँ, किंतु कुछ-न-कुछ व्यवधान आ गया और यह पहले संभव न हो सका। आधुनिक साहित्य द्विभाषी त्रैमासिक पत्रिका है, जिसमें अंग्रेजी और हिंदी में सामग्री रहती है। प्रकाशन का छठा वर्ष है। बीसवाँ अंक जो अक्तूबर, २०१६ में प्रकाशित होना था, पर संपादकीय अवलोकन करते हुए ज्ञात हुआ कि संपादक महोदय की मातृश्री के अक्तूबर में निधन के कारण बीसवाँ अंक समय पर पाठकों को प्राप्त न हो सका। इसलिए बीसवाँ और इक्कीसवाँ अंक संयुक्त रूप में प्रकाशित करना जरूरी हो गया। पत्रिका के विषय में कुछ कहने से पहले हम संपादक की मातृश्री के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनको और उनके समस्त परिवार को अपनी संवेदना प्रेषित करते हैं।

‘आधुनिक साहित्य’ का यह संयुक्तांकों का संपादकीय न केवल ओजपूर्ण है, वरन् राष्ट्र, समाज और साहित्य के आपसी संबंधों के बारे में एक गंभीर विवेचन है। यह उचित ही है। कुछ सामाजिक समस्याओं की चर्चा भी संक्षेप में है। संयुक्तांक की सामग्री में साहित्य की विविधता परिलक्षित होती है, जो स्तरीय है। सुधी पाठकों और पुस्तकालयों के लिए आधुनिक साहित्य उपयोगी है। ‘आधुनिक साहित्य’ केंद्रीय हिंदी संस्थान के सहयोग से प्रकाशित होती है। आशीष कांधवे (मूल नाम आशीष कुमार) संपादक और प्रकाशक हैं। विश्व हिंदी परिषद्, (पंजीकृत), ए डी-९४ डी, शालीमार बाग, दिल्ली-११००८८ के तत्त्वावधान में त्रैमासिकी प्रकाशित होती है। संपर्क सूत्र है—०९८१११८४३९३, ०११-४७४८१५२१।

(त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी)

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