बाबू की बीमारी

बाबू की बीमारी

वह बीमार है। साँस फूलती है। कुछ भी हजम नहीं होता है। पर सबको निर्देश है। किसी को कानोकान खबर नहीं होनी चाहिए। डॉक्टर घर आकर देख जाते हैं, विशेषज्ञों की सलाह भी ली गई है। हर प्रकार के टेस्ट हो रहे हैं। पैसे से संभव है, अच्छे-से-अच्छा इलाज खरीदना। इसकी उनके पास कमी नहीं है। एक बार उन्होंने सोचा भी कि एक अस्पताल बना लें। मुख्यमंत्री से बात भी की थी कि इससे गरीबों का कल्याण होगा। दिक्कत यही है। आजादी के बाद से सब गरीबों के कल्याण पर उतारू हैं। उसके लिए सड़क, कारखाने, अस्पताल क्या-क्या नहीं बनते हैं। नतीजतन गरीबों का हो न हो, उनका भला करनेवालों का कल्याण हो जाता है। किसी की नई कोठी बनती है, किसी का नया धंधा। यह भी तय हो गया था कि चुनावी फंड में वह कितना चंदा देंगे और बदले में रियायती दर पर कितनी जमीन हथिया लेंगे। पर चुनाव में मुख्यमंत्री की हार से उनका निवेश तो डूबा ही, अस्पताल की बात भी आई-गई हो गई।

यों अस्पताल होता भी तो फर्क क्या पड़ता? आज की मीडिया दफ्तर तो दफ्तर, घरों के बेडरूम में भी झाँकने को प्रस्तुत है। उसे यही डर सताता है। कल कहीं कोई खोजू खबरनवीस उसकी बीमारी को खबर न बना डाले। बड़ा बेटा तो अपनी माँ से शिकायत भी करता है, ‘‘जाने क्यों बाबूजी जिद पर अड़े हैं। संसार में कोई है ऐसा, जो बीमार न पड़ता हो? अजीब सा दिमागी फितूर है यह मानना कि बडे़ लोग रोग-मुक्त हैं, उनकी बीमारी से बाजार पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। शेयर नीचे गिरेंगे। बिक्री में मंदी आएगी, मुनाफा धड़ाम होगा।’’

माँ को उससे हमदर्दी है, पर करे क्या? पति उसकी सुनते हैं, जो समझाए? उसकी अकल में तो वही जाम हो गया है, जो उसके बाप-दादा ने बताया है कि बड़े लोग सेठ-साहूकार हों या नेता-मंत्री, बीमार नहीं पड़ते हैं। बस जन्म लेते हैं। पैसा कमाते हैं और सीधे स्वर्ग सिधारते हैं। बेटे ने एक और जुगत भिड़ाई, ‘‘माँ, आप ही पूछ लो बाबूजी से। वह राजी हों तो इंग्लैंड-अमरीका कहीं भी उनका इलाज हो सकता है। हम ने तो वहाँ के अस्पतालों से संपर्क भी कर लिया है। कोई सवाल करे तो बिजनेस ट्रिप का बहाना बना सकते हैं।’’ माँ ने बात बेटे पर ही डाल दी, ‘‘तुम जानो और तुम्हारे बाबू जानें। तुम्हें तो पता है ही कि कभी हमारा कहा किया है, जो आज करेंगे?’’

ऐसा नहीं है कि इसके बाद वह हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ गई हों। पूजा-पाठ और ग्रहों की चाल पर पति-पत्नी दोनों का अडिग विश्वास है। यहाँ तक कि घर में एक मंदिर भी है, जहाँ एक वेतन-भोगी पंडित नियमित रूप से पूजा-अर्चना में लगा रहता है। हर वर्ष का ग्रहयोग बाँचने को नामी-गिरामी और भरोसेमंद ज्योतिषी पधारता है। उन्होंने उसी को बुलवाया और कुंडली दिखाई। उसने बिना वक्त गँवाए मंगल में राहु के अंतर को सेहत की गंभीर समस्या की जड़ बताकर इस दुष्चक्र की शांति के लिए हजारों का नुस्खा बता दिया। साथ ही यह भी भविष्यवाणी की कि ग्रहों के इस खतरनाक गठजोड़ से शरीर की काट-छाँट यानी ऑपरेशन भी संभावित है, ‘‘मालकिन माई! अगले पंद्रह दिन ‘मार्केट’ से बचना है। आप यहाँ मालिक का खयाल रखें, हम ऊपरवाले मालिक से रहम की गुहार लगाते हैं।’’

जब घर पर ज्योतिषी ऊपरवाले की कुंडी खटखटाने का दाँव खेलकर अपनी हजारों की जुगाड़ फिट कर रहा था तो दफ्तर में बड़ा बेटा लैपटॉप से ‘बाबू’ के रोग के लक्षण, डॉक्टरों-विशेषज्ञों के ‘प्रिसक्रिप्शन’ आदि मेल से विदेश भेजकर उनसे चर्चा में व्यस्त था। कुंडली और कंप्यूटर का यह सहअस्तित्व भारत को अपनी तरह का अनूठा अजूबा बनाता है, जहाँ प्रगति की रेल ऐसे लौहपथ पर दौड़ रही है, जिसकी पटरी उन्नीसवीं और दूसरी इक्कीसवीं सदी की है। दुर्घटनाएँ भी होती हैं, पर कभी-कभार। जानकार दाँतों तले उँगली दबाते हैं कि ऐसे बेमेल ट्रैक पर ट्रेन दौड़ना तो अलग, चल भी कैसे रही है? बेटा सोच रहा था कि यदि बाबू ऐसे ही निढाल पड़े रहे तो धीरे-धीरे और अस्वस्थ ही होंगे।

पिता मुँह पर उसकी प्रशंसा करें, न करें, पर मन-ही-मन मानता भी है और पत्नी से भी बता चुका है कि उसके दोनों बेटे आज के युग में अपवाद हैं। खून के रिश्ते भी अब केवल स्वार्थ के संबंधों के पर्याय बन चुके हैं। बाबू ने खुली आँखें और गहरी रुचि से दुनिया देखी है। बूढा बाप जरा भी शिथिल हुआ तो पुत्र मनाता है कि उससे जल्दी-से-जल्दी छुटकारा मिले। इतना ही नहीं, उपेक्षा के व्यवहार से जता भी देता है कि जीवित बाप अब कोई उपयोगी जीव न होकर सिर्फ धरती का बोझ है। अपनों के स्नेह के अभाव में अच्छे से अच्छा इलाज भी रोगी को जिंदा रखने में शायद ही कामयाब हो? बेटा बीमार बूढ़ें-बाप को दिनोदिन पाँच तारा अस्पताल में देखने न आए तो उसकी टें बोलने की संभावना स्वस्थ होने से कहीं अधिक है। बाबू ने कई समकालीनों को अपनों के दुर्व्यवहार से प्राण त्यागते देखा॒है।

कइयों की मिजाजपुरसी के लिए तो वह स्वयं भी इन पाँचतारा अस्पतालों में जा चुका है। वहाँ बीमार से मिलने का वक्त निश्चित है। पर कोई-न-कोई परिजन का अस्पताल में उपस्थिति हर समय आवश्यक है। उमरदार का क्या भरोसा? कभी भी आपातस्थिति आ सकती है। कौन कहे, इतना वक्त मिले, न मिले कि घरवालों को सूचित किया जा सके? ऐसी परिस्थिति में किसी-न-किसी के रहने से सूचना की जिम्मेदारी तो अस्पताल भले ही आंशिक रूप से ही सही, थोड़ा-बहुत तो मुक्त हो ही जाता है। मुलाकात के सीमित समय भी बीमार अपने पुत्र के प्रति आभार जताने से न चूकता, ‘‘छोटू बेचारा तो पूरी कोशिश कर रहा है। इधर मीटिंग्स में उलझा है, वरना रोज आता रहा है।’’

जिसे लाड़-प्यार से पाला-पोसा बड़ा किया, उस बेटे के बारे में अन्यथा सोचना माँ-बाप के लिए कैसे संभव है? उधर बेटा है कि पाँच-तारा अस्पताल के बिल से परेशान है। माँ को सुनाता है, ‘‘पापा में ठीक होने की इच्छाशक्ति नहीं है, वरना अब तो डॉक्टर भी कहते हैं कि उन की बाकी देखभाल घर में ही की जा सकती है। माँ! इस बार आप जाएँ तो उनसे बात कीजिए। अब तक पाँच लाख के ऊपर का बिल हम दे चुके हैं।’’

उसकी माँ को भी आश्चर्य होता है। जब पढ़ाई के लिए इसे दून स्कूल और उसके बाद ऑक्सफोर्ड भेजा था, तब क्या उन्होंने खर्चे का हिसाब लगाया था? आज वही बेटा उसी बाप का जीवन बचाने में लगी राशि का हिसाब लगा रहा है, जबकि सारे धंधे और आमदनी बाप की है, उसकी नहीं! इस प्रकरण के बाद भी उनके रोष का पात्र अपना पुत्र न होकर उसकी बहू है, ‘‘हमारा राजा तो बाप-माँ को ही नहीं, हर बड़े को सम्मान देता आया है। यह सारी करतूत बहू की है, जो झूठे प्रेमजाल में फँसाकर पति को पैसे के मापदंड से स्नेह को तौलने का उलटा पाठ पढ़ा रही है।’’ इस सबके वाबजूद माँ को अपने सीधे-सादे, भोले पुत्र से हमदर्दी है, ‘‘बीबी की शतरंजी चालों में फँसा बेचारा बेटा करे तो क्या करे!’’

उसी रात मित्र को देखकर लौटे बाबू ने पत्नी से घर के दोनों चिरागों की तारीफ की थी, ‘‘देखो जरा, क्या जमाना आ गया है। अग्रवालजी की बीमारी में उनका बेटा उन्हें देखने तक नहीं आता है। बस अस्पताल में भरती क्या कर दिया, जैसे उसके स्नेह और कर्तव्य की इतिश्री हो गई। पढ़ने को अपने दोनों लाड़ले भी विदेश में पढ़े हैं, पर उनके संस्कार विशुद्ध भारतीय हैं।’’

आज बीमारी में उन्हें अतीत ही नहीं याद आ रहा है, बल्कि दोनों पुत्रों के प्रति मोह भी जाग रहा है। वह छोटू को बुलवा भेजते हैं। उसका चेहरा लटका हुआ है। उसके मुसकराने की कोशिश उदासी से मिलकर कुछ रुआँसी मुद्रा का आभास देती है। वह चुपचाप आकर माँ के पासवाली कुरसी पर बैठकर पूछता है, ‘‘कैसे हैं बाबूजी?’’ बाबूजी कुछ बोलते नहीं हैं, बेटे का हाथ पकड़कर लेटे रहते हैं। उनकी आँखें नम हैं और बेटे की भी। उसे पता है कि बाबू की दशा गंभीर है। बड़े भाई से कल ही टेस्ट के नतीजों को लेकर चर्चा हुई है। डॉक्टरों को शक है कि बाबू को ‘प्रोस्टेट’ का कैंसर है। डॉक्टरों ने इस अँधेरे में भी रोशनी की किरण खोज ली है। वे बताते हैं कि इसके रोगी आठ-दस साल तो आराम से जी लेते हैं। अब निर्णय यह करना है कि ऑपरेशन हो या ‘कीमोथेरैपी’? आप इन्हें जल्दी-से-जल्दी हॉस्पिटल शिफ्ट कर दीजिए तो फिर रोजमर्रा की देखभाल और आगे के टेस्ट वगैरह किए जा सकें।

यह सब न बाबू को पता है, न उस की माँ को। वह रुँधे गले से बाबू से अनुरोध करता है, ‘‘बाबू! मेरी मानिए तो अस्पताल चले चलिए। वहाँ आपके डायट, देखभाल और इलाज की बेहतर सुविधा मिलेगी। प्राइवेट वार्ड में कोई दिक्कत भी नहीं होगी। बस दस-पंद्रह दिनों की बात है। पूरे भले-चंगे होकर घर लौट आएँगे।’’

बाबू अपनी टेक दोहराते हैं, ‘‘बीमारी का ढिंढोरा पीटने से क्या फायदा है। आज जो नहीं जानते हैं, वे भी जान जाएँगे। अपने धंधे पर बुरा असर पड़ेगा। अखबारों की अलग चाँदी होगी। हर तरह की उल्टी-सीधी खबरें छपेंगी।’’

छोटे बैठता है कुछ देर। फिर निराश होकर बड़े भाई के पास चला जाता है। दोनों चिंतित हैं। मरते दम तक कौन शेयर मार्केट की फिक्र करता है? एक बार आँख मुँदी तब भी क्या बाबू को सिर्फ बैलेंस शीट सूझेगी, नहीं तो मुनाफा। क्या खामखयाली है? बड़े लोग क्या रोगग्रस्त नहीं होते हैं? बस जन्म लेते हैं, कामयाबी से धंधा करते हैं और एक दिन ऊपरवाले के पास चल बसते हैं। तभी दुनिया-जहान को खबर होती है कि फलाने नहीं रहे। दोनों एक ही तथ्य पर गौर करते रहे कि बाबू को कैसे अस्पताल जाने पर राजी किया जाए। फिर उसे डॉक्टर का कथन याद आया, ‘‘अगर कैंसर की शुरुआत है तो निदान में आसानी होगी।’’ उसे अचानक खयाल आया। बाबू को अपने फैमिली डॉक्टर पर अत्यधिक भरोसा है। क्या वह उसकी बात मानेंगे? मानें न मानें, कोशिश करने में क्या हर्ज है?

फैमिली डॉक्टर दोनों बेटों के जन्म के पहले से बाबू से जुड़ा है। कौन कहे बाबू उस की सलाह न ठुकरा पाएँ। कैंसर का सुनकर वह भी चौंक पड़ा और तत्काल सहमत हो गया कि बाबू को अस्पताल में भरती करना-ही-करना है। वह अकेला बाबू के पास गया और आकर बोला, ‘‘कल सुबह एंबुलेंस बुलवा लीजिए। बाबू पिछले दरवाजे से अस्पताल जाने को तैयार हैं।’’ बेटों ने चैन की साँस ली।

आदमी पीढि़यों का इंतजाम करता है, पर क्या उसे अगले पल की खबर है? बाबू के जीवन में अगली भोर नहीं आ पाई। सुबह घर के मंदिर के दर्शन करके पत्नी जब जगाने गई तो उनका शरीर ठंडा पड़ा था। हो-हल्ला मचा। डॉक्टर आए। उन्होंने जाँच के बाद प्राण-पखेरू उड़ने की घोषणा की। क्या पता, कैंसर वह झेल भी जाते, पर दिल को अचानक पड़े दौरे से वह बच नहीं पाए।

अखबार में सुर्खियों से उनकी मृत्यु का समाचार छपा। संवेदना जतानेवालों का ताँता लगा रहा। बेटों ने दफ्तर की शोकसभा के बाद छुट्टी कर दी। दुनिया वैसी-की-वैसी चलती रही। न शेयर बाजार में कोई फर्क आया, न बाबू की मृत्यु से उनके माल के मार्केट पर। बड़ा बेटा अकेला बैठा सोच रहा है कि यह केवल इनसान का अहं है, जो उसे इस भ्रम में रखता है कि वह नहीं रहा तो दुनिया ठप होगी। किसी के भी जाने से सिर्फ  उसके अपने परिवार के अलावा संसार को कोई फर्क नहीं पड़ता है, न आज तक पड़ा है, न आगे पड़नेवाला है। यों बाबू जिद में सफल रहे। अस्पताल नहीं जाना था, नहीं गए। उन्होंने साबित कर दिया कि बड़े लोग बीमार नहीं पड़ते हैं, बस यकायक टें बोल जाते हैं।

बड़े बेटे के दफ्तर में उसके आलीशान चैंबर में ठीक उसकी कुरसी के पीछे ऊँचाई पर एक बोर्ड टँगा है। उसपर लिखा है, ‘‘बड़े लोग बीमार नहीं पड़ते हैं। बस पैसा कमाते-कमाते अचानक मर जाते हैं।’’ कोई उसके बारे में ताज्जुब से सवाल पूछता है तो बड़ा बेटा यानी कंपनी का वर्तमान प्रबंध निदेशक व चेयरमैन सिर्फ  मुसकरा देता है। जाने क्यों, उसे यकीन है कि यदि वह इस लगन से उन्हें अस्तपाल ले जाने की जिद न करता तो शायद बाबू को दिल का दौरा भी न पड़ता और शायद उसे कुछ वर्षों तक कंपनी पर पूरा नियंत्रण भी न मिल पाता। उसकी ख्याति एक स्नेही और निष्ठावान पुत्र की है। पर सच क्या है? सच्चाई उसके अंतर में दफन है।

९/५, राणा प्रताप मार्ग

लखनऊ-२२६००१

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