शिवाजी और आगरा

शिवाजी और आगरा

शिवाजी के संबंध में आगरा के पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष डी. दयालन का २७ जून, २००३ का लिखा हुआ पत्र प्राप्त हुआ था, जिसमें यह लिखा गया था कि शिवाजी एक शूरवीर मराठा राजा थे। लोगों के मसीहा और देश की शान थे। वे भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। औरंगजेब ने जिस जगह शिवाजी को कुछ महीनों के लिए कैद करके रखा था, आगरा के इतिहासकार अभी भी वह जगह पहचान नहीं पाए हैं। इस गुत्थी का अंत अब होना चाहिए। इस विषय में एक बैठक का आयोजन भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के कार्यालय में ३० जून, २००३ में किया गया था। आगरा के दैनिक ‘अमर उजाला’ में ‘मेरी लेखमाला’ आगरा इतिहास के पन्नों में मेरे लेख प्रकाशित हुए थे। अतः मुझे भी इतिहासकार मानकर बुलाया गया था। मेरे अलावा आगरा के सभी कॉलेजों के इतिहास विभाग के अध्यक्षों को भी बुलाया गया था। पुरातत्त्व विभाग के ऑफिस में हम सभी लोगों ने यह कहा कि इस बात का समाधान किले में पहुँचकर ही हो सकेगा। अतः हम सब लोगों को किले में ले जाया गया। वहाँ हम लोग उस स्थान पर पहुँचे, जो स्थान शिवाजी का कैदखाना कहलाता है, हम सबने वहाँ पर इस प्रश्न को सुलझाने पर चर्चा की। मेरे अलावा सबने यह कहा कि शिवाजी यहाँ कैद रहे ही नहीं थे, लेकिन मैंने यह कहा कि शिवाजी अगर यहाँ कैद नहीं रहे तो यह स्थान शिवाजी का कैदखाना क्यों कहलाता है। शिवाजी यहीं कैद रहे और यहीं से बाहर गेट से निकलकर वे चले गए थे। बताते हैं कि शिवाजी किले से निकलकर मथुरा पहुँचे थे। १३ अक्तूबर, १९८९ से १५ जून, १९९० तक मेरे ३१ लेख हर शुक्रवार को प्रकाशित हुए। उस लेखमाला के ग्यारहवें लेख का शीर्षक था—‘औरंगजेब काल में आगरा’ में हमने शिवाजी का जो हवाला दिया है, वह इस प्रकार है—५ मार्च, १६६६ को शिवाजी ने अपने पुत्र शंभाजी, कुछ अधिकारी तथा ४००० सैनिकों के साथ आगरा के लिए प्रयाण किया था। बादशाह ने खर्च के लिए एक लाख रुपया पहले ही भेज दिया था। पाँच सौ मील की यह यात्रा दो महीने में पूरी हुई थी। राजा जयसिंह ने शिवाजी के साथ ताजसिंह को अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा था। शिवाजी मुगल शासन के लिए बड़ी समस्या बनते जा रहे थे। औरंगजेब ने शिवाजी को काबू में लाने के लिए तथा बीजापुर पर अधिकार करने के लिए राजा जयसिंह को ३० सितंबर, १६६४ को दक्षिण भेजा। दक्षिण की स्थिति को काबू में करने के लिए राजा जयसिंह ने शिवाजी की अनुपस्थिति को उचित समझा। जयसिंह ने औरंगजेब को लिखा था कि वह शिवाजी को आगरा बुला ले। बादशाह ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया। राजा जयसिंह ने शिवाजी को समझाया कि औरंगजेब से मिलने से उन्हें कई लाभ होंगे। आखिर राजा जयसिंह ने शिवाजी को आगरा दरबार में जाने के लिए तैयार कर लिया। ११ मई, १६६६ को शिवाजी आगरा नगर से पूर्व ही सराय मलूकचंद में ठहर गए। शिवाजी की अगवानी करने का कार्य राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह कछवाहे को सौंपा गया था। उस दिन औरंगजेब की सालगिरह का दरबार था और रामसिंह पर किले के सामने की व्यवस्था देखने का भार था। अतः रामसिंह ने मुंशी गिरधरलाल को शिवाजी को आगरा नगर में लाने को भेज दिया। जयसिंह ने शिवाजी को शपथपूर्वक समझाया कि उनके पुत्र रामसिंह दरबार में शिवाजी की देखभाल करेंगे। अतः रामसिंह १३ मई को प्रातः शिवाजी को लाने के लिए रवाना हुए। ख्वाजा फिरोज तथा नूरगंज बाग के बीच शिवाजी की रामसिंह से भेंट हुई। १३ मई, १६६६ को रामसिंह ने शिवाजी और उनके १० सहयोगियों को औरंगजेब के दरबार में दीवानेखास में उपस्थित कराया। शिवाजी की ओर से एक हजार मोहरें और दो हजार रुपए बादशाह को भेंट किए गए। पाँच हजार रुपए न्योछावर किए गए। औरंगजेब ने शिवाजी की सलाम के उत्तर में कुछ नहीं कहा। उन्हें मंत्री जाफर खाँ ने ले जाकर पाँच हजारी मनसबदारों में खड़ा कर दिया। शिवाजी की उपस्थिति को महत्त्व नहीं दिया गया। काररवाई यथावत् चलती रही। शिवाजी को यह सब अपमानजनक लगा। शिवाजी का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर औरंगजेब ने रामसिंह से कहा, शिवाजी की कैसी तबीयत है? तब शिवाजी ने रामसिंह से कहा, क्या मैं ऐसा आदमी हूँ कि मुझे जान-बूझकर खड़ा किया जाए? यह कहकर शिवाजी एक ओर बैठ गए। रामसिंह ने बहुत समझाया, पर वे वहाँ नहीं गए और कह दिया कि मेरा सिर काटकर ले जाना चाहो तो तुम ले जाओ, मैं वहाँ नहीं जाऊँगा। सिरोपाण पहनने के लिए कहा, तब शिवाजी ने कहा, ‘मुझे जान-बूझकर जसवंत सिंह के नीचे खड़ा किया गया। इसलिए मैं सिरोपाण नहीं पहनता। मुझे मारना चाहो मारो, कैद करना चाहो कैद करो। (शिवाजी यदुनाथ सरकार (संक्षिप्त), पृष्ठ-६९) बादशाह ने उन्हें रामसिंह की देखरेख में कैद कर लिया। फौलाद खाँ को पहरे पर रखा गया। बादशाह ने निश्चय किया कि या तो शिवाजी को किसी दुर्ग में बंदी बना लिया जाए या वध कर दिया जाए। उसने फौलाद खाँ को आदेश दिया कि आगरा किले के अधिकारी रदंदाज खाँ के मकान पर शिवाजी को ले जाया जाए।

रामसिंह को जब यह पता चला तो रामसिंह ने बादशाह के पास संदेश भेजा कि पिताजी के वचन पर शिवाजी आगरा आए हैं। अतः पहले मुझे मार डाले, फिर शिवाजी के साथ चाहे जैसा बरताव करे। शिवाजी ने रामसिंह को संदेश भेजा कि जो सुरक्षा-पत्र आपने सम्राट् को दिया है, उसे वापस ले लें और जो कुछ बादशाह मेरा करना चाहे, उन्हें करने दें। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह को पत्र लिखकर जानना चाहा कि शिवाजी के साथ क्या बरताव किया जाए। राजा जयसिंह ने बादशाह को लिखा कि शिवाजी की गलती को माफ करना मुनासिब है। अतः शिवाजी पर से कड़ा पहरा कम कर दिया गया। औरंगजेब ने इधर यह आदेश दिया कि शिवाजी को १८ अगस्त को फिदाई हुसैन के मकान में निर्वासित कर दिया जाए। शिवाजी इसका मतलब समझ गए। शिवाजी ने अपने नौकरों को वापस भेजने का आज्ञा-पत्र प्राप्त करके २५ जुलाई को अनुचरों को आगरा से रवाना कर दिया। शिवाजी के पास पैसा नहीं बचा था। अतः रामसिंह से हुंडी लिखकर ६६ हजार रुपए प्राप्त किए।

शिवाजी बीमार हो गए। यकृत, प्लीहा और ज्वर की शिकायत करके जोर-जोर से चिल्लाने लगे। वैद्य और हकीमों से इलाज कराया। स्वस्थ होने पर अमीरों, हकीमों, वैद्यों, ब्राह्मणों निर्धन हिंदू-मुसलमानों को बडे़-बडे़ टोकरों में भरकर मिठाई तथा फलादि भर-भरकर भेजने लगे। मथुरा के फकीरों और ब्राह्मणों को भी टोकरे भेजे जाने लगे। उन्हीं टोकरियों में बैठकर शिवाजी और शंभाजी १७ अगस्त की शाम को औरंगजेब की कैद से निकलकर भाग गए। एक कथन यह भी है कि कैद से निकलकर शिवाजी को नीलकंठ महादेव (सिटी स्टेशन रोड) ले जाया गया। वहाँ से शिवाजी मथुरा मार्ग पर पहुँच गए, जहाँ उनके अनुचर घोडे़ लेकर प्रतीक्षारत थे। वे काशी नामक ब्राह्मण के घर मथुरा जा पहुँचे। बताते हैं कि शिवाजी को छुड़ाने में ईश्वरदास नागर का बड़ा हाथ था। शिवाजी के आगरा आगमन का वर्णन (मुंतखबुत लुवाव भाग-२, पृष्ठ १८९) पर मिलता है। जयपुर में मिले लगभग २० पत्रों से भी उक्त उल्लेख मिलते हैं। शिवाजी के साथ अनुचरों में कवि परमानंद भी आगरा आए थे, जिसने ‘अनुपुराण’ और ‘शिवपुराण’ पुस्तकें लिखी थीं (औरंगजेबनामा हिंदी, पृष्ठ ६७)। शिवाजी आगरा के किले में ९७ दिन कैद रहे। शिवाजी की याद में आगरा के किले के अमर सिंह गेट के सामने शिवाजी की घोडे़ पर बैठी हुई मूर्ति लगाई गई है। हिंदी के लौहपुरुष पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, जो हिंदी समिति के अध्यक्ष भी थे, उनका भेजा हुआ शिवाजी के दरबार में कविता पढ़ते हुए भूषण का चित्र ‘धर्मयुग साप्ताहिक’ बंबई में प्रकाशित हुआ था। जब हम पं. श्रीनारायणजी के पास उनके निवास पर बैठे हुए थे, तब उन्होंने हमें वह चित्र प्रदान किया था, जो यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। आज के वातावरण में शिवाजी की याद आती है। उनके संबंध में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार पं. हृषीकेश चतुर्वेदी (१९०७-१९७०) ने शिवाजी पर कविता लिखी थी। बदायूँ निवासी डॉ. ब्रजेंद्र अवस्थी, जिन्हें ‘राष्ट्रकवि’ लिखा गया है, वे आगरा आए हुए थे। जिन दिनों आगरा इतिहास के पन्नों में मेरी लेखमाला ‘अमर उजाला’ आगरा में प्रकाशित हो रही थी। ‘औरंगजेब-काल में आगरा’। मेरा ग्यारहवाँ लेख १९/१/१९९० को प्रकाशित हुआ था। उस लेख को पढ़कर डॉ. ब्रजेंद्र अवस्थीजी मेरे पास पधारे और उन्होंने शिवाजी पर लिखा हुआ अपना महाकाव्य ‘स्वातंत्र्य-सूर्य-शिवा’ मुझे १८/११/२००३ को भेंट किया था। यह महाकाव्य अवस्थीजी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयीजी को समर्पित किया था। हमारा लेख ‘शिवाजी और आगरा’ है और वाजपेयीजी भी जिला आगरा के बटेश्वर क्षेत्र के निवासी हैं।

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