ओ आम! बौराओ मत इतना

ओ आम! बौराओ मत इतना

सुपरिचित लेखक। ‘अभिषेक को लग गया चश्मा’ तथा कुछ संपादित पुस्तकें एवं साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्रों से प्रसारण। युकस, ग्राम्य भारती, छत्तीसगढ़ी साहित्य परिषद्, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग, मुक्तिबोध रचना लेखन शिविर राजनांदगाँव सहभागिता प्रमाण-पत्र से सम्मानित।

मेरे घर के आँगन में आम का एक पेड़ है। उसकी डालों पर कई प्रकार की चिड़ियाँ आकर बैठती हैं। तोतों का टें-टें, गौरैयों की चीं-चीं और कौओं का काँव-काँव का स्वर सुनाई देता है। हाँ, आम के मौसम में कोयल भी कुहकने आती है। गिलहरियों के जोड़े आ जाते हैं। ऊपर-नीचे चढ़ते-उतरते चिक-चिक की बोली बोलते हैं। उसकी शीतल छाँह के नीचे मैं कुरसी लगाकर बैठता हूँ। मित्र-परिचित आते हैं तो उन्हें भी बिठाता हूँ। हवा में और पेड़ों की तरह वह भी झूमता है। हरे-पीले पत्ते गिराता है और अपने हाव-भाव से मेरे मन को प्रफुल्लित करने का प्रयास करता है। परंतु मैं सोचने लग जाता हूँ कि इस आम से प्रफुल्लित होऊँ कि नहीं? इसकी धृष्टता पर क्रोध करूँ या इसे क्षमा कर दूँ? मन करता है इसे काट दूँ। पर काट भी नहीं सकता। सामने में मेरे संवेदनशील कविहृदय होने का एक प्रश्न जो आ खड़ा होता था।
मेरी शिकायत थी कि जब इस आम की फूलने-फलने की उम्र हो गई है, तब पिछले तीन वसंत ऋतु तक इसकी डालों से बौर क्यों अदृश्य है? यह बौर क्यों नहीं लाता है? जबकि आसपास के सब आम अपने को बौरों से आच्छादित कर लेते हैं। उनके समीप से सौरभ उड़ता है। श्याम वर्ण के भँवरों का गुंजार सुनाई पड़ता है। रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराती हैं। ऐसा लगता है, जैसे भँवरों और तितलियों के लिए वे आम कोई तीर्थ-धाम बन गए हों। इस आम से उस आम तक घूम-घूमकर ऋतुराज का दर्शन कर रहे हों। आमों में बौर देखकर उनके मालिकों का मन गद्गद होता है।
इधर मैं अपने आम को देखकर अत्यंत दु:खी होता हूँ। प्रतिदिन डालों को देखता हूँ। सूक्ष्म निरीक्षण करता हूँ। कामना करता हूँ, कहीं तो बौर का दर्शन हो जाए। तब छाती ठोककर कह सकता कि देखो, यह मेरा आम का पेड़ कितना अच्छा है। किंतु यह आम बौर दिखाता ही नहीं है। कुछ दिनों के पश्चात् जब मैं डालों में ललौहें पल्लव निकलते देखता, तब तो और भी उदास हो जाता। मेरा सारा गर्व चकनाचूर हो जाता। मेरी समझ में आ जाता कि इस आम ने मुझे मूर्ख बना दिया है। एक वसंत गया। दूसरा वसंत गया। तीसरा वसंत भी गया। इस प्रकार गिनते-गिनते तीन वसंत पार हो गए। तीनों वसंतों में आम के बौर के दर्शन से वंचित रह गया हूँ। इसने मुझे ठग लिया है और मैं इससे ठगा गया हूँ। इस प्रकार हम दोनों में ठगने-ठगाने का मोह बना हुआ है।
किंतु मेरा कोमल मन कविमन है। आशा और विश्वासजीवी है। मेरे जैसा कोई कवि आशा और विश्वास पर ही तो जीता है। वह स्वयं पर आशा और विश्वास न करे तो दूसरों को नई आशा और विश्वास की शक्ति कैसे देगा? मेरी कामना निष्काम थी। मैं ही मौन साध लूँ तो इस लोकजीवन में बौद्धिक ऊर्जा का संचार कौन करेगा? उत्कृष्ट और निकृष्ट का अंतर कौन बताएगा? मेरा कर्तव्य-धर्म था विचारों पर प्रकाश डालना। प्रकाश की विशेषता होती है अँधेरे को छाँटना। अँधेरा छँटता है तब सब स्पष्ट दिखाई देता है। प्रकाश से कुछ छुपता नहीं है। उसका तो दिखना ही चमकना है।
माघ महीने में जब पुनः वसंत ऋतु आई, तब मुझमें फिर आशा और विश्वास जगा। एक दिन मैं अपने आम की एक डाल पर बैठी चिड़िया को निहार रहा था। वह चहकी, चोंच मारी, फिर फुर्र से उड़ चली। डाल के हिलने से मुझे उसमें बौर दिख गए। अगल-बगल और डालें भी बौरों से लटकती दिखीं। कुछ दिन में तो पूरे पेड़ में बौर आ गया। कोई भी डाल बौर के बिना खाली नहीं थी। मानो आम ने पिछले तीनों वसंतों के बौर की कसर चौथे वसंत में इकट्ठे पूरी कर दी हो। इस वर्ष आम पूरा बौराया हुआ था। उसके बौराने का दृश्य ही अनोखा था। एकदम गजब का दृश्य। उसे देखकर मैं भी अपने मन की बात को बोलने से रोक नहीं सका। प्रसन्नता के मारे बोल ही दिया।
ओ आम, बौराओ मत इतना। कोई आम ऐसा बौराता है क्या? तुमने तो बौराने की सीमा ही लाँघ ली। इस बौराने के मामले में दूसरे आमों को भी पीछे कर दिया। उन्हें नीचा दिखाने का मंसूबा तो नहीं पाले हो? मैंने माना कि तुम बहुत दिनों के पश्चात् बौराए हो और जब बौरा ही गए हो तो थोड़ा संयम से बौराओ। तुममें बौराने की इतनी तेज गति मैंने पहली मर्तबा देखी है। वह देखो, आँधी के इधर आने का अंदेशा हो गया। बड़ी जोरों की आँधी आ सकती है। तुम्हारे बौर को झाड़ सकती है। सोचो, तब इतना बौराने का क्या अर्थ निकलेगा तुम्हारा?
ओ आम, अब तुम वयस्क पेड़ हो। प्रकृति के अकाट्य नियम से बँधे, फूलकर फलने के पथ पर अग्रसर पेड़। तुम्हारा बौराना तुम्हारा फूलना है। जो फूलता है, वह फलता है। जो फूल गया है, उसे हर स्थिति में फलना पड़ेगा। चाहे छोटे आकार में फले या बड़े आकार में। गोल फले, चपटा फले या लंबा। गहरे हरे रंग में फले या हलके हरे रंग में। शीघ्र फले या विलंब से। तुम्हें फूलकर फलने की प्रक्रिया से गुजरना होगा। मात्र तुम्हें ही फूलना-फलना है, ऐसा नहीं है। जो भी इस धरती में पेड़ बनकर उगेगा। उसे एक दिन फूलना पड़ेगा और फलना पड़ेगा। फूल से फल बनोगे तो यह तुम्हारी प्रगति होगी। इसमें संतुष्टि छुपी है। फूलो, बहुत संतुष्ट होकर फूलो। फूलना तुम्हारा कर्तव्य-धर्म है।
ओ आम, तुम बौराकर फलोगे। बहुत अच्छा करोगे। गुच्छों में झूलोगे भी। जिस प्रकार कोई छौना झूला झूलता है। कितना सुंदर दिखोगे। तुम्हारे छोटे-छोटे फलों को मैं अमिया या टिकोरा बोलूँगा। तुम्हारी चटनी बनेगी। पुदीना, हरी मिर्च और नमक में मिश्रित होओगे और खटास वाली चटनी पिसाओगे। लो ‘आम की स्वादिष्ट चटनी’ कहते ही मेरे मुँह में पानी आ गया। क्या तुम्हारे मुँह में भी पानी आया? अहा, तुम्हारी चटनी होगी क्षुधा को सक्रिय करने वाली लार प्रदायिनी। इसे जो भी खाएगा, वह लू से बचा रहेगा। कुछ बड़े होओगे तो पना शरबत बनोगे। लू की विदाई ही कर दोगे। अचार भी बनोगे और लंबे समय तक उपयोगी रहोगे। इसलिए मैं या घर का कोई सदस्य तुम्हें तोड़े तो मना मत करना। हर्षित होना। विनम्र होना। झुक जाना। झुककर तोड़ने देना। न्योछावर हो जाना। फल देने वाले पेड़ झुकते हैं। झुके पेड़ों का हाथ ऊपर होता है। ऊपर वाले का हाथ आशीष का हाथ होता है। आशीष का हाथ बड़प्पन का हाथ होता है। तुम अपने बड़प्पन का परिचय कराने में मत चूकना। यह देने का अवसर तुम्हारे लिए श्रेष्ठ कहलाने का अवसर होगा।
ओ आम, तुम फलकर पकोगे। तुम्हारा आकार एकदम बड़ा होगा। रंग भी पीला होगा। रसदार, गूदादार और मीठा लगोगे। कोयल तुम्हारे पकने का विज्ञापन करेगी। तुम्हें लोकजन दशहरी, लंगड़ा, चौसा, मालदा, तोताफली, बैगनफली, फजली या देशी कठर्री में से कुछ कहेंगे। इनमें से कोई एक तो हो ही। रसाल, आम्र, आंबु, आंबा, अमृतफल आदि नामों से अभिहित हो। फलों के राजा हो। चूसेंगे, खाएँगे, शरबत भी पीएँगे लोग। तुममें सुगंध भी रहेगी। लेकिन तुम्हारा पक जाने का समय वस्तुतः तुम्हारा झड़ जाने का समय होगा। पकोगे तो जबरन तोड़े ही जाओगे। मेरे हाथ के पत्थर की मार भी झेलनी पड़ेगी। नहीं तो तुम्हें स्वयं झड़ना और गिरना पड़ेगा। पकोगे तो डाल से बिछुड़ना पड़ेगा। हर हाल में झड़ना तुम्हारी नियति होगी। प्रकृति के नियमबद्ध नियति के विरुद्ध भी नहीं जा सकोगे। यहाँ मनमाना भोग अधिक दिन नहीं चलेगा। मनमाना भोग भी करने कोई नहीं आता है। वह तो अपने-अपने सुकर्मों और कुकर्मों को भोगने आता है। डाल से टूटने में तनिक शोक मत करना। तुम्हें अपने बीज से पुनर्जन्म मिलेगा।
ओ आम, मैं भी अपना वर्तमान का परिचय दूँ तो मैं एक निष्प्रभ मनुष्य हूँ। दानव और मानव की प्रवृत्ति एक साथ लिये जी रहा हूँ। एक पंडितजी ने मुझे एक रोचक बात बताई थी कि सत्ययुग में देवलोक अलग था, दानवलोक अलग था और मानवलोक अलग था। त्रेतायुग में दानव और मानव का लोक एक हो गया। दोनों एक ही लोक में रहने लगे। इधर उत्तर में अयोध्या था तो उधर दक्षिण में श्रीलंका। इधर राम थे तो उधर रावण। द्वापरयुग में तो और गड़बड़ हो गया। लोक तो एक था, किंतु दोनों के संबंधों में निकटता आ गई। दानव और मानव एक ही परिवार में रहने लगे। जैसे कि कौरव और पांडव। अब देखिए कलियुग को। कलियुग में संबंधों की निकटता और बहुत अधिक गहरा गई। लोक तो पहले की तरह वही था, परंतु दानव और मानव एक ही शरीर में रहने लगे। एक ही तन में दोनों का वास हो गया। कौन दानव है और कौन मानव, कौन कब दानव से मानव बन जाएगा, कौन कब मानव से दानव बन जाएगा और कौन कब अपना रूप-रंग बदल लेगा, उसका कोई ठीक-ठिकाना नहीं है। कलियुग में मेरा कोई सिद्धांत नहीं होता है। पाला बदलने में बहुत प्रवीण होता हूँ। बहती गंगा में हाथ धो लेता हूँ। कड़ाही में तेल खौलता देखकर पकौड़ा भी तुरंत छान लेता हूँ।
ओ आम, तुम्हारे इस बौराए रूप को देखकर मुझे बहुत से बौराए व्यक्तियों का स्मरण हो आता है। जैसे कोई धनिक अपने धन को देखकर बौरा जाता है। तो पहला ‘धन का बौराया व्यक्ति’ अपने धन के मद में इतना चूर होता है कि अंधा हो जाता है। धन को देखकर पागल सा हो जाता है। उसका बात करने का तरीका ही बदल जाता है। धन से कम व्यक्ति को कुछ नहीं समझता। खूब हेकड़ी दिखाता है। मन में जो आए  लोगों को वैसी खरी-खोटी सुनाता है।
दूसरा ‘प्रसिद्धि का बौराया व्यक्ति’ अपनी प्रसिद्धि को पचा नहीं पाता है। जगह-जगह वमन करता फिरता है। ऊपर-ही-ऊपर उड़ता है। इतनी गति से ऊपर उड़ता है कि उसके पंखों के कट जाने का खतरा रहता है। अंततः उसकी बदनामी ही होती है।
तीसरा ‘रूप का बौराया व्यक्ति’ अपने को सबसे सुंदर रूपवान् बताता है। उसे यह नहीं ज्ञात होता कि त्वचा की सुंदरता मात्र दो दिन की होती है। असली सुंदरता तो कर्म की होती है। वह सब दिन बनी होती है।
चौथा ‘बल का बौराया व्यक्ति’ अपने बल पर घमंड करता है। कहता है, देखो मेरी बाँहों-भुजाओं में बहुत ताकत है। मैं अपने बाहुबल से कई कमजोरों को पछाड़ देता हूँ। बल दिखाने के लिए उसके हाथ खुजाते रहते हैं। किसी अच्छे काम में अपने बल का नियोजन नहीं करता है, वरन् बुरे काम में अपना बल गँवाता है।
पाँचवाँ ‘ज्ञान का बौराया व्यक्ति’ अपने-आपको ही ज्ञानी पुरुष मानता है। उसे सर्वज्ञ होने का भ्रम हो जाता है। कुतर्की हो जाता है। वह दूसरे व्यक्ति की बात का सम्मान नहीं करता है। उसकी विनम्रता चली जाती है।
छठवाँ ‘पद का बौराया व्यक्ति’ अपने पद का बड़ा घमंड दिखाता है। पद क्या मिला जैसे कोई बड़ी जागीर मिल गई हो। उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ते। हर समय रोबीले अंदाज में पेश आता है। उसे ज्ञात नहीं होता कि मैं कब पदच्युत हो जाऊँगा। मेरा पद क्षणिक है।
सातवाँ ‘बहुपरिवार का बौराया व्यक्ति’ जिसके परिवार में बहुत से सदस्य होते हैं। उसे इस बात पर गुमान होता है, ‘हमारा परिवार बड़ा है। हम लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। बड़ी-बड़ी नौकरियाँ करते हैं। हम जब कहीं एक साथ निकलें, तब कइयों को अपने पाँव तले कुचल दें।’ उसके मन में यह दुर्भावना होती है।
ओ आम, तुमने बौराने में लंबा समय लगाया। इसके पश्चात् की तुम्हारी मंजरियों की शोभा अनूठी है। तुम प्रायः हर देश की सभ्यता और संस्कृति में बसते हो। लोककथाओं में कहे गए हो। लोकगीतों में गाए गए हो। कविताओं में अभिव्यक्त हुए हो। ‘आम तो आम गुठलियों के दाम’, ‘आम खाने से काम, पेड़ गिनने से क्या काम’, ‘पका आम टपकने का डर’ और ‘बोया पेड़ बबूल तो आम कहाँ से होय’ जैसी कहावतें भी लोक में प्रचलित हैं।
तुम्हारी अमराई घनी होती है। उस अमराई के घनत्व का अपना विशिष्ट सौंदर्य होता है। उसमें बड़ी सामाजिकता दिखाई देती है। वह गाँव, कस्बा या शहर के सार्वजनिक भू-भाग में स्थित होती है। सबके उपयोग में आती है। छाँह में गाय-बैलों का झुंड और भेड़-बकरियों का रेवड़ आश्रय लेता है। बच्चे खेल खेलते हैं। पथिक विश्राम करते हैं। बैठकर नाश्ता-कलेवा करते हैं। बंजारों के डेरे जमते हैं। मेले-बाजार लगते हैं। पिकनिक मनता है। बैठकें चलती हैं। तुम्हारा ही मौसम हो तो कोयल की कूक के साथ बहार और दोगुनी हो जाती है। तुम मेरी संस्कृति में घुले हो।
वास्तव में इस वर्ष की वसंत ऋतु में मेरे घर के बौराए आम के सौंदर्य में चार-चाँद लग गए हैं। इसने मेरे मन को जीत लिया है। मैं अपने मन में इस मनजीत बौराए आम के प्रति गहरा अनुराग रखता हूँ। इसकी भव्यता का आनंद लेता हूँ। हर दिन अच्छे से देखभाल करता हूँ। यह मेरा आम एक आम नहीं, सबसे खास पेड़ हो गया है। मेरे तीन वर्षों के उलाहनों का इसने एक ही बार में निवारण कर दिया है।


‘ऋतु साहित्य निकेतन’,
जूट मिल थाना के पीछे बगल गली, 
हनुमान मंदिर के पास, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)
पिन : ४९६००१
दूरभाष : ७०६७६४३४५२

हमारे संकलन