शहर के जंगल में इधर हिंसा तरक्की पर है। जैसे तकनीकि विकास और हिंसा में प्रतियोगिता हो कि कौन किससे आगे हैं? हम तो उस दिन मुँह बाए-के-बाए रह गए, जब हमने देखा कि एक खरगोश दूसरे के साथ दौड़ लगाने की जगह उस पर साँप के समान फुफकार रहा है। क्या उसे भ्रम है कि वह भी जहरीली जाति का है? ऐसे सुनते हैं कि अधिकतर साँपों के दंश में विष नहीं है। पर अहिंसक देश के शहर के नन्हे खरगोश अचानक इतने हिंसक क्यों हो गए हैं? इस इनसानी वन के शेर घर बैठे, अपनी गुफा से योजना बना रहे हैं कि दूसरों के मेमनों का शिकार किससे करवाएँ, अपने स्वभाव के विपरीत, फिर उससे वंचित करें। इस सियार का कहना ही क्या? वह गांधी टोपी लगाए, नैतिकता और अहिंसा का प्रवचन कर जंगल के जानवरों को ऐसे लूट रहा है, जैसे वह खानदानी डकैत हो। चूहा अपने बिल से निकलकर बिल्ली को चेतावनी दे रहा है कि फिर से ‘म्याऊँ’ की तो वह उसकी जुबान कुतर देगा। हमें आश्चर्य है कि तथाकथित कायर और बिल में छुपे रहने वाले चूहे में साहस का संचार कैसे हो गया कि वह अपने से शक्तिशाली बिल्ली को आँखें दिखा रहा है?
क्या एलोपैथी या होम्योपैथी ने इतनी प्रगति की है कि वह दवाओं से शहरी जानवरों की प्रवृत्ति और चरित्र को परिवर्तित कर दे? ज्ञानी बताते हैं कि शहरों के जन्म का कारण बढ़ता उद्योगीकरण और संचार तथा आवागमन के साधनों का विकास है। मनुष्य जन्म से खोजू प्रवृत्ति का रहा है, उसने आग जलाने की तकनीक का आविष्कार किया, आवागमन के साधनों के लिए पहिए बनाए। कोई सोचे, यदि पहिए, आग या ऊर्जा के साधन न होते तो जीवन में गुणात्मकता का कितना अभाव होता? अंधकार के अँधेरे को जीवन में लालटेन पर निर्भर रहना पड़ता या दीया-बाती पर।
इसमें कोई विवाद नहीं है कि मनुष्य के स्वभाव में कहीं-न-कहीं हिंसात्मक प्रवृत्ति है। वरना जमीन का लालच न होता तो अतीत में इतने युद्ध क्यों होते? जमीन के टुकड़े के लिए जान गँवाने का क्या औचित्य है अथवा किसी सुंदरी की खातिर या धन-दौलत के लिए? पाषाण युग के आदमी भी सब जानते थे कि जीवन स्थायी नहीं है। चिंतक-दार्शनिक तब भी थे और सब एकमत थे कि जीवन नश्वर है। न धन-जमीन साथ जाती है, न सुरा-सुंदरी।
धीरे-धीरे शिक्षा, संस्कृति, आराध्य की उपासना, अनुशासित दिनचर्या का विकास-विस्तार हुआ। आदमी को अहसास हुआ कि जीने के लिए निरंतर युद्ध के स्थान पर शांति और अमन-चैन आवश्यक है। पारस्परिक प्रेम की परिणित ही परिवार है। साथ जीवन बिताने के लिए घर की निजता भी अनिवार्य है। जीवन सिर्फ सतत युद्ध के लिए न होकर, गुणात्मक उन्नति और विकास के लिए है। इसी अवधारणा से सुख, समृद्धि और साथ रहने के लिए परिवार की संस्था का जन्म और विकास हुआ होगा। आदमी के पास बुद्धि है, जिसका पशुओं में अभाव है। आदमी ने शहर का विकास किया तो जंगल और जानवरों का विनाश भी। कहीं आग लगाकर, कहीं अस्त्र-शस्त्रों से। धीरे-धीरे अमन-चैन का नियम आधारित जीवन, रोजमर्रा की जिंदगी का तरीका हो गया। चोरी-डकैती, अपहरण, कमजोर पर अत्याचार, बलात्कार, बलप्रयोग, मार-पीट, हत्या आदि के विरुद्ध कानून बने। पुलिस का गठन हुआ और न्याय-प्रणाली का विकास हुआ। इसका लक्ष्य इन नियमों की अवहेलना के लिए दंड और सजा देने का था।
अवचेतन की नैसर्गिक हिंसा पर नियंत्रण, शिक्षा, साधना और पारिवारिक संस्कारों से हुआ। दूसरों की पाश्विक प्रवृत्ति शिक्षा, संस्कारों के अभाव की ओर इंगित करती है। वनों के विनाश के बाद कुछ-न-कुछ सुखद या दु:खद परिवर्तन अपेक्षित रहा है। इनसान ने वातावरण की शुद्धता और बढ़ते प्रदूषण से छुटकारा पाने को नियोजित जंगल बनाए। इनसानी बच्चों को पशुओं की विविधता से परिचित कराने ‘जू’ अजायबघर या चिड़ियाघर बनाए। वहाँ जानवरों की सुरक्षा के लिए अलग-अलग ‘बाड़े’ हैं, देखभाल के खातिर डॉक्टर और खान-पान का सरकारी प्रबंध।
कई शिक्षित बेरोजगारों की शिकायत है कि सरकार चिड़ियों-जानवरों की इतनी सेवा कर रही है। उन्होंने कौन सा अपराध किया है कि उन्हें काम न मिलने तक कुछ गुजारा-भत्तों का प्रावधान तक न हो? व्यवस्था के विरुद्ध हर नागरिक की अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न शिकायतें रहना, समाज का स्वाभाविक चलन है। न बिना समाचार के अखबार संभव हैं, न बिना शिकायत के इनसान।
कमी या खामी निकालना मानवीय स्वभाव का अंग है। कभी-कभी तो देखने में आता है कि जो वर्तमान और भविष्य की योजनाओं में जितनी खोट निकले वह, उतना ही प्रबुद्ध माना जाता है। यों खोट निकालना हमारे जनसेवकों की सिफत है। जब तक वह सत्ता में रहते हैं, सूबे और देश में कानून-व्यवस्था, विकास, उद्योग सब तरक्की करते हैं। जनता तक का स्वभाव बदलता है। वह लालच और मोह से ऐसी विमुख रहती हैं कि दुकान में रात को बिना ताले सब माल सुरक्षित रहता है। न सोने, चाँदी, हीरे की ओर कोई नजर उठाता है, न खाने-पीने की सामग्री पर। जनसेवक साक्षात्कार में सबको बताते हैं कि ‘जब सब भजन-कीर्तन करते, गुरुद्वारों में जनसेवा और मसजिदों में नमाज होती तो पुलिसवालों के पास कोई काम न था।’ घरों में बैठे वह जनसेवक साक्षात्कार में अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन रहे हैं, ‘वहीं आज देखिए, कहीं चैन नहीं है? हर मोहल्ले में लूट-खसोट है। मारपीट है। अपहरण है, हत्या है। यह ऐसी सरकार है, जो हर स्थिति में झूठे आँकड़े दिखाती है, विकास से लेकर बेरोजगारी तक के।
जनसेवक के पास और कोई विकल्प नहीं है। यदि वह फिर सत्ता में बाहर रहा तो दल का मनोबल ही क्यों अस्तित्व का संकट है। क्या पता पार्टी टूटे, कुछ सत्ता-पक्ष की शरण में जाएँ, बाकी अपने काम-धंधे में लगें। जनसेवक जनता के समर्थन की प्राण-वायु और दान-चंदे से जीवित रहते। आज इस जनसेवक के घर न भीड़ जुटती है, न काम करवाने वालों का ताँता। दिन भर में तीन-चार चमचे दर्शन दे जाते हैं। वह भी उसे विश्वास दिलाने कि इस चुनाव में जनता ने मन बना लिया है, परिवर्तन का। बस उसके लिए सत्ता की बड़की कुरसी प्रतीक्षारत है। चमचों के शब्द उसके लिए महाकुंभ का स्नान है। वह मन-ही-मन, खुश होता है। बस, अब फिर से सेवा के नाम पर जेब भरने के दिन आने वाले हैं। जन अधिकारियों से लेकर जनता तक सब उसके दर्शन के लिए लाइन लगाएँगे। जनसेवक आयु में युवा था, ‘पर बिन सत्ता सब सून’ की उक्ति के अनुरूप अकेला पड़ गया है।
यदि सत्ता में हो तो गीदड़ भी शेर बन जाता है। कम-से-कम गीदड़ स्वयं के बारे में यही भ्रम पालता है। फिर भी गीदड़ तो गीदड़ है। वह व्यस्त रहता है अपनी जुगत में कि कैसे अपने साथी को नीचा दिखाएँ। क्या करें कि सत्ता का प्रमुख उसका लोहा माने? कौन सी ऐसी चाल चलें कि जनता में उसकी तूती बोले? उसकी ऐसी लोकप्रिय छवि बने कि सब उसके जन-कल्याण का लोहा माने? बस उसे एक ही चिंता है। सत्ता-प्रमुख कहीं उसे अपना प्रतिद्वंद्वी न मान बैठे? इसलिए हर भाषण में वह उनकी प्रशंसा करता है और हर योजना को उनकी प्रेरणा की देन मानता है। वह भी खुश और कुरसी भी सुरक्षित।
सत्ता पर काबिज अथवा विरोध के जनसेवक कुछ भी कहें वास्तविकता यह है कि शहर के बीहड़ में पहले की तुलना में हिंसा बढ़ी ही बढ़ी है। जंगल में रहने वालों की बरदाश्त और सहनशीलता वैसे ही तिरोहित होती जा रही है, जैसे फ्यूज्ड बल्ब की रोशनी। हिंसा का आलम यह है कि भाई-भाई की हत्या पर उतारू है और दोनों मिलकर, अपने माता-पिता की। भाई-बहन का स्नेह अब केवल अतीत की स्मृति है। कोई देखे तो सोचे कि खून के रिश्ते अब जैसे लुप्त हो गए हैं, जैसे बरसात के बाद का आकाशीय इंद्रधनुष। मारपीट, गाली-गलौज, अपहरण आज वैसी ही सामान्य वारदातें हैं, जैसे पहले के कहवाघरों में बुद्धिजीवी वार्त्ताएँ। ऐसा नहीं है कि पढ़े-लिखे और सिर्फ अक्षर ज्ञानियों के व्यवहार में कोई अंतर है। कलाकार हो या साहित्यकार, सबका अकारण आक्रोश अब सातवें आसमान पर है। विचारणीय तथ्य यह है कि बहस पहले भी विवाद बनती थी और आज भी। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। पर पहले विवाद केवल मौखिक होते थे, अब उनमें हाथापाई की नौबत आती है। जैसे एक साथ बौद्धिक बहस और फ्री स्टाइल कुश्ती का दंगल हो। एक जमाना था कि सियासी दलों में सैद्धांतिक अंतर था। नेता एक-दूसरे का विरोध उसूलों के आधार पर करते। उसी की बिनाह पर जनता के पास चयन का भी अधिकार था। आजकल राजनीति भी बढ़ते क्रोध के दौर से अछूती नहीं है। कुछ की मान्यता है कि इधर जनसेवक के व्यक्तिगत संबंध जो पहले सामान्य और स्नेहमय रहते थे, अब जैसे दुश्मनी के हो गए हैं। एक-दूसरे पर व्यक्तिगत आक्षेपों से किसी को परहेज नहीं है। जैसे यह सामान्य संवाद का अंग हो। ऐसा क्यों है? यह क्यों हो रहा है, बताने की क्षमता न हमारे पास है, न इतना ज्ञान। हम एक ज्ञानी की शरण में जाते हैं। उनका आकलन है कि हिंसा मानव स्वभाव का नैसर्गिक लक्षण है। धर्म-धीरज व सहनशीलता व्यक्ति को शिक्षा और संस्कारों से मिलती है। पहले के समाज में संयुक्त परिवारों का चलन था। आज एकल परिवार हैं।
संयुक्त परिवार की कुछ विशेषताएँ हैं। घर के बुजुर्ग का सम्मान और उसके आदेश का पालन एक स्वाभाविक स्थिति है। बच्चे माता-पिता, चाचा, ताऊ, बाबा-दादी के रिश्तों को बचपन से जीते और यह संबंध उनके स्वभाव का सामान्य अंग बनते। अगर संयुक्त परिवार को संस्कारों का विश्वविद्यालय कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि एक कमाए और दस का गुुजारा हो कोई असामान्य स्थिति नहीं, बल्कि संयुक्त परिवार का सच है। न कोई इसे अजूबा मानता, न इससे अचंभित होता। परिवार के सुख-दु:ख सब साथ-साथ भोगते। रिश्तों का अर्थ एक-दूसरे पर आर्थिक निर्भरता का भार उठाना भी माना जाता। संयुक्त परिवार के अधिपति, घर के बुजुर्ग होते और वही सबकी भूमिका निर्धारित करते। बहनों का विवाह एक सामूहिक प्रयास का परिणाम था। चाचा, ताऊ, बाबा-दादी और भाई के यथार्थ से परिवार की कन्याएँ हमेशा परिचित रहती। संबंधों का सम्मान सबकी रगों के खून जैसा संचालित होता।
धीरे-धीरे संचार के सुगम साधनों, आर्थिक विवशता और व्यक्तिगत योगदान की खोज में एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा। आधुनिक परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि पति-पत्नी दोनों की कमाई से घर चलता। एकल परिवारों के बच्चों को शिक्षा का कोई अभाव न रहा, पर उन्हें संस्कार सिखाता? संयुक्त परिवारों में संस्कारों की प्रचुरता थी, एकल परिवारों में न्यूनता। माता-पिता दोनों अपने-अपने काम में व्यस्त रहते। किसके पास इतना समय था कि अपने उदाहरण से रिश्तेदारों का महत्त्व या संबंध या समाज मंे उचित आचरण का पाठ पढ़ा सकें? जाहिर है कि इससे आपसी विरोध मंे क्रोध पर अंकुश लगाने की आवश्यकता भी होे? विद्वान् का विश्वास है कि वर्तमान हिंसक प्रवृत्ति के पीछे संस्कारों के सही प्रशिक्षण की कमी है।
कुछ की धारणा है कि इक्कीसवीं सदी महत्त्वाकांक्षाओं की सदी है। सबको अपने वर्तमान से असंतोष है। उनकी इच्छापूर्ति की राह में रोड़े ही रोड़े हैं। यह सम्मिलित असंतोष आक्रोश को जन्म देता है। यही रोजमर्रा के पारस्परिक व्यवहार में झलकता है। कुछ व्यवस्था से लड़कर शहीद होते हैं, अधिकतर आपस में। इतना ही बेवजह अपने अंतर की कुंठाएँ हैं। इनकी अभिव्ययक्ति कभी खंभों को लात मारकर, कभी इनसान पर पत्थर फेंककर होती। वह खुद भी इस चिड़चिहाट से अनजान है। वह क्यों ऐसा कर रहे हैं, इस तथ्य से भी। उसका आवेश अंतर की सुप्त कुंठा की भावना है, जो अचानक और अकारण उभर आती है। वही तो क्यों ऐसा हो कि दो व्यक्तियों के व्यक्तिगत झगड़े में जो गिरा है तमाशबीन उस पर ही थप्पड़-चाँटे, लात-घूँसे बरसाए? न अधिकांश का उससे बैर है, न दुश्मनी। बस वह हिंसा होने का आनंद ले रहे हैं।
इतना ही नहीं, अपने से कमजोर के प्रति आदमी की प्रवृत्ति हमेशा अन्याय की रही है। अपहरण, बलात्कार, गैर-बराबरी का आचरण आदि इसी के साक्षी हैं। दरअसल सबके अवचेतन में अपने प्रति हुए अन्याय का निराशा-बोध है। दफ्तर के बाबू को शिकायत है कि वह काम की लादी लादे खच्चर क्यों है, जबकि उसकी टिप्पणी पर सिर्फ चिड़िया बिठाने वाला अधिकारी कैसे हो गया है? मुँह पर हर चर्चा में ‘यस सर’ का राग अलापने वाले दफ्तर के पिंजड़े मंे बंद तोते, उर्फ अधिकारी अपने अज्ञानी मंत्री से त्रस्त हर अफसर को शिकायत है, कैसे-कैसे मूर्खों से पाला पड़ता रहता है।
सच यह है कि सबके अवचेतन में असंतोष है, निर्धन से लेकर समृद्ध तक। संतोष-धन अब उपलब्ध नहीं है। बस एक अजाना आक्रोश है। यही अवचेतन का असंतोष व्यक्ति का व्यवहार निर्धारित करता है। हमें उसकी प्रतीक्षा करनी है। फिलहाल तो सभ्य समाज के इनसानों के अवचेतन का रावण सिर उठाए, चेतन के राम पर हावी है। प्रतीक्षा है कि चेतन का राम, अवचेतन के रावण को कब संतुलित, नियंत्रित करता है।
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