सुपरिचित लेखिका। अब तक आस्तिक दर्शनों में प्रतिपादित मीमांसा सिद्धांत, सत्तावन पँखुड़ियाँ, साँझ का नीला किवाड़, मौन का महाशंख, जुगनी, खुली छतरी, जीतो सबका मन, मिलकर रहना एवं अनेक कविताओं का जापानी भाषा में अनुवाद। ‘मधुबन संबोधन पुरस्कार’, ‘साहित्य-सेवी’ एवं ‘शताब्दी पुरस्कार’। संप्रति ए.एन. कॉलेज पटना में अध्यापन।
बचपन की होली याद है, उमंगों रंगों से महकती, हँसी-ठिठोली से चहकती, मौज-मस्ती में बहकती एक बेहद खास सुबह। जिसकी पिछली रात बिरह की नागिन सी बहुत लंबी होती और अकसर आँखों में ही गुजरती।
पिछली शाम के तयशुदा समय पर तयशुदा सामान मसलन बाल्टी, मग, पानी, रंग, पिचकारी, गुब्बारे वगैरह लेकर छत पर पहुँचने की असह्य आतुरता। भोर में सूरज काका भी शरारत पर उतर आते, देर तक चादर तानकर सोने का बहाना करते। हम बच्चे भोर से ही किरण फूटने की राह देखते।
उस इकलौती सुबह माँ से पहले उठ जाते। पहले से ही निकालकर रखे रंग उड़े, बखिया उधड़े या छोटे हो गए, कई बार पिछली होली वाले कपड़े पहनते। बटन टूटे हैं तो माँ सेफ्टीपिन या जल्दी से सुई-धागा ले टाँका लगा देती। पर कपड़े फटे-घिसे कतई नहीं होने चाहिए, आखिर लड़कियों के शील की बात थी...खींचतान, पटका-पटकी में कहीं कपड़े फट गए तो! तौबा-तौबा!!
चेहरे, हाथ-पैर और शरीर के खुले हिस्सों पर तेल का पोचारा होता। उस दिन छत पर पहुँचने की मारा-मारी में शॉर्टकट नाश्ता जैसे ब्रेड या पिछली रात के घी में तर तह वाले चौकोर पराँठे का रोल बनाकर चाय या लस्सी से गटकते।
माँ की रसोई में दहकती अँगीठी पर कड़ाही चढ़ी रहती। खास तौर पर गुझिया और मसालेदार बेसन के सेव बनते। होली से कुछ दिन पहले ही काँजी के बड़े और काँजी का पानी तैयार कर दिया जाता। हम काँच के मर्तबान से झाँकते इस पेय को बड़ी हसरत से देखते हुए होली का इंतजार करते। आज समझ आया कि हमारे त्योहार और संस्कृति हमारी सेहत को दुरुस्त रखने के बहाने थे। काँजी का पानी एक प्रोबायोटिक ड्रिंक है और इसमें एंटीऑक्सीडेंट्स भरपूर मात्रा में होते हैं।
एक और होली का खास ड्रिंक हुआ करता—ठंडाई। इसके बिना तो त्योहार अधूरा होता। खसखस, बादाम, पिस्ता और गुलाब की पँखुड़ियों के साथ बने इस पेय में भंग का रंग मिला देने से होली का हुड़दंग और मस्ती दुगनी हो जाती। पर हम बच्चों को बिना भाँग की ठंडाई से ही संतोष करना पड़ता।
बाद में जाना कि इस नशीले पेय का संबंध सीधे भगवान् शिवशंकर से है। कहते हैं, भाँग और धतूरे के सेवन से भगवान् शिव हलाहल विष के प्रभाव से मुक्त हुए थे। आयुर्वेद में भाँग का उपयोग औषधि के रूप में किया गया है। अथर्ववेद में भाँग का पौधा पृथ्वी के पाँच सबसे पवित्र पौधों में गिना गया है।
होली के अवसर पर लोग गरिष्ठ भोजन कर लेते हैं। ऐसे में पाचक औषधि के रूप में भाँग का सेवन फायदेमंद होता है। संभवत: यही इस परंपरा का व्यावहारिक कारण रहा होगा।
बहरहाल ठंडाई पीकर आस्तीन से मुँह पोंछते हम होली खेलने निकल जाते। दूसरी छतों की होली देखने और गली में ढोल बजाते नाचते-गाते मतवालों की टोली को छत या छज्जों से उचक-उचककर ताकते करीब तीन घंटे कैसे बीत जाते, इल्म ही न रहता।
काले, पीले, रंगों से पुते चेहरे पहचान में न आते। वैसे ही भूत बने झुंड-के-झुंड एक-दूसरे के घर के द्वार पर जाते। हर घर में द्वार पर ही शिवजी की बारात सरीखी भूतिया टोली के लिए थाली भर-भर गुझिया, सेव परोसी जाती। जात-पाँत, लिंग-भेद से परे बच्चों की हथेलियाँ पल भर में सारी थाली साफ कर देती।
अपने घर की गुझिया खाने की पेट में जरा भरी गुंजाइश न रहती। घर लौटकर गरम पानी से यथासंभव रंग छुड़ाते पर अगले आठ-दस दिन कइयों के चेहरे, गरदन, हाथ-पैर होली की मस्तियों की चुगली करते। दोपहर बाद थकी-पस्त देह जो खटिया पर गिरती तो साँझ ढले तक होश न रहता।
पर जब बचपन छूटा, स्कूल की सीढ़ियाँ कॉलेज की दहलीज पर जा पहुँचीं तो होली के मायने बदलने लगे। उन्मुक्तता को उच्छृंखलता में बदलते देखा और निश्चिंतता को भयभीत होते देखा। उसके बाद तो बरसों तक होली बिगड़ैल शोहदों का हुड़दंगी त्योहार बनकर रह गया। दो हफ्ते पहले से ही कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक सड़कों पर रंगों की पिचकारी और गुब्बारों से लैस लड़कों की निरंकुश आवारगी शुरू हो जाती...आक्रमण के लिए शिकार की तलाश। दूसरी ओर दुपट्टे से चेहरा छिपाए, सिमटी और डरी हुई लड़कियाँ आखेट के भय से भागती हिरनी की तरह स्कूल-कॉलेज से लौटते हुए जल्द-से-जल्द अपने घर की ड्योढ़ी तक पहुँचने को व्याकुल। पैदल जाती लड़कियों के सीने या पीठ पर, कूल्हे या गाल पर कोड़े की तरह सटाक से गुब्बारे का वार होता और गुब्बारे में भरा रंगीन पानी उनके कपड़ों के साथ-साथ उनके स्वाभिमान को भी छिन्न-भिन्न कर देता। या रिक्शे पर जाते हुए कोई उद्दंड रंग मलने के बहाने गालों को छूने की हिमाकत करता। बुजुर्गों का कहना—भई, होली में घर से न निकलो वरना यह तो होगा ही।
यह त्योहार लड़कियों को छूने, उनका अंगमर्दन करने, जीजा-साली या देवर-भाभी के रिश्ते की आड़ में अश्लीलता और अवांछित छेड़छाड़ की छूट नहीं देता। इसका मकसद रूठों को मनाना, बैर को मिटाना और मर्यादित चुहल द्वारा जीवन में आनंद के रंग भरना है। होली के लोकगीतों में उमंग और सौहार्द के साथ मीठी छेड़छाड़ का पुट होता है। आज यह सब लुप्त हो रहा है।
आज लड़कियों के लिए असुरक्षा के माहौल में हम अपने लाड़ले बेटों को लड़कियों की इज्जत करना सिखाएँ, बिना इजाजत वे किसी को रंग न लगाएँ, उन्हें आतंकित न करें। लड़कियों की आँखों में मुसकान और जीवन में सुरक्षा का रंग भरना उनका फर्ज होना चाहिए, फिर वह लड़की बहन हो, दोस्त हो, सहपाठी या सहकर्मी।
यद्यपि आज महानगरों में यह हुड़दंग कम हुआ है, पर उसका कारण लड़कों का संस्कारवान होना नहीं, लड़कियों का वीरांगना अवतार है, जिनके पर्स में मिर्ची, स्प्रे रहता है और हाथ में मोबाइल।
होली के दिन यदि हर लड़का प्रण करे कि वह समाज में लड़कियों की सुरक्षा में सेंध लगाने वालों का साथ नहीं देगा तो फिर आकाश में पंख पसारने वाली लड़कियाँ जमीन पर अपनी रक्षा खुद ही कर लेंगी।
जब तक आधी आबादी का जीवन आजादी और बेफिक्री से महरूम है, संसार के लाल, गुलाबी, नीले, पीले सारे रंग फीके और बेनूर हैं और फागुन बेगुन।
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