ढोलक की मधुर थाप, स्त्रियों का समूह और कानों में माधुर्य घोलते इस समूह के कर्णप्रिय मधुर गीत। बहुत पुराने समय से लोक की संवेदनाओं को प्रखरता से उभारते ये गीत भले ही छंद की कसौटी पर खरे न उतरते हों, लेकिन आज भी वैवाहिक कार्य हों या पुत्र-पुत्री प्राप्ति पर होने वाले रीति-रिवाज, इन गीतों के बिना कार्यक्रम की मधुरता खोई सी रहती है। अपनी परंपराओं के वाहक अपनी संस्कृति की मिठास को सहेजते ये गीत लोकरंजन एवं लोकमंगल के महत्त्वपूर्ण उपादान हैं। लोकगीत का इतिहास संभवतया उतना ही पुराना है जितना कि मानव। लोकसंगीत लोकसाहित्य की तरह भारत के विभिन्न राज्यों में है और यह वहाँ की शैली के अनुसार ही दिखता है। उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जिले में अद्वितीय संगीत परंपराएँ हैं। यहाँ के लोकगीत सामूहिक जीवन और सामूहिक श्रम को और अधिक आनंदमय बना देते हैं। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होते रहते हैं। इन लोकगीतों में अमराई की खुशबू भी है। चूल्हे पर पकते सोंधे पकवानों की मिठास भी है, हरे-भरे खेत भी हैं, कुएँ, बाबड़ी, पनघट भी हैं। सास-बहू की मीठी नोक-झोंक भी है। ननद-भाभी के खट्टे-मीठे संबंध भी हैं। परदेसी पिया के विरह भी इनमें गुँथे हैं तो सावन के झूलों की पींग भी इनमें रची-बसी है।
उत्तर प्रदेश के लोकगीत हर मूड और हर अवसर के लिए हैं। पारंपरिक लोकसंगीत को कई तरीकों से परिभाषित किया गया है। इनकी तुलना व्यावसायिक और शास्त्रीय शैलियों से की गई है। उत्तर प्रदेश को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ‘पुबैया आंग’ का गढ़ माना जाता है। भोजपुरी क्षेत्र के लोकगीतों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय आमतौर पर भिखारी ठाकुर को जाता है।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख लोकगीत
१. सोहर : यह उत्तर प्रदेश का सबसे प्रसिद्ध लोकगीत है। किसी के घर सोहर के गीत से ही पता चल जाता है, इस घर में नव जीवन ने आँखें खोली हैं। यह जीवन का स्वागत करता है और नई शुरुआत का जश्न मनाता है। यह आंतरिक रूप से पारिवारिक जीवन से जुड़ा हुआ है। यह गीत क्षेत्रों में प्रचलित धार्मिक संस्कृति से संबंधित है।
दैया रे दैया मुन्ने को नजर लागी/ मैं डिबिया काजल की लेकर भागी
जच्चा मेरी सीधी-सादी, लड़ना न जाने रे/दो कनस्तर घी के खा गई/ चार कनस्तर लड्डू/जच्चा मेरी खाना न जाने रे!
२. कहरवा : इस गायन शैली की उत्पत्ति ही उत्तर प्रदेश में हुई है। यह जाति आधारित लोकगीत है, जिसे कहार जाति द्वारा विवाह के समय गाया जाता है। कहरवा ताल कव्वाली और धुमाली जैसी विविधताओं वाली ताल है, इसे आठ ताल के साथ दो भागों में विभाजित किया गया है। यह कहार या पालकी ढोने वाले की चाल से प्रेरित एक ताल है। कई फिल्मी गाने भी इस ताल पर आधारित हैं। प्रसिद्ध गीत ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो’ इसी ताल पर है।
३. चनयनी : यह उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में प्रसिद्ध लोकनृत्य संगीत है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष क्षण का जश्न मनाने के लिए किया जाता है। ग्रामीण जीवन के कुछ लोकगीत के उद्धरण—
सास मेरी दुबली हो गई बहुओं के आने से/सास तुमने क्या तो खाया जेठा के होने में/हमरो गुलाबी दुपट्टा हमें तो लग जाएगी नजरिया रे।
कोठे ऊपर कोठरी मैं उस पर रेल चला दूँगी/जो मेरी ननदी प्यार करेगी सोने से तुलवा दूँगी/जो मेरी ननदी रार करेगी जल्दी ब्याह रचा दूँगी।
४. नौका झक्कड़ : यह नाई समुदाय के प्रमुख लोकगीत हैं और नाई के गीत माने जाते हैं। इन गीतों के माध्यम से नाई समुदाय को अलग पहचान मिलती है।
५. बंजारा और नजावा : उत्तर प्रदेश के लोकगीतों में इसे काफी ऊपर स्थान दिया गया है। संगीत की इस विधा को तेली समुदाय के लोग रात के समय गाते हैं और खूब मस्ती करते हुए इसे प्रस्तुत किया जाता है।
६. कजली या कजरी : सावन के महीने में जब चारों ओर हरियाली छा जाती है, गाँवों में झूले पड़ जाते हैं और इस खास मौके पर सुनाई देने लगती है कजरी लोकगीत की धुन। सावन के महीने में जब बेटियाँ अपने मायके आती हैं, अपनी सखियों के साथ झूला झूलती हैं, तब इसे गाती हैं।
सावन के गीत काफी पुराने समय से प्रचलित हैं, अमीर खुसरो की मशहूर रचना है—‘अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया’। इस रचना में एक बेटी अपने अम्मा से सावन के महीने में मायके बुलाने की बात कह रही है। वहीं भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की भी एक रचना है—‘झूल किन डारो रे अमरैया’।
ऐसा नहीं है कि लोकगीत की यह विधा एक क्षेत्र तक सिमटकर रह गई हो, बहुत सारे प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक भी कजरी गाते हैं। लोकगायिका और संगीत गुरु कामिनी मिश्रा बताती हैं, ‘कजरी को गाने में एक अलग ही माहौल बन जाता है, जब चारों तरफ हरियाली दिखाई देती है। कजरी में शृंगार और वियोग दोनों तरह के रस पाए जाते हैं।’
वे आगे कहती हैं, ‘ननद-भाभी की नोक-झोंक के साथ कृष्ण की लीला भी इसमें गाई जाती है। ननद-भाभी पर एक ऐसी ही कजरी है—‘कैसे खेलय जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरे आए ननदी’, इसमें एक भाभी अपनी ननद से कह रही है कि इतने बादल घिरे हैं, कैसे सावन में कजरी खेलने जाओगी।
एक बेटी अपनी माँ से पूछ रही है। मुझे ससुराल लेने कौन जाएगा—
झूला तो पड़ गया अंबुआ की डाल पे जी
ऐजी कोई हरो ही हंबे कोई हरो ही है भैया को रूमाल
हरियल-हरियल अम्मा मेरी चूनरी जी
को रंगवावे बेटी मेरी चूनरी जी
एजी कोई कौन गढ़वावे गलहार
कौन मिलवाए संग की सहेलियाँ जी
बाबुल गढ़वावे अम्मा मेरी चूनरी जी
ऐजी कोई अम्मा गढ़वावे गलहार
भैया तो मिलवाए संग की सहेलियाँ जी
कब रंगवावो अम्मा मेरी चूनरी जी
ऐजी कोई कब गढ़वावो गलहार
कब मिल जाएँ मुझ संग की सहेलियाँ जी
सावन रंगवाऊँ बेटी तेरी चूनरी जी
ऐजी कोई ब्याह पे गढ़वाऊँ गलहार
झूला पे मिल जाएँ संग की सहेलियाँ जी।
७. कीर्तन : वैदिक कीर्तन परंपरा के अनुसार होता है। कीर्तन के समय वाद्य यंत्र के साथ कई गायक पौराणिक कथा का पाठ या वर्णन करते हैं। ये देवी-देवताओं के प्रति भक्ति और अध्यात्म का पाठ भी करते हैं।
८. रागिनी या ढोला : यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र का लोकगीत है। यह रूहेलखंड क्षेत्र का प्रमुख लोकगीत है।
९. बिरहा : बिरहा को विशेष रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकसंगीत शैलियों में लोकप्रिय माना जाता है। बिरहा उन महिलाओं की मनोदशा को दरशाता है, जिनके पति आजीविका की तलाश में परदेस जाते हैं। इन गीतों में विरह का वर्णन बड़ी मार्मिकता से किया है। पति कमाने के लिए परदेस गया है, अब झूला किसके साथ झूलूँ। तुम परदेस चले जाओगे तो मैं किसके सहारे रहूँगी और समझाकर कहती है, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगी।
पीहर मैं न जाऊँगी जी राजाजी/
भाई-भौजियों का राज जी.../तुम्हारे साथ जाऊँगी राजाजी/तुम तो हो मेरे भरतारजी...।
१०. चैती : चैती विशेष रूप से हिंदू कलेंडर के चैत्र माह के दौरान गाया जाता है। इसके विषय प्रेम, प्रकृति और होली रहते हैं। चैत्र श्रीराम के जन्म का मास भी है, इसलिए इस गीत की हर पंक्ति के बाद रामा शब्द लगाते हैं। चैती, ठुमरी, दादरा, कजरी आदि का गढ़ उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से वाराणसी है। बारह मास में चैत का महीना गीत-संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है।
चढ़े चैत चित लगे न रामा। बाबा के भवनवा/बीर बमनवा/सगुन विचारो/कब होये पिया से मिलना हो रामा।
११. जरेवा और सदावजरा सारंगा : संगीत का यह रूप लोक-पत्थरों के लिए गाया जाता है।
गजल और ठुमरी (अर्धशास्त्रीय संगीत का एक रूप, जो कभी शाही दरबार तक ही सीमित था) अवध क्षेत्र में काफी लोकप्रिय रहे हैं। आज के समय में गजल राजसी दरबारों की सीमाओं से निकल चुकी है। यह गायन की एक मधुर शैली है और उत्तर प्रदेश में काफी प्रसिद्ध है।
१२. कव्वाली : सूफी कविता का एक रूप, जो भजनों से विकसित हुई काफी लोकप्रिय रही है। इसे आमतौर पर दो या अधिक लोग एक साथ गाते हैं।
इसके अलावा ब्रज क्षेत्र के प्रमुख लोकगीत झूला, होरी, फाग, लंगुरिया और रसिया, बुंदेलखंड के प्रमुख लोकगीत हरदौल, पंवारा, ईसुरी फाग, आल्हा, पूर्वांचल के प्रमुख लोकगीत कजरी, झूमर आदि हैं।
लोकगीतों की बात हो और राधा-कृष्ण की मीठी मधुर नोक-झोंक न हो, कैसे संभव है? इन लोकगीतों में ब्रज की मिट्टी की सोंधी महक आती है। मस्तिष्क पटल पर कृष्ण की लीलाओं का वर्णन कौंध जाता है।
ब्रज के इस लोकगीत में कृष्ण मनिहार का वेश बनाकर आते हैं, लेकिन राधाजी भला कान्हा को कैसे न पहचानती? खड़ी बोली की मिठास से परिपूर्ण इन लोकगीतों का प्रवाह देखते ही बनता है।
मनिहारे का वेश बनाया/श्याम चूड़ी बेचने आया/छलिया का वेश बनाया/श्याम चूड़ी बेचने आया
एक दूसरा लोकगीत—
चूड़ी लाल नहीं पहनूँ चूड़ी हरी नहीं पहनूँ/ मुझे श्याम रंग है भाया
ब्रज की गोपियाँ श्याम के मथुरा जाने पर
ऐसे कपटी श्याम विकट वन छोड़ चले ऊधो
सुंदर वन छोड़ चले ऊधो
जो मैं होती सीप का मोती
श्याम करत शृंगार मुकुट विच रहती रे ऊधो!
जो मैं होती वैजंती माला
श्याम करत शृंगार हृदय विच रहती रे ऊधो!
जो मैं होती जल की मछरिया
श्याम करत स्नान चरण रज लेती रे ऊधो!
जो मैं होती बाँस मुरलिया
श्याम बजाते मोहे अधर विच रहती रे ऊधो!
जो मैं होती पंख मोर का
श्याम पहनते मोय, मुकुट विच रहती रे ऊधो!
जो मैं होती गाय बछड़िया
श्याम चराते मोहे, साथ में रहती रे ऊधो!
लोक का तात्पर्य उस वर्ग से है, जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है। ‘गीत’ शब्द का अर्थ प्रायः उस कृति से है, जो गेय हो। लोकगीत में संगीत एवं लय इसका प्राण है, इसी कारण लोकगीत को स्वत:स्फूर्त संगीत कहा गया है। ये गीत सरल, स्वच्छंद एवं मधुर इसलिए होते हैं कि इनका निर्माण लोकमानव द्वारा शांत स्वच्छंद वातावरण में प्रकृति के सान्निध्य में स्वाभाविकता के साथ होता है।
सावन की ऋतु आते ही हरियाली तीज के अवसर पर रिवाज के अनुसार नई विवाहित स्त्रियाँ मायके आती हैं। तीज पर हर लड़की और स्त्री एक अलग ही उल्लास में होती है। झूले की पींगें बढ़ाते हुए मधुर सम्मिलित स्वरों में गाए गए ये झूला गीत बरबस ही मन को मोह लेते हैं। इन गीतों में लोक-व्यवहार का पूरा चित्र खिंच जाता है। इन गीतों में अकसर चुहल और वाक्पटुता का तीखा मिश्रण होता है।
लोकगीत के रचियता अज्ञात ही हैं, लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इनकी रचना किसी ने की ही नहीं या इनकी उत्पत्ति किसी देवयोग से हुई है।
लोकगीत मौलिक परंपरा में जीवित रहते हैं। लोककवि साधारण एवं जनसमूह का प्रतिनिधि होता है। गीत का सृजन करते समय वह लेखनी से अधिक अपने कंठ तथा जिह्वा का उपयुक्त प्रयोग करता है। यह गीत लुप्त होती परंपराओं और दृश्यों को जीवित रखते हैं। आज की पीढ़ी के लिए पनघट और बंटा टोकणी नितांत अपरिचित से शब्द हैं। पहले पानी के लिए कुएँ पर ही जाते थे। गगरी में रस्सी बाँध कुएँ में लटकाई जाती थी, फिर गगरी भरने पर रस्सी से उसे ऊपर खींच लेते थे। उसी काम को हँसी-खुशी करने को स्त्रियाँ लोकगीत रचकर गाते-बजाते मनोरंजन कर लेती थीं। पनघट दूर होते थे। नई बहू अकेले कैसे जाए, इसीलिए सास ननद को साथ भेज देती थी। इसी दृश्य को इस लोकगीत में कितनी अच्छी तरह दरशाया है। कौन कहेगा यह गाँव की अनपढ़ स्त्रियों के लिखे गीत हैं। ऐसे सरस, मधुर गीत लिखने वाली यह छंद शास्त्र को जानती भी नहीं।
सासुल पनिया कैसे जाऊँ रसीले दोऊ नैना/बहू ओढ़ो चटक चुनरिया/ और सिर पर धरो गगरिया/छोटी ननदी ले लेयो साथ, रसीले दोई नैना।
मेरे सिर पर बंंटा टोकरी और हाथ में बंटा डोर/मैं नन्ही सी कामिनी
वैवाहिक मांगलिक कार्यक्रम के शुरू होते ही विवाह गीत, फेरे गीत, हल्दी गीत आदि-आदि कानों में गूँजने लगते हैं। ढोलक की मधुर थाप और गाने वाले गीतों से सहज ही समझ आ जाता है कि इस घर में विवाह के मांगलिक कार्यक्रम हो रहे हैं। बन्ना-बन्नी के गीतों से घर ही नहीं, पूरा मोहल्ला गुंजायमान रहता है।
१. लगुन आई हरे हरे, लगुन आई मेरे अँगना
अम्मा सज गईं, बाबा सज गए, सज गए सारे बाराती
बन्ना मेरा ऐसे सज गया जैसे श्री रघुनाथ
२. बन्ना बुलाए, वन्नी न आए आजा मेरी वरनी री, अटरिया सूनी पड़ी
कैसे मैं आऊँ पापाजी खड़े हैं, पायल मेरी बजनी री, अटरिया सूनी पड़ी
लंबा घूँघट काढ़ कर, पायल उतार कर आजा मेरी वरनी री
विदाई गीत की मार्मिकता पड़ोसियों की आँखों से आँसू की अविरल धारा बहा देती है। ऐसे हैं हमारी संस्कृति के द्योतक लोकगीत।
लोकगीतों का कई दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। हमारी इन अमूल्य निधियों को आधुनिकता नाश करने पर लगी है। विवाह कार्यों में बजते पश्चिमी संगीत और फिल्मी गानों ने हमारी नवपीढ़ी को भ्रमित किया है। जब चक्की, चूल्हे ही नहीं रहेंगे और हमारी नवपीढ़ी खेत-खलिहान, बाग, पनघट जानेगी ही नहीं तो गाएगी क्या और क्या हमारी संस्कृति को समझेगी? लोकगीत हमारी लोकसंस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। इसलिए लोकगीतों की इस संक्रमण कालीन अवस्था में ही हमें इनकी रक्षा में सतत प्रयत्नशील होना चाहिए।
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