सुपरिचित लेखक। एम.ए., पीएच.डी., आचार्य; सी.ए.आई.आई.बी.। कन्नड़ डिप्लोमा; पूर्व सहायक महाप्रबंधक (केनरा बैंक)। लेखक, फैकल्टी, अनुवादक एवं यात्री।
प्राचीन भारतीय दार्शनिक एवं विद्वान् आचार्य चाणक्य ने लिखा है—“जिस देश के लोग अपने इतिहास को नहीं जानते और उस पर गर्व नहीं करते, उस देश का अस्तित्व धीरे-धीरे मिट जाता है। भारतीय लोगों को अपने इतिहास के बारे में अधिक जानना चाहिए। ”
दक्षिण भारत में ईसा पूर्व से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक राष्ट्रकूट, पल्लव, पांड्य, चेर, नायक, चोल और विजयनगर आदि जैसे महान् साम्राज्यों का शासन रहा। अपने शासन काल के दौरान इन राजवंशों ने अपने क्षेत्रों के विकास, समृद्धि तथा आम जन के कल्याण पर बहुत अधिक ध्यान दिया तथा अपनी राजधानियों में और स्व-शासित क्षेत्रों में विशाल मंदिरों का निर्माण भी कराया। ‘धान का कटोरा’ के रूप में विख्यात तमिलनाडु की उपजाऊ भूमि और राजराजा चोल की राजधानी तंजौर में स्थित बृहदेश्वर मंदिर भारतवर्ष के उत्कृष्ट मंदिरों में से एक है। यह मंदिर भगवान् शिव का मंदिर है, जिसकी स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में चोल वंश के महान् शासक एवं शिवभक्त राजराजा ने की थी। इस मंदिर को बृहदेश्वर मंदिर के साथ-साथ राजराजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। सन् २०१० में तमिलनाडु सरकार ने इस मंदिर के निर्माण के एक हजार वर्ष पूरे होने पर एक भव्य समारोह का आयोजन किया था। चोल महाराज राजराजेश्वर (राजराजा) के समय में तंजौर नगर अपनी समृद्धि और कला-कौशल की उत्कृष्टता की दृष्टि से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नगरों में से एक था।
मेरे तथा मेरी पत्नी और बेटी के मन में बृहदेश्वर मंदिर को देखने की अभिलाषा बहुत वर्षों से थी और यह इच्छा तब से और बलवती हो गई, जब से यह जानकारी हुई कि इस मंदिर का गुंबद अस्सी टन ग्रेनाइट पत्थर का है। सच ही कहा है, ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ और अंततोगत्वा वह दिन आ ही गया, जिस दिन मैंने परिवार सहित बृहदेश्वर मंदिर जाने का कार्यक्रम बनाया। बेंगलुरु से तंजौर तक जाने के लिए कई ट्रेनें हैं, जो दस-बारह घंटे का समय लेती हैं। सड़क मार्ग से दूरी लगभग चार सौ कि.मी. है, परंतु हमने भाड़े की टैक्सी से तंजौर के बजाय तिरुचिरापल्ली संक्षिप्त नाम त्रीची जाने का निर्णय लिया, जो बेंगलुरु से लगभग साढ़े तीन सौ कि.मी. है और वहाँ से तंजौर तक की दूरी मात्र पचपन कि.मी. है। तिरुचिरापल्ली तमिलनाडु का एक बड़ा शहर है, जिसमें काफी बड़े-बड़े मंदिर हैं, इसलिए इसे ‘छोटी काशी’ भी कहा जाता है। १४ जून, २०२४ को मैंने सपरिवार रात के नौ बजे टैक्सी से अपनी यात्रा प्रारंभ की और सुबह के साढ़े तीन बजे हम त्रीची के होटल ब्लॉसम पहुँच गए। बेंगलुरु से त्रीची तक सड़क बढ़िया है और मार्ग में कई होटल भी हैं, जहाँ पर भोजन आदि की अच्छी व्यवस्था है। होटल ब्लॉसम त्रीची के बढ़िया होटलों में से एक है, यह एक फोर स्टार प्रॉपर्टी है। इस होटल में ड्राइवरों के ठहरने की भी समुचित व्यवस्था है। हमें इस बात की जानकारी थी कि बृहदेश्वर मंदिर सुबह के छह से दोपहर के बारह बजे तक खुला रहता है, फिर शाम को चार बजे से रात के आठ बजे तक खुला रहता है। अत: दूसरे दिन हम होटल में नाश्ता आदि करके सुबह के ग्यारह बजे निकले और बारह बजे तक तंजौर पहुँच गए। हमने तंजौर स्थित मराठा पैलेस, सरस्वती महल लाइब्रेरी आदि को देखा। दोपहर में यहाँ के सुप्रसिद्ध होटल आर्य भवन प्योर वेज रेस्टोरेंट में भोजन किया। इस रेस्टोरेंट की थाली बड़ी प्रसिद्ध है, जिसमें भाँति-भाँति के सुस्वादु तमिल व्यंजन होते हैं। यह रेस्टोरेंट सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है तथा किसी पुराने हवेलीनुमा मकान को ही रेस्टोरेंट का रूप दे दिया गया है, जिससे इसकी रौनक काफी बढ़ गई है। इस रेस्टोरेंट से बृहदेश्वर मंदिर की दूरी लगभग छह कि.मी. है। मंदिर के लिए रास्ते में चलते हुए हमें दूर से ही एक जगह से मंदिर का गुंबद दिखाई दिया, हमने शिखर दर्शन कर लिये। हम लोग सायं चार बजे बृहदेश्वर मंदिर पहुँच गए। सड़क के एक तरफ बहुत बड़ा पार्किंग स्पेस है, वहाँ पर कार पार्किंग करके सड़क की दूसरी तरफ स्थित मंदिर के पहले गोपुरम के पास आ गए। गोपुरम से पहले ही दाएँ तरफ ऊँची चहारदीवारी दिखी और उसके आगे राजराजा चोल द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में बनवाई गई खाई दिखाई पड़ रही थी। दूसरे गोपुरम में प्रवेश करते ही दाईं ओर जूता स्टैंड था, वहाँ पर जूता आदि निकालकर नंगे पाव मंदिर जाने के लिए आ गए। बाएँ तरफ भारतीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा लगाया हुआ सूचना-पट्ट है, साथ ही यह सूचना भी है कि यह मंदिर यूनेस्को द्वारा संरक्षित इमारत है। इस सूचना-पट्ट में इस बात का उल्लेख है कि सन् १००३ से १०१० ई. की अवधि में इस मंदिर का निर्माण चोल वंश के महाप्रतापी राजा राजराजेश्वर (राजराजा) ने कराया। इस मंदिर की ऊँचाई २१६ फीट है तथा इसमें लगभग पचास हजार घन मीटर ग्रेनाइट की चिनाई हुई है और आश्चर्य है कि इन पत्थरों को जोड़ने में मिट्टी, सीमेंट आदि जैसे किसी पदार्थ का प्रयोग नहीं हुआ है। इन पत्थरों को इंटरलॉकिंग पद्धति से जोड़ा गया है, जो उस समय की उन्नत इंजीनियरिंग एवं उत्तम वास्तुकला का अन्यतम उदाहरण है। तंजौर के पास कोई पहाड़ी क्षेत्र न होने के कारण ये ग्रेनाइट के पत्थर तंजौर से लगभग साठ कि.मी. दूर तिरुचिरापल्ली (त्रीची) के मम्मालई नामक जगह से खोदकर हाथियों, कैदियों, नौकरों, सेवकों आदि के द्वारा ढोकर लाए गए थे। इस मंदिर में प्रवेश नि:शुल्क है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि इतना बड़ा मंदिर होने के बावजूद इसके शिखर की परछाईं जमीन पर नहीं पड़ती।
मंदिर की भव्यता और इससे जुड़े अन्य ऐतिहासिक तथ्यों को विस्तार से जानने की दृष्टि से हमने भारतीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रमाणित एक गाइड ले लिया। अगले प्रवेश द्वार से बाहर निकलने के बाद एक विशाल प्रांगण मिलता है। सामने मंदिर की विशाल संरचना दिखाई पड़ती है और नंदीजी के दर्शन होते हैं, नंदी का मुँह शिव लिंग की तरफ है। प्रांगण में घुसने के बाद बाएँ तरफ राहु देवता का मंदिर दिखाई पड़ा। राहु देव की मूर्ति का बढ़िया दर्शन दूरबीन से किया जा सकता है। दूरबीन न होने कारण हमने आँखों को ही बायनाकुलर आकृति में बनाकर दर्शन किया। सामने मंदिर है और बाएँ तरफ वाराही अम्मा का मंदिर है। वाराही अम्मा के इस मंदिर की बड़ी मान्यता है, पहले इनका दर्शन करने के बाद ही भगवान् शिव का दर्शन करते हैं। यह भगवान् विष्णु के द्वादश अवतारों में से एक वाराह अवतार की शक्तियों से युक्त हैं। वाराही माँ की अद्भुत मूर्ति चोलकाल की उत्कृष्ट मूर्तिकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। गर्भगृह के दर्शन के लिए हमारे गाइड ने वी.आई.पी. व्यवस्था की थी, जिससे हमें दूसरे मार्ग से सीधे गर्भगृह तक जाने का अवसर प्राप्त हो गया। इस विशेष मार्ग से बीस-पच्चीस सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाना होता है। दो सीढ़ियों के बीच काफी अंतराल है, जो इस बात का द्योतक है कि जिन लोगों को ध्यान में रखते हुए ये सीढ़ियाँ बनाई गई होंगी, उनकी लंबाई कम-से-कम छह फीट या उससे अधिक ही रही होगी। इन सीढ़ियों के रास्ते हम गर्भगृह से पहले वाले प्रांगण में पहुँचे और वहाँ से थोड़ा आगे बढ़कर गर्भगृह वाले स्थान में पहुँचे। यह गर्भगृह प्रकोष्ठ अत्यंत भव्य है तथा अठारह फीट ऊँचा शिवलिंग है। वी.आई.पी. दर्शनार्थी होने के कारण पुजारीजी ने बहुत विधि-विधान से भगवान् शिवजी का पूजन-अर्चन करवाया, प्रसाद भी दिया और मस्तक पर भस्म भी लगाया। शिवलिंग नर्मदाजी से निकला है, जो पत्थर का एक ही टुकड़ा है, जिसका वजन २० टन है और ऊँचाई के मामले में यह भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग है। इस शिवलिंग की स्थापना के बारे में बताया जाता है कि इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना पहले हुई और मंदिर का निर्माण कार्य बाद में पूर्ण हुआ, जबकि सामान्यतया मंदिर निर्माण के बाद ही मूर्ति की स्थापना की जाती है। इसकी एक और विशेषता यह है कि पिछले हजार वर्षों से अविच्छिन्न एवं निर्वाध रूप से शिवलिंग की पूजा-अर्चना हो रही है। हमें प्राप्त जानकारी के अनुसार सन् १००६ तक मंदिर के भवन के निर्माण का कार्य लगभग पूर्ण हो गया था, अत: चोल महाराजा राजराजा ने स्वयं शिवलिंग पर स्वर्ण पुष्प अर्पित किए थे। मंदिर के अंतिम चरण का कार्य पूर्ण हो जाने पर राजराजा ने सन् १०१० में विमान (शिखर) के ऊपर कलश स्थापित किया। गर्भगृह के बाहर की दीवारों पर भरत नाट्यम के शास्त्रीय संगीत की बहुत सारी मुद्राओं को उत्कीर्ण किया गया है। भगवान् शिवजी का दर्शन करके सीढ़ियों से नीचे उतर गए। आगे चलने पर दाहिनी तरफ ऊँचाई पर ही स्थित दक्षिणामूर्तिजी की मूर्ति का दर्शन किया। दक्षिणामूर्तिजी को दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध देवता के रूप में मान्यता प्राप्त है। आगे चलते हुए गणेशजी की सुंदर मूर्ति मिली, उसका दर्शन करने के बाद थोड़ा आगे बढ़ने पर एक प्रसन्न मुखमुद्रा में विराजमान ऋषितुल्य मूर्ति के दर्शन किए। कहा जाता है कि यह मूर्ति राजराजा महाराज के गुरुजी की है। इसके आगे बढ़ने पर कार्तिकेयजी की मूर्ति है और वहीं पर महिष पर खड़ी दुर्गा माता की भी मूर्ति है। वहाँ से आगे चलने पर भगवान् शिवजी की तरफ निहारती नंदी की विशाल प्रतिमा का दर्शन किया। नंदीजी की मूर्ति भव्य होने के साथ-साथ आकृति में भी काफी विशाल है। दक्षिण भारत में नंदी की चार विशाल मूर्तियाँ हैं, एक लेपाक्षी, जो आंध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में है, दूसरा बेंगलुरु के बुल टेंपल में स्थित नंदी, तीसरा मैसूर में चामुंडेश्वरी हिल्स पर स्थित नंदी और चौथा यहाँ का विशाल नंदी है। इस नंदी की ऊँचाई के बारे में बताया जाता है कि इसकी ऊँचाई हाथी पर सवार व्यक्ति की हाथी सहित जो ऊँचाई होगी, उससे भी अधिक है। आगे बढ़ने पर पार्वती माता की दिव्य मूर्ति के दर्शन किए। देवी माँ की आँखों का सौंदर्य और उसकी चमक ठीक वैसी ही है, जैसी कि मदुरै स्थित मीनाक्षी देवी की है। इस संबंध में गाइड ने बताया कि पांड्य राजाओं द्वारा निर्मित मीनाक्षी मंदिर के समय जो धातु शिल्प कौशल विकसित हुआ था, उसका योगदान इस मूर्ति के निर्माण में भी है। इस संबंध में और जानकारी यह मिली कि इस मंदिर के सौंदर्यीकरण तथा सुधार आदि में समय-समय पर चोल राजाओं के अतिरिक्त पांड्य और विजयनगर साम्राज्य का भी योगदान रहा है, जो दीवारों पर लगे पत्थरों के प्रकार एवं चिनाई की भिन्नताओं के आधार पर मालूम पड़ता है। गाइड ने एक-दो जगह दीवारों पर लगे पत्थरों एवं चिनाई के ढंग को दिखाकर इस वैभिन्न्य से अवगत भी कराया। अंत में भगवान् शिव की नृत्य मुद्रा में स्थापित नटराज की कांस्य प्रतिमा के दर्शन किए। यह मूर्ति चोल साम्राज्य के कुशल शिल्पियों दारा कांस्य धातु पर की जाने वाली अद्भुत शिल्पकला का अप्रतिम नमूना है। इस मूर्ति के बाएँ हाथ में आग है और एक दाएँ हाथ अभय मुद्रा में है। यह विशिष्ट नृत्य मुद्रा ब्रह्मांड में निरंतर होते रहने वाले परिवर्तनों को भी अभिव्यक्त करती है। इस मूर्ति की ऊँचाई मनुष्य की उस ऊँचाई जितनी ही है, जितनी कि उस समय के शिल्पकार कांस्य की मूर्तियों के निर्माण के समय किया करते थे।
मंदिर में दर्शन के पश्चात् एक बार परिक्रमा करने की दृष्टि से जब पुन: दीवारों को देखने लगे तो उनपर विस्तार से तमिल भाषा में खुदवाए गए सुविस्तृत संदेशों को देखकर हम हतप्रभ रह गए। पता नहीं, ये अक्षर ग्रेनाइट के इन पत्थरों पर किस कुशलता से खुदवाए गए हैं कि आज हजार वर्ष से धूप और पानी की मार सहते हुए भी पठनीय स्थिति में हैं। हमारे गाइड ने बताया कि ये तमिल भाषा की पुरानी लिपि ‘ग्रंथम’ में लिखे हुए हैं। चोल नरेश महाराज राजराजा पहले ऐसे शासक हुए हैं, जिन्होंने कविता के स्थान पर आम जनता में प्रचलित भाषा में अपने राज्य की आर्थिक स्थिति, प्रशासनिक ढाँचे, विभिन्न युद्धों में प्राप्त विजयों, प्रशस्तियों, व्यापारिक गतिविधियों, तत्कालीन सामाजिक ताने-बाने, प्रशासनिक स्वरूप आदि तमाम बातों का उल्लेख इनमें किया है। चोल सम्राट् राजराजा ब्राह्मणों, गायकों, शिल्पकारों, मूर्तिकारों, मिस्त्रियों, कलाकारों आदि को नियमित रूप से जो दान, अनुदान, उपहार आदि दिया करते थे, उनका भी विस्तार से उल्लेख किया गया है। प्रदक्षिणा पथ के बगल में चारों तरफ बरामदानुमा गलियारा है, जिनके बारे में बताया जाता है कि वे यात्रियों के ठहरने के लिए बनाए गए थे, पर मुझे लगता है कि इनका और भी कई तरह से उपयोग होता होगा, जैसे—विद्यार्थियों के अध्ययन-अध्यापन के लिए, विचार-विमर्श के लिए भी इसका उपयोग किया जाता रहा होगा। गर्भगृह के बगल वाले खंड की दीवारों पर गुंबद से लेकर नीचे तक तमाम तरह के पौराणिक दृश्यों को अत्यंत खूबसूरती के साथ उत्कीर्ण किया गया है। इनमें ब्रह्माजी के एक सिर को काटने का दृश्य, असुरों एवं शिवजी के गणों का युद्ध, दुर्गा देवी द्वारा असुर वध, राजसी विवाह समारोहों से जुड़े कई प्रसंगों के चित्र हैं तथा एक आकृति चीनी नागरिकों की भी है, जो बताती है कि चोल सम्राट् राजराजा के चीन के साथ भी व्यापारिक संबंध थे। ये सभी चित्र उत्कृष्ट शिल्प कला के नमूने एवं मनमोहक हैं।
लगभग ढाई घंटे तक मंदिर देखने के बाद भी लगता था कि और देखना चाहिए, पर अब रात हो गई थी। रात में बिजली की रोशनी में जगमगाते मंदिर की छटा देखते ही बनती थी। मंदिर के गुंबद से थोड़ा नीचे शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी, मयूर, सिंह सहित शिवजी के पूरे परिवार का चित्र उत्कीर्ण किया गया है। गाइड ने बताया कि इसे ‘कैलाश शिखर’ कहा जाता है। आज से हजार साल पहले तंजौर से कैलाश पर्वत की यात्रा करना अत्यंत दुर्गम था, संभवत: इसे ही ध्यान में रखते हुए परम शिवभक्त चोल सम्राट् राजराजा ने कैलाश शिखर का निर्माण करवाया होगा, ताकि बृहदेश्वर मंदिर का दर्शन करने हेतु आने वाले श्रद्धालु यहीं पर कैलाश शिखर का दर्शन करके स्वयं को कैलाश दर्शन का पुण्यभागी मान लें।
यह मंदिर परम प्रतापी चोल शासक राजराजा द्वारा अत्यंत सावधानीपूर्वक बनाई गई योजना, विपुल संसाधनों का एकत्रीकरण, पूर्ण प्रशिक्षित वास्तुशिल्पियों एवं सुदक्ष मिस्त्रियों की अद्भुत कुशलता एवं उत्कृष्ट कारीगरी का जीवंत प्रतीक है। इस मंदिर में विराजमान शिवलिंग का दिव्य दर्शन और पुन: दर्शन की कामना लिये हमने मंदिर से तिरुचिरापल्ली के लिए प्रस्थान किया और रास्ते में एक रेस्टोरेंट में रात्रि का भोजन करके अपने होटल आ गए।
दिल्ली से तंजौर तक जाने के लिए चेन्नई सबसे सुविधाजनक एयरपोर्ट है, वैसे तिरुचिरापल्ली में भी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। कोयंबटूर और सेलम से भी तंजौर नजदीक है। दिल्ली से तंजौर तक सीधे जाने वाली कुछ ट्रेनें भी हैं, जो लगभग बीस घंटे का समय लेती हैं। तंजौर में बृहदेश्वर मंदिर के अलावा सरस्वती महल लाइब्रेरी, धारासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर, तंजावुर पैलेस, स्वार्ट्ज चर्च, पेरुवुडियार कोविल आदि कई दर्शनीय स्थान हैं। यदि कोई तिरुचिरापल्ली (त्रीची) ठहरना चाहता है तो वहाँ वह तंजौर देखने के साथ-साथ वहाँ के सुप्रसिद्ध एवं भव्य मंदिरों तथा रमणीय स्थलों, जैसे रंगनाथ स्वामी मंदिर, जंबुकेश्वर मंदिर, रॉक फोर्ट टेंपल, पचामलाई हिल्स ईरुंबेश्वरा टेंपल, कल्लानई डैम, रेलवे म्यूजियम आदि देख सकता है। तंजौर में महँगे एवं बजट वाले कई होटल हैं। तिरुचिरापल्ली एक बड़ा शहर है, अत: यहाँ पर हर तरह के होटल उपलब्ध हैं।
मैं समझता हूँ कि अपनी समृद्ध विरासत एवं संस्कृति को जानने- समझने तथा उसमें निष्ठा रखने वाले हर भारतीय को इस मंदिर का दर्शन जीवन में कम-से-कम एक बार अवश्य करना चाहिए। जिस कुशलता से इस मंदिर की दीवारों, प्रकोष्ठों, अंतर्भित्तियों आदि पर विभिन्न पौराणिक आख्यानों, भरत नाट्यम की विशिष्ट भंगिमाओं, सैन्य यात्राओं, वैवाहिक समारोहों इत्यादि की सजीव मूर्तियों को उत्कीर्ण किया गया है, वे हमारे देश की समृद्धि, उच्च तकनीक का ज्ञान तथा शिल्प/धातु शिल्प कौशल आदि में महारत का परिचायक होने के साथ-साथ वर्तमान पीढ़ी और भविष्य की पीढ़ियों के लिए ललक, उत्साह और प्रेरणा का स्रोत भी है।
फ्लैट नं. ए ५१०, ए ब्लॉक,
नंदी वुड्स अपार्टमेंट,
येल्लनहल्ली ऑफ बीजी रोड,
बेंगलुरु-५६००७६
दूरभाष : ९६११००३५२४