कुंभ—वैचारिक लोकतंत्र का शाश्वत पर्व

कुंभ—वैचारिक लोकतंत्र का शाश्वत पर्व

पूर्व आई.ए.एस. अधिकारी। परास्नातक भौतिक शास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। संप्रति कार्यकारी अध्यक्ष, भारतीय शिक्षा बोर्ड। (भारत सरकार द्वारा गठित एवं पतंजलि योगपीठ द्वारा संचालित नेशनल स्कूल एजुकेशन बोर्ड)।

कुंभ मेला भारत की संस्कृति का शाश्वत पर्व है। जहाँ इसका धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक महत्त्व है, वहीं इसकी प्रमुख विशिष्टता ‘वैचारिक मंथन’ की प्रक्रिया को उर्वरा अवसर एवं आधार प्रदान करना है। हम विश्व की सभी संस्कृतियों के उद्भव, विकास एवं अवनति की यात्रा का सूक्ष्म एवं विहंगम विश्लेषण करें तो प्रामाणिक निष्कर्ष यह है कि एकमात्र भारतीय संस्कृति ही है, जिसकी निरंतरता एवं शाश्वतता सतत प्रवहमान है। भारतीय संस्कृति के पश्चात् या उसके आसपास की विकसित अन्य संस्कृतियाँ अपने मूल स्वरूप के साथ कहीं भी विद्यमान नहीं हैं। मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबीलोन की संस्कृतियाँ मात्र पुरातात्त्विक अवशेषों एवं खँडहरों में ही तलाशी जा सकती हैं। यूनान/रोम की संस्कृतियाँ भी अपना मूल अस्तित्व खो चुकी हैं। अवेस्ता एवं जरथ्रुष्ट से प्रेरित फारस की प्राचीन संस्कृति भी नवीं शताब्दी में पूर्णतः समाप्त हो चुकी है। परंतु भारत की संस्कृति प्राचीनतम होते हुए वर्तमान में भी अपने मूल स्वरूप को विचारों, परंपराओं एवं गतिविधियों में पूर्णतः अभिव्यक्त करती है।
हम इस शाश्वतता के कारक तत्त्वों पर यदि गहन विचार करें तो कुछ ऐसी विशेषताएँ हमारी संस्कृति में हैं, जो अत्यंत विशिष्ट हैं। पहला कारण है—हमारी संस्कृति में परिवर्तन के समायोजन की क्षमता का होना। हजारों वर्षों से अनेक ऐतिहासिक पड़ावों से गुजरने की प्रक्रिया में विविध झंझावातों से जूझते हुए भी भारतीय संस्कृति की सनातनता अक्षुण्ण रही है। यद्यपि युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप इसके कलेवर में यथोचित परिवर्तन तो हुए हैं, तथापि इसकी ‘नाभि’ कभी विस्थापित नहीं हुई। सांस्कृतिक प्लवनशीलता वैचारिक प्रवाह में एक स्वीकार्य तत्त्व रहा, परंतु मूलभूत मूल्यों को संरक्षित रखते हुए हमारी संस्कृति ने नूतन विचारों के उन्मेष, उद्भव एवं प्रसार का सदैव अभिनंदन किया तथा अपने मूल सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण के साथ-साथ युगीन दक्षता के अनुरूप नए ज्ञान-सृजन का स्वागत भी किया, जो कि इतिहास के लंबे कालखंड में मानव मस्तिष्क की वैचारिक यात्राओं के विकास की सामूहिक अभिव्यक्ति रही है। हमारी संस्कृति किसी एक पुस्तक, एक व्यक्ति, एक पंथ पर केंद्रित नहीं रही, बल्कि सामूहिक प्रज्ञा के गर्भ से ऊर्जान्वित एवं संपोषित होती रही है। हमारी संस्कृति जो व्यक्तिगत एवं सामाजिक परंपराओं एवं गतिविधियों के माध्यम से प्रतिफलित एवं प्रतिध्वनित होती रही है, ने बाह्य‍‍ विचारों के लिए भी अपने गवाक्ष सदैव खुले रखे हैं। हमारी संस्कृति ने कभी भी इन विचारों का अनादर नहीं किया, बल्कि उनके श्रेष्ठ तत्त्वों को समावेशित करते हुए उनकी आँधियों से स्वयं की संरक्षा भी की है, इसीलिए इसका मूल अस्तित्व सतत प्रवहमान है।
दूसरा एक प्रमुख कारण इसकी विविधताओं में एकत्व की सशक्त अवधारणा है। किसी भी संस्कृति का उद्भव किसी दर्शन के प्रभाव से होता है। किसी भी दर्शन के मूलतः तीन पक्ष होते हैं—तात्त्विक पक्ष, नैतिक पक्ष एवं क्रियात्मक गतिविधि पक्ष। यदि हम भारत की समस्त दार्शनिक परंपराओं के प्रवाह को देखें और उसकी मीमांसा करें तो उसके क्रियात्मक अभिव्यक्त स्वरूप में परिवर्तन दिखाई दे सकते हैं, परंतु तात्त्विक एवं नैतिक पक्ष पर पूर्ण एकात्मकता परिलक्षित होती है, क्योंकि हमारी संस्कृति की जड़ एक है और विविध विचारधाराएँ उसकी शाखाओं, टहनियों, पत्तियों एवं पुष्पों की तरह हैं। 
स्पष्टतः हमारी संस्कृति का विकास पूर्णतः उद्भवकारी प्रक्रिया रही है। युगानुरूप उसमें कतिपय परिवर्तन हुए हैं, पर वह मूल अवधारणा के निषेध के रूप में नहीं, बल्कि अगले पड़ाव के रूप में हुए हैं। उदाहरण के लिए, वैदिक विचार एवं धर्म हमारा सांस्कृतिक संविधान है, परंतु उस युग को भी हम उद्भव की दृष्टि से वर्गीकृत करें तो प्रमुखतः चार चरण परिलक्षित होते हैं—संहिता, ब्राह्म‍‍ण ग्रंथ, आरण्यक एवं उपनिषद्। संहिता भाग प्रकृति की समस्त शक्तियों में देवत्व का आरोपण करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता भाव से आराधना पक्ष को प्रमुखता से व्यक्त करता है, तो ब्राह्म‍‍ण ग्रंथ यज्ञ के कर्मकांडीय पक्ष को विस्तार देता है। वहीं आरण्यक गूढ़ दार्शनिक रुझान तथा ‘स्व’ एवं विराट् प्रकृति के पारस्परिक संबंधों की ओर झुकाव से आप्लावित है तो उपनिषद् प्रमुखता से ब्रह्म‍-विद्या एवं आत्म-विद्या पर केंद्रित है। संहिता भाग एवं ब्राह्म‍‍ण ग्रंथों में खगोल विज्ञान एवं मानव-प्रकृति के मध्य संश्लिष्ट संबंधों की व्याख्या पर्याप्त मात्रा में परिलक्षित होती है। साथ ही व्यक्तिगत, सामाजिक एवं पर्यावरणीय जीवन के अनेक पक्षों को बहुत ही प्रभावी ढंग से उल्लेखित किया गया है, परंतु आरण्यकों और उपनिषदों में बाह्य‍‍ परिवेश एवं अभ्यंतर के मध्य अंतर्संबंधों की दार्शनिक यात्रा बहुत ही विश्लेषणपरक ढंग से मिलती है। वेदांग और षड्दर्शन वैदिक मूल्यों की मीमांसा, अर्थान्विति एवं दार्शनिक व्याख्या के रूप में विकसित हुए हैं।
बौद्ध दर्शन एवं जैन दर्शन भी वैदिक मूल्यों के विरोध में नहीं, बल्कि रूढ़िवादिता के कारण उत्पन्न सामाजिक विकृतियों के परिष्करण की दिशा में अग्रिम यात्रा है। पाश्चात्य विद्वानों ने त्रुटिपूर्ण एवं पक्षपात युक्त व्याख्याएँ करके यह स्थापित करने की कोशिश की है कि बौद्ध एवं जैन दर्शन वैदिक धारणाओं के प्रबल विरोध पर आधारित हैं। यद्यपि इनमें कर्मकांडीय जटिलताओं का विरोध हो सकता है, तथापि बुद्ध का अष्टांग-सम्यक् संकल्प, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि वेदों में गर्भित मानवीय आचरण के नैतिक मूल्यों से कहाँ भिन्न दिखता है? ठीक वैसे ही जैन दर्शन का पंच महाव्रत भी उपनिषदों की प्रकृति के सभी घटकों से एकात्मकता एवं अभेद की दृष्टि से कहाँ भिन्न है? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्म‍चर्य एवं अपरिग्रह के मूल्य-बोध क्या उपनिषदों की मूल धारणा के अनुरूप नहीं हैं? क्या ये मूल्य पतंजलि के योगदर्शन के ‘यम’ से पूर्णतः अनुरूपता नहीं रखते हैं? क्या बौद्ध एवं जैन दर्शन के नैतिक मूल्य समूची भगवद्गीता या उसके सोलहवें अध्याय के दैवीसंपद से भी समानता नहीं रखते? ऐसे बहुत सारे तथ्य हैं, जो इन दर्शनों की गहराई में उतरने पर स्वतः ही स्पष्ट हो जाएँगे कि हमारे सांस्कृतिक सावयव के ढाँचे में युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव तो हुए हैं, परंतु उसकी ‘सांस्कृतिक आत्मा’ अपरिवर्तनीय रही है। वैष्णव, शैव, शाक्त, लिंगायत, संगम काल या मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन के सभी संतों की वाणी में भी हमारी आदि संस्कृति के निरंतर प्रवहमान मूल्यों की गूँज सुनाई पड़ती है। हमारी संस्कृति की शाश्वतता का एक प्रमुख कारण है—इसकी प्रबल संश्लेषण एवं समावेशिता की प्रवृत्ति। समावेशिता की दृष्टि से यदि हम अपनी संस्कृति को देखें तो हमारी दार्शनिक अवधारणा अभेद पर आधारित है। मात्र मनुष्यों के मध्य ही अभेद नहीं है, बल्कि प्रकृति के सभी घटकों में पशु-पक्षी, पर्वतों-नदियों, ग्रह-नक्षत्रों, सभी खगोलीय पिंडों के साथ भी अभेद की दृष्टि है। यह अभेद ही सभी प्रमुख शाखाओं में तात्त्विक रूप में गुँथा हुआ है—
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥ (ईशावास्योपनिषद्-६/७)
तीसरा मुख्य कारण है—सांस्कृतिक व्यापकता। किसी भी संस्कृति का मूल आधार है—उसका ‘विचार’। संस्कृति की निरंतरता तभी संभव है, जब उसके पोषक विचारों में मानव जीवन की सभी जिज्ञासाओं, आवश्यकताओं एवं चुनौतियों के समाधान का सामर्थ्य हो। हमारी संस्कृति जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी प्रश्नों का समर्थ समाधान प्रस्तुत करती है तथा इसमें युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप दक्षता-संवर्धन के लिए पाथेय प्रस्तुत करने की भी अद्भुत शक्ति है।
अब मूल जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इतनी संपोषकीय प्रवृत्तियाँ भारतीय सांस्कृतिक यात्रा में आईं कैसे? इसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारी संस्कृति में ज्ञान, कर्म एवं आस्था को समानुपातिक महत्त्व दिया गया है और वह भी एक-दूसरे के विरोधी स्वरूप में नहीं, बल्कि एक-दूसरे के ‘पूरक’ रूप में। इस पूरकता को स्थापित करने का माध्यम रहा है—निरंतर तर्क एवं विमर्श की प्रक्रिया। पाश्चात्य दर्शन में यह प्रक्रिया जन्म ले पाती है—सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तू से, जो कि ईसा के लगभग ४०० वर्ष पूर्व है, जबकी भारतीय संस्कृति में उससे सैकड़ों वर्ष पूर्व इसकी सुदृढ़ परंपरा रही है। हमारी संस्कृति ने कभी व्यक्तिमूलक या ग्रंथमूलक एेकांतिक विचारों को महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि समावेशी संश्लेषित सामूहिक प्रज्ञा को ही वैचारिक प्राण के रूप में स्वीकार किया है। हमारे वेद, उपनिषद् किसी एक ऋषि के विचार नहीं, बल्कि अनेक ऋषि-ऋषिकाओं की दिव्य अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों की समग्रता है। 
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥ 
(ऋग्वेद-१०/१९१/३)
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥ 
(ऋग्वेद-१०/१९१/४)
यह संभव इसलिए हो पाया कि हमारी संस्कृति ने निरंतर तर्क एवं विचार-विमर्शों को प्रामाणिक संचार का माध्यम माना है। तर्क एवं विमर्श से ही विविध वैचारिक प्रवाहों के मध्य एक सर्वस्वीकार्य युगीन दृष्टि उत्पन्न होती है। तर्क एवं विमर्श से ही वैचारिक गतिशीलता बनी रही है, जिससे वह जड़त्व एवं रूढ़िवादिता का शिकार न होकर उपनिषदों में जिज्ञासा एवं विमर्श का माध्यम रही है। महर्षि गौतम का ‘न्याय शास्त्र’ बहुत ही विस्तार से तर्क की विभिन्न विधाओं पर विस्तृत पाथेय प्रदान करता है। महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन ने सुव्यवस्थित रूप से ब्राह्म‍ण ग्रंथ एवं उसके घटकों के उद्भव एवं अस्तित्व पर विज्ञानसम्मत पद्धति विकसित की है तथा बौद्ध दर्शन के माध्यम से इस पर पारस्परिक परिचर्चा होने के ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
कुंभ का महापर्व प्राचीन काल से इसी तर्क एवं विमर्श की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण माध्यम रहा है। यह इसी अवधारणा पर है कि यहाँ भिन्न-भिन्न पगडंडियों एवं मार्गों से आने वाले सभी विचारों का स्वागत है और विमर्श के माध्यम से हम युगानुरूप प्रामाणिक ज्ञान-कौशल के कुंभ को परिपूरित करें। कुंभ का पौराणिक आख्यान भी समुद्र मंथन से निकले अमृत-तत्त्व से जुड़ा है। वह भी इसी तथ्य की ओर दृढ़ता से संकेत करता है कि ‘मंथन’ ही एकमात्र जीवन-दर्शन का पाथेय है।
भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि हमारी समस्त परंपराओं, दिन-प्रति-दिन की गतिविधियों एवं त्योहारों का खगोलीय पिंडों से निकट संबंध है। हम मात्र मानव समुदाय तक ही समस्त चिंतन को सीमित नहीं करते, बल्कि पृथ्वी के अन्य सभी घटकों के साथ आत्यंतिक संबंध रखते हैं। इससे भी आगे समूचे सौरमंडल, अंतरिक्ष, आकाशगंगा, नक्षत्रों एवं नीहारिकाओं के साथ हमारा ऐसा रिश्ता है, जो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। हमारे सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सभी खगोलीय अस्तित्वों की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। नदियों, पर्वतों एवं वृक्षों में भी दैवीय शक्तियों की अनुभूति करना हमारी सांस्कृतिक प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण अंश है। कुंभ के सभी पर्व भी विशिष्ट खगोलीय स्थिति के अनुसार नियत होते हैं। इस पर्व के समय एवं तिथियाँ सूर्य और बृहस्पति के कुछ विशेष राशियों में होने पर ही निर्धारित होते हैं।
कुंभ पर्व का आयोजन हमारे धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं पर्यावरणीय जीवन से गहन रिश्ता रखता है, जो इसके कतिपय आयामों पर भी चर्चा करते हैं।
आज पारिस्थितिकीय संतुलन, जलवायु परिवर्तन तथा संपोषकीय विकास पूरे विश्व के विमर्श का केंद्र बना हुआ है। पाश्चात्य दर्शन मूलतः इस अवधारणा पर अधिक केंद्रित रहा है कि प्रकृति मानव समुदाय की दासी है। इसलिए मानव प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की पूर्ण स्वतंत्रता रखता है। परिणामतः सोलहवीं शताब्दी से उद्भूत नव-विज्ञान एवं तकनीकि के कारण प्रकृति का अनियंत्रित दोहन हुआ, जिससे समूचे पर्यावरण एवं पारिस्थितिकीय संपोषकीयता पर ही गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। पूरा वैश्विक समुदाय पृथ्वी ग्रह एवं उसके समस्त जीव-जंतुओं अथवा जंगलों के ही अस्तित्व के पूर्णतः विनष्ट होने की आशंका से भयभीत है। सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में यूरोप के पुनर्जागरण काल के दौरान प्राकृतिक धर्म की आवाज जरूर उठी, परंतु उसका कोई विशेष प्रभाव प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर नहीं पड़ा। जबकि भारतीय संस्कृति जो प्रारंभ से ही प्रकृतिधर्मा रही है, ने प्रकृति की हमेशा ‘माँ’ के रूप में आराधना की है। स्वयं को प्रकृति का स्वामी नहीं, बल्कि उसके वृहद् सावयव का एक अंग समझने की धारणा हमारे जीवन-दर्शन का अंग रही है। ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ का भाव हमारा मार्गदर्शक सिद्धांत रहा है, अर्थात् कृतज्ञ भाव से प्रकृति से उतना ही ग्रहण करो, जितना कि अपनी जिजीविषा के लिए न्यूनतम आवश्यक है। हमें प्रकृति पर स्वामित्व का बोध बिल्कुल नहीं होना चाहिए। यह भारतीय संस्कृति के समस्त त्योहारों, परंपराओं और जीवन-पद्धति में प्रभावी रूप से प्रतिबिंबित होता है। कुंभ भी प्रकृति के प्रति इसी भाव को पूर्णतः अभिव्यक्त करता है। नदियों के संगम स्थल पर भारतवासी कई दिनों तक साधनारत होकर निवास करते हैं, जो प्रकृति के साथ प्रेम, सहअस्तित्व एवं पारस्परिकता का सशक्त प्रमाण है।
‘कुंभ’ पर्व भारतीय संस्कृति की समावेशी धारणा का भी प्रतिनिधित्व करता है। सभी सामाजिक समुदायों के लोग अत्यंत सौहार्द के साथ इस पर्व के संगमस्थल में निवास करते हैं। यह भारत की अभेद संस्कृति का पर्व है, जिसके सामूहिक आचरण में एकत्व की अवधारणा की पुष्टि होती है, जो भारत के सांस्कृतिक एकीकरण का सनातन उपादान है।  
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सं जानाना उपासते॥ 
(ऋग्वेद-१०/१९१/२)
कुंभ आध्यात्मिक साधना का भी महान् केंद्र है। भारत की संस्कृति एवं दर्शन पर आरोप कुछ आलोचक लगाते हैं कि इसमें व्यक्तिगत साधना एवं वैयक्तिक मोक्ष की अवधारणा है। परंतु कुंभ के आयोजन का पूरा प्रारूप एवं स्वरूप हमारे दर्शन की आध्यात्मिक साधना एवं उत्कर्ष के लिए सामूहिक पुरुषार्थ का ज्वलंत प्रमाण है। यहाँ पर प्रकृति के साहचर्य में स्वयं के अस्तित्व को तलाशने की आध्यात्मिक साधना सामूहिक रूप से की जाती है।
यदि हम कुंभ के ऐतिहासिक पक्ष को देखें तो यह इतना सनातन पर्व है कि इसके प्रारंभ की तिथि का सम्यक् निर्धारण संभव नहीं है। इसकी अवधारणा का स्रोत पौराणिक आख्यानों में मिलता है, जो समुद्र-मंथन से निकले अमृत के साथ संबंध स्थापित करता है। यहाँ भी मुझे लगता है कि परस्पर विरोधी धारणाओं के लोगों के मध्य भी मंथन ही विभिन्न वैचारिक समृद्धि के अमृत एवं विष को प्रत्यक्ष करता है। अमृत-तत्त्व पाना ही सभी मानव-प्रजाति का सबसे अधिक प्रभावी लक्ष्य है। आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में परस्पर विरोधी विचारों के मध्य हो रहे युद्ध की समाप्ति का मार्ग भी परस्पर वैचारिक मंथन से ही निकलेगा। कुंभ का यह पर्व पूरे विश्व को संदेश देता है कि वास्तविक रूप से सुख-शांति तभी संभव है, जब वैचारिक लोकतंत्र स्थापित हो और उससे निकले सामूहिक प्रज्ञा रूपी अमृत-तत्त्व से ही वैश्विक चुनौतियों का समाधान संभव है।


भारतीय शिक्षा बोर्ड, 
पतंजलि योगपीठ 
हरिद्वार-२४९४०५ (उत्तराखंड)
दूरभाष : ९८९७५९५४०९

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