जाने-माने कवि-लेखक। अब तक ‘छुई-मुई सी सुबह’, ‘वफा के फूल मुसकराते हैं’, ‘भोर का तारा न जाने कब उगेगा’, ‘दरबान ऊँघते खड़े रहे’, ‘सुरीले रंग’, ‘सूख रहा पौधा सुराज का’, ‘भटकटैया के फूल’, ‘जाना है समय के पार’ (आठ गीत-संग्रह), ‘कौवा पुराण’ (कुंडली-संग्रह), पत्रिकाओं में गीत, कविता, कहानी, व्यंग्य प्रकाशित। अनेक सम्मान प्राप्त। संप्रति भारतीय स्टेट बैंक में प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हो लेखन में रत।
अपने अवतरण काल से ही वंचितजी नगर के साहित्यकारों में ऐसे छाए, जैसे विकास के दौर में आबोहवा में धूल। दोनों शहर की तसवीर और तकदीर बदलने हेतु कृत-संकल्प तथा पूरी तरह समर्पित। वैसे इनके माता-पिता ने इनका नाम गोरख प्रसाद रखा था, जो इनके द्वारा रखे गए उपनाम ‘वंचित’ के प्रभा मंडल के मुकाबले आभाहीन हो चला था। समाज ने दो नाम रखने और खुलेआम सबको जाहिर करने की सुविधा सिर्फ दुर्दांत अपराधियों और साहित्यकारों को ही दे रखी है। बाकी लोग इस सुविधा से महरूम हैं। वंचितजी इसके अच्छे उदाहरण थे। एक बार वंचितजी ने बताया कि उनकी पीढ़ियों के साथ जो व्यवहार हुआ है, वह उन्हें पीड़ित, शोषित, वंचित, व्यथित, कुंठित आदि नाम ही रखने की इजाजत देता है। उन्होंने अपना पूरा नाम बताया, डॉक्टर गोरख प्रसाद ‘वंचित’। मैंने पूछा, आपने डॉक्टरेट कहाँ से किया है? उन्होंने मुझे घूरकर देखा और बोले—समाज में तरह-तरह के डॉक्टर घूम रहे हैं। पहले उनसे पूछकर आइए कि उन्होंने कहाँ-कहाँ से किया है। आखिर यह सवाल वंचित से ही क्यों? इससे आपकी सामंतवादी मानसिकता का पता चलता है। इससे आगे मैंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी।
वंचितजी कविताएँ लिखते थे, जो अधिकतर प्रबुद्ध जनों के लिए ही रची जाती थीं और आम आदमी के सिर के ऊपर से गुजर जाया करती थीं। उनके उच्च श्रेणी के कवि होने में कोई संदेह नहीं था। कई लोग तो न समझने के बावजूद समझ जाने का दम भरते थे, जिससे उनके समझदार होने पर प्रश्न-चिह्न न खड़ा किया जा सके। वंचितजी की धारणा थी कि वे अपनी इन रचनाओं के माध्यम से उस समाज से बदला ले रहे हैं, जिसने उन्हें बहुत सताया है। बड़े-बड़े समालोचक भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि ये बदला लेने में पूरी तरह सफल हैं। अब जब बड़े-बड़े समालोचक कह रहे हों तो किसकी मजाल है, जो उन्हें दोयम समझे।
वंचितजी ने एक बार बताया कि उनके पिताजी की अपनी बिरादरी में काफी अच्छी पकड़ थी। वह रैलियों में भीड़ जुटाने का काम करते थे। उन्हें भीड़ जुटाने में महारत हासिल थी। कार्यक्रम चाहे किसी भी पार्टी का हो, उनकी पूछ बनी रहती थी। इससे प्रभाव के साथ-साथ अच्छी-खासी आमदनी भी हो जाया करती थी। पहले लोग घूमने और खाने के नाम पर ही इकट्ठे हो जाया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल गया। लोग होशियार हो गए और एक दिन की मजूरी की माँग करने लगे। कुछ नौजवानों के इस पेशे में कूद पड़ने से प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ गई थी। लिहाजा वंचितजी ने इस कौशल को शहर में आजमाने की ठानी। दो-चार कवि-गोष्ठियों में जबरदस्ती घुसे, कुछ कविताएँ सुनाईं। पोस्टर, बैनर लगवाने में मदद की तो संचालकों को लगा कि आदमी काम का है। उन्हें क्या पता था कि यह भविष्य का प्रतिस्पर्धी तैयार हो रहा है।
कुछ दिन बाद वंचितजी ने अपनी संस्था बनाई और उसके बैनर तले पहली कवि-गोष्ठी का ऐलान किया। अध्यक्ष के रूप में उन्होंने एक भभकते हुए दीये जैसे साहित्यकार का चयन किया, जो बस बुझने के कगार पर था। गोष्ठी शहर के बीचोबीच एक नामचीन पार्क में दोपहर दो बजे से आयोजित की गई थी। इस गोष्ठी में मंच, माइक, रोशनी, कुरसी आदि का कोई झंझट नहीं था। प्रकृति के सुरम्य वातावरण में मखमली हरी घास पर गोष्ठी प्रारंभ हुई। इसमें वे कवि बहुत प्रसन्न थे, जिनकी आवाज बुलंद थी। वे शृंगार रस की कविता पढ़ने वालों को हिकारत की निगाह से देख रहे थे। परंतु कुछ कवि, जो शृंगार रस की रचनाओं को भी वीररस की भाँति पढ़ते थे, इससे अविचलित थे। गोष्ठी की पहली कविता चार बजे सायं शुरू हुई। जो कवि पहले पढ़ लेता था, कुछ देर बाद, दूसरी गोष्ठी में भी आमंत्रित होने की बात कहकर खिसक लेता था। जैसे वह अगर दूसरी गोष्ठी में शामिल नहीं हुआ तो अनर्थ हो जाएगा और उसकी साहित्यिक निष्ठा पर कलंक लग जाएगा। शाम ढलते ही मच्छरों का प्रकोप शुरू हो गया। रोशनी हेतु पार्क की व्यवस्था ही पर्याप्त निकली। हाँ, एक बात जरूर थी कि बल्ब बार-बार जल-बुझ रहा था। लँगड़ाती हुई रोशनी और मच्छरों से मुकाबला चलते रहने के बावजूद कवि-गोष्ठी अध्यक्ष के कविता-पाठ होने तक निरंतर कायम रही। यह बात और है कि बाद में आयोजक, अध्यक्ष और दो-चार वे लोग ही बच गए थे, जो गोष्ठी के नियम पालन हेतु प्रतिबद्ध थे। अंत में चाय आई और धन्यवाद ज्ञापित किया गया।
कुछ ऐसे रिपोर्टरों के माध्यम से—जो भैंस भाग गई, पतंग कट गई, मच्छरों ने काट लिया आदि समाचार भेजकर अखबार को समृद्ध बनाया करते थे, वंचितजी ने इस साहित्यिक क्रांति की घटना को समाचार-पत्रों में प्रमुखता से छपवाया। अगले दिन अपना-अपना नाम पढ़कर कविगण भी धन्य हो गए। इन नामों में कई प्रसिद्ध कवियों का नाम कार्यक्रम में शामिल न होने के बावजूद छप गया था। हाँ, एक बात खास थी कि जो लोग अंत तक रुके थे, उनमें से आयोजक को छोड़कर शेष सारे नाम नदारद थे। दूसरी बार वंचितजी ने विशाल सम्मान समारोह आयोजित किया। इसमें उन्होंने गुजरते हुए, उभरते हुए, निखरते हुए, बिखरते हुए तमाम कवि-कवयित्रियों को आमंत्रित किया। इसमें बहुतेरे रचनाकारों ने सम्मान पाने हेतु अच्छी-खासी राशि भी देना सहर्ष स्वीकार कर लिया।
आयोजन के दिन सम्मान-पत्र बाँटे गए तथा लोगों को चुकाई गई राशि के सापेक्ष ‘साहित्याधिराज’ से लेकर ‘साहित्य किंकर’ तक की उपाधियों से नवाजा गया। इसमें कुछ ऐसे लोग भी लाभान्वित हुए, जिन्होंने भविष्य में राशि चुकाने का आश्वासन दिया तथा कुछ ऐसे लोगों को भी करना पड़ा, जो दमड़ी न देने के बावजूद हर समारोह की शोभा हुआ करते थे।
कई बार सम्मान-समारोहों के सफल आयोजन के बाद वंचितजी का नाम सुर्खियों में आ चुका है। अब वे प्रदेश स्तर पर भी सम्मान वितरण प्रक्रिया में प्रभावी भूमिका निभाने लगे हैं। बहुतों को उन्होंने कृतार्थ करके प्रथम पंक्ति का साहित्यकार बना दिया है। इधर उनके चरण छूने वालों की संख्या में बड़ी तेजी से इजाफा हुआ है। उन्होंने रचनाकारों का अपना एक दल बना लिया है, जिन्हें कुछ जलने वाले लोग गिरोह कहते हैं। इस दल या गिरोह में कुछ सदस्य स्थायी हैं तथा शेष समय-समय पर मौका देखकर जुड़ते या अलग होते रहते हैं।
वंचितजी जन्मदिन और कवि-सम्मेलन, शादी की सालगिरह और कवि-सम्मेलन, मुंडन और कवि-सम्मेलन, घरभोज और कवि-सम्मेलन आदि कार्यक्रम आयोजित कराते रहते हैं। इसमें वंचितजी वित्तपोषक को सदा यह बता देते हैं कि भूलकर भी कविता-पाठ मुख्य कार्यक्रम के पहले न कराएँ। अन्यथा कवियों के भाग जाने की स्थिति में उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
एक बार एक सेठ के पिता की मृत्यु हो गई। उनके अच्छे व्यवहार के कारण शंका थी कि शायद कोई कार्यक्रम में आने का कष्ट ही न करे। फौरन वंचितजी से संपर्क किया गया। वंचितजी ने ऊपरी तौर पर व्यस्तता का बहाना किया। लेकिन पान, फूल कि मात्रा बढ़ने पर अहसान लादते हुए तैयार हो गए। ‘श्राद्ध और कवि-सम्मेलन’ का आयोजन हुआ। श्राद्ध के दिन बताया गया कि मरने वाला बड़ा साहित्यिक प्राणी था। जीते-जी कविता न सुन पाने का मलाल उसे आखिरी दम तक था। लिहाजा उसकी अंतिम इच्छा को ध्यान में रखते हुए, उसकी आत्मा की शांति हेतु यह आयोजन रखा गया है। हालाँकि सेठ के मुनीम ने बताया कि चूँकि सेठ के लड़के ने मरने से पहले अपने पिता के साथ बहुत खराब व्यवहार किया था। इसलिए उनकी आत्मा के द्वारा बदला लेने की बात से बहुत डरा हुआ था। सेठजी पूरी जिंदगी कविता सुनने से डरते रहे और कवियों से बहुत घबराते थे। लिहाजा अपने किसी शुभचिंतक की सलाह पर उसने यह कार्यक्रम रखा था। आत्मा मंत्रों से भले न भागे, लेकिन ऐसा विश्वास था कि कवियों के आगमन और कविता-पाठ से जरूर भाग जाएगी। हाँ, उसने वंचितजी से यह ताकीद कर दिया था कि कविता-पाठ में कोई कवयित्री न आए, वरना आत्मा अपना इरादा बदल सकती थी।
वंचितजी ने इस विधा को स्टार्टअप कौशल के रूप में पंजीकृत कराने हेतु आवेदन भेज दिया है। सुना है, सरकार इस पर गंभीरता से विचार भी कर रही है।
इधर उनकी देखा-देखी छोटे-छोटे कई सार्थक प्रयास भी चल रहे हैं। नगर का यह कालखंड इस साहित्यिक क्रांति का गवाह बना हुआ है।
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