दो कहानी-संग्रह, दो कविता-संग्रह तथा राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी जयपुर तथा हिंदी की अग्रणी संस्था साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा (राजसमंद) से 'ब्रजभाषा काव्य विभूषण' उपाधि से सम्मानित।
आई शरद ऋतु
पंछी देश-विदेश से आए
चहुँ ओर का देख प्रदूषण
मन-ही-मन बहुत घबराए।
कहीं चिल्लपों है हॉरन की
धुआँ निकला है विकराल,
प्रकृति रो रही उसे देखकर
भू का हुआ बुरा यह हाल।
दुर्लभ हुआ साँस का लेना
प्राणी अब कैसे जीएँगे,
जल दूषित उद्योग रसायन
इसको भी कैसे पीएँगे।
जागरूक होओ भू के प्राणी
अब तो थोड़ा ध्यान धरो,
रोको यह अविलंब प्रदूषण
मिलकर सभी प्रयास करो।
धरा पेड़ पर जब होंगे तब
जीवन सुखद रहेगा,
खेतों में हरियाली होगी
घर-घर में चाँद खिलेगा।
पर्यावरण चेतना की तुम
ऐसी ज्योति जलाओ—
‘वर्षगाँठ पर पेड़ लगाएँ’
संदेशा सबको पहुँचाओ।
संडे क्यों नहीं...
शरद ऋतु के आते ही
राघव, चिराग घबराते हैं,
मम्मी खूब झिंझोड़ उठातीं
फिर भी नहीं उठ पाते हैं।
रजाई, कंबल माँ खींचती
तब वह रोने लगते हैं,
पापा-मम्मी भी बचपन की
यादों में खोने लगते हैं।
आँख मसलते वह हाथों से
कहते अभी सो लेने दो,
सर्दी का आनंद अनोखा
उसमें जरा खो लेने दो।
लेकिन घड़ी दौड़ती रहती
क्षण भर भी नहीं रुकती,
होती हो चाहे कैसी सर्दी
सम्मुख वह नहीं झुकती।
उसे देखकर ही तो मम्मी
प्रतिदिन हमें जगाती हैं,
स्कूल चलो समय हो गया
रट बस यही लगाती हैं।
मन मसोस कहते हैं मम्मी
संडे क्यों नहीं आता है?
छह दिनों तक कहाँ रहता है
हमको रोज जगाता है।
बड़े जोर का जाड़ा
बड़े जोर का जाड़ा आया
शीतलहर को लेकर
हाथ जेब से बाहर न आते
ठंड लगी बढ़-चढ़कर।
दस्ताने में सिकुड़ रही हैं
उँगली भी सब मिलकर,
बाहर आएँ तो हम कैसे
शीत पड़ी अति घिरकर।
कान में घुस जाए सर्दी तो
धमाचौकड़ी करती है,
गर्म पहन लें मफलर टोपा
तो थोड़ा सा डरती है।
गुड़ की गजक रेबड़ी तिल
के खाने से डर जाती है,
उन्हें देख शीतलहर की
नानी सी मर जाती है।
भुनी मूँगफली के दाने भी
बहुत ही अच्छे लगते हैं,
एक-एक कर सब खा जाते
बिल्कुल भी नहीं बचते हैं।
दादा-दादी की गोदी में
गरमाहट को पाकर,
नौ दो ग्यारह हो जाती है
शीतलहर सब जाकर।
इक दिन...
इक दिन सुमन सु-मन से बोला,
मेरा मन ढुलमुल क्यों डोला?
ऐसे भी कुछ होते जग में,
सूँघ फेंक देते मुझे मग में।
पहले तो सब गले लगाते,
पीछे सब मुझे हैं ठुकराते।
जब सुगंध है मुझ में होती,
सारी दुनिया ही खुश होती।
लिये हाथ में सब इतराते,
मेरी गंध लिये सुख पाते।
जब भंडार न उसका होता,
मेरा भी हृदय तब रोता।
उपहास सभी करते हैं मेरा,
डाले रहते उसका ही डेरा।
प्रभु! निवेदन है ये मेरा,
मत देना सुख का तुम घेरा।
ऐसे सुख में सार नहीं है,
दुनिया का तो प्यार यही है।
बदलो रंग ये कोमल चोला,
जग का डिब्बा तो है पोला।
इक दिन सुमन सु-मन से बोला,
मेरा मन ढुलमुल क्यों डोला?
पतवार हमारी...
मित्र नहीं जिसका दुनिया में
जीवन जीना है बेकार,
पार उतारे दुविधा-सागर
सत्य उसी का होता प्यार।
पतवार हमारी टूट गई
भवसागर पार कैसे होगा,
प्रेम दिया हृदय गहराई
दे क्यों गए हमको धोखा।
मुखारविंद मुसकान बिखेरे
तुम सबसे बतियाते थे,
मिलना शीघ्र नहीं होता तो
याद बहुत तुम आते थे।
अब दूभर हो गया आपसे
मिलना यहाँ धरा पर,
परलोक टिकट भी है नहीं
संभव किसी कृपा पर।
गुप्ता सदन, एस.बी.के.
गर्ल्स हा.सेकें. स्कूल के पास
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