सुपरिचित लेखक। पत्र-पत्रिकाओं में अब तक ६०० से अधिक आलेख एवं आधा दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। झारखंड रत्न अवार्ड सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित। संप्रति उषा मार्टिन लि. में वरीय उप्रमहाप्रबंधक-जनसंपर्क पद पर कार्यरत।
पाँच तत्त्वों से संसार बना है, उसी से मनुष्य बना है। इस प्रकार मनुष्य प्रकृति का अंग है। उससे अलग उसकी सत्ता नहीं है। हमारी सत्ता और हमारा व्यक्तित्व सभी का निर्धारण हमारे विचार से होता है। जैसा विचार है, वैसा मन होगा और वैसा ही शरीर बनता जाएगा। विचार सात्त्विक है तो मन भी शुभ और शिव तत्त्वों से पोषित होगा तथा हमारे कामों और उसको उत्प्रेरक ऊर्जा भी सत् तत्त्वों से रूपांतरित होगी। हमारे कर्म सदैव उच्च जीवन ऊर्जा से रूपांतरित हो, इसके लिए प्रकृति के विधान का अनुसरण करने भर से सफलता मिलेगी।
भौतिक जगत् का निर्माण ऊर्जा द्वारा होता है। प्रकृति की दृश्यमान सत्ता के पीछे ऊर्जा की शक्ति होती है। जीवन का निर्माण भी ऊर्जा के माध्यम से होता है। पृथ्वी में जीवन का निर्माण भी बीजरूपी प्राणऊर्जा से संभव होता है। जीवन का स्फुर्लिंग ऊर्जा में और ऊर्जा का केंद्र बीज में होता है। यह सत्, बीज, वीर्य या परागकण सबमें जीवन का स्फुर्लिंग है। इस लौकिक जगत् में प्रत्येक जीवन के पीछे एक ही शक्ति होती है। जहाँ जीवन है, वह शक्ति है। जहाँ शक्ति है, वहाँ देवी है। प्रकृति में जीवनदायिनी ऊर्जा या रस है, जिस कारण वह शक्ति है। वह गतिमान है, चंचल है और भौतिक है, जिस कारण माया है।
शक्ति के द्वारा ही निखिल ब्रह्मांड संचरणशील है। जैसे जगत् का विकास होता है, मूलशक्ति अपने विविधि रूपों को धारण करती है। कथा है कि ऋषि भृंगी शिव की परिक्रमा करने की इच्छा प्रकट करते हैं तो माता पार्वती उनको रोक देती हैं। वह कहती हैं कि हम दोनों की परिक्रमा करो, क्योंकि दोनों के मिलन से ही पूर्णता है। भृंगी नहीं मानते हैं और अकेले शिव की परिक्रमा करने का हरेक प्रयास करते हैं, लेकिन असफलता मिलती है और वह ऊर्जा यानी प्राणविहीन हो जाते हैं। शक्ति के बिना शिव शव के समान हैं। शिव के बिना शक्ति निराधार हो जाती है। कृष्ण माता राधा के साथ परमात्मा होते हैं। कृष्ण के बिना गोपियों की स्थिति ऐसी हो जाती है कि उनके शरीर में आत्मा ही नहीं है। अपने बाएँ अंग के बिना कृष्ण के जीवन में रस और उमंग नहीं वरन् कर्म और दायित्व की प्रधानता हो जाती है।
भारतीय दर्शन में माया और शक्ति को स्त्रैण, यानी नारीत्व से परिपूर्ण माना जाता है। मानव शरीर के बाएँ ओर दिल का वास होता है, वह स्त्रीत्व है। इस प्रकार प्रकृति में जहाँ जीवन है, वहाँ माता है, शक्ति है। विष्णु भगवान् है। सर्वव्यापक हैं, लेकिन माता लक्ष्मी सदैव उर्वरता और जीवन के आधार रूप में रहती है। कभी प्रकृति, कभी पृथ्वी के रूप में। शिव साक्षात् प्रकृति है। शिवलिंग ब्रह्मांडीय चेतना का स्वरूप है, लेकिन माता गौरी ही इस चेतना की शक्ति हैं। इस कारण देव को चेतना का स्रोत तो देवी को उसकी शक्ति कहा गया। बीज आत्मा है, तत्त्व है मिट्टी। एक है पुरुष, दूसरा है प्रकृति। लेकिन दोनों में एक शक्ति, यानी तत्त्व की प्रधानता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि देवता भी प्रकृति की शक्तियाँ हैं। प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में कोई देवता नहीं था। उस कालावधि में कोई पृथक् शक्तियाँ भी नहीं थीं। यह देव के पूर्व का कालखंड है। प्रकृति की शक्तियाँ ही देवतागण हैं। समस्त प्रपंचों में विद्यमान एक शक्ति की धारणा को ऋग्वैदिक ऋषियों ने अनुभूत किया था। उस आदिम अवस्था में वात नहीं थे, मरुत् नहीं थे। मरुत् को किसी ने पैदा भी नहीं किया था। ये मरुत् इस द्युलोक में स्वधया तदेकं, यानी अपनी शक्ति से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार अन्य शक्तियाँ भी उत्पन्न हुई। प्राण की भौतिक गति अवरुद्ध थी, परंतु उसका अस्तित्व तो था ही। आज जो भी अस्तित्व में हैं, वे असत काल में शांत हो जाती हैं। यह शक्ति है, जो कभी प्रकट होकर प्रकृति बनती है और अप्रकट होकर शांत, यानी असत् बनी रहती हैं।
सृष्टि में देवी का अर्थ क्या है? ईश्वर को देवी कहने का भाव है कि जो शक्ति प्रतिपल सृजन, पालन और संहार कर रही है, उसका स्वरूप स्त्रैण है। मैत्री, दया, करुणा, प्रेम, श्रद्धा के भाव की प्रकृति स्त्रैण होता है। अगर पुरुष में भी इन गुणों का अभाव है तो वह शिखर की ओर आरोहण नहीं कर सकता है। सात्त्विक स्त्रैण गुण से ही जगत् और जीवन में उत्कृष्टता आती है। कला, विद्या, साधना और भावना का रूप स्त्रैण है। अतएव उत्कृष्टता का स्वरूप सृजन में दिखता है, पालन में स्थित रहता है और संहार में विराजता है। जो ब्रह्म है, उसमें सृजन, पालन और संहार की शक्ति के कारण ही महादेवी के रूप में अर्चन किया गया। परमात्मा का स्वरूप देवी का है, क्योंकि उसकी शक्ति से सृजन का संसार बनता है। परमात्मा अगर देवी नहीं, तो सृजन के बाद उसका पालन, सेवा और जीव में विद्या और कला का ज्ञान कौन भरता! शक्ति जब विध्वंस करती है तो ईश्वर अपने देवी स्वरूप को ही प्रकट करते हैं। आखिर शक्ति के बिना शिव भी शव बन जाते हैं।
भारतीय जीवन में देवी की महत्ता अवर्णनीय है। जीवन-चक्र का काम त्रिदेव का है, लेकिन उसको व्यवस्था देने और नियोजित तरीके से बढ़ाने का जिम्मा देवियों की शक्ति पर होता है। ब्रह्मा को निर्माण की जानकारी देवी सरस्वती से मिलती है। माता लक्ष्मी का सहचर न मिले, तो विष्णु के लिए पालनकर्म का निर्वहन कठिन हो जाए। शिव इस जगत् में संतुलन के लिए संहार की शक्ति एवं प्रेरणा माता गौरी से प्राप्त करते हैं। प्रकृति में ज्ञान का साकार स्वरूप माता सरस्वती हैं तो प्रकृति में धन, धान्य, रस और संपत्ति का प्रतिरूप माता लक्ष्मी हैं। माता गौरी की शक्ति ही प्रकृति के जीवन का आधार है। शक्ति सदैव शांत और अज्ञेय रहकर कार्य करती है। सक्रिय देव तत्त्वों को नियंत्रित करती है। ठीक इसी प्रकार हमारे शरीर का बायाँ भाग नारी चेतना का और दायाँ भाग पुरुष चेतना का हिस्सा होता है। शरीर का दायाँ हिस्सा सदैव बाएँ हिस्सा द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्रोध, गति, ऊर्जा और शक्ति रूपी मनोभाव पर नियंत्रण असंभव होता। यह करुणा, प्रेम, शांति और अहिंसा की स्त्रैण चेतना ही हमारे शरीर को संतुलन भाव में रखती है।
नवरात्र के पहले तीन दिन में भगवती के अनंत शक्ति और उसके विस्तार का सृष्टि और इसके चराचर जीवन को ज्ञानबोध होता है। दूसरे तीन दिवस माता की अपार शक्ति को खुद के अंत:करण में संकलन और संचरण का काल होता है। जगज्जननी माता अपने कूष्मांडा, स्कंधमाता और कात्यायनी के स्वरूप में नए जीवन की रचना करती है। उनकी इच्छा से ही इस सृष्टि का उद्भव होता है। उसी प्रकार हमारे संकल्प से ही हम अपना विकास करते हैं। जीवन में संकल्प से ही सिद्धि का संदेश स्कंधमाता का स्वरूप देता है। नए जीवन की रचना के साथ जगज्जननी उस जीवन को एक माता के रूप में संस्कार और सदाचार का भाव भरती है। कात्यायनी माता का स्वरूप जगत् के हरेक जीव और जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का संचरण करता है। अंतिम तीन दिन, यानी सप्तमी से नवमी तक माता का तीन स्वरूप कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री की आराधना और साधना से जीवन परिपूर्ण होता है, सृष्टि अपने सभी चर-अचर तत्त्वों के रूप में पूर्णता को प्राप्त होती है। श्रमपूर्ण कर्म और स्वयं की योग्यता से जीवन को योग्य बनाने की यात्रा का नाम कालरात्रि है। उस यात्रा की पूर्णताः का स्वरूप महागौरी के रूप में आता है। जब जीवन पूर्ण होता है, तो वह सिद्धि को प्राप्त होता है।
दुर्गापूजा के शुरू के तीन दिवस स्थूल शरीर के संतुलन का होता है तो अगले तीन दिन में भावनाओं और विचारों का आरोहण करते हैं। इस दौरान अपने सूक्ष्म शरीर का संयोजन करते हैं। सूक्ष्म शरीर यानी हमारे विचार, हमारी कामनाएँ, हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान। इन सभी के एकीकृत स्वरूप का नाम सूक्ष्म शरीर होता है। इस सूक्ष्म, यानी बीज को ही हम अपने जीवन की अगली यात्रा पर साथ ले जाते हैं। हमारी आत्मा का वास इस सूक्ष्म शरीर के साथ होता है। हमारी चेतना को ओजस्वी और तेजस्वी बनाने का भी नवरात्र उपयोगी समय होता है। नवरात्र के तीन दिनों में अपनी वासनाओं, इच्छाओं एवं कर्मों को शुभता से जोड़ना लक्ष्य होना चाहिए। सूक्ष्म शरीर की साधना इसलिए जरूरी होती है, क्योंकि यह सूक्ष्म शरीर ही पुनर्जन्म का कारण बनता है। सूक्ष्म शरीर के संधान और साधना से ही पुरुष की यात्रा पुरुषोत्तम की ओर होती है।
फिर अंतिम दिन में समूचे व्यक्तित्व को सात्त्विक दिशा देते हैं, ताकि वह शिवत्व से अपने को एकाकार कर सके। यह तीन दिन स्थूल और सूक्ष्म से आगे की यात्रा का समय होता है। मूलशक्ति के आह्वान और जागरण का समय अंतिम दिन में किया जाना चाहिए। स्थूल और सूक्ष्म के बाद आत्मा, यानी सत् का संधान जरूरी है। जड़ को सिंचित किया, पत्ते और टहनी को संचित किया, अब बीज को सशक्त करने का समय है। बाहर एवं अंतर के बाद अनंत की ओर यात्रा के लिए कदम बढ़ाना ही सच्ची नवरात्र की साधना है। इस जगत् में दिव्य शक्तियाँ चारों तरफ हैं। बाहर, भीतर, नीचे और ऊपर, यानी सर्वत्र। वैदिक मंत्रों में कहा गया है कि देवता और शक्तियों की मित्रता के लिए तप और साधना जरूरी है। तपस्वी को छोड़कर देवता किसी दूसरे के मित्र नहीं होते हैं। (ऋ. ४.१३.३१) इसलिए नवरात्र में साधना, प्रार्थना और आराधना स अंतःकरण शुद्ध होता है। दैवी शक्ति की प्राप्ति होगी, धर्माचरण बढ़ेगा और जगत् में शुभता बढे़गी।
आत्मचेतना जब शरीर में पूरी तरह प्रवाहित होने लग जाती है। मनुष्य जब अपने अस्तित्वबोध में पूरी तरह बहने लग जाता है, तो जगत् और जीवन से एक अंतःशक्ति प्रकट होती है। अस्तित्व में बहती शक्ति हमारे संकल्प, साधना और सिद्धि के लिए नव दिन और रात तक अंतस की खोज में निकलती है, बुद्धि को सहारा देती है और जीवन को जाग्रत् करती है। जागरण के इस अवधि का नाम नवरात्रि है। नवरात्रि के माध्यम से व्यक्ति अंतर्यात्रा पर निकल जाता है। जहाँ पर वह अपने को अंतर के अनंत आकाश से खुद को जोड़ता है और अपनी विशालता की अनुभूति करता है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा काल में हरेक साल चार ऋतु संधियों में यह अवसर हमारे पास आता है। पृथ्वी पर चैत, आश्विन के अलावा आषाढ़ और पौष में सूर्य की गति के कारण संक्रमण की स्थिति होती है। ऋतु के इस संधि काल में काॅस्मिक एनर्जी, यानी ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रवाह जगत् और जीव पर असरकारी होता है। अतएव इस काल में शरीर को शुद्ध रखने के तथा अपने आंतरिक शक्ति के संचयन और जागरण की प्रक्रिया का नाम नवरात्र है। सामान्यतः हम अपने शरीर को रोजाना के स्तर पर साफ रखते हैं, लेकिन चैत और आश्विन के ऋतु संक्रमण काल में अपने तन-मन को विशेष रूप से निर्मल बनाने के लिए सात्त्विक और शुभता का पालन किया जाता है। इससे विचारों में रचनात्मकता, कर्म में उत्साह और जीवन में सचरित्र का विकास होता है।
मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है। उसका अंग है। प्रकृति के निकट ही जीवन का जो सर्वश्रेष्ठ है, वह हमारे अंदर आता है। प्रकृति को जानना है, देखना है तो पेड़-पौधों के पास जाते हैं, चाँद को देखते हैं, मिट्टी को महसूस करते हैं, अस्तित्व की ऊर्जा के साथ एकाकार होते हैं और प्राणशक्ति से खुद को जोड़ते हैं। यह प्राणशक्ति यानी बीज हमारे शरीर में ओजस के रूप में रहता है। यह बीजरूपी ओज नौ दिनों की तपस्या के अभ्यास से तप में बदल जाता है। तप ही मन की वह अग्नि है, जिसे व्यक्ति खुद ही सिद्धि को प्राप्त करते हैं। अहंकार सदैव निरंतर बाहरी जगत् से अपने लिए पुष्टि चाहता है, लेकिन नवरात्र की साधना में आत्मा अपने सच्चे अस्तित्व की तलाश करते हैं। शिव और शक्ति के जीवन की कथा है। एक दिन शक्ति ने शिव से पूछा कि रावण और कुबेर, दोनों ही आपके भक्त हैं, परंतु दोनों में से आप किसे वरीयता प्रदान करेंगे? शिव कहते है कि दोनों में से कोई भी एक-दूसरे से अलग नहीं है। रावण छीनता है, जबकि कुबेर संचय करता है। नवदिनों की साधना से आत्मा का सच्चा स्वरूप सामने आता है, जहाँ संचयन और छीनने के अलावा प्रकृति का त्यागपूर्वक उपभोग की सीख मिलती है। प्रकृति को अधीन करने के कारण ही शिव ने सर्जक का सिर काटा था। शिव सदैव, तपस्या, ध्यान और चिंतन से संस्कृति के पथ का अनुसरण करते हैं। भीतर के अग्नि से सारी प्रभुत्व पाने की इच्छा को खत्म करते हैं। नवरात्रि की साधना अपने अंदर के प्रभुत्व पर विजय-प्राप्ति का माध्यम है।
शक्ति की साधना सृजनधर्मा प्रकृति की आराधना है। अस्तित्व में सृजनशील प्रकृति को मातृशक्ति, आद्यशक्ति, भगवती देवी के रूप में उपासना जगत् में रस की धारा की खोज है, जो जड़ों से जोड़ती है और समष्टि की सोई चेतना को जाग्रत् करती है। इस कारण भारतीय जीवन में वाग्देवी, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, अंबा, भारती, इड़ा, जलदेवी, रात्रिदेवी, वनदेवी, अरण्यानी, उषा (सुबह), संध्या (शाम) आदि विभिन्न रूप में प्रकृति को व्यक्त और अव्यक्त करने वाली देवियाँ हैं। सृजन करने वाली पृथ्वी माता है, धन-धान्य देने वाली लक्ष्मी का रूप ऐश्वर्य का है, विद्या देने वाली सरस्वती अपने शुद्ध सात्त्विक रूप में और बल तथा शक्ति देने वाली काली सदैव करुणा बरसाने वाली और अहंकार का दमन करने वाली रूप में रहती है। यह दुर्गा अपने विविध रूपों में चामुंडा, काली, वाराही, वैष्णवी, पार्वती होती है। यह नव दुर्गा के रूप में जयंती, मंगला, काली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा होती है। वहीं शक्ति कभी दशविद्या के रूप, कभी महाशोड्षी के रूप में प्रतिष्ठित होती है। माता का रूप अनंत है। जब वह शिव के साथ कैलाश पर विराजती है, तब वह पर्वत पुत्री पार्वती का रूप धारण करती है। वही जब शिव के साथ समाज निर्माण और व्यवस्था के लिए काशी नगरी में गृहस्थ के रूप में रहती है, तब उन्होंने अन्न की भगवती अन्नपूर्णा का रूप धारण किया। सृष्टिकर्त्री एवं वनस्पतियों की अधिष्ठात्री के रूप में, उर्वरता के रूप में, जीवन और सृजन तथा प्रगति के रूप में मातृदेवी के प्रति निष्ठा और प्रतिष्ठा सदैव ही भारतीय जनमन का केंद्रीय भाव रहा है।
नवरात्रि में अष्टमी और नवमी के दिन कन्या-भोजन का विधान है। इसके पीछे तथ्य यह है कि ही दो वर्ष से दस वर्ष की आयु वाली नौ कन्याओं को भोजन कराने से व्यक्ति के समस्त दोष खंडित हो जाते हैं। पूजा-संस्कार में एक शब्द आता है प्रतिगृह्यताम्। इसका तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य के रूप में ईश्वर से निवेदन करता हूँ कि मैं आपको निश्चित वस्तु को अर्पित कर रहा हूँ और आप मुझे भी अभीष्टता प्रदान करें। दो वर्ष की कन्या को कौमारी कहा जाता है। इसके पूजन से दु:ख और दरिद्रता खत्म होती है। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति कहलाती है, जिसके पूजन से धन-धान्य की प्राप्ति होती है और संपूर्ण परिवार में कल्याण आता है। चार वर्ष की कन्या को कल्याणी कहा जाता है, जो सुख की प्राप्ति कराती है। पाँच साल की कन्या रोहिणी होती है, जिसके पूजन से व्यक्ति रोगमुक्त होता है। छह वर्ष की कन्या कालिका होती है जिसके पूजन से विद्या और राजयोग प्राप्त होता है। सात साल की कन्या को चंडिका माना जाता है। वह ऐश्वर्य की दात्री होती है। आठ साल की कन्या शांभवी के रूप में व्यक्ति को लोकप्रियता प्रदान करती है और नौ वर्ष की कन्या दुर्गा के रूप में शत्रु पर विजय प्रदान करती है। दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। वह सभी मनोरथ पूरे करती है।
देवी और देवता के सभी रूपों में उनका अर्धनारीश्वर के स्वरूप में प्रकृति प्रकट होती है। परमात्मा पुरुष है। वह नारी भी है। वह दोनों एक साथ है। हमारा जीवन भी दोनों का संतुलन है। वह सृजन और पालन के मध्य है। उससे परे और पूरा भी है। शिव के अनंत स्वरूप है। अर्धनारीश्वर का स्वरूप इसमें सर्वश्रेष्ठ और संपूर्ण है। जब अस्तित्व का दो स्वरूप पुरुष और प्रकृति (स्त्री) अपनी पूर्ण दिव्यता और भव्यता के साथ प्रकट होता है, तो वह अर्धनारीश्वर का रूप होता है। यह ब्रह्म की कल्पना है। इसमें नारीत्व और पुरुषत्व, दोनों आधा-आधा है। पुरुष प्रकृति (स्त्री) का संयोजन रूप में विराट् सृजन और पालन का गुरुत्व दायित्व निर्वहन कर रहा है। उसी प्रकार हरेक प्राणवान सत्ता इस दोहरी भूमिका को अदा करता है।
अस्तित्व का अर्धनारीश्वर एक परम अवस्था है, जहाँ सारे अंतर्द्वंद्व खत्म हो जाते हैं। इसका समभाव अंतःकरण का जागरण, समाधि की अंतर्यात्रा और परमसत्ता की अनुभूति कराते हैं। यह अद्वैत भाव है। अर्धनारीश्वर का स्वरूप अपने द्वैत रूप में प्रकृति और पुरुष बन सृष्टि रचते हैं। इस कारण सृष्टि दोनों है। हम भी द्विगुणी है। प्रकृति भी है और पुरुष भी। हमारे अस्तित्व की आधी ऊर्जा पुरुष और आधी ऊर्जा प्रकृति प्रधान है। यह ब्रह्मांड में परिव्याप्त गुण और कर्म है। विराट् में हरेक तत्त्व में प्रकृति और पुरुष का मिलन चल रहा है। प्राणवान में मेरा पुरुष मेरी प्रकृति के साथ लीन होता है। मेरी प्रकृति पुरुष के साथ एकात्म के लिए कर्मरत है। इसलिए हम ध्यान, प्रार्थना, साधना करते हैं। प्रकृति का संग अच्छा लगता है। पुरुष और प्रकृति का आलिंगन सदैव जारी है। यह ब्रह्म का पूर्ण विभाजित सृजनकर्म है, जिस कारण हमारी चेतना में स्त्रैण और पुरुषत्व दोनों का गुण रहता है।
महादेव का अर्धनारीश्वर स्वरूप इस अस्तित्व के नियामक सूक्ष्म और निराकार परम ब्रह्म का साकार और स्थूल प्रकटीकरण है। शिवलिंग उस परमतत्त्व का स्थूल रूप है, जो सदैव सृजनरत है। इसलिए शिव अपने पुरुष रूप में सर्वश्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पार्वती का शक्ति रूप भी पूर्णता का द्योतक है। माता पार्वती अपनी प्रकृति के साथ महादेव से एकात्म होती हैं, तो विराट् के सृजन-कर्म को अभिव्यक्त करती हैं। महादेव का अर्धनारीश्वर स्वरूप निराकार विराट् की स्थूल अभिव्यक्ति के साथ ही स्त्री-पुरुष समानता का अमिट संदेश देता है। हर प्राणवान व्यक्ति के भीतर आधा पुरुषभाव है। यह सूर्य के गुण का प्रतीक है, जिससे कर्म, संकल्प, शक्ति और चिंतन को आधारभूमि मिलती है। उसी प्रकार हरेक व्यक्ति के अंदर आधा प्रकृति का भाव है। यह चंद्र के गुण का द्योतक है, जिससे कला, करुणा, प्रेम, लालित्य और सृजन को प्रेरित करता है। भारतीय चिंतन में सदैव इस पुरुष और प्रकृति की अखंड सत्ता की स्तुति की गई है। श्रीकृष्ण एक पूर्ण पुरुष हैं। माता राधा पूर्ण प्रकृति हैं। श्रीकृष्ण और राधा का मिलन संपूर्णता है, तो उनका एकाकीपन भी अपूर्ण नहीं है। इसी प्रकार जगज्जननी माता सीता देवी हैं, तो श्रीराम परम देव हैं। अध्यात्म रामायण में वर्णन है कि जब सीता के वनगमन से लक्ष्मण दु:खी हो जाते हैं, तब माता कहती हैं—आपको लगता है कि राम ने अपनी सीता को त्याग दिया है? परंतु वह ऐसा कर ही नहीं सकते। वे भगवान् हैं, यानी पूर्ण पुरुष। वे कभी किसी का त्याग नहीं करते हैं। ठीक उसी प्रकार मैं भगवती हूँ। संपूर्ण प्रकृति। कोई मेरा त्याग कर ही नहीं सकता। इसी कारण भारतीय जीवन सदैव दो ध्रुव के किनारों पर चलता रहता है। अर्धनारीश्वर का स्वरूप उस परम अवस्था को पहुँचने का एक सरल मार्ग है, जहाँ शक्ति यानी प्रकृति के बिना शिव बस शव हैं। माता सीता के बिना राम भी अधूरे हैं।
द्वैतभाव से भ्रम पैदा होता है। एकात्म की उच्च स्थिति में जगत् के परम रहस्य की अनुभूति होती है। भगवान् राम वनवास काल में माता सीता के वियोग में विलाप कर रहे हैं। शिवजी इस स्थिति को देखा तो उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ, वही माता सती को संशय होता है। जो मायारहित है, वह जन्म-मरण के बंधन से कैसे बँध सकता है? यह संशय ही द्वैत है। जब राम पूछते हैं कि वृषकेतु, अर्थात् शिवजी कहाँ हैं? तब उनको अद्वैत का बोध होता है। द्वैतभाव सदैव पुरुष और प्रकृति की माया रचता है। माता सती के संशय से ही माता पार्वती का श्रद्धा का जन्म होता है। माता खुद ही शिव की वामांगी होती है तो महादेव प्रिया कहते हैं। उनको प्रेमपूर्ण स्थान मिलने पर माता खुद शिव से बहुत करुण स्वर में कहती हैं कि हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव से पूछती हूँ। आप मुझपर दया करके श्रीराम की कथा कहिए। (रामचरितमानस)। यह अद्वैत की ओर आरोहण है। अर्धरानारीश्वर के रूप का अस्तित्व के स्वरूप में रूपांतरण है।
महाकाल और आदिशक्ति की उत्पत्ति नहीं होती है। यह हिरण्यगर्भ, यानी ब्रह्म का द्वैतभावों में रूपांतरण है। महाकाल को शिव कहा गया है, जो ऊर्जा का अक्षत भंडार है। यह कोई विध्वंस या निर्माणकारी शक्ति नहीं है। यह केवल शक्तिपुंज का घनीभूत स्वरूप है। वह सार्वकालिक है। वह भोजन में शक्ति है। नींद में ऊर्जा संगृहीत करता है और जागरण में खर्च करता है। वह शक्तिपुंज प्राणायाम से जागता है, ध्यान से ऊर्ध्वगामी होता है। भय से वह सिकुड़ता है, वासना में नीचे गिरता है। प्रेम में विस्तृत होता है और समाधि में उस अनंत विराट् के साथ एकाकार होता जाता है। वह शक्ति है। वह ऊर्जा है। वह महाकाल भी है और वही महादेव भी है। उसके साथ जो प्रकृति है, सृजनकारी है, स्वरूप है। वह शक्ति है। महादेवी है। इस विराट् में सब शिव है। सब शक्ति स्वरूप भी है। जगत् में सारा रूप, सारी प्रकृति और सारी वस्तुएँ केवल ऊर्जा का रूपांतरण हैं। इस कारण श्रीकृष्ण कहते हैं कि हम सब एक हैं। हमारा न कभी जन्म हुआ और न ही कभी अंत होगा। हम ही परम हैं। जगत् की रचना के साथ काल की उत्पत्ति होती हैं। परंतु महाकाल उस रचना के पूर्व भी अपने में पुरुष और प्रकृति के स्वरूपों को खुद में छिपाए रहता है। संपूर्ण अस्तित्व के रचनापूर्व वह हिरण्यगर्भ भी अर्धनारीश्वर गुणों के साथ होता है। देवी शब्द देव से आया है, जिसका अर्थ स्पेस होता है। इसलिए देवी ऐसा स्थान है, जो अस्तित्व के तीन मौलिक शक्तियों को अपने अंदर समाहित करता है। ईशा फाउंडेशन के सद्गुरु कहते हैं कि त्रिदेव तीन अलग-अलग गुणों के प्रतीक हैं। विज्ञान की भाषा में इसे प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन और न्यूट्राॅन कहा जाता है। प्रोटाॅन को ब्रह्मा, यानी निर्माणकर्ता, इलेक्ट्राॅन को शंकर, यानी संहारकर्ता और न्यूट्राॅन को विष्णु, यानी पालनकर्ता कहा जाता है। ये तीन देव जिस प्रकार एक-दूसरे से सह-संबंध स्थापित कर विराजमान होते हैं, उसी प्रकार परमाणु के अंदर तीनों तत्त्वों के बीच सह संयोजन होता है। इन तीनों की गतिशीलता के बिना सृष्टि में सृजन संभव नहीं है। सद्गुरु कहते हैं कि इलेक्ट्राॅन सदैव ही न्यूक्लियस के समीप चक्कर काटता है। न्यूक्लियस में ही परमाणु की शक्ति, यानी ऊर्जा संगृहीत होती है। इस कारण यह तीनों तत्त्व का न्यूक्लियस ही देवी है।
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