सेवानिवृत्त शिक्षिका एवं लेखिका। अभी तक ‘सार्थक होने का अहसास’ (कहानी-संग्रह) तथा पत्र-पत्रिकाओं में अनेक कहानियाँ प्रकाशित। सुरेंद्र तिवारी द्वारा संपादित कहानी-संकलन ‘बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ’ में एक कहानी प्रकाशित।
दिल्ली के अपोलो अस्पताल में प्राइवेट रूम में बेड पर मैं रेस्ट कर रहा हूँ। सत्तर से अधिक उम्र में मेरी सर्जरी से एक किडनी निकालकर मुझे मौत से युद्ध में विजयी घोषित किया गया है। मेरा किडनी फंक्शन चालीस प्रतिशत ही रह गया था। गंभीर हालत में अस्पताल में भरती कराया गया था, लेकिन जाने किसकी दुआओं ने दवाओं के साथ मिलकर जीवन दान दिया है। रूम की खिड़की से बाहर देख रहा हूँ, पार्क में लगे अमलतास के पेड़ से लटकती पीले फूलों की झालरें हवा के झोंके से झुकी जा रही हैं और साथ में लगे लाल गुलमोहर से भरे पेड़ को छूने की कोशिश कर रही हैं। जी कर रहा है कि भागकर उन लाल-पीले फूलों की छाया में जाकर बैठ जाऊँ। जवानी में आदित्य को स्कूटर पर अपने आगे खड़ा कर पीछे सुषमा को गोद में लेकर उसकी मम्मी बैठतीं और हर रविवार को पार्क में जाने के दिन याद आ गए।
सुषमा ने आकर मेरे माथे को सहलाया है। अश्रु छलक आए हैं मेरे। बिल्कुल अपनी मम्मी पर गई है। वो तो जीवनयात्रा में मेरा साथ छोड़कर दो वर्ष पहले ही चली गई। तब से सुषमा ही फोन पर दिन में कई बार पूछ लेती—क्या खाया? दवाई ली? सैर पर गए? कभी कुक को इंस्ट्रक्शन देती—पापा को उबली सब्जी देना। फ्रूट और सलाद जरूर देना। बुढ़ापे में बेटी मेरी ऐसे सेवा कर रही है, जैसे अपने बच्चों की करते हैं।
‘पापा आप थोड़ा सा जूस ले लीजिए। बस एक या दो दिनों में हम घर चलेंगे।’
बेटी जितना हिम्मत बँधाना चाहती है, उतना ही दिल डूबता सा नजर आता है। कौन सा घर? बेटी का? जहाँ दामाद है, दामाद के मम्मी-पापा हैं, दो नन्हे बच्चे हैं। क्या कहूँ, मैं अपने घर ही पटेल नगर में जाकर नौकर व कुक की मदद से अकेला रहूँगा? अब तो अकेले रहने की हिम्मत ही नहीं है। जीवन के आगे की गाड़ी खींचने के लिए अब सहारा जरूरी है। क्या अब बेटी ही वह सहारा है?
शायद मेरे मन के भावों को सुषमा ने पढ़ लिया है। तुरंत बोली, “पापा, मैंने आदित्य को सब बता दिया है। वह जल्दी ही इंडिया आएगा आपसे मिलने। सारे फाइनेंसिज उसने ही अरेंज किए हैं।”
मुझे पता है, सुषमा मुझे हर प्रकार से खुश रखना चाहती है। आदित्य मेरा बेटा मुझ पर ही गया है, तभी तो इतना जिद्दी है। वह नहीं आएगा, क्योंकि मैं उसका गुनहगार हूँ, मैंने स्वयं तो उसके विदेश जाने के बाद दूरी बनाई ही, उसे उसकी मम्मी के प्यार से भी वंचित रखने में कसर नहीं छोड़ी।
सुषमा डाॅक्टर से मेरी छुट्टी के बारे में जानकारी लेने गई तो फिर अतीत की यादें घने बादलों की तरह घूमने लगीं। आदित्य हमारी शादी के दस साल बाद पैदा हुआ। मन्नतों के बाद हर देवी-देवता के दर पर माथा रगड़कर, अनेक व्रत व पूजा-पाठ कर आदित्य को पाया था। खुशी के आँसू कैसे होते हैं, उस दिन पहली बार अनुभव हूआ, वंश वृद्धि होने पर हर्ष की सीमा न थी। सुना था बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है। हमारे बुढ़ापे का सहारा देने के लिए हम भगवान् का कोटि-कोटि धन्यवाद कर रहे थे। उसके दो साल बाद सुषमा के आने पर घर डबल किलकारियों से गूँज उठा था। हमारा बचपन लौट आया था। नीरस जीवन में खुशहाली का आगमन हो गया था। कभी रामलीला देखने जाना, कभी दीवाली मेले में खिलौने लेना, कभी रिपब्लिक डे की परेड देखने के लिए कंधों पर चढ़ना, कभी तरह-तरह की गेम्स की माँग—उनकी हर बात पूरी करने के लिए हम पति-पत्नी एक-दूसरे से कंपीट करते और जीत व हार दोनों स्थितियों में गर्व महसूस करते। ऐसे ही हँसते-खेलते दिन, महीने, साल बीतते गए थे।
बच्चे स्कूल समाप्त करके कॉलेज चले गए थे। आदित्य बहुत होनहार छात्र था। आई.आई.टी. दिल्ली से कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते ही यू.एस. में आगे की स्टडीज के लिए पूरे स्कॉलरशिप पर सलेक्शन हो गया था। बेटे को सात समुंदर पार भेजने को उसकी मम्मी बिल्कुल तैयार नहीं थी। जब आदित्य ने आई.आई.टी. मुंबई की बजाय दिल्ली में दाखिला लिया था तो हम यह सोचकर बहुत खुश हुए कि जैसे हम उससे दूर नहीं रह सकते, वह भी हम से दूर नहीं रह सकता। हम हर दूसरे दिन आदित्य और उसके दोस्तों के लिए खाना लेकर पटेल नगर से आई.आई.टी. तक कार से लगभग आधे घंटे में पहुँच जाते। हर वीकेंड पर उसे लेने पहुँच जाते।
‘अजी आप समझाओ इसे, अपने देश में ही कहीं आगे की पढ़ाई कर ले। क्या अमेरिका में ही खास पढ़ाई होती है?’ पत्नी ने अनुनय की थी।
‘अब वो बड़ा हो गया है। अपना भला-बुरा समझता है। मैं उसे रोकूँगा तो भी वह नहीं मानेगा। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में सलेक्शन बहुत ही कम बच्चों का हो पाता है, सब बधाई देते नहीं थक रहे।’ मैंने समझाने की कोशिश की थी। सुषमा तो भाई के यू.एस. जाने की तैयारी में साथ दे रही थी। हमें कहती, ‘यू शुड बी प्राउड ऑफ योर सन फॉरगेटिंग दिस ऑपोरचुनिटी।’
आदित्य को यू.एस. गए बारह साल बीत गए। पिछले बारह वर्षों में केवल तीन बार इंडिया आया है। पहली बार दो साल के बाद एक महीने की छुट्टी लेकर आया तो अपने किसी प्रोजेक्ट में ही व्यस्त रहा। उसके विवाह के लिए हमने न्यूज पेपर में विज्ञापन दिया था। सोचा था कि शादी करके चला जाएगा तो मन को शांति रहेगी। लेकिन आदित्य ने रिस्पांस में आए किसी रिश्ते के बारे में सुनने से ही इनकार कर दिया। वह वापस जाने को था तो मैंने सख्त निर्देश दिया था कि किसी विदेशी लड़की के प्यार में मत फँसना। समझाया था कि विदेशियों के लिए शादी हमारी संस्कृति की तरह एक पवित्र बंधन नहीं होता, वे तो छोटी-छोटी बातों पर कितनी ही बार तलाक लेकर नई शादियाँ रचा लेती हैं। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। एक साल बाद उसने अमेरिकी लड़की से शादी करके अपनी मम्मी और सुषमा से फोन पर परिचय करा दिया था। मुझे पता लगा तो यही कहा, ‘कुछ महीनों में ही देख लेना डायवोर्स की खबर आएगी। बेवकूफी की है तो पछताना पड़ेगा।’ महीने क्या साल भी बीत रहे थे। पत्नी कहती, ‘आप प्यार को क्या समझोगे? अमीर परिवार में नौकरों के साथ पले-बढ़े हो। आदित्य और मारिया के सच्चे प्यार को आप कब तक नकारते रहोगे? मेरी माँ कहतीं थीं, शादी के जोड़े तो ईश्वर स्वर्ग में ही बना देते हैं। कब तक अपने खून से दूर भागोगे?’ मुझे फिर भी लगता कि आदित्य ने गलती की है। आदित्य के यहाँ प्यारी सी बेटी के जन्म की खबर मिली तो उसकी मम्मी के तो जमीन पर पैर ऐसे थिरक रहे थे कि तुरंत बेटे के पास पहुँच जाए और अपनी अगली पीढ़ी के साथ फिर से बच्ची बन जाए। मुझसे आग्रह किया—अब तो एक बार मिलने चलो। मैं पत्थर दिल बना रहा।
तीन साल बाद जब सुषमा की शादी तय हो गई तो आदित्य अपनी विदेशी पत्नी मारिया व एक साल की बेटी मिशेल को लेकर आया। बेहद खुशी के माहौल में मारिया को सबसे परिचित कराते हुए भारतीय शादी की रीतियों के बारे में जानकारी देने लगा। मेरी नाराजगी की परवाह किए बिना वह बढ़-चढ़कर हर फंक्शन पर खूब खर्च कर रहा था। सुषमा की मम्मी तो नन्ही डॉल सी पोती के साथ मिलकर बहुत खुश थी। रिश्तेदार आदित्य को अमेरिका की सिटीजनशिप मिलने की बधाई दे रहे थे। मैं तटस्थ बना सब देख रहा था। उस नन्ही सी जान, प्यारी बच्ची पर कितना प्यार आ रहा था, लेकिन मेरा अहंकार, मेरा ईगो, मेरा क्रोध, सभी ने आगे आकर उस प्यार को पीछे धकेल दिया था। वह भी तो मुझसे दूरी बनाए हुए था।
आदित्य ने जाते समय चरण स्पर्श कर कहा था, ‘पापा, प्लीज मम्मी को लेकर एक बार यू.एस. आ जाइए, मैं आपके लिए सभी पेपर्स रेडी करके टिकट के साथ भेज दूँगा। प्लीज पापा, सब कलीग्स के पेरेंट्स आते हैं हर साल।’ तब भी मैंने उसे इग्नोर कर दिया। आखिर मैं क्यों इतना निर्मोही हो गया था? वही आदित्य तो है, जो मेरी बाँहों में झूला है। अब जब वह सफलता की सीढ़ियाँ अपने बल पर चढ़ रहा है तो मुझे चिढ़ क्यों हो रही है? क्या मुझे अपने लिए आगे आदित्य के यहाँ न रहने पर, सहारा न होने का भय लगता है, जो मुझे निष्ठुर बना रहा है?
यू.एस. जाने के कुछ समय बाद आदित्य ने सब व्यवस्था कर हमारे लिए यू.एस. के टिकट भेज दिए थे।
उसकी मम्मी तो बहुत प्रसन्न थी और सोच रही थी कि मेरी क्रोध की अग्नि बेटे व उसके परिवार के मोह की बौछार से समाप्त हो जाएगी और मैं यू.एस. जाने के लिए तैयार हो जाऊँगा। पर मैंने भी न जाने की कसम खा ली थी। मेरी जिद के आगे उसकी मम्मी ने सरेंडर कर दिया, जबकि मैंने और सुषमा ने उसे अकेले जाने को प्रेरित किया। वह मुझे अकेला छोड़कर जाने को बिल्कुल तैयार नहीं थी। प्रोग्राम कैंसिल हो गया और आदित्य से दूरियाँ बढ़ती गईं। उसका मेरे प्रति अव्यक्त क्रोध और आदित्य से मिलने की उम्मीद टूटने से वह अपने आप को सीमित कर, भीतर-ही-भीतर खोखली होती चली गई। मैं उसके डिप्रेशन को समझ न पाया और एक दिन आदित्य का नाम लेते हुए मुझे अकेला छोड़ गई। कितना स्वार्थी हूँ मैं, चाहता हूँ, सब मेरी इच्छा के अनुरूप हो।
सुषमा डॉक्टर के साथ रूम में आई तो मेरे विचारों की शृंखला टूटी। डॉक्टर साहब चेक करने के बाद कहने लगे, “अब आप बेहतर फील कर रहे हैं न, घर जाने की जल्दी है न बहुत?” मुसकराकर बोले, “हम कल डिस्चार्ज करने की कोशिश करेंगे।”
आँखों से लकीर सी खींचते कनपटी पर आए गरम आँसू सुषमा ने देख लिये हैं। “पापा प्लीज, आप अब ठीक हो रहे हैं। आप सोचना कम कीजिए।”
हाथ आशीर्वाद देने के लिए उठाने की कोशिश की तो सुषमा ने मेरे हाथ को चूम लिया है, कितनी अच्छी है मेरी बच्ची। शायद इसी के प्यार व अच्छे व्यवहार ने मेरे दामाद को भी इतना कोमल हृदय बना दिया है कि उसने बीमारी में मेरी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। लाख शुक्र है भगवान् का, बेटी के लिए इतना अच्छा परिवार मिला।
धीमे स्वर में कहा, “बेटा, तुम बच्चों के पास घर जाओ। रोहित (दामाद) को भी रोज हॉस्पिटल में सोने के लिए आना पड़ता है। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, मेरा सबकुछ अब तुम्हारा है।” सुषमा ने मेरे मुँह पर हाथ रखकर आँसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा, “आप कैसी बातें कर रहे हैं पापा, मुझे आपने योग्य व समर्थ बनाया है। बस आप स्वस्थ रहें, यही ईश्वर से प्रार्थना है। अब आप पटेल नगर के घर में अकेले नहीं रहेंगे, हमारे साथ रहेंगे।” मेरे आग्रह पर वह घर चली गई।
कहीं पढ़ा था कि नाजुक बचपन की मासूम स्मृतियाँ अकेलेपन की मित्र और एकांत से उबारने की जादुई छड़ी होती हैं। आज वही स्मृतियाँ प्रबल हो उठी हैं। आदतन आदित्य की कमियाँ याद आने लगीं। वह अपनी मम्मी की अंतिम विदाई में भी समय पर नहीं पहुँच सका था। सुषमा व उसके परिवार वालों ने सब सँभाल लिया था। मैं निष्प्राण सा बुत बना सब देख रहा था। तब से अब तक आदित्य ने मेरे से बात नहीं की है। क्या मेरी गलती है सिर्फ? क्या मैंने उसकी शिक्षा व अन्य जरूरतों को पूरा करने में कोई कमी की? क्या आदित्य का कोई फर्ज नहीं है? सुषमा और आदित्य दोनों ही बचपन में मेरे कंधों पर रिपब्लिक डे की परेड देखते, कभी रामलीला देखते, कभी दीवाली मेले में आनंद लेते। उनकी हर इच्छा पूरी की। आदित्य के यू.एस. जाने के बाद क्या मैं उस के प्रति कुछ ज्यादा ही कठोर हो गया या फिर उसे मेरी परवाह नहीं रही?
बच्चों के बचपन की यादों में खोए हुए जाने क्यों अपने बचपन की स्मृतियाँ भी उभर आई हैं। मैं जबलपुर के निकट ठाकुरों के गाँव दीक्षितपुरा के जमींदार के तीन बेटों में से दूसरा बेटा था। बड़े परिवार में हम काछियों (नौकरों) की मदद से पले। मुझे याद है कि दो काछियों की दो बहनों से शादी हुई थी—बड़ी इमरती और छोटी सुकरती। हम उनके नामों का खूब मजाक उड़ाते। इधर हमारी स्कूल की कक्षाएँ बढ़ रही थी और उधर उनके परिवार। इमरती के तीन बेटे हुए और सुकरती के तीन बेटियाँ। इमरती का घमंड बढ़ रहा था, सुकरती पर भी ऑर्डर चलाती और सुकरती, बड़ी बहन की सुन चुपचाप काम में लगी रहती। माँ सुकरती की प्रशंसा करती, क्योंकि वह काम खत्म करके नियमित रूप से रोज सोते समय माँ के पैर दबाती।
कॉलेज की शिक्षा के लिए मैं शहर आ गया। गाँव जाना कम हो गया था। जब कॉलेज की शिक्षा के बाद दिल्ली में जॉब का नियुक्ति-पत्र मिला तो दिल्ली जाने से पहले पिताजी ने गाँव बुलाकर शादी करके जाने की शर्त रख दी। उनकी आज्ञा तो पत्थर की लकीर होती थी। शादी की तैयारियों में व्यस्त परिवार में जब इमरती को देखा तो मैं पहचान नहीं पाया, सूख कर काँटा हो रही थी। शाम होते-होते इमरती के घर से लड़ने की आवाजें आने लगीं। तीनों लड़के एक-दूसरे से लड़ने के साथ माँ-बाप पर चिल्ला रहे थे। सुकरती के घर से संध्या के धुँधलके के बढ़ने के साथ-साथ सुरीली आवाज में गीतों के बोल और ढोलक की थाप तीव्र हो रही थी। मैंने माँ की ओर देखा तो बोलीं, “ये तो दोनों बहनों के घर की रोज की कहानी है। इमरती पर बहुत तरस आता है और गुस्सा भी। अपने बेटे नालायक बने तो बहन की सुशील व समझदार लड़कियों से ही जलने लगी। वो गाएँ-बजाएँ, नाचें, शृंगार करें, इसे क्यों जलन होती है? अपनी-अपनी किस्मत है, ईश्वर की माया कहीं धूप कहीं छाया। मेरी शादी में इमरती व सुकरती के दोनों परिवारों ने नाच, गा-बजाकर ऐसी रौनक लगाई कि पूरे दीक्षितपुरा में शादी प्रसिद्ध हो गई। पिताजी ने पूरे गाँव को दावत दी।
शादी के बाद हम दिल्ली आ गए। दीक्षितपुरा जाना कम हो गया था। भाई से पता चला कि इमरती व सुकरती दोनों के पति एक ही वर्ष के अंतराल में गुजर गए। सुना था कि सुकरती की बेटियों के विवाह के बाद भी उनका घर खुशियों से खिला रहता, बेटियाँ पास के गाँवों में ब्याही थीं, सो उनके आने पर रौनक लगी रहती। लेकिन इमरती के बेटों में शादी के बाद झगड़े और भी बढ़ गए थे। मेरे को यह प्रश्न कचोटता कि सुकरती का पुत्र नहीं है तो बुढ़ापे में सहारा कौन बनेगा? उसका अंतिम संस्कार, उसकी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कौन करेगा? अब मन कहता है कि निर्जीव शरीर को इन सबसे क्या फर्क पड़ता है? आदित्य ही अपनी मम्मी के लिए कहाँ पहुँच पाया था समय पर!
मैंने कौन सा अपने माँ-पिता के प्रति कोई दायित्व निभाया था। मेरे पिता और भाई जमींदारी सँभालने में व्यस्त रहते। जब माँ बीमार पड़ी तो केवल देखने ही जा सका था, यह सोचकर ही संतुष्ट था कि और दो भाई जो साथ रह रहे हैं, वे उनका ध्यान रख रहे हैं। अपनी बार स्वार्थ आगे आ जाता है कि बच्चे हमारे अनुरूप ढलें। हमारे द्वारा उनके लिए किए गए त्याग को वे समझें। अपने त्याग के लिए महानता का अहसास हमारी सोच को इस हद तक विकृत कर देता है कि बच्चों से अपेक्षाएँ बहुत बढ़ जाती हैं।
आदित्य के जन्म पर लगा, जैसे वृद्धावस्था के लिए सहारा मिल गया। आज बुढ़ापे में सहारा वही बेटी बनी है, जिसे मैंने पराई अमानत समझकर सहेजा और जिसका विवाह करके मुझे लगा था कि मैं बोझ से मुक्त हो गया। रोहित ने आकर पैर छुए और बोला, “पापा, आज आप बेहतर महसूस कर रहे हैं न।”
मैंने भावावेश में उसके हाथ पकड़ लिए हैं—“बेटा, तुमको मेरे कारण इतनी परेशानी हो रही है, ऑफिस से भी छुट्टी ली है। मैं सबके लिए भार बन गया हूँ।”
रोहित ने मुझे तकिए के सहारे सिर ऊँचा कर लिटाया है और कहा, “पापा, आप ठीक हो गए है। नो नेगेटिव टॉक्स नाउ। मेरे पापा आपका घर आने का वेट कर रहे हैं ताश खेलने के लिए।” लगा, मैं भाग्यशाली हूँ कि इतना केयरिंग दामाद मिला।
आदित्य की मम्मी ने जाते समय कहा था कि एक बार सब गिले-शिकवे भुलाकर आदित्य के पास चले जाना, आखिर है तो आपका खून। सोचता हूँ इस बार चला जाऊँ, हवाई जहाज की यात्रा भी कर लूँ।
तंद्रा में डूबते-उतरते मुझे कब क्या हुआ, नहीं जानता। सच में ही ऐसा लगा, जैसे कि मैं हवाई जहाज में उड़ा जा रहा हूँ। एक अनजान व अनिश्चित गंतव्य की ओर, जहाँ मुझसे मिलने के लिए बहुत से लोग टकटकी लगाए बेताब हो रहे हैं—मेरी माँ, पिताजी, पत्नी, इमरती, सुकरती, बहुत से काछी, सुषमा, रोहित आदि। लेकिन मेरी आँखें तो आदित्य को ढूँढ़ रही हैं।
जब आँख खुली तो देखा, शीशे से कुछ लोग मुझे देख रहे हैं— सुषमा, रोहित उसके पापा और यह कौन? आदित्य? कहीं नजर का धोखा तो नहीं? नर्स ने एक जने को भीतर आने की अनुमति दी है। सुषमा ने आदित्य को भीतर भेजा है। आँसुओं के वेग को रोकते हुए बोला, “अब आप खतरे से बाहर हैं पापा। परसों आप बहुत सीरियस हो गए थे। डॉक्टर ने कहा कि अड़तालीस घंटे वेट करो। होश आने पर ठीक हो जाएँगे। आप मुझे पहचान रहे हैं ना मैं आदित्य हूँ, आपका बेटा।” मेरी नजर आदित्य के चेहरे पर बर्फ सी जम गई है।
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