सुपरिचित आलोचक। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास, सर्जनात्मक भाषा और आलोचना, 'जल टूटता हुआ की पहचान, 'आस्था के बैंगन', 'पिताजी का डैडी' संस्करण व्यंग्य प्रकाशित। देवराज उपाध्याय आलोचना पुरस्कार, पं. नंददुलारे वाजपेयी आलोचना पुरस्कार, समीक्षा सम्मान, भाषा भूषण सम्मान इत्यादि प्राप्त।
आप भी मुझे कोसेंगे। उसी तरह, जैसे भगवतीचरण वर्मा ने छायावाद की संध्या सुंदरी से खिसककर ‘भैंसा गाड़ी पर कविता लिख दी—“चूँ-चूँ चरर-मरर चली जा रही भैंसा गाड़ी।” अब जगमगाती पैंतालीस मंजिला मल्टियों के रहते यह कचरा गाड़ी? वातानुकूलित स्टेशन-गुफाओं में दौड़ती मेट्रो से अलग रेल पटरियों के इधर-उधर अब कचरानुकूलित पहाड़ियाँ तो चप्पा-चप्पा अपना शिल्प दिखा ही जाती हैं। अलबत्ता महानगरीय हाइट्स के पार कचरा हाइट्स के सौंदर्य को देखते हैं तो आँखें खुली, मगर नाक बंद हो जाती है।
महानगर के फुटपाथ या सड़क के बीच सीवरेज होल अधमरे से दिख जाते हैं। होल की सफाई में उतरे लोग इस मशीनी युग में भी ‘मैला युग’ के अवशेष बन जाते हैं। बरसाती बहाव में अनदिखे होल में गिरे प्राणी को यमराज भी ढूँढ़ते रह जाते हैं। यों कचरा गाड़ी का संगीत कचराफेंक दौड़ लगवा देता है। पर कचरा लदे वाहन भूस्खलन की तरह कचरा-स्खलन करते हुए सरपट हो जाते हैं।
यह जितना सौंदर्य का युग है, उतना ही कचरा उत्पादक युग भी। एक शर्ट क्या खरीदी कि डिब्बा, कॉलर प्लास्टिक, आलपिनों की भरमार। फिर मिक्स्ड इकनॉमी की तरह कचरा भी सूखा-गीला मिश्रित। अब गीले-सूखे का प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप मॉडल भी एलजेब्रा बन जाता है। वह तो बिना नौकरी के कचरा बीनक मानव संसाधन कचरा पट्टी में इंतजार करते मिलते हैं। बिन-विज्ञान के वे साइकिल-री साइकिल कचरा-विज्ञान के विशेषज्ञ। धूलभरे, मैले, कुचैले, फटे कपड़े वाले, पीठ पर प्लास्टिक का बोरा लटकाए, कचरे के बाजार को ऊँचा सेंसेक्स दे जाते हैं। प्लास्टिक बॉटल, प्लास्टिक बैग, टूटे मोबाइल, तार, कुछ फटे कपड़े, यही कचरे का स्वर्णिम बाजार है। अनपढ़ बच्चे, औरतें और आदमी की लाचारी इसमें भी बाजार और पेट की पहचान कर लेती है। कभी शनिवार को फेंके पुराने जूते भी उन्हें मालामाल कर जाते हैं।
कभी पढ़ा था, दिल्ली के भलस्वा साइट पर कचरे के विशालकाय स्तूपों में आग लग गई थी। पराली धुआँ तो बादल बना देता है कोहरा झरती परतों में। अकेले दिल्ली ही नहीं, मुंबई के मुलुंड देवनार भी सुर्खी में आ जाते थे। अनेक नगरों को भी यह गौरव प्राप्त है। भारतीय रेल की पटरियों के इधर-उधर कचरा-सभ्यता भी उड़नशील रहती है। सफाई के हस्ताक्षरीय प्रमाणों के बाद भी डिब्बे में कचरा घसीटनशील। यों गलीकूचों-फुटपाथों पर विकलांग ऑटो, जंग खाए स्कूटर, सड़ा फर्नीचर तो आम है। छोटे महानगरों की नदी से तब्दील हुई गटर-गंगाएँ भी अपने कालेकट्ट रंग और गंध से औद्योगिक प्रगति का नाकभिचाऊ ग्राफ बन जाती हैं। सारी गटर-गंगाओं का संगम। कीचड़ और गाद में अनेक रंगी प्लास्टिक पन्नियाँ भी कीचड़-तितलियों सा सौंदर्य रच जाती हैं।
बिचारे बगुले भी आस नहीं रखते। सफेद बगुलों की परछाईं उनको ही काली नजर आती है। समुद्र तो अब सुन भी नहीं पाता—“समुद्रे वसति लक्ष्मी।” वहाँ तो भीतर में समाता कचरा ही हजारों बरसों में हिमालय बनाएगा।
नदी से काले जल के नाले बनती जगहों पर कचरा खुद चला आता है। कचरा फेंकने और गंदगी बहाने की आसान जगह हैं नाले। और नदी, नाले, तालाब सिकुड़ते चले जाएँ। वहाँ मल्टियाँ तनती चली जाएँ। मगर तब तक सुअरों को वॉकिंग जोन मिल जाता है। अपनी थूथन से योग्य भोजन को तलाशते बिन वेतन के नगर पालिकाओं का सहयोग कर जाते हैं। उनके टुल्लर बच्चों के साथ कचरा-जुलूस बन जाते हैं। कभी हुँपहुपाँते वे गीले में गाद-स्नान का लुत्फ उठाते हुए। कहीं-कहीं दूर से कचरे के ट्रक का इंतजार करते बच्चे और लड़कियाँ। दिख जाएँ कहीं प्लास्टिक के पेड़। नायलाॅन के फूल। रबर की चिड़िया। दस-बीस खाली बोतलों को पाकर ही उनके उदास चेहरों पर आस पसर जाती है। कचरे की पहाड़ियों के रैंप पर प्रदर्शन करते ये प्राणी भी अपने लायक कचरा पाकर उत्सव रचा जाते हैं।
मल्टियों की सभ्यता तो रंगीन रेपर में निखरती है। आवरण में सजती है। कचरा फेंकने में धनवत्ता दिखाती है। मगर सड़क किनारे कचरा पेटियाँ अपनी-अपनी ड्राइक्लीन के लिए महीनों तक फड़फड़ाती हैं। एक सभ्यता कचरे के पहाड़ बनाती है, एक सभ्यता कचरे के भीतरी सोने को बीनती आदिम नजर आती है। सुअर सभ्यता कचरे में अपना पेट तलाशते गटर- गंगा में लोट लगाकर रह जाती है। सभ्यता के अपने-अपने रैंप हैं। कचरे के छोटे-छोटे स्तूपों में अपने पेट का बाजार तलाशते हुए।
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