संसार में कौन है, जो सुखी नहीं रहना चाहता? नश्वर जीवन में सबकी आकांक्षा है कि यादों के ऐसे पल आते ही रहें। कई माता-पिता अपने बच्चे का नाम ही ‘खुशहाल’ रखते हैं कि नामकरण का प्रभाव उसके जीवन को सुखी बनाए। हम कई बार सोचते हैं कि शायद सुख और समृद्धि में कोई रिश्ता हो। कौन कहे, धनपति सुखी है कि नहीं? गरीबी तो इनसान को हर क्षेत्र में सुख से वंचित करती है। न रहने को घर है, न करने को काम। पेट भरने के लाले हैं तो खुशी कैसे नसीब हो? कुछ पढ़े-लिखे बेकारों की यही दुर्दशा है। बाबू से लेकर अफसर तक पद भरने की कड़ी प्रतियोगिता है। यह सरकार से लेकर निजी नौकरी तक का सच है। कोई लिखित परीक्षाओं में सफल रहा तो साक्षात्कार में धड़ाम होता है, तो कइयों की इंटरव्यू तक की नौबत ही नहीं आती है। सब चांस पर निर्भर है।
यू.पी.-बिहार में तो एक और रोग है, सामूहिक नकल का। डिग्री तो मुन्नाभाई के प्रयास और योग्यता से कैश खर्च करके कमा ली, अब प्रतियोगी परीक्षा में क्या करें? यहाँ न नकल की संभावना है, न किसी और मुन्नाभाई से इम्तहान दिलवाने की सुविधा। ऐसों को पूरी व्यवस्था से असंतोष है और न्यायसंगत भी। डिग्री की परीक्षा में जो कीर्तिमान बनाए, उसे नौकरी की परीक्षा में क्यों छीन लिया? इस नाइनसाफी से कोई कैसे जूझे? डिग्री देने के लिए जो उचित था, अब अचानक और यकायक कैसे अनुचित हो गया? क्या यह संभव नहीं है कि डिग्री, डिवीजन और नंबर के आधार पर चयन हो? इसके लिए फिर से परीक्षा और प्रतियोगिता की आवश्यकता ही है? एक बार डिग्री खरीदी तो उसका कुछ तो उपयोग हो।
कुछ शंकालु हैं। उनका मत है कि डिग्री प्रचुर दहेज के काम आती है। यदि यह सच भी हो, तब भी दहेज की राशि से जीवन का सफर कैसे पूरा हो सकता है? वह भी जबकि बढ़ती कीमतों से लगातार धन का अवमूल्यन हो रहा है?
वैसे यह तथ्य विचारणीय है कि नौकरी के हर मोड़ पर परीक्षा की दरकार ही क्यों है? देेखने में आया है कि जब प्रमोशन की बारी आती है तब भी कामकाज की गोपनीय वार्षिक रपट का परीक्षण होता है। अर्थात् यहाँ भी अधिकारी के सुर-में-सुर मिलाने वाला सफल है। कर्मचारी या बाबू का अपना नजरिया भी होना कठिन है। कौन कहे, दृष्टिकोण का अंतर प्रगति में सहायक हो वरना ‘यस सर’ की व्यस्तताओं के परिणाम कोई विशेष उत्साहवर्धक नहीं हैं? फिर भी सरकारी और निजी क्षेत्र के अपने-अपने तोते हैं, जो कार्यकुशलता का राम-राम जपते रहते हैं। ऐसा शायद ही हो, जिसे सुखी जीवन के इन रोड़ों को हटाने का खयाल भी आता हो? वैसे यह भी जगजाहिर है कि सरकार और निजी क्षेत्र के कार्यालय कितने कार्यकुशल हैं? यदि ये कार्यकुशल होते तो इनके संदर्भ में ‘कमीशन’ सुविधा-शुल्क या घूस जैसे शब्दों का प्रचलन ही क्यों होता? यह भी एक सर्वकालीन सच्चाई है कि प्रवेश से लेकर प्रमोशन तक परीक्षा के प्रावधान के रहते सुखी जीवन कैसे संभव है?
यों भी हमारे एक परिचित हैं, जो एक धन्नासेठ के पुत्र हैं। जाहिर है कि पिता के काल-कवलित होने के पश्चात् गद्दी उन्हीं ने सँभाली है, जैसा हमारे पारिवारिक प्रजातंत्र का भी चलन है। यदि बाप सत्ताधारी था तो वंशवाद के सियासी सिद्धांत के अनुसार अब बेटा ही बड़की कुरसी का हकदार है।
स्कूल के दिनों में धनपति के पुत्र काफी सक्रिय थे। हमें याद है, टीचर को गंभीरता से न लेने पर, हम दोनों कभी-कभी साथ ‘पनिश’ भी होते थे। दंडस्वरूप कई बार बेंच पर खड़े पाए जाते, कई बार मुर्गा बने। उन्होंने हमें एक बार बाजार में संयोगवश देखा तो पहचानने की कृपा करके भोजन पर घर आने का निमंत्रण दिया। ‘अंधा क्या चाहे दो आँखें’। हमने सोचा कि यह निजी अनुभव भी कर लिया जाए कि संपन्न का भोजन और जीवन कितना सुखी है? उनके बँगले के बाहर गार्ड-रूम था। गार्ड ने अपना कर्तव्य निभाया और हमारा नाम फोन पर बताकर अंदर जाने की अनुमति दी। वहाँ से एक निजी सेवक हमें धनपति के ड्राइंगरूम तक पहुँचाने साथ आया। हमें अच्छा लगा कि उसके साथ होने से भटकने की कोई संभावना नहीं रही। हमारे आते ही धनपति ने घंटी बजाई। एक सेवक ट्रे के साथ अवतरित हुआ। अनार से लेकर ट्रे में संतरे तक का जूस था। जब तक हम यह शीतल पेय का आनंद लेते, उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर हमारा उनसे परिचय करवाया। उन्होंने बड़ी शालीनता से प्रस्ताव दिया कि “चलिए, हम लोग भोजन कर लें।”
खाने की मेज पर दो मौसमी सब्जियाँ और पनीर की भुजिया के साथ अरहर की दाल और गरम रोटी जैसे प्रतीक्षारत थीं। हमने भरपेट भोजन का आनंद लिया, परंतु हमें आश्चर्य हुआ कि हमारे सहपाठी ने खाने का नाटक किया। कभी चम्मच से सब्जी चखी, कभी भुजिया। रोटी को उसने पूरी तरह नकार दिया। खाना समाप्त होने पर उसे सेवक ने तीन-चार रंगों की गोलियाँ दीं, जो उसने पानी से गटक लीं। खाने के पश्चात्, विदा होने के पहले, हमने जानना चाहा कि उसने कुछ खाया क्यों नहीं? उसने उत्तर दिया कि “बैठे-बैठे भूख मर गई है। सुबह घूमने जाता हूँ, पर बढ़े वजन के कारण साँस फूलने लगती है। लौटकर वह नाश्ता तो कर लेता है, फिर भूख नहीं लगती। इसीलिए डॉक्टर की दी हुई यह विटामिन और पाचन की गोलियाँ खाता हूँ।” वैसे वह स्वस्थ और सानंद है, लंच गोल करने से वजन भी घटना-ही-घटना। वैसे पूरे लंच और भेंट के दौरान उसके चेहरे की मनोहारी मुसकान तिरोहित रही, जैसे स्कूल के दिनों में अकसर हर शरारत के वक्त उसके साथ रहती।
उसने यह भी स्वीकार किया कि अब वह मुसल्सल तनाव में रहता है। किस वस्तु की कीमत कितनी रखी जाए कि माल ज्यादा बिके? मुनाफा मूल्य निर्धारण प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। समय प्रतियोगी है दूसरों के मुकाबले उसकी दुकान की बिक्री कैसे अधिक हो? उसके पिता ने उसे ज्ञान दिया था कि मुनाफा दाल में नमक बराबर होना चाहिए, वरना दाल खाने योग्य नहीं रहती है। बड़े गहन-मनन के बाद मूल्य इस आधार पर तय किए जाते हैं कि अपने जीवन की गुणवत्ता भी बनी रहे, सामान की भी और बाजार-मूल्यों की प्रतियोगिता भी।
इस दायरे में अपनी सफलता से उसे संतोष है। फ्री राशन की दुकान पर निर्धनों के सामान, उसकी दुकान पर भी ‘क्यों’ लगता है, जैसे खरीददार भी सहमत हैं कि सस्ते और सही समान की मंजिल पाने के लिए कतार में लगना समय की बरबादी न होकर उसका उचित उपयोग है। यह बताने के बाद उसके चेहरे पर एक पल को पुरानी मुसकान की झलक दिखी, फिर गायब होने के लिए। जैसे जिंदगी के सतत पीड़ा के अध्याय में एक सुख या खुशी का क्षण आया हो, जब नायक अपनी नायिका का पहली बार दर्शन करता है। फिर उससे सदा के लिए बिछड़ने के पर्व। इधर प्रेम का भावनात्मक आधार कब का दरक चुका है, उसके स्थान पर आज उसका तार्किक आधार है, जिसमें शक्ल-सूरत से लेकर कमाऊ पद, वाहन, घर और बैंक-बैलेंस आदि के महत्त्वपूर्ण पक्ष सम्मिलित हैं। जिसे प्रेम कहा जाता है, वह सिर्फ जीवन के मंच का नाटक है, जिसका सुखद या दु:खद अंत इन्हीं भौतिक तत्त्वों पर निर्भर है। चोंच-से-चोंच मिलाए चिड़ियों का अभिनय भी प्रेमी-युगल तभी करते हैं, जब बुद्धि के परीक्षण पर पुरुष खरे उतरते हैं, वरना अस्थायी दोस्ती, चाय-नाश्ते, खाने के बिल चुकाने का सफर तो चल ही जाता है। खर्च करने का कर्तव्य भी अधिकतर पुरुष का ही होता है। पर इनमें भी कुछ अनुभवी व समझदार हैं। खाने-पीने के बाद वह जींस की कई जेबें तलाशते हैं। उनके चेहरे पर निराशा के भाव उभरते हैं और वह रुआँसी आवाज में ‘पर्स भूल आने’ की चूक स्वीकार करते हैं। जाहिर है कि वह भी अभिनय कला के सिद्ध कलाकार हैं। संभव है कि पारस्परिक व्यवहार में, आजकल सच का स्थान अभिनय ने ले लिया है। कत्थक नृत्य में जैसे मुद्राओं का प्रदर्शन है, वैसे ही सभ्य और आधुनिक संदर्भ में झूठ का? कहना कठिन है कि क्या सच है क्या मिथ्या? लगता है कि जैसा शेख पीरू कह गए है, जीवन सिर्फ नाटक का मंच है। पहले कभी यह कथन काल्पनिक लगता था, पर अब यही जीवन में पारस्परिक व्यवहार की वास्तविकता है।
हमें शक है कि हमारे परिचित भी अपने तनाव के तिल का पहाड़ बनाने पर आमादा तो नहीं हैं? तभी उन्होंने अपनी बेचने की प्रतिभा का हम पर प्रयोग किया। ‘किसी दिन, सुविधानुसार आप भी आइए और सुझाइए कि हम अपने ग्राहकों की सेवा के लिए और क्या कर सकते हैं?’ उनके इस कथन से हम प्रभावित हुए। हममें यदि पैसे कमाने की प्रतिभा होती तो हम भी कोई उद्योग लगाते, बैंक से उधार लेकर उसे न चुकता करने के इरादे से या अपनी दुकान ही चलाते। बाबूगीरी करके दाल-रोटी का सोचकर क्यों रोज अपनी नींद खराब करते? या शादी के निमंत्रणों की प्रतीक्षा या कैंटीन में मिलने वालों की जेब काटकर चाय-मिठाई का सुख क्यों भोगते?
हमारे छोटे शहर के दफ्तर में एक कवि भी है। हर अफसर की सेवा-निवृत्ति हो या तबादला, उस अवसर पर उनका कविता-पाठ जरूर होता है। हम उनकी तुकबंदी की कला के प्रशंसक हैं। हमारे धनपति परिचित स्वयं को न स्वयं टाटा, बिड़ला, धीरू भाई के समकक्ष मानते हैं, न उन्हें अपने भविष्य को लेकर ऐसा कोई भ्रम है। हमारे कविराज, दफ्तर में भले ही स्वागत या विदाई गान सुनाएँ, उन्हें स्वयं के बारे में श्रेष्ठ हास्य-कवि होने का मुगालता है। जब लोग उनकी हास्यात्मक शक्ल और मुद्रा पर हँसते हैं तो वह इसे अपनी कविता का असर मानते हैं। जैसे गधा सावन की हरी घास देखकर ‘हौंचियाता’, यानी पेट भरने की प्रबल संभावना में हौंची-हौंची करता है। यह कविता का मंच देखकर गद्गद हो जाते हैं।
कवि-सम्मेलन का मंच उनके जीवन का ऐसा आकर्षण है कि कोई बुलाए-न-बुलाए, वह हर ऐसे अवसर की शोभा हैं। यहाँ तक कि कभी आयोजक के पैर पकड़कर वह मंच पकड़ लेते हैं। आसपास के जिलों में उन्होंने अपनी ऐसी हास्यास्पद छवि बनाई है कि वह कवि-सम्मेलनी सर्कस के जोकर बन गए हैं। उनकी आ धमकने की प्रवृत्ति से अब हर आयोजक परिचित है। लिहाजा, बला टालने के अंतर्गत वह इन्हें निमंत्रित कर लेता है। इस प्रकार का हर कवि-लेखक अपने प्रशंसक पालने में निपुण होता है। ट्रेन का टिकट कलेक्टर या बस का कंडक्टर-ड्राइवर, दोनों इनके आदर्श शिकार हैं और वह इनकी संक्रामक तुकबंदी के। दोनों में इनकी बिना टिकट यात्रा का जुगाड़ है। यह बस कंडक्टर या रेल के टिकट चैकर की शान में उनके और उसके खानदान की प्रशंसा में तुकबंदी रचते-सुनाते हैं। आयोजक भी प्रसन्न हैं। किराया दो-न दो, कवि हाजिर है।
इनकी महानता का मुगालता ऐसा गंभीर है कि यह कैंटीन के सिर्फ साक्षर मैनेजर के उसकी जाहिर साहित्यिक अरुचि के बावजूद अपनी उपलब्धियाँ सुनाते हैं। वह घटिया मिठाई बेचने के चक्कर में हाँ-हूँ करता रहता है, वरना कविता से उसका वही रिश्ता है, जो कबाड़ी का कबाड़ से। दोनों के लिए कबाड़ हो या कविता, केवल पेट पालने के साधन हैं। यदि किसी की मूर्खतापूर्ण वक्तव्यों से बिक्री बढ़ती है, तो उन्हें सुनने में उसे क्या अापत्ति है? इधर कविराज पूरी कैंटीन को ज्ञान दे रहे हैं, “हास्य कविता के पुराने दिग्गज जैसे गोपाल प्रसाद व्यास हों या ओमप्रकाश आदित्य अथवा शैल चतुर्वेदी, हमसे मुकाबला करें। दीगर है कि पुस्तक प्रकाशन में हमारी आस्था नहीं है, पर हमने इन सबसे अधिक कवि-सम्मेलनों में भाग लिया है और हजारों का मनोरंजन किया है। हमारा नाम सुनकर श्रोताओं के चेहरे पर मुसकान आती है, हमें देखकर वे खिलखिलाते हैं और सुनकर तो लगातार ताली बजाते हैं।”
बहुत दिनों के बाद किसी काम से आया मूँजी फँसा है, इन्होंने संबद्ध बाबू से उसे मिलाने और कार्य करवाने का वादा किया है और एवज में स्वयं की विरुदावली गाकर, हर उपस्थिति कर्मचारी को वह तुक्कड़ और चाय सुखद रहे हैं।
पता नहीं उन्हें बोध है कि नहीं, उनकी महानता कैंटीन तक सीमित है। मुफ्त की चाय के चक्कर में उनकी तुकबंदी भी बर्दाश्त है। पर महानता का मुगालता एक लाइलाज मर्ज है। इसके रोगी नए फैशन की दाढ़ी रखते हैं। उनका मुँह दाँतों के प्रदर्शन को बहुधा खुला रहता है। अपने ‘लाफ्टर-मैन’ होने की कल्पना से उन्हें भरपूर नींद आती है और कवि-सम्मेलनों के सपने। गनीमत है कि शक्ल-सूरत और सीरत देखकर किसी भी कविता-सविता-विनीता ने उनके साथ जीवन बिताने का खतरा नहीं उठाया। वह अभी भी कुँवारे हैं। उनकी स्वीकारोक्ति है कि ‘कविता के लिए हमने घर-बार, गृहस्थी सबकुछ त्याग दिया है।’ इसके बाद वह प्रश्न करते हैं कि “साहित्य की सेवा में और किसने ऐसी कीमत चुकाई है?”
एक बार तुक्कड़जी एक प्रसिद्ध गीतकार का झोला उठाए, विदेश क्या हो आए, वह अखिल भारतीय तुक्कड़ कवि से तरक्की कर अब अंतरराष्ट्रीय तुक्कड़ हो गए हैं। कितने ऐसे हैं, जिन्हें यह गौरव हासिल है? इसके अलावा शिकागो में तुक्कड़जी को गीतकार की सेवा के लिए ‘कर्तव्यपरायणता’ का प्रमाण-पत्र भी मिल चुका है। कोई और है, जिसे अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ है? सच भी है। प्रश्न साहित्य का है। सवाल यह भी है कि तुक्कड़जी ने जीवन भर तुकबंदी की है या कविता रची है? तुक्कड़ सेवा अर्थात् तुकबंदी में उनका योगदान महान् है। उन्हें महानता का मुगालता है। जब कोई इसी मुगालते से त्रस्त है तो इस क्षेत्र में प्रतियोगिता कैसे संभव है? यह साहित्य की न होकर महानता के भ्रम की दौड़ है। हमारे छोटे शहर में ऐसे कितने महान् हैं? मुगालते के क्षेत्र में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने जैसा वह स्वयं मानते हैं, इसकी कीमत भी चुकाई है।
नहीं तो साहित्य में ही क्यों, जीवन के हर क्षेत्र में प्रतियोगिता है, सरकार में अच्छे पद की राजनीति में सत्ता की, धनपतियों से मुनाफे की। प्रतियोगी इसी चिंता में लगा है कि कहीं दूसरा कोई आगे न निकल जाए? इस सोच में डूबा इनसान सुखी कैसे रह सकता है? सृजन और संवेदना का बादल और बरसात जैसा साथ है। जो संवेदनशील है, वह दूसरों के दु:ख तक से दु:खी है। उसे उनकी पीड़ा सताती है, जो अभाव ग्रस्त है, जिनके पास दो जून की रोटी खाने के साधन नहीं हैं। ऐसे भी हैं, जिन्होंने श्रम-परिश्रम से डिग्री पाई है, पर नौकरी के अभाव में बीड़ी-सिगरेट और पान मसाले का ठेला लगाने को विवश हैं, वर्दी की जेब गरम करने को भी।
इन परिस्थितियों में सुखी रहना सच न होकर सिर्फ एक कल्पना है। ऐसे तुक्कड़जी जैसी हस्तियाँ ही सुखी हैं। ऐसे वास्तविकता में कम, भ्रम में अधिक डूबे हैं। ‘जिन्हें न ब्यापै जगत गति’ ऐसे तुक्कड़जी जैसे व्यक्ति सुखी हैं। कहीं वह सुख के भ्रम में जीवित हैं या मुगालते में, कहना कठिन है। यों अपने-अपने संत्रास हैं। कहीं प्रतियोगिता के, कहीं मुगालते के। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जीवन में कोई भी सुखी नहीं है? यदि यह निष्कर्ष सही नहीं है तो हमें भी पल भर की प्रसन्नता मिलेगी? हमें लगेगा कि खुशी की खोज मुगालते का सच है।
९/५, राणा प्रताप मार्ग,
लखनऊ-२२६००१
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