सुपरिचित गजलकार। सात गजल-संग्रह तथा तीन चयनित गजलों के संग्रह; हरेराम समीपजी द्वारा संपादित एक संग्रह ‘चुने हुए शेर’ भी प्रकाशित। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अदम गोंडवी सम्मान-२०२०, गजलें उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगाँव के एम.ए. हिंदी (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में सम्मिलित। उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग से अधीक्षण अभियंता पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात् स्वतंत्र लेखन।
: एक :
जो हमने की है वो नेकी-बदी हमको भी मिलती है
जिसे जो चीज दी, अकसर वही हमको भी मिलती है।
नजरअंदाज कर दो इतना क्यों मायूस होते हो
सभी के साथ है ये, बेरुखी हमको भी मिलती है।
जरूरी है हिफाजत हम करें इन पेड़ों की हरदम
इन्हीं की जिंदगी से जिंदगी हमको भी मिलती है।
कभी जब बैठते हैं दोस्तों के साथ हम जाकर
हँसी के रूप में संजीवनी हमको भी मिलती है।
नहीं ऐसा कि खुश होता हो बस वो शख्स ही उससे
किसी के काम आने से खुशी हमको भी मिलती है।
भले मन से उसे स्वीकार कर पाते नहीं हैं हम
मगर आलोचना से बेहतरी हमको भी मिलती है।
निकल जाते हैं आगे फेसबुक पर ‘वाह’ करके हम
वहाँ रचनाओं में अकसर कमी हमको भी मिलती है।
: दो :
खुद अपनी छवि को जो पहले बिगाड़ लेता है
तरह-तरह की वही शख्स आड़ लेता है।
बयान देने से पहले न सोचता कुछ भी
सवाल पूछो तो पल्ला वो झाड़ लेता है।
जब आदमी कोई फँसता नशे के दलदल में
तो फिर वो अपनी ही दुनिया उजाड़ लेता है।
रहा न गाँव की मिट्टी से गहरे जुड़कर जो
जड़ों सहित वही खुद को उखाड़ लेता है।
है अनुभवों का खजाना जरूर उसके पास
जो शख्स वक्त को आहट से ताड़ लेता है।
किसी से उसका कोई काम अगर निकल आए
वो उससे रिश्ता कोई जोड़-जाड़ लेता है।
लिखा है प्रेम तो सबके ही धर्म-ग्रंथों में
है कौन, उनमें से पन्ने वो फाड़ लेता है।
: तीन :
तुमको साकार अगर करना है सपना अपना
आत्मविश्वास बनाए सदा रखना अपना।
सीख ‘उम्मीद’ हमेशा ये मुझे देती है
दिल किसी हाल में छोटा नहीं करना अपना।
उसके दिल में थी गलतफहमी मेरे बारे में कुछ
फिर भी छोड़ा नहीं मैंने उसे कहना अपना।
मंजिलें आ रही हैं पास भरोसा रखिए
व्यर्थ जाएगा कभी भी नहीं चलना अपना।
आस्था पर किसी की टिप्पणी करनी ही क्यों
क्या गलत, क्या सही, विश्वास है अपना-अपना।
बाँटने की ही सियासत जो किया करते हैं
उनको भाएगा कहाँ मिल के ये रहना अपना।
पूरी दुनिया को उजाला उसे देना है ‘यती’
छोड़ सकता नहीं सूरज कभी जलना अपना।
: चार :
थी चकाचौंध, किसी को कोई पहचानता क्या
रोशनी तेज थी इतनी कि कोई देखता क्या।
लोग उस शख्स के दर्शन को वहाँ यूँ उमड़े
उससे बढ़कर भला होता भी कोई देवता क्या।
उसको इस दौर में जब झूठ अधिक रास आया
फिर भला आदमी वो सच को बड़ा मानता क्या।
आस्था थी तो मैं जाता रहा मंदिर-मंदिर
पास जो था वो बहुत था तो भला माँगता क्या।
हौसले साथ थे, खुद पर था भरोसा भी बहुत
मुझको मंजिल पे पहुँचने से कोई रोकता क्या।
मेंड़, चकरोड के झगड़ों से बढ़ीं दूरियाँ यूँ
गाँव पहुँचा तो कोई हाल मेरा पूछता क्या।
जो कोई आया वो चुपचाप वहाँ बैठ गया
इतना सन्नाटा था पसरा कि कोई बोलता क्या।
एच-८९, बीटा-२
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