जाने-माने व्यंग्यकार। व्यंग्य की १८ पुस्तकों सहित कुल ४८ पुस्तकों (राजभाषा, विज्ञान, बाल साहित्य आदि) का लेखन। सरकारी कामकाज में हिंदी, विज्ञान के क्षेत्र में भारत, भारत में कंप्यूटर क्रांति, चार्ली चैपलिन की कहानी, जब आसमान से तारे तोड़े आदि भी। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी सम्मान, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार, डॉ. मेघनाथ साहा पुरस्कार, व्यंग्य श्री सम्मान, शरद जोशी सम्मान एवं अन्य सम्मान प्राप्त। टी.वी./रेडियो के लिए १०० से ऊपर धारावाहिकों का लेखन।
मास्टर रामभरोसे को हारमोनियम बजाते हुए सिर्फ बारह साल हुए थे। इन बारह सालों की छोटी सी अवधि में उन्होंने पूरी तीन धुनें सीख ली थीं। उन धुनों को वह बजाते भी इतने खास तरीके से थे कि संगीत के बड़े-बड़े कद्रदान तक भी उन्हें नहीं समझ पाते थे। लिहाजा वे थोड़ी देर बाद ही वहाँ से भाग खड़े होते थे। उनकी इस तरक्की को देखकर गाँव वाले तो दूर, घर के लोग तक उनसे जलते थे। पर कसम ले लो, जो मास्टरजी ने अपनी इस अद्भुत प्रतिभा का जरा भी घमंड किया हो।
सच्ची बात तो यह थी कि मास्टरजी जैसा परिश्रमी, त्यागी और लगनशील आदमी आसपास के गाँवों में नहीं था। इतने मेहनती कि स्कूल में बच्चों को कूट-पीटकर आए, आते ही खाना बनाया और फिर लेकर बैठ गए अपना हारमोनियम। इसी संगीत भक्ति के कारण पहले उन्हें उनकी इकलौती बीवी ने त्यागा, फिर बूढ़ी माँ दुनिया त्याग गई। अलबत्ता पिताश्री बड़े बेटे के पास शहर चले गए। मतलब यह कि मास्टरजी खाँटी त्यागी स्वभाव के व्यक्ति थे। संगीतप्रेमी इतने कि सुबह-शाम-रात हर वक्त या तो हारमोनियम बजाते या हारमोनियम की चर्चा करते। स्कूल में भी बच्चों को उस समय तक कूटते थे कि जब तक वे सा रे गा मा पा न करने लगें।
ऐसे अद्भुत संगीत प्रेमी मास्टरजी के कुछ शिष्य भी थे। उनमें बजरंगी पहलवान, घीसू दर्जी और मनोहरा प्रमुख थे। बजरंगी पहलवान मास्टरजी के परम शिष्य थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय सात साल में पूरी एक धुन सीखकर दिया था और अब अगली धुन सीखने को बुरी तरह आमादा थे। कई बार इस चक्कर में उन्हें हारमोनियम से कुश्ती भी लड़नी पड़ी, जिसमें जाहिर है, हर बार हारमोनियम ही हारा था। मास्टरजी को उसकी मरहम-पट्टी करनी पड़ी, तब जाकर संगीत-साधना आगे बढ़ी।
वैसे बजरंगी पहलवान के शिष्य बनने की कहानी भी खासी मजेदार है। बजरंगी एक दिन भरी दोपहर में चार-चार पहलवानों को कुश्ती में हराकर आए, पर वह थके नहीं। इत्तिफाक से उन्हें मास्टरजी का हारमोनियम सुनने का मौका मिल गया। बस पहलवान का माथा घूम गया। आधे घंटे के संगीत ने ही उनके बाजे बजा दिए। नतीजा कि पहलवान बेहोश होकर गिर पड़े। आज पहलवान वाकई में चित्त हो गए। होश में आते ही उन्होंने हारमोनियम का लोहा मान लिया और मास्टरजी को गुरु। दो सेर दूध की दक्षिणा स्वीकार करने के बाद मास्टरजी ने उन्हें अपना चेला बना लिया।
कुछ ऐसी ही कहानी घीसू की भी थी। घीसू घर में माँ की मार और गालियाँ खाते-खाते ऊब गया था। गालियाँ ज्यादा भारी होती थीं। उससे हल्की उसे हारमोनियम की पें-पें लगी, सो वह भी मास्टरजी का चेला बन गया।
अलबत्ता मनोहरा को संगीत का शौक अपनी बकरियों की बदौलत मिला। जब भी मास्टर हारमोनियम बजाते, बकरियाँ उनकी धुन-में-धुन मिलातीं। हारमोनियम पें-पें करता, बकरियाँ में-में करके सुर-से-सुर मिलातीं। शानदार समाँ बँध जाता। मनोहरा को लगा कि जब बकरियाँ संगीत साधना कर सकती हैं तो वह क्यों नहीं? सो वह भी मास्टरजी का शिष्य बन गया। तो यह थी उसके मास्टरजी का शिष्यत्व ग्रहण करने की कथा।
मास्टरजी का संगीत स्कूल बड़ी श्रद्धा से चल रहा था। रोज सात-आठ घंटे रियाज होता। मास्टरजी का हारमोनियम बजता, पहलवान गाते, घीसू ढोलक बजाते और मनोहरा चिमटिया रवाँ करते। इस शानदार संगीत साधना के दृश्य का मोहल्ले के सभी जानवर सुविधानुसार अवलोकन करते। श्रद्धानुसार कुत्ते भौंकते, गधे ढेंचू-ढेंचू अलापते और गायें रँभातीं।
कई बार दर्शकों में सच्ची-मुच्ची के आदमी भी होते। इनमें सबसे बड़ी उम्र का आदमी तेरह साल का बिंदा था। वह संगीत का सच्चा प्रेमी था, इसलिए मंच पर अपनी भैंसों के साथ रोज संगीत सुना करता। भैंसों की भें-भें और पें-पें में सामंजस्य के बदले में मालिक से रोज शाम को धुना जाता। पर इन छोटी-मोटी चीजों के आगे उसने संगीत प्रेम को ही महान् माना, उसे नहीं छोड़ा। उसके बाद संगीत प्रेमियों, बल्कि यों कहें कि मास्टरजी के शिष्यों की संख्या बढ़ती गई।
एक दिन बिंदा कस्बे से खबर लाया कि वहाँ लल्लू भाई की नौटंकी लगी है। क्या फंटास नौटंकी है, क्या हारमोनियम बजता है, क्या ढोलकी बजती है...वो दारी की छमिया क्या नाचै है। वह और भी बोलता, पर पहलवान का हाथ उसके मुँह पर ढक्कन की तरह कस गया। पहलवान का गुस्सा जायज था, भला उन लोगों से बढ़िया कौन गा-बजा सकता था। पर मास्टरजी सहिष्णु प्रवृत्ति के आदमी थे। कलाकारों का सम्मान करना जानते थे। सो उन्होंने बिंदा को पहलवान से छुड़ाया। पहलवान के कान में कुछ फुसफुसाया। नतीजा यह निकला कि उसी दिन चारों गुरु-चेले नौटंकी देखने गए।
नौटंकी काफी शानदार थी। नाचने वाली छमिया उससे भी शानदार थी। उससे भी बढ़कर था, नौटंकी कला का सम्मान और नौटंकी वालों को मिलने वाले नीले-नीले नोट।
बस फिर क्या था। मास्टरजी की आँखों में एक सपना कौंध गया। उन्होंने सपने को पहलवान के कान में डाला, वह उछल पड़ा। थोड़ी देर बाद घीसू, मनोहरा, बिंदा वगैरहा भी उछले। इस उछलने का परिणाम यह हुआ कि अगले दिन गाँव में बोर्ड लग गया—मास्टर रामभरोसे नौटंकी कंपनी। खेलने के लिए नौटंकी भी चुन ली गई—लैला-मजनू।
रिहर्सल शुरू हुई। परेशानी एक थी कि मजनू तो सारे थे, पर लैला कोई नहीं थी। सो बिरमा के लड़के दिनेसिया को लैला के रोल के लिए चुना गया। वह रंग में लैला को तो क्या कौए को भी मात देता था। नाचने में नौटंकी की छमिया की टक्कर का था। पर मामला उसे पटाने का था। कुछ मास्टर साहब की मास्टरी, कुछ पहलवान के बाजू और सबसे बढ़कर रोज बीड़ी के बंडल-माचिस का आॅफर। बस काम बन गया। दिनेसिया लैला बन गया, अलबत्ता मजनू पहलवान ही बने। उनके होते हुए हीरो और कोई बन भी कैसे सकता था। मतलब खोमचा जम गया। कुछ छोटी-मोटी परेशानियों के बाद रिहर्सल संपन्न हुई।
अब चिंता यह हुई कि इस शानदार नौटंकी को खेला कहाँ जाए? मास्टरजी ने ग्राम प्रधान के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न नौटंकी का पहला शो गाँव की चौपाल पर रखा जाए, वह भी फ्री। आखिर कलाकारों पर गाँव का भी कुछ हक बनता है, पर ग्राम प्रधान तैयार नहीं हुआ। अलबत्ता, उसने नौटंकी के लिए चंदा जरूर दे दिया, साथ ही ताकीद भी कर दी कि अगर गाँव में नौटंकी करने की सोची तो चंदा वापस ले लिया जाएगा। इस प्रकार गाँव महान् कलाकारों की शानदार कला का नमूना देखने से वंचित रह गया।
आखिर अपने महान् कलाकारों की तकदीर खुली। दरअसल, हुआ यह कि पड़ोस के गाँव का सत्रह बरस का बिसना अपनी खोई हुई भैंस को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते इस गाँव में आ पहुँचा। भैंस जो थी, वह नौटंकी कंपनी के सामने खड़ी संगीत सुन रही थी। बिसना प्रसन्न था। उसने मास्टरजी देखे, उनका हारमोनियम देखा। मजनू बने पहलवान देखे और फिर देखा दिनेसिया उर्फ लैला काली का डांस। बस वह मुग्ध हो गया। वैसे वह संगीत का अव्वल दर्जे का शौकीन और दूसरे दर्जे का बहरा था। यानी कानों से थोड़ा लाचार था। सो उसने मास्टरजी एंड कंपनी की संगीत साधना ज्यादा देखी और थोड़ी सुनी। इसे देखकर उसके मन में कौंधा कि क्यों न इन महान् कलाकारों की प्रतिभा की प्रदर्शनी अपने गाँव में कराई जाए। उसने मास्टरजी से इस बारे में बात की तो मास्टरजी खुशी के मारे बेहोश होते-होते बचे। आखिर उनकी कला का कोई कद्रदान तो मिला। पहलवान ने इसी खुशी में उसे पूरी दो बीड़ियाँ पिलाईं। दिनेसिया यानी अपनी छमिया ने उसे अपनी बाँकी चितवन प्रेजेंट की। बिसना सैंटी हो गया। जाते समय वादा करके गया कि जल्द ही वह अपने गाँववालों को मास्टरजी की नौटंकी के लिए मना लेगा।
बिसना चला गया। उसके जाते ही नौटंकी के कलाकारों की नींद भी चली गई। वे जागती आँखों से सपने देखते कि उनकी नौटंकी चल रही है। लोग उन्हें फूल-माला चढ़ा रहे हैं, उन्हें नोटों से लाद रहे हैं। ऐसे ही सपनों ने उनके १०-१२ दिन काट दिए।
कुछ दिन बाद सच्ची में एक चिट्ठी आ गई। चिट्ठी सचमुच बिसना के गाँव बिस्नोई से थी, जिसमें मास्टरजी की कंपनी को गाँव में नौटंकी खेलने का न्योता दिया गया। इसके एवज में पाँच सौ रुपए देने की भी बात थी। चिट्ठी पढ़ते ही नौटंकी के कलाकार उछल पड़े। उन्होंने बिस्नोई वालों को धन्य करने की ठान ली, यानी नौटंकी का न्योता स्वीकार कर लिया।
अभी नौटंकी में पाँच दिन बाकी थे। सो सारे कलाकारों ने रिहर्सल के कुछ दौर और पूरे किए। छोटी-मोटी मुश्किलात भी आईं। मसलन, मास्टरजी चुनी हुई धुन भूल गए, पहलवान की मूँछों पर ताव देने और पटों पर हाथ मारकर अखाड़े में उतरने की आदत नहीं छूटी। घीसू की ढोलक की थाप दो-चार बार रास्ता भटक गई। किस्सा कोताह यह है कि रिहर्सल किसी तरह संपन्न हो गई। अब मास्टरजी और उनकी टीम नौटंकी के लिए तैयार थी। हर तरह से संतुष्ट होने के बाद नौटंकी टीम बिस्नोई गाँव पहुँच गई।
शाम को नौटंकी शुरू होनी थी। गाँववालों ने बढ़िया स्टेज बनाया था। उसके लिए चार बड़े तख्त लगाए गए थे, जिनमें से सिर्फ तीन की टाँगें जख्मी थीं। उनके नीचे ईंटों का पुख्ता इंतजाम था। हर तख्त पर कुछ कीलों ने मुँह खोल रखा था, ताकि बैठने वाला चौकन्ना रहे और आलस न करे। तख्त पर सफेद चादरें बिछी थीं, उनमें गोबर के बेलबूटे बने थे। एकाध जगह बीड़ी से जलने के दाग थे, जहाँ यह चित्रकारी नहीं थी, वहाँ पान की पीक ने मामला सँभाल लिया था। अलबत्ता चादरों के कोनों पर चूहों की कारीगरी के निशान थे, उन्होंने इतनी सफाई से सारे कोने कुतरे थे कि उन्हें देखकर होशियार-से-होशियार दर्जी भी शरमा जाता। स्टेज पर लाइट का बहुत शानदार इंतजाम था। दो पेट्रोमेक्स जल रहे थे, उनके आसपास बहुत से कीट-पतंगें और मच्छरों की भीड़ भी जमा हो गई थी, जो यकीनन नौटंकी का आनंद लेने आई थी। स्टेज की रक्षा-व्यवस्था भी बहुत चौकस थी। स्टेज के चारों किनारों पर चार लट्ठ अड़े थे, उन्हीं के साथ चार मुच्छड़ भी खड़े थे। मतलब, सारा मामला चकाचक था। देरी थी तो बस नौटंकी शुरू होने की।
ठीक दस बजे मास्टरजी अपनी टीम के साथ स्टेज पर प्रकट भए। काँपते हाथों और लड़खड़ाती टाँगों तथा सूखते गले के साथ उनका आगमन हुआ। उसके बाद मास्टरजी ने मन-ही-मन हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए हारमोनियम सँभाला। आखिर गणेश-वंदना उन्हीं को करनी थी। कँपकँपाती उँगलियों और धड़धड़ाते कलेजे के साथ मास्टरजी ने हारमोनियम के सुर छेड़े। धुन इतनी शानदार थी कि मास्टरजी को खुद ही समझ में नहीं आई। धुन के समाप्त होने पर मास्टरजी और उपस्थित भीड़ दोनों ने एक साथ राहत की साँस ली।
अब कला का असली पैमाना छलकने वाला था, यानी नौटंकी ‘लैला-मजनू’ शुरू होने वाली थी। इधर स्टेज के पीछे का हाल थोड़ा गड़बड़ था, वहाँ लैला काली यानी दिनेसिया मंच पर आने को तैयार नहीं थे। मंच पर इतने सारे लोगों को देखकर उन्हें हाजत की तलब लग आई थी। वह तो कहिए कि सही समय पर पहलवान की पहलवानी काम आ गई, जो उन्होंने लैला काली को उठाकर मंच पर फेंक दिया। वरना नौटंकी लैला के बिना ही करनी पड़ती। लैला तो अब भी मंच से भागने वाली थी कि मजनू बने पहलवान भी उसके पीछे-पीछे ही मंच पर आ धमके। सही बात है, भला कौन मजनू अपनी लैला को भागने देता।
मास्टरजी का माथा यह देखकर गरम हो गया। पहले सीन में तो लैला को अकेले होना था। यहाँ ये मजनू क्या कर रहा है? उन्होंने इस दृश्य को देखकर एक हाथ से अपना माथा ठोका और दूसरे हाथ से लैला-मजनू को इशारा किया कि वे अपने डायलॉग बोलें। मास्टरजी का इशारा पाते ही लैला-मजनू ने जहाँ-जहाँ से जितने याद थे, उतने डायलॉग बोलने शुरू कर दिए। डायलॉग बोलने की गति इतनी तेज थी कि राजधानी एक्सप्रेस भी उनका मुकाबला नहीं कर सकती थी। दोनों कलाकारों ने पूरा ध्यान रखा था कि डायलाॅगों का मतलब अगर उनके समझ में नहीं आ रहा है तो किसी को भी समझ में न आए।
इन दोनों के डायलॉग सुनते ही मास्टरजी ने अपना हारमोनियम बजाना शुरू किया तो उसके कुछ ही देर बाद लैला काली ने रोना। उधर पहलवान अपनी जाँघों पर हाथ मारते हुए, मूँछों पर ताव देते हुए लगातार डायलॉगबाजी किए जा रहे थे। इन तीनों के सहयोग से जो मिले-जुले स्वर निकले, उन्हें सुनकर जनता काफी प्रसन्न भई।
इसी प्रसन्नता के अतिरेक में एक लंबा-चौड़ा जाट अपने सिर से भी लंबी लाठी लिये मंच पर प्रकट हुआ। मंच के तख्ते पर लाठी भाँजते हुए बोला, “का रे ससुरो, ठीक से नाटक करो। ये क्या नौटंकी लगा रखी है।” मास्टरजी उसके लट्ठ की गमक से अंदर तक हिल गए। उनके अंदर बकरे की आत्मा प्रवेश कर गई। सो वह मिमियाते हुए बोले, “हुजूर... थोड़ा सब्र रखिए। अब असली नौटंकी शुरू होने वाली है। देखना, अब बढ़िया सीन शुरू होंगे।” वाकई कुछ ही देर में बढ़िया सीन शुरू हो गए।
बढ़िया सीनों की शुरुआत के पहले, मास्टर को जितना भी हारमोनियम बजाना आता था, वह भूल गए। दूसरे सीन में लैला काली को डायलॉग भूलने का दौरा पड़ा, फिर घीसू मियाँ लुढ़के और आखिर में पहलवान भी चित्त हो गए। रुँधे गले, काँपते टखनों और मिमियाती आवाजों के साथ, जो सुर जनता तक पहुँचे, वे काफी असरदार थे।
भीड़ पर इसका वाजिब असर पड़ा। इस बार आठ लट्ठ और डेढ़-दो सौ गालियाँ मंच पर पहुँची। शोर के साथ प्रेम-निवेदन भी पहुँचा, “सुसरो, ढंग से नौटंकी कर लो, नहीं तो यहीं काटकर फेंक देंगे।” इस निवेदन के बाद तो कलाकारों के पेट का बचा-खुचा पानी भी खुश्क हो गया। खुश्की के इस दौर में पहले हारमोनियम बंद हुआ, फिर ढोलक के सुर फिसले, आखिर में लैला-मजनू के फुसफुसाते डायलॉगों ने भी दम तोड़ दिया।
अब तो भीड़ का धैर्य जवाब दे गया। मुच्छड़ों के साथ उनकी लाठियाँ भी मंच पर पहुँच गईं। उन्होंने कलाकारों की कला की खूब सेवा की। तड़-तड़, दन-दन...अरी अम्मा...हाय दैया...मार दिया जैसे स्वर वातावरण में उभरने लगे। मास्टरजी मिमियाए, माफ करने की अपील की। निवेदन भी किया कि वह कसम खाते हैं कि अब जिंदगी में नौटंकी नहीं करेंगे, उन्हें जाने दीजिए। पर गाँव वालों को संगीत से, कलाकारों से बहुत प्यार था। सो वे उन्हें कैसे छोड़ते!
मास्टरजी ने बहुत हाथ-पैर जोड़े, पर संगीत प्रेमी भीड़ नहीं मानी। उसे नौटंकी देखनी थी और हर हालत में देखनी थी। सो थोड़े लाठी-गाली इंटरवल के बाद नौटंकी फिर शुरू हो गई। इस बार मास्टरजी प्रोक्टर की भूमिका में आ गए। पहले मास्टरजी बोलते, फिर पात्र उन्हीं शब्दों को दुहराते। ये खेल पूरे तीन मिनट चला। इस तीन मिनट में मास्टरजी का गला सिर्फ पाँच बार भर्राया। पहलवान यानी मजनू ने पूरे सात डायलॉग बोले। लैला ने सिर्फ एक डायलॉग बोला, “हाय दैया, मुझे जाने दो, छोड़ दो।” पर पहलवान उसे कसकर पकड़े हुए थे, सो वह बेचारी कहाँ छूट पाती। बस एक बार इश्किया डायलॉग बोलते-बोलते मजनू का हाथ उसकी मूँछों पर गया ही था कि लैला काली मंच से कूदकर भाग निकली। नौटंकी का यही अंतिम दृश्य था।
उसके बाद तो पहले पकड़कर लैला काली की सुताई हुई, फिर मजनू और सबसे बाद में घीसू तथा मास्टरजी की कलाकारी निकाली गई। गाली-घूँसें, लातें-लाठियों ने सबके स्वागत का जिम्मा सँभाला। उसके बाद भीड़ ने उन्हें रस्सियों से बाँध दिया। फिर गंगा डोली करते हुए सारे कलाकारों को एक गड्ढे के पास ले गए।
अबकी बार हमारे कलाकारों में बिल्ली की आत्मा ने प्रवेश कर लिया। सो वे मिमियाए, रिरियाए, बाल-बच्चों की दुहाई दी, अंत में हमेशा के लिए संगीत साधना का त्याग करने की घोषणा की, तब जाकर गाँव वाले पसीजे।
सभी कलाकारों को फावड़े और तसले थमाए गए। आदेश मिला कि वे अपनी संगीत साधना की इज्जत रखने के लिए इस गड्ढे को भरें। उसके बाद उन्हें खाना मिलेगा। चारों कलाकार भूखे-प्यासे काम में जुटे रहे। उनकी निगरानी में आठ व्यक्ति लगे रहे। दो दिन में गड्ढा भर गया, इसके साथ ही गाँववालों का मन भी संगीत से भर गया। चारों कलाकारों को मुक्ति दे दी गई, साथ ही यह ताकीद भी कि अगर अब कभी नौटंकी का नाम लिया तो गड्ढे में मिट्टी की जगह तुम्हें डाल देंगे।
लौट के बुद्धू घर को आए। गाँव में आते ही मास्टरजी ने पहला काम यह किया कि अपना हारमोनियम कबाड़ी को बेच दिया। दूसरे चरण में वे खुद गाँव छोड़कर कहीं कूच कर गए।
अलबत्ता, आज भी गाँव में मास्टर रामभरोसे नौटंकी कंपनी का बोर्ड लगा है।
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