पुरुषत्व
एक समय के बाद
कुछ पुरुष...
किसी से कह नहीं पाते
अपनी नाकामयाबियाँ,
चिंता, दुःख, भावनाएँ
भय, विचार और वेदनाएँ,
जिम्मेदारियों के बोझ तले
छुपा लेते हैं अपने अश्रु,
सागर सा अथाह स्नेह
अपनी इच्छा और सारे सपने
नहीं बताते मजबूरियाँ
बॉस की फटकार,
ग्राहकों की बदसलूकी
और मालिकों की गालियाँ
नहीं दे पाते स्त्रियों को
उनके हिस्से का प्यार,
क्योंकि मजदूरों की भाँति
सँभालते हैं घर-परिवार,
अपने कर्ज में, फर्ज में
मर्द धँस रहे हैं ऐसे जैसे,
सदियों से धँस रही हैं
हमारी प्राचीन सभ्यताएँ!
ऋतुहीन
तुमने देखा कहाँ मुझे
सूरज ढलने के बाद,
प्रेम करते मुझे
हृदय में गढ़े प्रतिघातों से,
छलनी हुई पीड़ित आत्मा से,
अपनाना स्तुतियों की
क्रूरतम कृत्यता को,
जलाना दीये को, जो
बुझने को है आतुर,
तुमने देखा कहाँ,
हँसती आँखों के बाद
सैलाब आँखों का,
समा जाना सीने में
उमड़ती-घुमड़ती घटाओं का,
बेबाक होंठों का हो जाना
अनायास मौन,
तुमने देखा कहाँ,
प्रेम-ज्वार में तपने के बाद,
अंतर्मन में लगे
भावों का घाव,
सुंदरतम, सुगंधिम
मधुवंती होकर,
कांतिहीन, प्रभावहीन
वृंतहीन ‘मैं’ को...!
स्वर्ग
कहते हैं...
तीन चीजें,
होती है मनुष्य की
बेहद खास—
माँ, घर,
और स्वर्ग,
लेकिन
समेटे सालों की चले,
तो पाया मैंने,
माँ में घर को
घर में स्वर्ग को,
और
स्वर्ग रचती माँ को...
अपनी प्रार्थनाओं में,
मेरा नाम लिये,
अपनी छुिट्टयों में,
मेरा बोझ लिये,
अपने सपनों में,
मेरा ख्वाब लिये,
अपने भविष्य में,
मेरी पहचान लिये,
अपनी संतुष्टियों में,
मेरा जिक्र लिये,
अपनी हिड्डयों में,
मेरा दर्द लिये,
मुझसे शुरू हुई,
उनकी कवायदों को,
देखा है मैंने,
थामना देर रात को,
कुछ उनका मुझमें है,
लगता है, समझती है,
अपने अधिकार को,
स्वीकारती है
अपने संसार को,
माँ है न,
घर है न,
मेरा स्वर्ग है न...
शोधार्थी, हिंदी विभाग,
राँची विश्वविद्यालय, राँची (झारखंड)
दूरभाष : ८७८९७११९५९