ओजस्वी एवं विश्वविख्यात आध्यात्मिक प्रवक्ता। देशभर में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए विश्व हिंदू परिषद् के ‘श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन’ में भाग लिया और विभिन्न जातियों में बिखरे पड़े हिंदू समाज को एकता के सूत्र में बाँधते हुए आंदोलन से जोड़ा। अयोध्या आंदोलन के बाद निराश्रित नवजात बच्चों, सेवाभावी बहनों और वृद्धा माताओं के लिए वृंदावन में ‘वात्सल्य ग्राम’ की स्थापना कर विश्व को एक अनूठी सामाजिक व्यवस्था प्रदान की।
देवताओं और दानवों के बीच समुद्र मंथन की घटना से सभी परिचित हैं। मान्यतानुसार इसमें हलाहल विष, कामधेनु गाय, उच्चैःश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, माता लक्ष्मी, वारुणी और चंद्रमा आदि प्रकट हुए। समुद्र मंथन में सबसे पहले हलाहल विष निकला था और अंत में अमृत कलश। विष भला किसे प्रिय होता है, अतः उसे किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। उसके दुष्प्रभाव से तीनों लोकों में हाहाकार मचा। अंततः देवाधिदेव महादेव ने उस विष का पान करते हुए संपूर्ण सृष्टि की रक्षा की। वे ‘नीलकंठ’ कहलाए। सृष्टि के रक्षणार्थ गरल पान करना ‘परोपकार’ का चरम है। अब बारी थी अमृत कलश की। विष कोई पीना नहीं चाहता था और अमृत पान कोई छोड़ना नहीं चाहता था। मंथन के बीच सागर धन्वंतरिजी जैसे ही अमृत कलश लिये प्रकटे, तैसे ही उसको प्राप्त कर लेने की होड़ मच गई। देव-दानवों के बीच एक और संघर्ष आरंभ हो गया। सभी देवता जानते थे कि यदि दानवों ने अमृत पान कर लिया तो वे अमर हो जाएँगे और फिर ऐसा होते ही संपूर्ण सृष्टि में अराजकता तथा अधर्म फैल जाएगा, इसलिए देवता उस अमृत कलश को लेकर भागे। कई दिनों तक दानव उनका पीछा करते रहे। कई बार संघर्ष भी हुआ और इसी सबके बीच कलश से अमृत की कुछ बूँदें धरती के चार स्थानों प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं। तभी से कुंभ मेले का आरंभ हुआ। अपने पौराणिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के कारण गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम तट पर स्थित तीर्थराज प्रयाग में आयोजित किया जाने वाला कुंभ मेला दुनिया भर के लोगों के लिए श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र है।
कुंभ के इस पावन अवसर पर सारे विश्व की आध्यात्मिक शक्तियाँ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में प्रयागराज की धरती पर एकत्र होकर साधना एवं सेवा का अनुष्ठान संपन्न करती हैं। विश्व के सबसे बड़े इस धार्मिक समागम में अनेक देशों के जिज्ञासु केवल इस बात की खोज करने के लिए यहाँ आए थे कि आखिर कैसे इस मेले में आने वाले लोग प्रत्येक परिस्थिति में भी प्रसन्न रहते हैं। चिलचिलाती धूप में कई-कई किलोमीटर पैदल चलते हुए भी दूर-देहात से आए हुए श्रद्धालु यहाँ विराजमान सिद्ध संतों, तपस्वियों और ज्ञानी जनों का दर्शन-प्रवचन लाभ लेकर कैसे जीवन का पाथेय प्राप्त करते हैं। वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि साधु-संतों के पंडालों में कैसे लाखों-लाख लोग समा जाते हैं। चकित कर देने वाली पारमार्थिक व्यवस्थाओं के बीच अटूट लंगर-भंडारे संपूर्ण मेला अवधि में किसी को भी भूखा नहीं सोने देते। आयोजकों द्वारा समस्त श्रद्धालुओं को करबद्ध होकर भोजन प्रसादी के लिए निवेदन करने के दृश्य उन विदेशियों को विस्मय से भर देते हैं, जिनके देशों में बिना मूल्य चुकाए कुछ भी नहीं मिलता, उनके लिए यह देखना भी किसी अचरज से कम नहीं कि कैसे करोड़ों लोग स्वप्रेरित होकर इस विराट् संत समागम की तमाम परंपराओं का अनुशासित ढंग से पालन करते हैं।
कुंभ मेले का यह विश्वप्रसिद्ध धार्मिक समागम न केवल भारत की विविधताओं में एकात्मता का दर्शन है, बल्कि हमारी उस प्राचीन संत परंपरा का शाश्वत प्रवाह भी है, जो सदियों से शासकों और प्रजा के मानस को धर्म और राष्ट्र के प्रति सद्विचारों से सिंचित करता चला आ रहा है। विभिन्नताओं को जानने, समझने और अपने पूर्वग्रहों से हटकर उनके श्रेष्ठत्व को स्वीकार करने से ही जीवन पुष्प खिलता है। जो हम जानते हैं, उससे भी श्रेष्ठ और भी कहीं है और उसे स्वीकार करना चाहिए, यह भाव जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाता है। संत-महापुरुष इस मेले में हमें सार्थक जीवन जीने के वे सूत्र देते हैं, जो हमारे लिए करणीय हैं।
एक पल्लेदार की पीठ पर लदकर जाती हुई शक्कर की बोरी को देखकर हलवाई की दुकान पर सजे रसगुल्ले चिल्ला उठे—‘अरी चीनी बहन, रुको जरा, तुमसे सुख-दुःख की कुछ बातें कर लें। देखो तुम्हें कैसे ये पल्लेदार पीठ पर लादकर ले जा रहा है। अभी कुछ देर बाद तुम्हें रेलवे प्लेटफॉर्म पर पटक दिया जाएगा, फिर कई दिनों तक मालगाड़ी के डिब्बे में यात्रा करोगी। गंतव्य पर पहुँचते ही पहले तुम्हें किसी गोदाम के अँधेरे में डाल दिया जाएगा। हाय! तुम कितनी बेचारी हो। अँधेरे में ही पैदा होती हो और अँधेरे में ही घुलकर खत्म हो जाती हो। मुझे देखो। मिठाइयों का राजा बना बैठा हूँ। ऐसा रसगुल्ला हूँ, जिसे देखते ही दुनिया की लार टपकने लगती है। मेरा मालिक जो कीमत माँगे, वही देकर लोग मुझे खरीदते हैं। तू कितनी लाचार, बेचारी है और इधर मेरी महिमा देख।’ यह सुनकर चीनी रसगुल्ले से बोली, ‘रसगुल्ले भाई साहब! ये जो आपकी महिमा है न, ये सब मेरी वजह से ही है। जिस दिन भी मुझे आपसे अलग कर दिया गया तो बस गुल्ले ही रह जाओगे। कोई भी आपको रसगुल्ला नहीं कहेगा।’
जीवन की मिठास कहाँ है? जीवन की मिठास क्या बटोरने में है? भारतीय संस्कृति कहती है कि नहीं, जो बटोरा जाता है वह विषाद और जो बाँटा जाए वह प्रसाद होता है। आप देखिएगा कि जो व्यक्ति पाना चाहता है, केवल खुद के लिए जीना चाहता है, उसके जीवन में रस नहीं आता। हम देखते हैं समुद्र मंथन की पौराणिक कथा में कि जो अमृत के लिए लड़े-मरे, वो भले ही अमृत को पा गए, लेकिन जिन्होंने अमृत मंथन की प्रक्रिया में निकला हुआ विष स्वीकार किया, वो ‘नीलकंठ’ कहलाकर पूजनीय हुए।
अंग गले तो उसकी शल्य चिकित्सा करनी पड़ती है
नीलकंठ बन करके अमृत मंथन की कीमत भरती पड़ती है
पाना तो अमृत चाहते हैं, लेकिन जहर से पाला पड़ जाता है। पाना तो सुख चाहते हैं, लेकिन दुःखों से साक्षात्कार हो जाता है। पाना तो इज्जत चाहते हैं, लेकिन अपमानों के जहरीले घूँट पीने पड़ते हैं। संयोग की चाह में वियोग मिल जाता है। बहुत कुछ पाने की चाह में सबकुछ छूट जाता है। वो क्या है, जिसे हम पाना चाहते हैं? यहाँ धर्म-अध्यात्म निर्णय देता है कि यदि तुम सुख की आकांक्षा करोगे तो दुःख से पाला पड़ जाएगा, लाभ के सपने सँजोओगे तो हानि से साक्षात्कार हो जाएगा, लेकिन इन सबसे परे भी एक स्थान है, जगह है। सुख-दुःख के पार, हर्ष-विषाद के पार, लाभ-हानि से परे। क्या है वह? वह परमानंद है, जिसको पाने के लिए सुख-दुःख से अलग हटना होगा। जहाँ तक सांसारिक व्यवस्थाएँ हैं, लाभ-हानि में उलझी हमारी चित्तावृत्ति है, जब हम इन सबसे ऊपर उठते हैं तो अमृत प्राप्त होता है। लेकिन याद रखना कि अमृत उन्हीं को मिलता है, जो जहर को पचा लेने की सामर्थ्य रखते हैं। हम सब शिव की आराधना तो करते हैं, लेकिन क्या कभी स्वयं भी शिव बनने की, नीलकंठ बनने की तैयारी करते हैं? जगत् के हलाहल को स्वयं के कंठ में धारण करने की तैयारी। क्योंकि यदि वह हृदय में उतर गया तो फिर हमारा ‘हार्ट फेल’ होना तय है। वाणी से बोलेंगे तो बाहर का वातावरण बिगड़ जाएगा, इसलिए जिंदगी के अनुभवों के जहरीलेपन को कंठ में रखकर सुखाने की सामर्थ्य पैदा करने की तैयारी के लिए हम कुंभ मेले में आना चाहिए। शंकर बनने की कला आए, हम स्वयं ही शिव बनें।
गंगा और नर्मदा के आँचल में जो रहता है
और कँटीली धारों की चोटों को भी जो सहता है
जो चोटों को सहता है हम उसे ही तो शिव कहते हैं न? शिवत्व को धारण करने वाला व्यक्ति...उसका मन-बुद्धि छूटेगा, देह छूटेगा, चतुष्ट्य अंतःकरण छूटेगा, सबकुछ दृश्यमान छूट जाने के बाद भी वह जब आत्मस्वरूप में स्थित होता है, तब वह परमानंद को प्राप्त हो जाता है।
वृत्ति के चक्कर में ही तो सुखी हो जाने की लालसा पाले बैठा है। सुखी होने के लिए ही तो पत्नी का घूँघट उठाया था न? कितनी सुंदर, कितनी प्यारी...चंद्रमुखी सी। लेकिन कुछ समय बीता तो वही सूर्यमुखी जैसी लगी और समय बीता तो ज्वालामुखी सी लगने लगी। जब पत्नी ज्वालामुखी जैसी दिखे न तो फिर अंतर्मुखी हो जाना चाहिए। लोगों के अनुभव हैं कि संसार के निमंत्रण सुखी तो करते हैं कि आ जा, मैं तुझे सुखी कर दूँगा, लेकिन जब आप उन्हें पा लेते हैं तो फिर वे दुःख का रूप धारण कर सामने खड़े हो जाते हैं। ‘सिंहस्थ’ ने सारे विश्व को निमंत्रण दिया कि ‘हर समय खुशहाल रहना कोई हमसे सीख ले और सबमें रहकर अलग रहना कोई हमसे सीख ले’। यहाँ ध्यान देना बंधु-भगिनियो...मैंने कहा कि ‘सब में रहकर अलग रहना’। सबसे अलग रहकर नहीं, क्योंकि सबसे भागना तो बहुत आसान है। कहते हैं न कि—
मूंड मुंडाए तीन गुण सिर की मिट गई खाज।
पकी-पकाई रोटी मिले और लोग कहें महाराज॥
कुछ लोगों की नजरों में इससे बढ़िया धंधा और क्या हो सकता है! सबसे भागकर सबसे अलग नहीं होना, बल्कि सबमें रहते हुए सबसे अलग रहना।
झंझटों से भाग जाना चाहे जिससे सीख लो
पर झंझटों में रहके बचना कोई हमसे सीख ले
औरों की आँखों में आने के लिए सब सज रहे
पर आँख अपनी में समाना कोई हमसे सीख ले
आँख गैरों से लगाना बच्चा-बच्चा जानता
पर आँख अपने से लगाना कोई हमसे सीख ले
जीते ही जी बचाने के लिए सब वैद्य हैं
हर समय मर-मरके बचना कोई हमसे सीख ले
सुख में सुखी, दुःख में दुःखी रहना सभी हैं जानते
पर हर समय परमानंद में रहना कोई हमसे सीख ले।
तो हर समय परमानंद में कौन होगा? जो अपने ‘स्व’ में होगा, जो अपने स्वभाव में होगा। कभी-कभी हम किसी दूसरे की नकल करने की कोशिश करते हैं। अपने स्वभाव से अलग हटना, अपनी हत्या कर देने के समान है। आप पूछोगे कि दीदी माँ हमारा स्वभाव क्या है? तो आपका स्वभाव है—सत्, चित् और आनंद। उस सत् में, उस शाश्वत में ठहर जाने की कला को जानने, समझने और समझाने के लिए ही तीर्थराज प्रयाग में कुंभ का आयोजन हो रहा है।
सामाजिक दृष्टि से आप कहोगे कि दीदी माँ, हम कंकर तो हैं, लेकिन हममें शंकर होने की सामर्थ्य नहीं है। बहुत से लोग कहते हैं कि हममें इतना ज्ञान है, इतनी योग्यता है, इतना समर्पण है, फिर भी हमें उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिए। हमें मान्यता नहीं मिली, हमारी योग्यता के अनुसार, इसलिए मैं बिखर रहा हूँ। हम कंकर से शंकर नहीं बन पाए तो क्या हमारा जीवन बेकार हो गया? तो हमने कहा कि नहीं, शंकर बनने के लिए तो अरघे पर बैठना पड़ता है और भस्मासुरों तक को भी वरदान देना पड़ता है। कोई बात नहीं, चिंता मत करो, यदि तुम शंकर नहीं बन सके। एक नन्हे कंकर रहकर भी अपनी भूमिका निभा सकते हो। क्योंकि—
भक्तों का सैलाब उमड़ जब, शंकर तक जाता है
तब सीढ़ी का पथ बनकर कंकर ही तो ले जाता है
कदाचित् हम शंकर नहीं बन पाए तो शंकर भगवान् के मंदिर के पथ की सीढ़ी का कंकर तो बन ही सकते हैं न? इसलिए वह व्यक्ति परम आनंद में है, जो अपने आप में, जहाँ भी है, जैसा भी है, अपने स्वभाव में है। कोशिश मत कीजिए कुछ और बनने की या किसी दूसरे के जैसा हो जाने की। कई बार लोग मुझे कहते हैं कि दीदी माँ, आप कितना कुछ कैसे कर लेती हो। मैंने कहा कि भाई, मुझे कुछ नहीं आता। मैं तो बस लोगों को प्यार करती हूँ और वह प्यार जो निर्दोष होता है, जिसमें कोई शर्त नहीं होती। लोग अकसर कहते हैं कि कचरे के ढेर में सिर्फ कचरा ही होता है, लेकिन मेरा अनुभव है कि कचरे के ढेर में भी कंचन मिलने की संभावना हमेशा रहती है। उसे उठाओ, अपने हृदय से लगाओ। उन्हें सँभालो, जो अपनों की उपेक्षा पाकर कचरे के ढेर में फेंक दिए गए। ये कैसा विरोधाभास है कि भगवान् की बनाई जीवंत मूर्ति को हमने कचरे में फेंक दिया और अपने हाथों से बनाई भगवान् की मूर्ति को पूज रहे हैं।
मेरा विचार है कि स्त्रीशक्ति तो अपने अधिकारों के लिए लड़ेगी ही, क्योंकि शक्ति तो आखिर शक्ति है। जो शक्ति सृजन करती है, वही विध्वंस भी कर सकती है। इसलिए केवल शक्ति हो यही जरूरी नहीं है, बल्कि उसका शुभ होना भी जरूरी है। शक्ति तो बहुत लोगों के पास है, लेकिन उसे पाकर वे दुनियाभर में विध्वंस मचा रहे हैं। लेकिन स्त्री जब अपने अंदर शक्ति को देखती है तो वह भक्ति में, वत्सलता में, प्रेम में उमड़ती है और वह सृजनकारी होती है। आप सबके बीच मैं आज एक बात रखना चाहती हूँ कि ऐसे भारतीय अपने बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम खोल रहे हैं, जो श्राद्ध पक्ष के दिनों में अपने पूर्वजों के नाम पर पंडितजी को खिला-खिलाकर बीमार कर देते हैं। जो मर गए, उनकी इतनी चिंता, लेकिन जो जीवित हैं, उनके पास दो क्षण बैठने का समय नहीं! यह कैसा धर्म है, यह कैसी तथाकथित व्यवस्था है। कदाचित् यदि हमने प्रेम, प्रीत को नहीं समझा तो भले ही हम स्वर्ग जाने के लिए कुछ भी योजना बनाते रहें, लेकिन अपनी धरती पर स्वर्ग को उतार नहीं पाएँगे।
माँ भारती की संतानो, स्वर्ग जाने की लालसा से मत भरो, अपितु स्वर्ग को धरती पर ही उतार लाने की सामर्थ्य पैदा करो। ऐसे कर्मों को क्रियान्वित करो, ताकि धरती ही स्वर्ग बन सके। यह सौहार्द में होगा, प्रेम में होगा, सहजता में होगा, वह बटोरने में नहीं, बल्कि बाँटने में होगा। वह धर्म ही है, जो हमें बाँटने की विधा सिखाता है। देश का रजस बढ़ गया, तमस बढ़ गया, लेकिन इनके साथ-साथ सत्त्व भी तो जागे देश का। देश के बच्चे समझें कि हमारा धर्म क्या है। आज वह देश बलात्कारियों का शिकार हो रहा है, जिस देश में स्वामी विवेकानंद को इटली की एक सुंदर स्त्री ने कहा था—‘विवेकानंद, तुम कितने खूबसूरत हो, कितने बुद्धिमान हो। मैं तुमसे वादा करती हूँ कि अगर तुम मुझे प्यार की नजर से देख लोगे तो मैं तुम्हारे जैसा ही एक पुत्र पैदा कर दूँगी।’ स्वामी विवेकानंद ने उस स्त्री के पैर पकड़कर कहा, ‘हे देवी, मेरे जैसा तो केवल मैं ही हो सकता हूँ, इसलिए मेरी माँ बन जाओ और मुझे अपना बेटा स्वीकार कर लो।’
शत्रु के साथ युद्ध करते हुए छत्रपति शिवाजी के सैनिकों को एक मुसलिम किशोरी हाथ लग गई, जिसे पकड़कर और पालकी में बैठाकर शिवाजी के सामने लाया गया तो वह चंद्रमुखी सी सुंदर किशोरी पीपल के पत्ते की तरह काँप रही थी। भरी सभा में उसे जब शिवाजी के सामने पेश किया गया तो वे उसे अपलक देखते रहे। कुछ क्षणों तक उसे निहारने के बाद वे बोले, ‘देवी, डरो मत।’ युवती ने साहस बटोरकर पूछा, ‘तो फिर आप मुझे एकटक देख क्यों रहे हैं?’ छत्रपति बोले, ‘देवी, मैं तुम्हारे सौंदर्य को देखकर सोच रहा हूँ कि यदि मैंने तुम्हारी कोख से जन्म लिया होता तो मैं भी तुम्हारे जितना ही खूबसूरत होता।’ वह मुसलिम युवती आश्चर्य में डूब गई। उसे शिवाजी की सभा में उनसे इस व्यवहार की आशा नहीं थी, क्योंकि स्वयं उसके समाज के लोग भी उससे ऐसा व्यवहार नहीं करते।
यह छत्रपति शिवाजी और स्वामी विवेकानंदजी का देश है। लेकिन आज वही देश शर्मसार है भ्रष्टाचारियों और बलात्कारियों का देश कहलाते हुए। धर्मदृष्टि और धर्मविचार जब तक आचरण में नहीं आता, तब तक सच्चे अर्थों में हमारा जीवन धर्ममय नहीं हो सकता। धर्म मात्र विचार होकर ही रह जाए, अगर विचार हमारा आचार नहीं बन सके तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं है। हमारे भीतर धर्म जागे, हमारी शुचिता जागे, हमारी राष्ट्रभक्ति जागे। मैं बहुत चिंतित हूँ कि देश के जिस विश्वविद्यालय में बच्चों पर बहुत धन खर्च किया जाता है, उसके कुछ बच्चे वहीं पर भारत विरोधी नारे बुलंद करते हैं। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ऐसे सपने देखे जाते हैं। जनता के द्वारा दिए गए कर से एक बच्चे पर यूनिवर्सिटी प्रतिवर्ष तीन लाख रुपए खर्च करती है। क्या हम राष्ट्रद्रोहियों की टकसाल लगाए बैठे हैं? हृदय में वेदना पैदा होती है।
अमृत को पाने की अभिलाषा में हम सब तीर्थराज प्रयाग के पावन तट पर कुंभ मेले में एकत्र होते हैं। विश्व की वर्तमान परिस्थितियाँ बहुत चिंताजनक और विषैली हैं, परंतु फिर भी हम निराश नहीं हैं। विश्वास है कि भारत की देवियाँ अपनी संतानों को धर्म और राष्ट्र की अमृतरूपी भक्ति से भरने का दायित्व लेंगी। भगतसिंह जब फाँसी के फंदे पर झूले तो माँ विद्यावती की आँखों में आँसू भरे थे। लोगों ने जब कहा, एक शहीद की माँ होकर रोती है तो विद्यावती ने कहा कि मैं अपने पुत्र की शहीदी पर नहीं, बल्कि अपनी कोख पर रो रही हूँ कि काश, उसने एक और भगतसिंह को जन्म दे दिया होता तो मैं उसे भी देश के चरणों में समर्पित कर देती। हम नहीं भूल सकते महासागर की उत्ताल तरंगों में पौरुष का अभिलेख लिखने वाले वीर सावरकर को।
कुंभ महापर्व की इस पावन वेला में हमें संकल्प लेना होगा कि वीर प्रसूता इस भारतभूमि की कोख सदा हरी रहेगी। इसके गर्भ से हमेशा वीर, धीर, त्यागी, बलिदानी, संत-महापुरुष, चिंतक, विचारक और धर्म के संवाहक जनमते ही रहेंगे। मैं समझती हूँ कि मातृशक्ति में ही वह सामर्थ्य है, जो कंकर को शंकर में परिवर्तित कर देने की क्षमता रखती है।
वात्सल्य ग्राम
मथुरा वृंदावन मार्ग, पो. प्रेम नगर
वृंदावन-२८१००३ (उ.प्र.)