देवलोक में शानदार होलिका उत्सव

देवलोक में शानदार होलिका उत्सव

आलोक सक्सेना : सुपरिचित साहित्यकार। प्रयोगधर्मी व्यंग्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त। अनेक वर्षों से हिंदी भाषा एवं व्यंग्य साहित्य के संरक्षण एवं संवर्धन में प्रयासरत।

होली का त्योहार हो और देवलोक बिना होली खेले रह जाए, यह तो हो ही नहीं सकता। देवलोक में भी जमकर होलिका उत्सव की धूम थी। सभी देवों ने मिलकर ‘होली हुरियार समिति’ का गठन कर लिया। इसमें आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनी कुमार, इंद्र और प्रजापति ब्रह्म‍ा को शामिल कर होली की मस्ताना टोली का समायोजन किया गया। सभी की चाहत थी कि इस बार देवलोक की होली अनूठी हो तथा सबको सराबोर कर जाए।

सबसे पहले देवराज इंद्र ने होली की शुरुआत की। उन्होंने अपने हीरा-पन्ना रत्नजड़े देववस्त्रों में से एक डायमंड युक्त पिचकारी निकाली और अपनी अतिप्रिय नृत्यांगना रंभा के नजदीक जा पिचकारी चला दी। रंभा पिचकारी के रंग में भीगकर अपनी सुनहरी मोतीजड़ित चोली सँभालते हुए बोली, ‘मारो न पिचकारी, पड़ेगी बहुत भारी। मारूँगी जब मैं अपनी नयन कटारी।’ नृत्यांगना रंभा ने देवराज इंद्र के संग भीगते, नाचते गाते हुए उनके हाथों से उनकी डायमंड युक्त पिचकारी ले ली और झटपट अपने घाघरा-चोली में छिपा ली। रंभा की चालाकी को देवराज इंद्र उसकी नादानी मानते हुए मन-ही-मन माफ कर देते हैं।

अपनी नृत्यांगना रंभा के संग तर-बतर हो देवराज इंद्र आगे बढ़े तो उन्हें इंद्राणी की याद आई। होली का अवसर था, वह उसे इंद्राणी संग भी मनाना चाहते थे। इसलिए सरपट इंद्राणी के समक्ष जा पहुँचे और उनकी आँखों में आँखें डाल बोले, ‘आ जा, आई बहार, दिल है बेकरार। होली है रंग जा मेरे संग आ आज।’

देवराज इंद्र के दिल की बात को जानकर इंद्राणी बोलीं, ‘छेड़ो न मेरी बइयाँ, रंग डालो न मुझे सइयाँ। जाओ...जाओ...रंभा को सँभालो। मेरी डायमंड वाली पिचकारी मुझे वापस दिलवाओ। तब खेलूँगी आपके संग दिल खोल जबरन होली।’

देवराज इंद्र ने रंभा से अपनी डायमंड युक्त पिचकारी प्राप्त करने के लिए नव सलाहकार परिषद का गठन कर डाला। सचिव से कहा, ‘रंभा को समझाओ और अतिशीघ्र मेरी डायमंड युक्त पिचकारी उससे वापस लेकर आओ।’

सचिव बोले, ‘देवराज, रंभाजी तो अब पृथ्वीलोक से मँगाए हुए टेलीविजन पर दूरदर्शन का ‘होली हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन’ देख रही हैं। उन्होंने फेसबुक अकाउंट भी बना लिया है, जिसके माध्यम से अब उनके पृथ्वीलोक के भी तमाम फैन हैं। सुना है, दूरदर्शन के किसी ‘असिस्टेंट डायरेक्टर’ से भी उनकी गहन मित्रता हो गई है। पृथ्वीलोक पर केंद्रीय कार्यक्रम निर्माण केंद्र, दूरदर्शन के स्टूडियो में भी उनके नृत्य कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग होने की चर्चा है। ‘होली हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन’ देखने के बाद वह फेसबुक पर होंगी या फिर, अपने एंड्राइड मोबाइल में वीडियो कॉलिंग पर वीडियो विंडो में व्यस्त होंगी, इसलिए उनके इस प्राइवेट समय में उनके बैडरूम में जाना मेरे वश की बात भी नहीं।’

देवराज इंद्र ने कहा, ‘चलो, होली के इस आयोजन को अब जल्दी से बंद करवाओ। ‘होली हुरियार समिति’ के लोगों को भी मेरी मदद के लिए काम पर लगाओ। बस, हर हाल में मेरी डायमंड युक्त पिचकारी वापस लेकर आओ।’

सचिव बोले, ‘देवराज, होली आयोजन तो अब बंद नहीं हो सकता। होली आयोजन पर विष्णुजी की स्टांप लग चुकी है और आपको पता ही है कि इस आयोजन पर शंकरजी और ब्रह्म‍ाजी ने भी संयुक्त अप्रूवल दी हुई है। अब किसी भी हाल में इसे बंद नहीं करवाया जा सकता। लेकिन आपकी डायमंड युक्त पिचकारी को रंभाजी से वापस लाने के लिए पृथ्वीलोक से चित्रगुप्त के वंशज कायस्थ रत्न भारत भूषण डॉक्टर आलोक सक्सेनाजी को यहाँ देवलोक में अस्थायी टूर पर बुलाना पड़ेगा। वही अपनी कायस्थ खोपड़ी के बल पर रंभाजी को सँभाल पाएँगे और अपनी उत्कृष्ट तकनीकी योग्यता के आधार पर आपकी डायमंड युक्त पिचकारी को वापस दिलवा पाएँगे।’

देवराज इंद्र बोले, ‘तो फिर देर किस बात की, ससम्मान डॉक्टर सक्सेनाजी को टीए-डीए के साथ अस्थायी वीजा प्रदान कर हमारे निज आरक्षित वाहन के द्वारा उन्हें यहाँ तत्काल बुलाने की तैयारी की जाए।’

अभी देवराज इंद्र की सभा चल ही रही थी कि नृत्यांगना रंभा स्वयं आ पहुँची और बोली, ‘महामहिम देवराज, मुझे माफ करें, मैंने सब सुन लिया है। आप डॉक्टर आलोक सक्सेनाजी को होली के मौके पर क्यों तंग कर रहे हैं। इस समय होली पर वह चित्रगुप्तजी द्वारा दी हुई डायमंड युक्त कलम से होली व्यंग्य, कहानी, लेख व कविताएँ आदि लिख पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों को भेजने में अति व्यस्त होंगे। होली के मौके पर उनका यहाँ क्या काम। उनके यहाँ आने पर एक और खतरा है कि कहीं किसी को उनकी डायमंड युक्त कलम पसंद आ गई तो वह कलम विहीन होकर न देवलोक के रहेंगे, न पृथ्वीलोक के। सुना है, साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें पृथ्वीलोक का सर्वोच्च सम्मान ‘पद्मश्री’ भी मिलनेवाला है। मेरा विश्वास है कि वह बिना ‘पद्मश्री’ लिये किसी भी हाल में देवलोक नहीं आने वाले। इसलिए देवराज, आप उन्हें तंग न करें। मैं एक नृत्यांगना हूँ। कलाकार हूँ। मैं दिल से साहित्य और कला का सम्मान करती हूँ। इसलिए मुझे साहित्य व कला की साधना के महत्त्व के बारे में बखूबी पता है। मेरा आपसे पुनः निवेदन है कि डॉ. सक्सेना को और उनकी साहित्य और कला साधना को डिस्टर्ब नहीं किया जाए। मैं स्वयं आपकी डायमंड युक्त पिचकारी वापस करने आई हूँ। मैं तो नृत्यांगना हूँ। कलाकार हूँ। आप यदि मुझे भेंटस्वरूप डायमंड जड़े घुँघरू दें तो आज शाम ‘होली मिलन समारोह’ में मैं आपके संग जमकर नाचूँगी और डॉ. सक्सेना के लिखे होली गीत गाऊँगी भी। हाँ, यहाँ आप मुझे गलत न समझें, इसलिए एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि डॉ. सक्सेना से मेरा मात्र एक ‘कला दोस्त’ का रिश्ता है। वह मेरी ‘नृत्य-कला’ का सम्मान करते हैं और मैं उनके ‘मौलिक हिंदी साहित्य लेखन कला’ का बस। मैं तो आपके देवलोक की और आपकी प्रिय नृत्यांगना हूँ तथा अपने शेष जीवन यहीं रहूँगी।’

अपनी समझदार नृत्यांगना रंभा की समझदारी भरी बातें सुनकर देवराज इंद्र का दिल भी भावुक हो उठा। वह अपनी नृत्यांगना रंभा को नयन भर देखते हुए आहिस्ता से अपने आसन से उठे और एक हाथ रंभा से अपनी डायमंड युक्त पिचकारी ले, दूसरे हाथ उसे डायमंड जड़े घुँघरू भेंट कर अति प्रसन्न हुए और अगले पल ‘होली मिलन समारोह’ में जाने हेतु अपने हीरा-पन्ना रत्नजड़े देववस्त्रों की सँभाल करने लगे।

आलोक सक्सेना 
जेडी-१८-ई/सी, तृतीय मंजिल (नारायणी सदन)
खिड़की एक्सटेंशन, मालवीय नगर
नई दिल्ली-११००१७
दूरभाष : ९८१८५१०४८४

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