अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : स्त्री समानता का स्वप्न और यथार्थ

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : स्त्री समानता का स्वप्न और यथार्थ

सुप्रिया पाठक : स्त्री विमर्श की महत्त्वपूर्ण अध्येता एवं हस्ताक्षर। स्त्री एवं रंगमंच, स्त्री विमर्श के विविध आयाम, भारतीय स्त्रियों का अहिंसक प्रतिरोध, धरती एवं स्त्री : पर्यावरणीय स्त्री विमर्श, मीराबेन : गांधी की सहयात्री पुस्तकें प्रकाशित। संप्रति महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केंद्र रायागराज में स्त्री अध्ययन की सह-आचार्य एवं विभागध्यक्ष।

भारतीय समाज में स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वह समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की धुरी मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि माँ के बिना बच्चे की परवरिश संभव नहीं होती। वह उसकी प्रथम पाठशाला होती है, जो बच्चे के मन में सामाजिक जीवन का संस्कार भरती है। हमारा समाज अपने आदर्श में स्त्री पूजक समाज है, जो अनादि काल से देवियों के रूप में स्त्रियों की पूजा करता आया है। संभवतः भारत दुनिया का एकमात्र देश है, ‘जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है,’ इस धारणा में विश्वास करता है। हमारा समाज वास्तव में स्त्रियों के प्रति कितना संवेदनशील है और उन्हें समान मानते हुए उनकी प्रतिभा को किस स्तर तक स्वीकार करता है, यह स्त्रियों की सामाजिक स्थिति के मूल्यांकन के संदर्भ में प्रासंगिक परंतु जटिल प्रश्न है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक आदर्शों की तलाश रोजमर्रा के जीवन में कठिन है, क्योंकि लोकतंत्र की संकल्पना जब विभिन्न सामाजिक संरचनाओं जाति, वर्ग, धर्म, लिंग इत्यादि से टकराती है, तब कई विषमताओं को जन्म देती है, जिसमें एक है ‘स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार’।

आज के दौर में स्त्रियाँ घर और बाहर, दोनों दायित्वों को सफलतापूर्वक निभा रही हैं। उनसे परिवार एवं समाज को बहुत अपेक्षाएँ हैं, परंतु स्त्रियों द्वारा की गई अनगिनत कोशिशों के बावजूद वे समाज में अपना अपेक्षित स्थान हासिल नहीं कर पाई हैं। वे अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद से लगातार गुजर रही हैं। आज भी उन्हें निजी संबंधों, पारिवार‌िक दायित्वों तथा कार्यस्थल पर स्वयं को प्रमाणित करने की आवश्यकता पड़ती है। हम उनकी केंद्रीय भूमिकाओं के साथ उन्हें  स्वीकार तो करते हैं, पर उनकी सामाजिक स्थिति को परिधि पर ही बनाए रखते हैं। स्त्रियों को उनकी संपूर्णता में स्वीकार न कर पाने के पीछे मनोवैज्ञानिक आधार क्या है? यह जानना आवश्यक है।

समकालीन स्त्रीवादी विमर्श की यह प्रस्थापना है कि ‘स्त्रियाँ भी मनुष्य है’ अर्थात् आज भी मनुष्य होने की प्रारंभिक शर्त से स्त्रियाँ कोसों दूर हैं, इसलिए सबसे पहले उन्हें अपने मनुष्यता को प्राप्त करने की आवश्यकता है। यह विचार १९वीं शताब्दी में स्त्रीवाद की प्रथम लहर के रूप में उभरे उदारवादी नारीवादी चिंतन की उपज है, जो मनुष्यता को स्त्री की तर्कशक्ति, उपलब्ध संसाधनों तक उसकी पहुँच तथा राज्य द्वारा प्रदत्त अवसरों में समानता के संदर्भ में परिभाषित करता है। ‘मनुष्यता’ का विमर्श मानवाधिकारों के विमर्श का पर्याय है और वैश्विक स्तर पर आज भी स्त्रियाँ अपने मूलभूत मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। भारत में भी कमोबेश वही स्थितियाँ मौजूद हैं।

भारतीय समाज में परिवार की धुरी समझे जानेवाली स्त्री की स्थिति दरअसल कोल्हू के उस बैल की तरह है, जो अपने केंद्र की परिधि में चक्कर लगाता रहता है। बचपन से आज तक हमने अपने आस-पास की स्त्रियों को प्रसन्नचित्त भाव से घर का काम-काज सँभालते और पारिवारिक रिश्तों में प्रेम-सौहार्द बनाए रखने के लिए सामंजस्य बिठाते हुए ही देखा है। अपने अधिकारों और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लड़ती हुई स्त्री हमें अपवादस्वरूप ही देखने को मिलती हैं। वे माँ, पत्नी, प्रेमिका, बहन, दादी, नानी जैसे अनेक रूपों में सदियों से अपनी भूमिका निभाती आई हैं। बावजूद इसके उनकी नोक-झोंक, लड़ाई और तनावों के किस्से ननद-भौजाई, सास-बहू, देवरानी-जेठानी, सौतनों और पड़ोसिनों के रूप में हमारे लोकगीतों, कहानियों और किंवदंतियों में दर्ज हैं। गाहे-बगाहे कोपभवन में बंद होकर अपनी बे सिर-पैर की जिद मनवानेवाली उन धूर्त स्त्रियों की कहानियाँ सुनते हुए हम बड़े हुए हैं, जो पुरुषों को अपने वश में कर लिया करती थीं। ये चुड़ैलों, डायनों, भूतनियों और काला जादू कर देनेवाली टोनहिनों के रूप में आकर हमें बचपन से सपनों में डराती रही हैं, लेकिन हमें कभी भी दो पुरुषों की नोक-झोंक के किस्से चटखारे के रूप में जीभ का स्वाद बदलने के लिए भी देखने-सुनने को नहीं मिलते। पराक्रमी पुरुषों के बीच युद्ध होता है, अदालतें होती हैं और मार-काट होती है। वे इतिहास में दर्ज होते हैं और हमारे नायक बनते हैं। जिनके शौर्य की कहानियाँ सुनकर हमारे अंदर एक योद्धा पुरुष जन्म लेता है, मनुष्य नहीं।

हमारे समाज में स्त्रियों को प्रेम, सम्मान, संरक्षण और देखभाल के योग्य तो माना जाता है, परंतु उनके विवेक और तर्क पर भरोसा जताने की परंपरा नहीं रही है। इसकी स्पष्ट झलक हमें अपने लोकगीतों और मुहावरों में देखने को मिलती है—जोरू जमीन जर के नहीं तो किसी और के; स्त्रियों को नाक नहीं होती तो वह मैला खातीं; स्त्री की बुद्धि से चलनेवाला घर और पुरुष नष्ट हो जाते हैं; स्त्री और धन सँभालकर रखने की चीज है; दुनिया में सारे युद्ध स्त्रियों की बुद्धिहीनता के कारण हुए हैं, इस तरह की अनेक लोक अभिव्यक्तियाँ हमारे मानस को रचने एवं महिलाओं के प्रति विद्वेषपूर्ण वातावरण को निर्मित करने में अपनी महती भूमिका निभाती हैं। जो समाज स्त्रियों को उनके विवेक और तर्क की कसौटी पर हमेशा कमतर आँकता आया हो, वह मनुष्य के रूप में उनकी प्रतिभा को स्वीकार कर उन्हें बराबरी का दर्जा देने की स्थिति में आ चुका है, यह कोई कल्पना है।

भारतीय हिंदू समाज में गृहस्थी की संकल्पना में गृहस्वामी एवं गृहणी की भूमिकाएँ प्राचीनकाल से अधिकार एवं कर्तव्य पर केंद्रित रही हैं। गृहस्थ आश्रम को जीवन के चार आश्रमों में द्वितीय स्थान पर रखा गया है। ‘गृहस्थ’ शब्द की उत्पत्ति ‘गृह’ से मानी जाती है, जिसका क्रमशः अर्थ है घर और घर का स्वामी। परंपरागत भारतीय परंपरा में गृहस्थी का संबंध विवाह बंधन में बँधनेवाले स्त्री और पुरुष दोनों से है। घर का स्वामी अपनी सामाजिक भूमिकाओं को निभाता है और घर की गृहणी अपने घरेलू कर्तव्यों का निर्वहन ईश्वरीय आराधना मानकर करती है। यह वह स्थान है, जहाँ मनुष्य के सामाजिक, भावनात्मक, यौनिक तथा वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। परिवार से अलग व्यक्ति की आवश्यकताओं को प्राथमिकता नहीं दी जाती। गृहस्थी का कर्ता-धर्ता पुरुष होता है एवं स्त्रियाँ परिवार के सभी सदस्यों की देखभाल करती हैं। बावजूद इसके गृहस्थ आश्रम नामक इस संस्थान में पुरुषों एवं स्त्रियों को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं है।

नियति पंडया और भानगांवकर द्वारा लिखित आलेख ‘ईक्वल बट डिफरेंटडिफरेंट : व्यूज ऑन जेंडर रोल एंड रिस्पोन्सिबिलिटिस अमांग अपर क्लास हिंदू इंडियंस इन स्टैब्लिस्ड अडल्टहुड’ में पारिवारीक व्यवस्था में स्त्री-पुरुष समानता के मनोवैज्ञानिक पक्ष की जाँच करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को उभारा गया, जिसमें समानता, बुद्धिमत्ता, संभावना, मूल्य, परिवार के प्रति उत्तरदायित्व, भिन्नता, भावनाएँ, मिजाज, सोच, प्राथमिकताएँ, जेंडर की निर्मिति, भूमिका एवं दायित्व इत्यादि चरों के माध्यम से समानता के स्तर की जाँच की गई। इस कार्य के परिणाम रोचक हैं। स्त्रियों हर क्षेत्र में पुरुषों से अधिक योगदान कर रही थीं लेकिन इसके बावजूद पार‌िवार‌िक व्यवस्था में संसाधनों एवं अवसरों में समानता नहीं है।

पारिवारीक व्यवस्था के अंदर भोजन बनाने एवं सबको स्वादिष्ट और पौष्टिक थाली परोसने का कार्य स्त्रियाँ सालों से करती आई हैं क्योंकि कहा जाता है कि माँ के हाथों का स्वाद जीवनभर याद रहता है, स्त्रियाँ अन्नपूर्णा होती हैं, घर की देहरी छोड़ती हुई बेटी मायके में अन्न-धन बने रहने की कामना में अंजुरी भर-भर अनाज छींटती जाती है, परंतु स्वयं की थाली उसके खाली मन की तरह होती है। जो मिला, उसी से संतुष्ट, उसी में खुश। मुझे बचपन का एक दृश्य याद आता है—मैं हमेशा अपनी दादी को घर के किसी कोने में बैठकर अकेले खाते देखती थी। वे हमेशा अपने आँचल से अपनी थाली ढँके रखतीं। पूछने पर कि ऐसा क्यों है, वह मुसकराकर जवाब देतीं, ‘औरतों को मुँह पसारकर सबके सामने नहीं खाना चाहिए।’ मैं उन्हीं की तरह बाकी औरतों को भी घर में सबसे बाद में, बिना सब्जी, दाल, सलाद के सिर्फ अचार और चटनी के साथ चावल सानकर खाते और फिर शाम का भोजन बनाने में जुट जाते देखकर बड़ी हुई।

समाज में स्त्रियों को चटोरी और तीखा अचार पसंद करनेवाली के रूप में क्यों प्रस्तुत किया जाता है, इसका मर्म हमें उनकी रोजमर्रा की जिंदगी और भोजन की उपलब्धता के गणित को देखने के बाद समझ में आता है। आज भी हमारे समाज में असंख्य घरों में स्त्रियाँ पुरुषों का भोजन समाप्त होने के बाद खाती हैं। सालों से उनके थाली का समाजशास्त्र बिगड़ा हुआ है, जिसने कई पीढ़ियों से स्त्री शरीर के गठन, कद और सेहत (बॉडी मास इंडेक्स) को प्रभावित किया है। रसोईघर में उपलब्ध खाद्य संसाधनों पर स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर हक है बल्कि स्त्रियों का अधिक क्योंकि उन्हें स्वयं स्वस्थ रहकर अगली स्वस्थ पीढ़ी पैदा करनी है। इन सभी बातों को जानते हुए भी वे अपने शरीर और जरूरतों के प्रति उपेक्षित भाव अपनाती हैं। परंपरा से अधुनिकता की लंबी यात्रा के बाद भी स्त्रियों की इस मनःस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। खुद से ही अनभिज्ञ बने रहना, अपनी उपेक्षा करना, अपनी सशक्त उपस्थिति का दावा न पेश करना, हर परिस्थिति में स्वयं को ढाल लेना स्त्रियों को इस सामाजिक व्यवस्था ने ही सिखाया है।

भारत में स्वास्थ्य सुरक्षा के बिना स्त्री सशक्तीकरण की बात बेमानी है। वर्ल्ड बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार यदि दक्षिण-पूर्ण एशिया में महिलाओं का स्वास्थ्य कार्ड देखें तो भारतीय महिलाओं की स्थिति श्रीलंका, नेपाल तथा पाकिस्तान की महिलाओं से ज्यादा खराब है। भारत की स्थिति बांग्लादेश से जरा ही बेहतर है। वर्ल्ड बैंक की एक्सपर्ट मीरा चटर्जी की रिपोर्ट ‘स्पायरिंग लाइव्स’ में भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान तथा श्रीलंका में महिलाओं की स्वास्थ्य की स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया गया है। इसके अनुसार, भारत में आज भी प्रति एक लाख प्रसवों के दौरान ३०१ महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। जबकि नेपाल में यह दर २८१, पाकिस्तान में २७६ तथा श्रीलंका में सिर्फ ५८ है। अलबत्ता बांग्लादेश में यह दर थोड़ी ज्यादा ३२० है। यानी हम बांग्लादेश से ही बेहतर हैं। इससे साबित होता है कि भारत के छोटे-छोटे पड़ोसी देशों ने अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था में काफी सुधार कर लिया है, जिसका फायदा महिलाओं को मिल रहा है, लेकिन भारत में यह स्थिति अभी तक गंभीर बनी हुई है। श्रीलंका ने अपने स्वास्थ्य ढाँचे को महिलाओं के अनुकूल बनाया है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में १५ साल की उम्र की ५१.४ फीसदी महिलाएँ खून की कमी से ग्रस्त हैं तथा इसी आयु वर्ग में ४१ फीसदी पोषण के अभाव में कम वजन की समस्या से जूझ रही हैं। २० आयु वर्ग में करीब ४५.६ फीसदी महिलाएँ रक्ताल्पता से ग्रस्त हैं तथा ३०.६ फीसदी अंडरवेट हैं। इतना ही नहीं, प्रजनन स्वास्थ्य में कमजोर होने की एक मुख्य वजह ५० फीसदी महिलाओं का विवाह २० साल से कम उम्र में होना है।

समाज में सफलता प्राप्त करती हुई, नई मंजिलों को छूती हुई और अपनी पहचान बनाती हुई बेटियों की उपलब्धियों का जश्न तो है, प्रोत्साहन और उनकी तारीफ में पढ़े जा रहे कसीदे भी मौजूद हैं, क्योंकि हमने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का संकल्प लिया है, परंतु उसके साथ ही बेटों के लगातार पिछड़ते जाने का मलाल भी है। शिक्षा से वंचित वर्गों में पूरे विश्व में सबसे बड़ा हिस्सा महिलाओं का है। पूरे विश्व में ही पुरुषों की अपेक्षा शिक्षा महिलाओं में शिक्षा का स्तर आधे से भी कम है। भारत में स्वतंत्रता के समय यह स्थिति अत्यंत विकट थी। जहाँ पुरुषों की दर १२ प्रतिशत थी वहीं महिलाओं की साक्षरता केवल ८.९ प्रतिशत थी। ६३ वर्षों के प्रयास से इसमें काफी सुधार हुआ, परंतु फिर भी महिलाओं एवं पुरुषों के साक्षरता में अभी भी बहुत अधिक अंतर है। २०११ की जणगणना के अनुसार जहाँ पुरुषों में साक्षरता ८२ प्रतिशत है, वहीं महिलाओं की साक्षरता ६३.५ प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड आदि राज्यों में यह ५५ प्रतिशत से भी कम है। महिला साक्षरता के हिसाब से बिहार सबसे पिछड़ा है। जहाँ केवल ५१ प्रतिशत है। इस परिस्थिति से यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता के ७० वर्षों बाद भी स्त्री शिक्षा के लिए विशेष प्रयास करना आवश्यक है। भारत में महिला साक्षरता नए जमाने की अहम जरूरत है।

महिलाओं के शिक्षित हुए बिना हम देश के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। परिवार, समाज और देश की उन्नति में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। भारत के लोकतंत्र को सफल बनाने का एकमात्र रास्ता यहीं है की महिलाओं तथा पुरुषों को शिक्षा हासिल करने के लिए बराबरी का हक दिया जाए। शिक्षित महिलाएँ ही देश, समाज और परिवार में खुशहाली ला सकती है। यह कथन बिल्कुल सत्य है की एक आदमी सिर्फ एक व्यक्ति को ही शिक्षित कर सकता, पर एक महिला पूरे समाज को शिक्षित कर सकती है, जिससे पूरे देश को शिक्षित किया जा सकता है। हालाँकि महिला शिक्षा हेतु भारत सरकार की विभिन्न योजनाएँ जैसे इंदिरा महिला योजना, सर्वशिक्षा अभियान, बालिका समृद्धि योजना, राष्ट्रीय महिला कोष, महिला समृद्धि योजना रोजगार तथा आमदनी हेतु प्रशिक्षण केंद्र, महिलाओं तथा लड़कियों की प्रगति के लिए विभिन्न कार्यक्रम आदि भी चलाए जा रहे हैं।

स्त्री सशक्तीकरण के नारे के साथ विगत चालीस सालों में हमने बहुत प्रगति की है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में स्त्रियों ने अपना सर्वोत्तम हासिल किया है। उन्होंने सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में शोहरत कमाई है। हिंदुस्तान के हर व्यक्ति को इन बेटियों पर गर्व है, जिन्होंने यह साबित किया है कि अवसर मिलने पर वह इतिहास बदल सकती हैं। इतनी उपलब्धियों और सशक्तीकरण के तमाम प्रयासों के बावजूद सफल स्त्रियों की संख्या उँगलियों पर गिन दिए जाने भर है। यह भी एक कटु यथार्थ है कि सफल होती हुई स्त्री दोहरे दंश का शिकार है। उसने जितनी ऊँचाई हासिल की है, उसपर अपेक्षाओं की गठरी उतनी ही भारी लदी है। दुनिया के किसी भी कोने में संसद् या अपने कार्यालय में बैठी हुई कामकाजी स्त्री को अपने बच्चे को स्तनपान कराते हुए दिखाया जाना और उसे इस रूप में प्रस्तुत करना कि स्त्री कितनी सफलतापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन के साथ-साथ मातृत्व की भूमिका भी निभा रही है, दरअसल स्त्रियों को उनकी वास्तविका भूमिका को याद दिलाए रखने का यत्न भी है। कभी किसी बड़े राजनेता या उच्च अधिकारी से न तो इस तरह की कोई अपेक्षा की जा सकती है और न ही उनकी इस प्रकार की महिमामंडित छवियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं।

भारत में महिलाओं की शिक्षा एवं उनकी सफलता रोजगार और अवसरों की उपलब्धता में हिस्सेदारी से जुड़ा हुआ मसला भी है, जो पुरुषों के भविष्य के समक्ष एक व्यावधान के रूप में उभरा है। श्रम के लैंगिक विभाजन के कारण घर और बाहर का दायरा बँटा हुआ था। स्त्रियाँ घर और बच्चे सँभालती थीं और पुरुष नौकरी-चाकरी। १९९० के बाद भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीतियों ने श्रम के इस लैंगिक विभाजन को पाट दिया। बाजार ने उपभोक्ता और श्रमिक, दोनों रूपों में स्त्री को नई भूमिका प्रदान की। श्रम बाजार में स्त्रियों की आमद ने पुरुष समाज के समक्ष एक नई चुनौती पैदा की है। रोजगार प्राप्त करने से लेकर उसे बनाए रखने की पूरी यात्रा में स्त्री पुरुष की प्रतिद्वंद्वी के रूप पेश की जा रही है। पुरुषवादी दृष्टि और समाज जो हमेशा से स्त्रियों का आशीर्वाद लेकर, उनकी पूजा कर सफलता हासिल करता आया था, आज इस बदली हुई आर्थिक भूमिका में स्त्रियों की उपस्थिति से असहज हुआ है। इसकी वजह यह है कि अवसरों एवं संसाधनों में हिस्सेदारी की दावेदारी बढ़ी है। भारतीय समाज संघर्ष और प्रतिस्पर्धा का नहीं, बल्कि सहकार का समाज रहा है परंतु वर्तमान समय ने स्त्री-पुरुष संबंधों के मायने भी बदले हैं। परिणामस्वरूप स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटानाओं में इजाफा हुआ है और उनके प्रति असुरक्षा की भावना एवं भय का वातावरण निर्मित हुआ है। यह चिंताजनक स्थिति है।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा महिलाओं के विरुद्ध दर्ज की गई हिंसा के सांख्कीय आँकड़े यह बताते हैं कि १९५५ से लेकर २०२० के मध्य लिंगानुपात, जबरन विवाह, घरेलू हिंसा, ऑनर किलिंग, दहेज हत्या, यौन हिंसा, सार्वजनिक स्थलों पर स्त्रियों के साथ होनेवाले यौन दुर्व्यवहार, एसिड हमले, मानव तस्करी, साइबर क्राइम, दलित एवं आदिवासी महिलाओं के साथ हुई हिंसा तथा अन्य सभी प्रकार की हिंसाओं में एक खास प्रवृत्त‌ि दृष्टिगोचर होती है। १९७१ के दशक तक स्त्रियों के अपहरण को स्त्रियों के विरुद्ध हुई हिंसा के एकमात्र रूप में देखा जाता था। १९७१ के उपरांत बलात्कार को जेंडर आधारित हिंसा के रूप में चि‌िह्न‍त किया जाने लगा। १९८९ में ‘महिलाओं के विरुद्ध अपराध’ के एक अलग अध्याय के रूप में शामिल किया गया। २०१७ तक हिंसा की अन्य श्रेणियों को भी चि‌िह्न‍त किया गया। २०१४ में पहली बार घरेलू हिंसा संबधी आँकड़ों को राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट में आधिकारिक रूप से शामिल किया गया। २०२० में प्रस्तुत आँकड़ों के आधार पर प्राप्त परिणामों के अनुसार लिंगानुपात का ९४३ तथा बाल लिंगानुपात ९१९ पर स्थिर रहना एक हद तक संतुष्टिप्रद है, जो बरकरार रहना चाहिए।

भारत में कन्या भ्रूण हत्या का परिदृश्य आज भी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। आजादी के इतने सालों बाद भी हमारे समाज में बेटों को महत्त्व दिए जाने के कारण समाज में बेटियों को गर्भ में ही मार देने की परंपरा बदस्तूर जारी है। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि तथा पूर्व एशियाई देशों में भी इसकी झलक देखने को मिलती है। लड़कों को जन्म देने की प्राथमिकता का घर के अंदर होनेवाले जेंडर आधारित भेदभाव के साथ गहरा रिश्ता है, जिसमें उपलब्ध संसाधनों के वितरण, चिकित्सकीय देखभाल, पोषण, शिक्षा तथा अन्य सुविधाओं में भेदभाव के कारण लड़कियाँ मानसिकता के स्तर पर हमारे समाज में भयंकर उपेक्षा का शिकार होती हैं, जिसका साक्ष्य हमें २००९ में प्राप्त यूनाइटेड नेशन पापुलेशन फंड की रिपोर्ट से प्राप्त होता जिसके अनुसार आज भी किशोर बालक बालिकाओं का लिंगानुपात १०५:१०० है। भारत के अतिरिक्त पूर्व एशियाई देशों, जैसे चीन, रिपब्लिक ऑफ कोरिया, आर्मेनिया, जॉर्जिया, अजरबैजान, हांगकांग तथा अन्य देशों में भी लगभग यही लिंगानुपात विद्यमान है।

महिलाओं को कार्यस्थल पर सुरक्षित वातावरण देने के लिए मुफ्त सुलभ शौचालय, पानी की सुविधा, सार्वजनिक परिवहन के साधनों को सुरक्षित बनाना, पर्याप्त बिजली एवं सी.सी.टी.वी. कैमरों की व्यवस्था करना आदि सुविधाएँ आवश्यक हैं। ऐसे माहौल में महिलाओं के साथ अभद्रता और हिंसा को रोका जा सकेगा और वे भयमुक्त होकर स्वतंत्रतापूर्वक कहीं भी आ-जा सकेंगी। इनके अलावा महिलाओं के सुरक्षित और गरिमामयी जीवनयापन के लिए मातृत्व लाभ, चिकित्सा लाभ, भविष्य निधि और पेंशन एवं अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ प्रदान किया जाना चाहिए। महिलाओं के अवैतनिक कार्यों को पहचानकर उनके लिए पारिश्रमिक तय करना सरकार की वरीयताओं में शामिल होना चाहिए। इसके लिये सरकार को घरेलू स्तर पर इन कामों में लगी महिलाओं के आँकड़े जुटाने होंगे। महिलाएँ अपने समय का काफी हिस्सा ऐसे कामों में खर्च करती हैं, जिन्हें काम समझा ही नहीं जाता है। उन कार्यों को उनके घरेलू कर्तव्यों का विस्तार मान लिया जाता है। ऐसे कार्यों का अधिकांश हिस्सा अवैतनिक श्रम का होता है।

महिलाओं के जीवन का एक बड़ा हिस्सा घरेलू कामों में ही खप जाता है और इसका कोई आकलन सकल घरेलू उत्पाद या अन्य आँकड़ों में नहीं किया जाता है। महिलाओं द्वारा किए जानेवाले कठिन परिश्रम के बावजूद उनकी उपस्थिति अवैतनिक श्रम में बढ़ी है। घरों में किए जानेवाले कार्यों में बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल करना, खाना बनाना, पानी भरकर लाना, पशुओं की देखभाल करना इत्यादि शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कृषि कार्यों में सहायता एवं वन उत्पादों को एकत्र करना भी महिलाओं द्वारा किए जानेवाले के अवैतनिक कार्यों की श्रेणी में आता है, जिनका उपयोग घरेलू उपभोग के लिए होता है। जब तक हमारे नीति निर्माता इन संरचनात्मक मुद्दों का आकलन का सही तरह से नहीं करेंगे तथा महिलाओं को कार्यबल में प्रवेश करने को लेकर बाधाएँ बनी रहेंगी, तब तक भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाना संभव नहीं होगा।

एक स्वस्थ एवं आदर्श समाज के लिए आवश्यक है कि वर्तमान स्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए स्त्रियों के प्रति वैश्विक स्तर पर विद्यमान पूर्वग्रहों, अन्यायों एवं भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए जाएँ। परिवार, समाज एवं संस्कृति को बनाए रखने में स्त्रियों की भूमिका पर नए शोधों की आवश्यकता है, ताकि इसके आधार पर जेंडर संबंधों में सुधार किया जा सके। इसकी शुरुआत सबसे पहले परिवार एवं वैवाहिक संबंधों से होनी चाहिए। स्त्रियों समाज की इन दोनों सुंदर संरचनाओं को नई दृष्टि से पुनः आकार लेने की आवश्यकता है, जो अधिकाधिक जनतांत्रिक होते हुए स्त्रियों के प्रति संवेदनशील, समावेशी और सहिष्णु हो, ताकि सही मायने में भारतीय समाज स्त्री-पुरुष संबंधों तथा स्त्रियों को उनका उचित स्थान देने के मामले में विश्वपटल पर सुंदरतम रूप में उभर सके। स्त्रियों की देशज ज्ञान-परंपराओं को प्रामाणिकता देकर ही मुख्यधारा की विकास नीतियों में परिवर्तन संभव है। परिधि के स्त्री प्रश्नों को केंद्रीयता प्रदान किए बिना समानता का स्वप्न अधूरा है।

सुप्रिया पाठक
भूखंड सं. ६/आई-3
झूंसी योजना-३
प्रयागराज-२११०१९ (उ.प्र.)
दूरभाष: ९८५०२००९१८

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