लँगोट का कच्चा

लँगोट का कच्चा

श्रीधर द्विवेदी : चिकित्सा विषय पर हिंदी में लिखनेवाले प्रतिनिधि लेखक। चिकित्सा क्षेत्र में अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फेलोशिप से सम्मानित। विभिन्न पत्रिकाओं में ढाई सौ से अधिक शोध-पत्र के साथ-साथ ‘हृदय सूक्तियाँ’, ‘तंबाकू चित्रावली’, ‘मैं बनारस हूँ’, ‘स्कूल स्वास्थ्य’ कृतियाँ प्रकाशित। संप्रति नई दिल्ली स्थित नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट में वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ।

साठ वर्षीया कामिनी रोजाना की भाँति सुबह की चाय लेने के साथ-साथ अपने दालान में बड़े ध्यान से उस दिन का अखबार पढ़ रही थी कि अचानक उसकी दृष्टि एक प्रसिद्ध खिलाड़ी द्वारा दूसरी शादी करने के समाचार पर जाकर टिक गई। उसके पूरे शरीर में बड़ी तेज झुनझुनी उठ गई। खबर ही ऐसी थी, जिसने उसके पूरे चित्त को एक बार फिर से उद्वेलित कर दिया। आँखें डबडबा गईं। उसके अपने साथ जो कुछ हुआ था, याद कर उसकी रग-रग में घृणा की लहर सी उठ गई। अब तो उसकी उम्र साठ पार कर रही है। अपने साथ हुई दगाबाजी और वादाखिलाफी से उत्पन्न भयंकर मानसिक तनाव के कारण उसका शरीर इतना जर्जर हो गया था कि अब वह सत्तर–पचहत्तर की बुढ़िया लगने लगी है। इस खिलाड़ी की पहली पत्नी होते हुए दूसरी शादी की इस खबर को पढ़कर उसे अपनी शादी का खयाल आ गया।

कामिनी का जब विवाह हुआ, तब उसकी उम्र मात्र सोलह साल की थी। अपने गाँव गोपालपुर के पास के स्कूल से हाईस्कूल किया था। पिता रुद्रप्रताप निकट के कपसेठी इंटर काॅलेज में हिंदी के अध्यापक थे। उन्होंने अपने ही विद्यालय के एक उदीयमान छात्र अरुण तिवारी से उसका विवाह करने का सुनिश्च‌य किया। अरुण पढ़ने-लिखने में तो होशियार था ही, साथ ही सुदर्शन और गौर बदन भी था। उसके पिता रामप्रसाद तिवारी, जो फूलपुर के रहनेवाले थे, उनसे उनकी दसियों साल पुरानी मित्रता थी, जब दोनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. कर रहे थे। रामप्रसाद को संयोग से विश्वविद्यालय में लिपिक का कार्य मिल गया। रुद्रप्रताप अपने गाँव लौट आए और सौभाग्य से उन्हें कपसेठी कस्बे में ही अध्यापक का पद मिल गया। रुद्रप्रताप के दो पुत्र रविप्रताप और भानुप्रताप तथा दो बेटियाँ कामिनी और सौदामिनी थीं। कामिनी ने जैसे ही हाईस्कूल पास किया, पिता रुद्रप्रताप ने उसके विवाह की बात रामप्रसाद से चला दी। रामप्रसाद ने भी इस प्रस्ताव पर सहर्ष अपनी सहमति दे दी। चटपट अरुण और कामिनी परिणय सूत्र में बँध गए।

शादी के दो साल बाद जब अरुण ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो कामिनी का गौना आया। अब वह अपने ससुराल फूलपुर आ गई। थोड़े दिनों पश्चात् ससुर राम प्रसाद उसे इलाहाबाद दारागंज वाले मकान में ले आए, जहाँ वह अपने दोनों पुत्रों अरुण और अशोक के साथ रहते थे।

कामिनी भी उन लोगों के साथ रहने लगी। सास इसराजी फूलपुर में ही रहती थीं और अपने हिस्से की खेतीबारी सँभालती-देखती थीं। वहाँ से हर फसल का अन्न-राशन लेकर इलाहाबाद आ जातीं, थोड़े दिन रुककर फिर फूलपुर वापस लौट जातीं। दारागंज में कामिनी अकेली महिला थी] जिस पर घर की रसोई की पूरी जिम्मेदारी थी। श्वसुर धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। वह थोड़े झक्की और परंपरावादी थे। सुबह संगम स्नान करते। रामायण, हनुमान चालीसा का पाठ करने के बाद नाश्ता-पानी करके साइकिल से विश्वविद्यालय चले जाते। दोपहर में खाने के वक्त आ जाते और खाना खाने के बाद फिर वापस विश्वविद्यालय चले जाते। देर शाम तक लौटते। पति अरुण अब एम.एस-सी. (केमिस्ट्री) कर रहे थे, इसलिए सुबह नहा-धोकर तैयार होकर विभाग चले जाते और देर शाम को आते। देवर अशोक भी दारागंज में पास के विद्यालय जाता और शाम को अपने समय से वापस आ जाता। रात का खाना सब साथ खाते। कामिनी का सारा समय खाना बनाने, बरतन-चौका करने में ही बीत जाता। और वह थककर सो जाती। घर बहुत छोटा था। मुश्किल से दो कमरे। श्वसुर पुराने विचारों के आदमी थे। उनके सामने कामिनी हमेशा घूँघट करके रहती। ऐसे वातावरण में उसे अरुण के साथ फुरसत से बात करने का बहुत कम समय मिलता। कभी–कभार घर के काम से सौदा–सुल्फ लेने निकल गए तो बात दूसरी थी। रोजमर्रा के कामों में ऐसे ही दिन बीतने लगे।

धीरे-धीरे अरुण ने एम.एस-सी. की पढ़ाई पूरी कर ली और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए। अब श्वसुर ने कहना शुरू कर दिया कि घर-गृहस्थी को ठीक से चलाने के लिए कोई नौकरी कर लो। कुछ आमदनी बढ़े तो कायदे का मकान ले लें। इस घर में गुजारा कैसे होगा? अरुण ने भी सोचा, जब तक हाथ में दो पैसे न हों तो दाल-रोटी के अलावा अच्छा जीवन कैसे जी सकते हैं। कामिनी की सेहत भी ठीक नहीं रहती थी। अधिक श्रम से या किसी अंदरूनी बीमारी से उसकी माहवारी बिगड़ी हुई थी। गौना आए दो वर्ष हो गए। दांपत्य जीवन के बाद भी उसे संतान के सुख की कोई आशा नहीं दिखाई दे रही थी। इस बात को लेकर पति-पत्नी दोनों चिंतित थे, पर  हाथ में पैसा न होने के कारण दोनों लाचार थे। अब जब अरुण ने अच्छे अंकों से एम.एस-सी. उत्तीर्ण कर ली, तब उसने नौकरी के लिए हाथ–पाँव मारना शुरू किया। संयोग से निकट के कायस्थ इंटर काॅलेज में प्रवक्ता का पद मिल गया। उस विद्यालय के प्रधानाचार्य अरुण के पिताजी के पूर्व सुपरिचित थे, इसलिए बात जल्दी बन गई। अब जब अरुण को नौकरी मिल गई तो अरुण ने काॅलेज के निकट एक अलग मकान भी ढूँढ़ लिया। पर पता नहीं क्या बात हुई, पिता रामप्रसाद के मन में क्या आया कि उन्होंने अपने छोटे पुत्र अशोक के साथ दारागंज वाले पुराने मकान में रहना स्वीकार किया। वह अब स्वयं खाना-पीना पकाते और खाते। अरुण और कामिनी दोनों ने इस स्थिति से दबे मन से समझौता कर लिया तथा अपने नए घर में आ गए।

काॅलेज की नौकरी के बाद अरुण थोड़ा सहज हो गया था। अब उसने कामिनी के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना शुरू किया। पास के किसी अच्छे स्त्री रोग विशेषज्ञ को दिखाया। उन्होंने अच्छी तरह से जाँच-पड़ताल की। खून, छाती का एक्स-रे,  पेट और जननांगों का अल्ट्रासाउंड तथा बच्चेदानी-गर्भाशय का एक्स-रे चित्रण सभी जाँचें कीं। सबकुछ सही पाया। डाॅक्टरनी बोली, थोड़ी प्रतीक्षा करो। कभी-कभी पहली संतान के आने में विलंब हो जाता है। पति-पत्नी फिर निश्चिंत हो गए। मिलते-जुलते रहे। एक वर्ष और बीत गया, पर गर्भधारण के कोई आसार नहीं दिखाई दिए। अब कामिनी की चिंता बढ़ने लगी। घर में इस बात को लेकर कानाफूसी होने लगी। वह दिन-प्रति-दिन क्षीण होने लगी। अरुण काफी परेशान था, आखिर कामिनी को हो क्या गया है? इस बार उसने अपने काॅलेज के प्रिंसिपल साहब की मदद से मेडिकल काॅलेज के स्त्री रोग विशेषज्ञ को दिखाया। उन्होंने फिर गहन जाँच-पड़ताल की। गर्भाशय और डिंब वाहिनी का परीक्षण-चित्रण करके बताया कि डिंबवाहिनी में कुछ अवरोध है। हो सकता है कि वहाँ की टी.बी. हो। अस्पताल में भरती करके छोटा आॅपरेशन करना पड़ेगा। ‌अब प्रश्न यह था कि अस्पताल में कामिनी की देखभाल कौन करेगा? स्त्रियों के कक्ष में पुरुषों के रुकने की अनुमति नहीं होती है। अरुण की माँ फूलपुर से आकर रुकने को तैयार नहीं थी।

कामिनी ने अपनी माँ से बात की। वह सहज ही राजी हो गईं। उनके साथ कामिनी की छोटी बहन सौदामिनी भी आ गई। सौदामिनी अब बीस वर्ष की हो गई थी। माँ को दुःख था कि वह अब तक उसके हाथ पीले नहीं कर पाई थी। उसके पति रुद्रप्रताप का देहांत क्या हुआ था कि पूरा घर बिखर सा गया था। वह तो भगवान् की कृपा थी कि उन्होंने काॅलेज की नौकरी से रिटायर होने के पहले बनारस के भदैनी क्षेत्र में एक मकान बनवा लिया था। वहाँ पर उनके गाँव के अन्य लोगों ने भी अपने-अपने घर बनवा लिये थे, जिससे वहाँ बहुत अपनापन लगता था। रुद्रप्रताप की मृत्यु के बाद उनके दोनों पुत्र रविप्रताप और भानुप्रताप अपनी माँ और छोटी बहन के साथ उसी मकान में एक साथ रहते थे। पर दोनों का स्वभाव बिल्कुल निराला था। दोनों अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं। बहनों से कोई लगाव नहीं, कामिनी खुशकिस्मत थी। उसका पिता के रहते ही विवाह हो गया, नहीं तो वह भी सौदामिनी की तरह घर पर कुँवारी बैठी रहती। इन सब बातों को ध्यान में रखकर कामिनी की अस्पताल में भरती होने की बात सुनकर माँ बेटी सौदामिनी को लेकर इलाहाबाद अरुण के घर आ गई। सोचा, कामिनी की देखभाल हो जाएगी और भगवान् ने चाहा तो सौदाम‌िनी की भी बात बन जाएगी। इलाहाबाद में अपनी तरफ के बहुत से लड़के हैं।

माँ और सौदामिनी के आने के बाद कामिनी आॅपरेशन के लिए अस्पताल के स्त्री वार्ड में भरती हो गई। डाॅक्टरनी ने कहा, अस्पताल में किसी को रात में देखभाल के लिए रुकना पड़ेगा। माँ ने सोचा, जवान लड़की को अस्पताल में कैसे छोड़ूँ, इसलिए तय हुआ, रात में स्वयं माँ कामिनी के पास रुक जाएगी। दिन में सौदामिनी रहेगी और अरुण काॅलेज से बीच में समय निकालकर खाना-पीना पहुँचा देगा। दवा आदि की व्यवस्था कर देगा। इस व्यवस्था के अनुसार अरुण रात में अपनी सास को अस्पताल में छोड़ जाता। इस तरह आॅपरेशन हो गया। डाॅक्टरनी बता रही थी कि डिंब वाहिनी का अवरोध दूर कर दिया है। अब गर्भधारण में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। दो-तीन दिन यहाँ रोककर टाँके काटकर छुट्टी दे देंगे। बात दो-तीन दिन की और थी, यह सोचकर माँ ने रातवाली ड्यूटी अपने स‌िर पर ओढ़े रखी। अब अरुण और सौदामिनी को रात में अकेले समय बिताने का काफी मौका मिलता। दोनों जवान थे और वैसे भी जीजा-साली का मधुर रिश्ता था, इसलिए हँसी-ठिठोली अकसर होती रहती। रात के अकेलेपन में बात हास्य-विनोद से बढ़कर आलिंगन-चुंबन में बदल गई। यह सिलसिला और आगे बढ़ गया। दोनों हमबिस्तर होने लगे तथा सहवास का आनंद लेने लगे।

कामिनी जब अस्पताल से घर वापस आई, तब भी जीजा-साली का हँसी-मजाक, आलिंगन-स्पर्श चलता रहा। कामिनी को पहले यह सबकुछ समझ न आया, पर धीरे-धीरे उन दोनों का इतना अधिक छेड़छाड़ और आपस में इतनी निकटता उसे खटकने लगी। उसने सोचा—चलो, थोड़े दिनों की बात है, फिर सौदामिनी अपने घर चली जाएगी तो यह सब बीते दिन की बात हो जाएगी। पर कहते हैं न, पराई नारी के साथ जब किसी पुरुष को सुख मिल जाता है तो वह जल्दी छूटता नहीं। मौका लगते ही वह भूखे शेर की तरह उस पर टूट पड़ता है। अब अरुण समय-असमय काॅलेज से घर आ जाता और इस अवसर की ताक में रहता कि कब कामिनी और सास की आँख लगे और वह सौदामिनी को अपने पास बुलाकर अपनी भूख मिटा सके। सौदामिनी भी इस बात के लिए हमेशा तत्पर रहती, क्योंकि जीजा उसकी हर फरमाइश पूरी करने के लिए तैयार रहता। अब अरुण के पास अपना स्कूटर हो गया था, जिस पर सौदामिनी को बिठाकर सिनेमा जाने, घूमने-फिरने का आनंद  ही अलग था। पीछे बिठाया और चल दिए। गाँव की सीधी-सादी सास के लिए इसमें कुछ भी गलत न था। अपना दामाद है, कुछ भी गलत नहीं करेगा। सरल स्वभाव की कामिनी यह समझ नहीं पा रही थी कि कंजूस-मक्खीचूस के उसके पति तिवारीजी, जो अतिथि के आ जाने पर दाल में गरम पानी मिलाने को कहते, दूध में और पानी डालकर चाय बनाने को बोलते और सब्जी में कम-से-कम तेल डालकर पानी में चुराने को कहते, वह अब इतने उदारमना शाहखर्च कैसे बन गए? पर यहाँ तो अंदर-ही-अंदर कुछ और ही खिचड़ी पक रह थी। वासना की लोलुप आँखें सौदामिनी पर डोरे डाल रही थीं और सौदामिनी भी उधर धीरे-धीरे चुपचाप खिंचती चली जा रही थी।

संयोग कुछ ऐसा बना कि मुक्त सहवास के कारण सौदामिनी गर्भवती हो गई। अब अरुण और सौदामिनी, दोनों के हाथ-पाँव फूल गए। सोचा—गर्भ गिरवा दें। उसमें भी भंडाफोड़ होने का डर था। क्या करें, क्या न करें? बात पता लगने पर अरुण की नौकरी जाने का डर अलग से था। हारकर अरुण ने बहुत हिम्मत बटोरकर यह बात सबसे पहले अपनी पत्नी कामिनी को बताई। कामिनी को तो मानो काठ मार गया। यह तो वह जानती थी कि पुरुषों का मन अकसर फिसल जाता है, पर अपनी बहन ही उसके सुहाग पर ऐसी सेंध लगाएगी, इसकी कल्पना उसे स्वप्न में भी न थी। फिर सौदामिनी तो उसकी अपनी बहन है। बी.ए. पास है। दुनिया देखी हुई है। आई थी बीमार बहन की तीमारदारी करने, पर रचाने लगी मेहँदी और सुहागरात। अब क्या होगा? माथा पीटने लगी। अरुण ने कहा, इस मुसीबत से बचने का एक ही रास्ता है, तुम हमें पेपर पर तलाक दे दो। फिर मैं सौदामिनी से शादी कर लूँगा। तुम बड़ी बहन बनकर रहना। घर की बात घर में ही रहेगी। कामिनी अभी भी असहज थी, पर लाचार थी।

अब बारी थी सास को समझाने की। अरुण ने बड़ी चालाकी से उन्हें बताया कि सौदामिनी की शादी तो करनी ही करनी है तो मुझसे ही कर दीजिए। वह घर में ही रहेगी। आपका खर्च भी नहीं होगा। मैं दोनों बहनों की देखभाल कर लूँगा। निस्सहाय माँ इस झाँसे में आ गई। और रही बात सौदामिनी के भाइयों की, उन्हें इस विषय में कोई अभिरुचि नहीं थी। उन्हें घर बैठे-बैठे सौदामिनी की शादी का हल मिल गया। इसलिए दोनों भाइयों ने भी झटपट इस प्रस्ताव पर हामी भर दी। अरुण ने कामिनी को फुसला-बहलाकर उसके पूर्ववत् देखभाल का आश्वासन देकर तलाक-पत्र पर हस्ताक्षर ले लिये और सौदामिनी से गुपचुप कानूनी शादी कर ली। एक ही घर में बड़ी बहन कामिनी बड़की तेवराइन और छोटी बहन सौदामिनी छोटकी तेवराइन हो गईं। इस गंधर्व विवाह के बाद जो बात घर में छिपकर आड़ में होती थी, वह दिन-दहाड़े होने लगी। सौदामिनी अब खुले आम अरुण के साथ बिस्तर पर सोती। बड़ी बहन कामिनी मन-मसोसकर दूसरे कमरे में बिस्तर पर करवटें बदलती रहती। अब वह परिवारवालों के लिए बड़की तेवराइन थी और सौदामिनी छोटकी तेवराइन। अरुण भी उसे इसी संबोधन से पुकारते थे।

गर्भावस्था समाप्त होने पर सौदामिनी ने एक शिशु को जन्म दिया। अरुण ने उसका नाम मृदुल रखा। कुंठा की शिकार बड़ी बहन कामिनी ने छाती पर पत्थर रखकर इस कड़ुवे सच को स्वीकार लिया। मृदुल को अपने ही पुत्र की भाँति लाड़-प्यार से पालना शुरू किया। मृदुल जब तक अबोध था, तब तक वह कामिनी को बड़ी अम्मा का संबोधन और आदर देता रहा, लेकिन ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया और अपने माता-पिता का कामिनी के प्रति बेरुखा तथा अवहेलनापूर्ण व्यवहार देखा तो उसने भी बड़ी अम्मा से कन्नी काटना शुरू कर दिया। स्थिति यहाँ तक आ गई कि घर में कोई अतिथि या पड़ोसी आता तो बड़की तेवराइन एक अलग कमरे में रहने के लिए विवश कर दी जाती और अतिथि की आवभगत का पूरा उत्तरदायित्व छोटी तेवराइन निभाती। चाय-पानी, खाना-पीना और हँसी-ठहाकों के बीच छोटी तेवराइन, बालक मृदुल और अरुण गपशप करते रहते। बड़ी तेवराइन उपेक्षित सी किसी कोने में अपने दुर्भाग्य को कोसती रहती। जब मेहमान बिदा हो जाते, तब उसका नंबर आता। वह बुलाई जाती, बचा-खुचा खाना उनके सामने परोस दिया जाता। इस उपेक्षा और घोर निरादर को कामिनी ज्यादा सहन न कर सकी। थोड़े दिनों बाद वह मानसिक रूप से विक्षिप्त सी रहने लगी। उसे यह भी ध्यान न आता, किस अवसर पर क्या पहनना है। क्या बोलना है। अकसर बिल्कुल उघाड़ होकर किसी अड़ोसी-पड़ोसी के सामने खड़ी हो जाती। खाने-पीने का कटोरा लेकर अतिथि के समक्ष बैठक में आ जाती, उस समय स्थिति काफी नाजुक हो जाती।

इस बदमजगी और सामाजिक अप्रतिष्ठा से बचने के लिए छोटकी तेवराइन और अरुण ने तय किया, क्यों न बड़की को फूलपुर भेज दें। बड़की तेवराइन इसके लिए बिल्कुल राजी नहीं थी। इसकी अपेक्षा उसने अपनी माँ के पास भदैनी (बनारस) जाना स्वीकार किया। कामिनी वहाँ मन-बहलाव के लिए आ गई। थोड़े दिनों तक तो भाइयों का व्यवहार बहुत प्रतिकूल नहीं था, किंतु जब उन्हें पता चला कि अब वह काफी दिन यहीं रुकेगी तो वे आए दिन उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगे। उसे बाँझिन कहकर चिढ़ाते। माँ इस बात को लेकर बहुत दुखी और खिन्न रहती। कुछ दिनों बाद जब माँ का अचानक दिल के दौरे से देहांत हो गया तो उस बेसहारा के सामने जीवन-यापन का प्रश्नचिह्न‍ लग गया। इधर भाई हमेशा झगड़ा-झंझट करते रहते। छोटकी तेवराइन और पति अरुण कामिनी को अपशकुन समझकर इलाहाबाद अपने पास लाने के लिए बिल्कुल राजी न थे। यही नहीं, अरुण कोई भी आर्थिक सहायता देने में भी आनाकानी करते थे। बात जब अन्य सगे-संबंधियों तक पहुँची तो उन सबने दोनों भाइयों को समझा-बुझाकर कामिनी के लिए बनारस के भदैनीवाले पुश्तैनी मकान के एक कोने में एक कोठरी और दालान दिलवा दिया। अब बड़की तेवराइन किसी प्रकार वहाँ अपना जीवन यापन करने लगी। वह सुबह उठकर गंगास्नान करती, तुलसीजी को पानी देती, दीपदान करती, फिर कुछ नाश्ता-पानी करती और दालान में एक कुरसी डालकर अखबार पढ़ने बैठ जाती। उसकी एक-एक पंक्ति पढ़ जाती। आखिर समय कैसे कटे? ग्यारह-बारह बजे के करीब खाना बनाती, फिर खा-पीकर दोपहर में झपकी ले लेती।

शाम के समय वह घर के बाहर कुरसी डालकर पड़ोसिनों से कुछ बात कर समय गुजाराती। धुँधलका होते ही घर आकर टी.वी. के सामने बैठ जाती। कोई धारावाहिक या फिल्मी चित्र देखकर मन को बहलाती। रात में खिचड़ी या दाल-चावल खाकर पेट भर लेती, फिर सो जाती। कभी-कभार सस्ती-मद्दी सब्जी बना लेती। अब दूध-दही कहाँ नसीब होता! तीज-त्योहार को बाजार से हल्की–फुल्की मिठाई खरीदकर मन में संतोष कर लेती।

अब आगे और बचा ही क्या था उनकी जिंदगी में, जिसके लिए कुछ आशान्वित होती, कुछ सोचती। जब अपना सुहाग और सगी बहन ही धोखा दे गई तो दूसरों से क्या आशा करे? परित्यक्त-विरक्त होने के सिवा अब बचा ही क्या था। इसलिए आज का दैनिक भास्कर पढ़ते-पढ़ते आँखों से जो जलधारा निकली, उसने अखबार को ही नहीं भिगोया, वरन् कामिनी के अंतस्तल को पूरी तरह से झकझोर दिया था। उद्वेलित कर दिया था। इस दुरवस्था के लिए वह स्वयं अपने को कोस रही थी। पर सच में तो उसकी सगी बहन कामिनी कम कसूरवार नहीं थी और पति तिवारी तो लँगोट के कच्चे थे ही।

श्रीधर द्विवेदी
बी-१०७, सागर अपार्टमेंट, सेक्टर-६२,
नोएडा-२०१३०४ (उ.प्र.)
दूरभाष ः ९८१८९२९६५९
shridhar.dwivedi@gmail.com

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