जयद्रथ प्रसंग : द्रौपदी-हरण

जयद्रथ प्रसंग : द्रौपदी-हरण

थी निश्चिंत द्वार पर बैठी।
पर मैं खड्ग-धार पर बैठी।।

मृग-शावक संग खेल रही थी।
उस पर ममत्व उड़ेल रही थी।।

पर्णकुटी के निकट सरोवर।
सुंदरता थी बड़ी मनोहर।।

जयद्रथ सेना लेकर आया।
डेरा उसने यहीं लगाया।।

हाथ में थामी गगरी, चल दी।
मैं नदिया की डगरी, चल दी।।

रस्ता रोक खड़ा था पापी।
समझा खुद को वीर प्रतापी।।

मैंने अब ये जान लिया था।
उसने भी पहचान लिया था।।

कैसी हो पांचाली? पूछा!
कहाँ गये सब माली! पूछा!!

वनचारी हैं आते होंगे।
काट के लकड़ी लाते होंगे।।

कुटी निकट है आप पधारें।
और हमारे भाग सँवारें।।

कैसी है दुःशला बतलाओ।
सब कैसे हैं और सुनाओ।।

बातों में उसको उलझाया।
लेकिन उसने धर्म भुलाया।।

अच्छी है दुःशला पांचाली।
मगर तुम्हारी आँखें ख़ाली।।

दशा देखकर दुखी हुआ हूँ।
कैसे कह दूँ मैं अच्छा हूँ।।

राज भवन में पली-बढ़ी हो।
मलिन-भेष में आज खड़ी हो।।

राजभवन में ब्याहकर आयी।
तुमने कैसी क़िस्मत पायी।।

दास-दासियाँ पास नहीं हैं।
खुशियों के अहसास नहीं हैं।।

रहने को आवास नहीं है।
सुख-वैभव कुछ पास नहीं हैं।।

भटक रही हो तुम क्यों वन में।
आग लगी है मेरे मन में।।

कैसे कह दूँ दुखी नहीं हो।
पांचाली! तुम सुखी नहीं हो।।

पांचाली मैं साफ़ बताऊँ।
साथ तुम्हारे रहना चाहूँ।।

तीरों से थी घायल कृष्णा।
ग़ुस्से में थी पागल कृष्णा।।

मुझको ग़ुस्सा आया भारी।
गरजी थी भीतर की नारी।।

मर्यादा में रहकर बोलो।
मुझको भाभी कहकर बोलो।।

रिश्तों का आधार तो मानो।
बड़ी हूँ तुमसे ये भी जानो।।

मेरे छोटे नंदोई हो।
यह मत भूलो! बहनोई हो।।

तुमने रिश्तेदार न माना।
रिश्तों का आधार न माना।।

मर्यादाएँ लाँघ चुका था।
काम-नशे में बोल रहा था।।

रिश्तों का आधार बदल दो।
अब जीवन का सार बदल दो।।

तुम चाहो प्राणेश बना लो।
जीवन प्यारा शेष बना लो।।

ऐसी-वैसी तुमने जाना।
तुमने मुझको ना पहचाना।।

मैंने तो सम्मान किया है।
तुमने पर अपमान किया है।।

भूल गये हो दुर्योधन क्या?
याद दिलाऊँ अपना प्रण क्या?

भर्ता सब जब काल बनेंगे।
‘रावण’ जैसा हाल करेंगे।।

जयद्रथ ऐसी भूल न करना।
तुम ज्वाला में पाँव न धरना।।

अपनी हार नहीं मानी हूँ।
इन्द्रप्रस्थ की पटरानी हूँ।।

धर्मराज का भाला हूँ मैं।
कुल का दीप-उजाला हूँ मैं।।

भीमसेन की गदा भी मैं हूँ।
सखी नहीं इक सखा भी मैं हूँ।।

एक उफनता नीर हूँ मैं तो।
अर्जुन का भी तीर हूँ मैं तो।।

खड्ग नकुल-सहदेव की मैं हूँ।
और क़सम महादेव की मैं हूँ।।

ब्याहता का सम्मान करो तुम।
ऐसे ना अपमान करो तुम।।

बनकर रहना सिर्फ़ जमाई।
बात समझ क्या मेरी आयी?

मैं तेरी हूँ बहन समाना।
इतनी सी तू बात न जाना।।

उसको फ़ौरन भाँप लिया था।
ख़ुद को मैंने ढाँप लिया था।।

बदनीयत से उसने देखा।
पार करी मर्यादा-रेखा।।

कामुकता में डूबा था वो।
और नशे में बहका था वो।।

मुझ अबला की एक चली ना।
क़िस्मत मेरी रही भली ना।।

भाग्य ने मेरे दिया न मौका।
वो था तेज़ पवन का झोंका।।

ऋषि धौम्या ने हाँक लगायी।
लेकिन उसने आँख चुरायी।।

जयद्रथ सहमा लाचारी थी।
चली कलेजे पर आरी थी।।

जयद्रथ अपने वश में कब था।
वो बेकाबू बिल्कुल अब था।।

द्रुपद-सुता का हरण किया था।
काल का उसने वरण किया था।।

आहत है ये सबला नारी।
अब मरने की तेरी बारी।।

पांडव तुझको अब ना छोडे़।
गर्दन तेरी वही मरोड़े।।

पाण्डव लौटे थे मृगया से।
इसीलिये वो थके हुए थे।।

कुटिया में जब मुझे न पाया।
उनको थोड़ा शक हो आया।।

विद्युत् गति से दौड़े आये।
कष्ट बहुत ही आज उठाये।।

भाग्य के हाथों खेल रहे थे।।
तिरस्कार वो झोल रहे थे।।

भागा उनको देख कुकर्मी।
पतियाें का जीजा दुष्धर्मी।।

अर्जुन ने अब दिया न मौक़ा।
अग्नि बाण से उसको रोका।।

भीम ने जाकर उसे दबोचा।
मर जाएगा ज़रा न सोचा।।

भीम ने फिर बालों से खींचा।
पकड़ उसे गालों से खींचा।।

धर्मराज थोड़ा घबराये।
इसे छोड़ दो, कहने आये।।

दुःशला आखि़र बहन हमारी।
क्या सोचेगी माँ गांधारी?

क्रोध-ज्वाल में तड़पी मैं तो।
बनकर बिजली कड़की मैं तो।।

आत्म दहन मैं अब कर लूँगी।
अपने प्राणों को हर लूँगी।।

तेवर देख युधिष्ठिर हारा।
चुपके से कर लिया किनारा।।

भीम ने उसको पटका मारा।
अर्जुन ने देखा नज़्ज़ारा।।

मृत्युदंड से दंडित कर दो।
इस निर्लज्ज को खंडित कर दो।।

धर्मराज से रहा गया ना।
दुःशला का दुख सहा गया ना।।

इकलौता दामाद यही है।
मैंने सच्ची बात कही है।।

‘दुःशला का है पति बतलाया।’
‘धर्म’ ने यूँ सबको समझाया।।

चलो करो इससे समझौता।
बहनोई हैं ये इकलौता।।

मृत्यु दंड इसे नहीं देना।
सर अपने ये दोष न लेना।।

दंड बताओ इसको क्या दें।
पांचाली खुद आप बता दें।।

दुःशला का जब पास दिया था।
तब मैंने अहसास किया था।।

सर मुँडवा कर छोड़ो इसको।
दास बनाकर छोड़ो इसको।।

पाँच चोटियाँ केवल छोड़ो।
दंभ दुष्ट का ऐसे तोड़ो।।

दास ‘धर्म’ का जब कहलाया।
कातर होकर वो रिरियाया।।

मुझपर दया करो तुम देवी।
चाहे प्राण हरो तुम देवी।।

ऐसा तुम व्यवहार ना करना।
बदले में चाहूँगा मरना।।

उसने हमको यों समझाया।
क्रोध हमारा फिर भड़काया।।

हमने उसकी एक सुनी ना।
उसकी भी फिर एक चली ना।।

सर मुँडवाकर छोड़ दिया था।
उसका दंभ झिंझोड़ दिया था।।

उसको छोड़ा शर्त लगाकर।
तजा भीम ने दास बनाकर।।

कृष्णा बोली, घर जाने दो।
इसे शर्म से मर जाने दो।।

धर्मराज ने माफ़ किया था।
बस ऐसे इंसाफ किया था।।

रिश्ते सारे जाली सुनिये।
‘व्यथा कहे पांचाली’ सुनिये।।

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दूरभाष : ९९५८३८२९९९

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