चार ​कविताएँ

चार ​कविताएँ

भारतीय राजस्व सेवा (आई.आर.एस) के २०१२ बैच के अधिकारी। वर्तमान में जल शक्ति मंत्रालय में उप-सचिव के पद पर कार्यरत। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जमशेदपुर (एन.आई.टी., जमशेदपुर) से स्नातक। साहित्य लेखन में अभिरुचि रही है, लेकिन कोई रचना प्रकाशित नहीं है।

राम
राम, तुम देव नहीं नर ही रहे 
अपनी सीमाओं में बद्ध
विधि की उदधि में डूबते-उतराते 
अन्यतम प्रतिकूलों के समक्ष भी 
अपने जन्म की मर्यादा में सीमित
तुम रहे सदैव नर ही। 
एक प्रश्न पूछूँ—
कभी तुम्हारे हृदय ने विद्रोह नहीं किया? 
कभी क्रोध कर मन ने नहीं कहा तुम्हें
अपने अंतस के देव को जगाने को?
नर की सीमाएँ तोड़ने को
हे शक्ति पुंज, तुम कैसे जाते रहे 
सब पीड़ा के पार
तटस्थ, निःस्पृह,
किंचित् तुम जीवनपर्यंत यही बताते रहे कि
प्रतिकूल में भी नर बनकर रह जाना ही
सत्य में देव है
वहीं अभिराम राम है।
मिथ्या
मानव जीवन के सकल व्योम पर 
मेघ सा छाया
पार जिसके संभवतः सत्य कहीं 
निर्विकार, दीप्त रवि सा, 
रश्मि को मुट्ठी में भर लेने को है 
आतुर मन प्रतिपल
पर जो कुछ लब्ध रहा अनल का 
किंचित् क्षणिक रहा
हृदय रहा आच्छन्न सदैव 
श्याम-मेघ-तिमिर से,
विवश, चेतना ने तब
अपनी मिथ्या के कई सत्य गढ़े 
अनगिनत दिनमान रचे, और 
खो गई रवि की दग्ध रश्मि के पीछे 
एक दीप बनकर।
नर्मदा के किनारे
श्याम-प्रस्तर विस्तार निर्बाध,
दृष्टि-सीमा तक,
वेग प्रवाहित नदी, गँदला जल
बहता कलकल,
प्रस्तर के आनन पर करता सृजन अविरत,
अगणित, अमिट शिल्प,
हरित पट-भूषित धरा, सद्यःस्नाता,
उल्लसित तृण, गुंजित कीट-वृंद, 
क्रीड़ारत खग-विहग उन्मत्त 
करते दिव्य कोई समूह गान, 
श्याम-मेघ अवनत क्षितिज पर, 
आलिंगन को उत्सुक, 
निर्निमेष नयन, निर्वाक् 
देखकर दृश्याभिराम,
लालायित हृदय रोकता हठात्,
लुब्ध-पथिक,
करता प्रश्न स्वयं से
बँध जाऊँ या बढ़ जाऊँ? 
किंकर्तव्यविमूढ़ क्षण भर, 
समझाता फिर मन को
है चिर-अभिशप्त पथिक चलने को,
साध्य है उसका चलना, अनवरत। 
विवश पथिक, त्यागकर पथ-प्रेम,
पुनश्च बढ़ जाता, 
अनागत की ओर।
साँझ
दिनकर अस्ताचल पथगामी, 
नभ के आनन पर
द्वंद्वरत ज्योति-तिमिर,
शिथिल साँझ अवतरति
शनै:-शनै:
छोड़ती लघु उच्छ्वास,
श्रम-क्लांत द्रुम दल
खग विहग,
छेड़कर मौन राग,
लौट चले नीड़ की ओर,
जीवन तजकर वेग प्रवाह,
बना धीर उदधि गंभीर
हृदय में अनायास फूट पड़ा 
एकांत असीम,
स्पंदन, अगणित अदृश्य हृदयों का
साँझ के साथ फैला रहा बाँहें
शनैः-शनैः,
किसी अज्ञात से ज्यों
मिलन को हो उत्सुक।

एल-९०३, गिरनार टावर, कौशांबी, 
गाजियाबाद-२०१०१० (उ.प्र.)
दूरभाष : ७८३८७७३९७४

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