विभिन्नताओं से भरा गोवा

विभिन्नताओं से भरा गोवा

भारत की विशेषता है ‘भिन्नता में एकता’। इस सूक्ति वाक्य को सार्थक करता एक ऐसा प्रांत, जहाँ जल भी है तो थल भी, जहाँ पहाड़ है तो पर्वत भी, जहाँ चढ़ान है तो उतरान भी। जहाँ चट्टान है तो गहरान भी, जहाँ जंगल है तो मौज-मस्ती के मंगल भी। जहाँ ऊँची-ऊँची वनराजि है तो मुंबई की भाजी भी। यहाँ उड़ान है तो धँसान भी। कहिए कि मिनी भारत के दर्शन यहाँ मिल जाते हैं। यहाँ गिरजाघर है तो देवालय भी। न जाने कितने उत्तर-भारतीय यहाँ सदा-सदा के लिए बस गए हैं।
ऐसे इस अद्भुत प्रांत को देखने की अभिलाषा बहुत पहले से थी। दशकों पूर्व कार्यक्रम बन भी गया था, किंतु किन्हीं कारणों से निरस्त करना पड़ा। वर्षों पुरानी मुराद अब पूर्ण होने जा रही थी, जब पुत्तर प्रभात ने वहाँ का आरक्षण करा दिया। तन-मन उमंगित व उल्लसित। नियत तिथि पर गाड़ी में सवार हुए। महाराष्ट्र की सीमा में प्रवेश करने से पूर्व ही सुरंगों का सिलसिला प्रारंभ हो गया। कभी छोटी सी सुरंग में गाड़ी प्रवेश कर जाती तो कभी लंबी सी सुरंग में खो जाती। बीच-बीच में प्रकृति और प्रकाश अपनी झलक दिखा जाते। लग रहा था, जैसे गाड़ी और सुरंगों के साथ आँख-मिचौनी का खेल चल रहा हो। खैर, यह खेल संपन्न हुआ और अपनी मंज‌िल आ गई। एक आकर्षक से प्लेटफॉर्म पर गाड़ी ने विराम लिया। हम भी यात्री मित्रों का साथ छोड़ उतर पड़े। प्रभात व प्रतिमा पहले से ही वहाँ पहुँचे हुए थे। घर की ओर प्रस्थान किया, मार्ग लंबा था, दूसरे एशियाई खेलों के समापन समारोह के कारण कितने ही मार्गों को बदल दिया गया था, जिससे मार्ग और लंबा हो गया था। रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारंभ हो रहा था, हमारी चौपहिया गाड़ी सड़कों पर दौड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर नारियल के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष अपना अस्तित्व दरशा रहे थे।
दरअसल ‘गोवा’ को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है—उत्तरी गोवा व दक्षिणी गोवा। पर्यटन की दृष्टि से दोनों अलग-अलग। उ. गोवा में शोर-शराबा, होटल, रेस्टोरेंट, पार्टीज, बस्ती, मंदिर, चर्च व बाजार आदि तो द. गोवा एकदम शांत और प्रकृति के साम्राज्य से संपन्न। यों उत्तर में भी घर-घर नारियल, कढ़ी-पत्ता, पपीता आदि के वृक्ष खूब देखने को मिलेंगे। बीच उ. गोवा में भी है और द. गोवा में भी।
सर्वप्रथम एक ऐसे किले की ओर चलते हैं, जिसे पुर्तगालियों ने सन् १६१२ में अपने व अपने जलपोतों के संरक्षण हेतु निर्मित कराया था। इसमें चारों ओर बुर्जयुक्त दीवारें इसकी मजबूती को दरशाती हैं। किले के दो भाग हैं—ऊपरी किला व निचला किला। समुद्र के किनारे ऊँचे पर्वत के अंतिम छोर पर बना यह किला न केवल पुर्तगालियों का शरण-स्‍थल था अपितु उनके जलपोतों हे‌तु जलापूर्ति स्‍थल के रूप में प्रयोग हुआ। इस किले को ‘अग्वाद का किला’ कहा जाता है, क्योंकि पुर्तगाली भाषा में अग्वाद का अर्थ होता है—‘जल-आपूर्ति-स्‍थान’। यहाँ पानी के टैंक की क्षमता २३७६००० का गैलन है। इसके भी पाँच भाग हैं, जिसमें १६ विशाल स्तंभों का आधार है। प्रवेश हेतु सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। यहाँ एक दीपस्तंभ भी है, जो प्रथम चरण में सात मिनट में एक बार प्रकाश को परिवर्तित करता था। १८३४ में इस समय-सीमा को ३० सेकेंड कर दिया गया। १९७६ में इस दीपस्तंभ को बंद कर दिया गया। ऊपरी किले में खाई बुर्ज व बारूदखाना है, इसमें एक गुप्त मार्ग भी है, जो दोनों किलों को जोड़ने का कार्य करता है तथा आवश्यकता होने पर सुरक्षित रूप से किले से बाहर भी निकाल देता है।
किले के दर्शन-भ्रमण के पश्चात् पहुँच गए ‘बागा बीच’, जो किले से एक-दो कि.मी. की दूरी पर ही है। गाड़ी थोड़ा पहले ही पार्क कर देनी होती है। गाड़ी से उतरकर चल पड़े। बीच से पूर्व ही सड़क की ओर बना था भव्य देवालय, जिसका बह्म‍-दर्शन ही मन को सुकून दे रहा था, अंग-अंग प्रफुल्लता से सराबोर। पर बच्चा पार्टी जल-उर्मियों की ओर आकर्षित हो रही थी। यों भी शाम का समय हो रहा था, इसलिए अपन भी बच्चों के साथ जल-तरंगों की ओर खिंचे चले गए। ‘बीच’ के प्रारंभिक तट पर ही विक्रय-स्‍थल के समाप्त होते ही, मंदिर के सामने सड़क पार कर विश्राम हेतु आरामदायक पलंग लगाए गए थे, अकेले भी, डबल भी। उन पर छत के रूप में बड़ी-बड़ी छतरियाँ तान दी गई थीं, जो धूप और वर्षा—दोनों से बचा सकने में सक्षम थीं। यह दृश्य भी बड़ा अद्भुत लग रहा था। संभवतः वृद्ध पर्यटकों के लिए या फिर अधिक जल-क्रीड़ा के बाद थकान मिटाने का साधन बनते होंगे। या फिर उछलती-कूदती जल-लहरियों का दूर से ही आनंद लेना चाहते होंगे। हम तो फेन उगलती, उफनती, तीव्रगति से आती लहरों के आमंत्रण को  स्वीकारते पहुँच गए जल में। जैसे ही पाँवों को जल का स्पर्श मिला, तन-मन का ताप तो मिटा ही, एक अलग आनंद की अनुभूति भी हो रही थी, दिव्यता सी दीप्त हो रही थी; दूूसरी ओर तीव्र गति से आई उर्मि पैरों तले  की रेत को खिसका ले जाती, जिस कारण संतुलन बनाना पड़ रहा था। अनेक पर्यटक कुछ लेटकर तो कुछ बैठकर, कुछ अनुभवी युवा पर्यटक जल में दौड़-भागकर भी जल का आनंद ले रहे थे। जहाँ तक दृष्टि जाती, गर्जन, नर्तन करतीं एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगातीं ये समुद्र की लहरें ‘प्रसाद’ की ‘कामायनी’ की याद दिला रही थीं। जल में छोटी-बड़ी बोट भी तैर रही थीं, जो पर्यटकों को समुद्र के अंदर कुछ दूरी तक ले जाकर उसके दर्शन करा रही थीं। वहाँ के नाविकों के लिए यह रोजी-रोटी का माध्यम भी होगी। अपने बच्चों ने भी बोटिंग की, जिसके लिए अच्छी-खासी धनराशि व्यय हुई। हम बड़े लोग तो थोड़ी दूर त‌क ही एक-दूसरे को साधे हुए इन सब नजारों के साक्षी बन रहे थे। हाँ, वहीं खड़े-खड़े दो-चार बार कैमरे पर टच कर कुछ तसवीरें भी लीं। सूर्यास्त हो चुका था, रात्रि का आगमन हो रहा था, अंधकार अपने पंख फैला रहा था, तभी प्रबंधकों की आवाज ने सबको सजग कर ‌दिया। सुरक्षा की दृष्टि से सबको जल से बाहर आने की पुकार लगी। सभी काे न चाहते हुए भी उस आनंद के मोह का त्याग कर जल से बाहर आना पड़ा। चल पड़े अपनी गाड़ी की ओर। गाड़ी तक आते-आते ही पहने हुए वस्‍त्रों का पानी भी काफी सूख चुका था। गाड़ी में बैठे और चल पड़े अपने विश्रामस्‍थल की ओर। मार्ग में ही एक शुद्ध शाकाहारी भोजनालय ‘विनायक’ में सबने अपनी-अपनी रुचि का भोजन किया। घर पहुँचे, अपने-अपने बिस्तरों पर विश्राम और शयन।
एक-दो दिन के अंतराल पर ‘सैलोलिम डैम’ के दर्शनार्थ निकल पड़े। गेट पर पहुँचे, टिकट खरीदे। प्रवेशद्वार से ही व्यवस्थित, आकर्षक पार्क को निहारते हुए सीढ़ियों की ओर बढ़ते गए। सौ-सवा-सौ सीढ़ियाँ चढ़ने का दुष्कर अभियान संपन्न किया। ऊपर अर्धवृत्ताकार डैम पर पहुँचे। उस तरफ नीचे झाँका, तो वहाँ बह रही थी सैलोलिम जलधारा, जो ज्वारी नदी से निकलती है। उस समय पानी ‌अधिक नहीं, ऐसा प्रतीत हो रहा था, पर एक झील जैसी प्रतीत हो रही थी, परंतु है वह नदी ही। जब यहाँ जलभराव अपने पूर्ण रूप में होता है और ऊपर लाल, पीले, हरे बल्बों का प्रकाश पड़ता है तो लगता है, जैसे देवलोक का सौंदर्य पृथ्वी पर उतर आया हो। इस डैम के साथ ही बोटैनिकल गार्डन व सुंदर पार्क और एक मंदिर भी है।
मंदिर की एक कहानी है, क्योंकि यह एक पुनर्स्थापित मंदिर है, जो मूलतः नेत्तवती नदी के किनारे, वर्तमान स्‍थल से १७ कि.मी. दूर द.-पू. दिशा कुर्डी अनगोड गाँव में स्‍थापित था। इस डैम के निर्माण के फलस्वरूप मंदिर का पानी में डूब जाने का खतरा पैदा हो गया था। फलतः मंदिर को योजनाबद्ध तरीके से डैम के समीप पहाड़ी के ऊपरी भाग पर प्राकृतिक सौंदर्य के मध्य स्‍‌थापित किया गया है, जो अति सराहनीय कार्य है। वर्तमान में इस मंदिर की रचना में गर्भगृह व पोर्च ही बनाया गया है, जिसमें लैटराइट व बसाल्ट पत्‍थरों का उपयोग किया गया है। यहाँ नियमित पूजा-अर्चना होती है।
मुख्य द्वार से सीढ़ियों तक दोनों ओर—दाईं ओर बोटैनिकल गार्डन और बाईं ओर पार्क व्यस्थित ढंग से तैयार किया गया है। पार्क में ऊँचे-ऊँचे नारियल के वृक्ष हैं, जिन पर बड़े-बड़े नारियल लगे हुए हैं, घास के मैदान कुछ और छायादार वृक्ष, उनके नीचे विश्राम हेतु बैंचे, छोटी-छोटी जलधाराएँ, उन पर बीच-बीच में बिछाए गए लकड़ी के तख्ते, जिन पर बैठकर, पैर लटकाकर जल-क्रीड़ा का आनंद लिया जा सकता है, हम लोगों ने भी लिया, ढेर सारे बच्चे भी उछल-कूद कर रहे थे। थोड़े जलपान ‌हेतु कैंटीन की सुविधा, जहाँ हम लोगों ने भी आइसक्रीम का आनंद लिया। इन्‍‌हीं सब यादों को समेटे मुख्य द्वार से बाहर आए। अपनी गाड़ी की ओर बढ़े और चल पड़े पोंडा, जहाँ अपना विश्राम-स्‍थल-आवास है।
दो-एक घंटे विश्राम के बाद चाय की चुसकियाँ लेते हुए विचार बन गया ‘कोलाबा’ बीच जाने का। यों प्रभात के आवास से कोई भी बीच ४०-४५ कि.मी.  से कम दूरी पर नहीं है। वहाँ गए तो बड़ी भीड़-भाड़ देखी, लोग अति उत्साह से अपने परिवार के साथ गाते-बजाते, ढोल-नगाड़ों की धुन के बीच मस्ती में झूमते हुए आ रहे थे। हम भी पुलिया पर चढ़कर समुद्र-तट की ओर जा रहे थे, जैसे उस पुलिया को पार किया तो देखा, सारा समुद्र-तट दीपोत्सव मना रहा है। जगह-जगह दीप प्रज्वलित हो रहे थे। सबने अपने-अपने शिवलिंग बनाकर, उन पर दीप जलाकर पूजा-अर्चना संपन्न की। असल में वह दिन बिहार के प्रमुख पर्व छठ-पूजा का था। इससे पूर्व कभी यह दृश्य न देखा था। इस समय तो समुद्री लहरों से अधिक समुद्र-तट पर मानव-मन में बसी आस्‍था मूर्तिमान होकर प्रत्यक्ष खड़ी द‌िख रही थी। उस दृश्य से हम सभी अभिभूत थे। बीच से हटकर पास ही में एक अच्छा-खासा बाजार सजा था, बड़ी-बड़ी दुकानें तरह-तरह की वस्तुओं से भरी थीं, पर सभी पर ‘काजू’ विशेष रूप से दिख रहे थे, पैकेटों के रूप में भी, बोरों में भरे हुए भी, छिलके सहित भी, छिलके-रहित भी। हमने भी वहाँ से सभी तरह के ‘काजू’ खरीदे। समय हो गया था घर की ओर जाने का। मार्ग में ही प्रतिमा ने विख्यात ‘डोसे’ वाले के यहाँ चलने का आग्रह क‌िया। रात्रि-भोजन में सबने ‘डोसे’ उदरस्‍थ कर, आवास पर आकर विश्राम और शयन किया।
प्रातःकालीन भ्रमण के माध्यम से ही ‘पोंडा’ शहर को काफी कुछ देख लिया था। कहाँ से जाकर मार्ग कहाँ पहुँच गया, कुछ समझ ही नहीं आता। कहीं जंगल की पगडंडी से निकले तो किसी ढलान पर पहुँच गए, वह भी मुख्य सड़क के दूसरी ओर, उधर से चले तो चढ़ान आ गया और देर तक आता ही गया, जो शिमला की याद ताजा करा देता था। कभी किसी चर्च पर पहुँच गए तो कभी देवालय के दर्शन हो गए। व्यक्ति तो यहाँ का भी अति धार्मिक है। सारे दिन पूजा-पाठ के कर्मकांड में व्यस्त। घर से थोड़ी ही दूर ‘विठोबा’ मंदिर का विशाल भवन अपनी पूरी सज-धज के साथ मुख्य सड़क के पास ही स्थित है। घर-घर में तुलसी के लिए बनवाया हुआ बड़ा सा गमला, वह भी नानाकारों में भाँति-भाँति के रंगों से सजाया हुआ। नारियल के वृक्ष भी हर घर की धरोहर है। दस-बीस घरों के बाद छोटा सा जंगल भी यहाँ मिल जाएगा, जो न केवल लोगों को फल आद‌ि प्रदान करते हैं, अपितु वहाँ की जलवायु को स्वास्‍थ्यकर बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका अदा करते हैं।
पटियाला वापसी का समय निकट ही था। दीपावली जैसा बहुरंगी पर्व भी हर्षोल्लास से मना चुके थे। इसलिए अब एक वाटर फॉल (जलप्रपात) के विहंगम दृश्य को हृदयंगम करने चल पड़े। पूरे एक घंटे सड़कें नापकर अपने अभीष्ट तक पहुँचने के संकेत मिले। ३-४ कि.मी. पहले ही गाड़ी पार्क करने का निर्देश मिल गया। निर्देश का पालन हुआ। नारियल-पानी वगैरह पीते-पाते चल पड़े मंजिल की ओर, २-३ फर्लांग चलने पर टिकट-विंडो का संकेत मिला; लेकिन उस समय उस मार्ग पर कोई वर-यात्रा या शोभा-यात्रा जैसा कुछ था। मार्ग पर दोनों किनारों पर लोग पंक्तिबद्ध होकर अनुशासित ढंग से विभिन्न वाद्य-यंत्रों की ध्वनि के बीच आगे बढ़‌ रहे थे। बीच में शायद पादरी साहब की सवारी थी। एक-दो फर्लांग के इस मार्ग को पार करने में उन्होंने लंबा वक्त लगाया, वहीं निकटस्थ किसी चर्च की ओर जाने पर हम लोगों को टिकट-घर पहुँचने का मार्ग मिला। पर उनके अनुशासन ने अवश्य प्रभावित किया।
टिकट-स्थल पर भी लंबी कतार, खैर, कतार में लगना ही था, सो प्रभात लग गए, हम सब वहाँ उपलब्ध बैंचों पर बैठ गए। टिकट मिल गए। हम पाँच थे, पर एक टैक्सी में सात लोग एडजस्ट हो जाते हैं। फलतः हमारे साथ दो पर्यटक जोड़ दिए गए, हमें टैक्सी का नंबर दे दिया ग‌या। यहीं सबके एक-एक जैकेट दी गई, जिसे पह‌नकर ही तट पर उतरना है। टैक्सी वाटरफॉल की ओर बढ़ चली। थोड़ा सा आगे बढ़ते ही एक जंगल में पहुँच गए। यहाँ पुनः अपना पहचान-पत्र दिखाया गया, एक निश्चित राशि भी भेंट की गई। जंगल के मध्य बने मार्ग पर टैक्सी आगे बढ़ रही है, दोनों ओर विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष उगाए गए हैं। मार्ग भी कहीं कच्चा, कहीं पथरीला, कहीं जलधारा, इन सबको पार करता चालक, क्रिकेट के खेल के कमेनटेटर की तरह कमेंटरी करता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसी ने बताया कि यहाँ पहले एक गाँव बसा हुआ था, पर वाटरफॉल के कारण गाँववासियों को कहीं दूसरी जगह बसाकर यहाँ तरह-तरह के पेड़ उगाए गए हैं। उसने हमें ‘काजू’ का  वृक्ष भी दिखाया। १३ कि.मी. का यह मार्ग कब तय हो गया, पता ही नहीं चला। जीप से उतरे, चल पड़े‌ ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर। यहाँ भी यह सूक्ति वाक्य पूर्णतः लागू था—‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’, किसी तरह २-३ फर्लांग के इस मार्ग को पार कर पहुँच गए सागर किनारे। अप‌ना-अपना सामान पत्‍थरों पर रखा, उतर गए पानी में, पर्यटकों की भारी भीड़, काफी पर्यटक वाटर‌फॉल के ठीक नीचे तक भी पहुँच रहे थे। यहाँ भी कहीं पत्‍थर पर पैर तो कहीं नीचे जल में। बच्चे जल में आगे बढ़ रहे थे, ध्यान बच्चों की ओर भी था, ज्यादा अागे न बढ़ जाएँ, क्योंकि आगे-आगे पानी का प्रवाह भी तीव्र था और गहराई भी अधिक। ऊँचाई से गिरती जल की मोटी धारा मानो एक पतली नदी ही उलटी होकर नीचे गिर रही हो, जिसकी असंख्य धाराएँ बन गई हों, जो दूध से भी उज्ज्वल प्रतीत हो रही थीं। एकत्र हुआ जल भी ‘दूध’ की झलक दे रहा था, इसलिए इसे ‘दूधसागर जल-प्रपात’ कहा जाता है। इतना ही नहीं, इसके आकर्षण का केंद्र वह पहाड़, जहाँ से जल गिर रहा था, उन्हीं पहाड़ों पर ट्रेन की पटरियाँ भी बिछाई गई थीं, जिन पर कोंकण रेलवे से चलने वाली तकरीबन सारी गाड़‌ियाँ दूधसागर झरने के शीर्ष से होती हुई जाती हैं। ‘दूधसागर’ नाम से एक छोटा सा स्टेशन भी है, जिसका स्टेशन कोड है—DWF। हमने अपने सामने ही दो-तीन गाड़‌ियों को जाते देखा।
जल एकदम निर्मल, शीतल, स्वच्छ। कुछ देर जल में रहकर वापस सामान की ओर देखा तो कई वानर-शिशु सबके सामान की जाँच-पड़ताल कर रहे थे। जल्दी से मैंने अपना व सभी का समान सँभाला और एक-एक कर सबको जल से बाहर बुलाया, वापसी की याद ‌दिलाई, क्योंकि पर्यटकों को तीन घंटे का समय मिलता है। बस सब आ गए और ऊँचे-नीचे रास्तों को, छोटे-बड़े पत्थरों को रौंदते हुए यहाँ भी एक-दो जलधारा के पुल पर खड़े होकर एक-दूसरे की तसवीरें, कुछ सेल्फी लेते हुए अपनी टैक्सी पर पहुँच गए। टैक्सी ने वापसी की यात्रा शुरू की, पर मैं प्रकृति के इन रहस्य-रोमांच में खोई रही, मंजिल आ गई, जैकेट वापस की गई, कुछ फ्रेश हुए। अपने चौपइए की ओर बढ़ लिये। अपने प्रवासी आवास पर भी पहुँच गए। पर प्रकृति के उस ‘दूधसागर जलप्रपात’ को जानने-समझने की जिज्ञासा आज भी बनी हुई है। वापसी किए कई महीने बीत गए, पर थोड़ा सा ही ध्यान करते ही सारे नजारे मानस-पटल पर चलचित्र की भाँति तैरने लगते हैं। अविस्मरणीय, अविश्वसनीय सा लगता है सबकुछ।
जय प्रकृति! जय प्रकृति निर्माता!
जय मिनी भारत। जय ‘गोवा’!

२८-बी, प्रेमनगर, भादसों रोड,
पटियाला-१४१७००१ (पंजाब)
दूरभाष : ९४१७०८८४६६

हमारे संकलन