पपीहा, चातक और बरसात

पपीहा, चातक और बरसात

सुपरिचित लेखक। अब तक बाल-साहित्य की दो पुस्तकें प्रकाशित व दस प्रकाशन के लिए तैयार। करीब दो हजार रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। बाल-साहित्य के लिए उ.प्र. के हिंदी संस्थान सहित क‌रीब एक दर्जन संस्‍थाओं द्वारा सम्मानित। एक मीडिया संस्‍थान में वरिष्‍ठ समाचार संपादक।

पपीहा, ऊँचे पेड़ की ऊँची फुनगी पर बैठा गा रहा है। प्यासों हों, प्यासों हों...! पपीहे की मादा घने पेड़ के पत्तों में छिपी बैठी है। नर उसे ही टेर रहा है। मीठे-मीठे गीत गाकर बुला रहा है।
सदियों से बिरहनी युवतियों, महिलाओं, पुरुषों, कवियों, साहित्यकारों को पापीहे का गीत गाना आकर्षित करता रहा है। लुभाता रहा है। दिल में आग लगाता रहा है। कालिदास से लेकर आज तक कवि और फिल्मकार अपने-अपने अंदाज में पपीहे के गीत को व्याख्यायित करते रहे हैं। गीत, कविताएँ और कहानियाँ लिखते रहे। सुप्रसिद्ध गीतकार हरिवंशराय बच्चन लिखते हैं—
यह पपीहे की रटन है।
बादलों की  घिर घटाएँ।
भूमि की लेती बलाएँ।
खोल दिल देती दुआएँ॥
दीप किस उर में जलन है।
यह पपीहे की रटन है॥

यह न पानी से बुझेगी।
यह न पत्थर से दबेगी।
यह न शोलों से डरेगी॥
यह वियोगी की लगन है।
यह पपीहे की रटन है॥
बहुत से लोग कहते हैं कि पपीहा प्यास के मारे पानी माँग रहा है, किंतु बच्चनजी इसे बिरह की पीड़ा कहते हैं।
नवगीतकार वीरेंद्र मिश्र पपीहे के गीत और उसकी ऊँची उड़ान से बहुत प्रभावित हैं। वह गाते हैं—
पपीहे गा तुझे बंधन नहीं कोई।
जरा तू नाप तो अा
धरा से व्योम की दूरी॥

महादेवी वर्मा गाती हैं—
रे पपीहे पी कहाँ?
खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अंबर
लघु भरी से नाप गागर
प्रिय बसा उर में सुभग
सुधि खोज की बसती कहाँ?
रे पपीहे पी कहाँ?
हिंदी फिल्मों में पपीहे, चातक को लेकर कई गीत हैं। सन् १९६६ में एक फिल्म आई थी—‘आए दिन बहार के’। इसमें आनंद बख्शी का लिखा हुआ और लता मंगेशकर का गाया एक गीत था—‘सुनो सजना पपीहे ने...’ का, जो बहुत लोकप्रिय हुआ था।
पपीहा दक्षिण एशिया के सभी देशों में पाया जाता है। जो ‘प्यासा हों...प्यासा हों...’ की रट लगाता रहता है। पपीहा की एक दूसरी नस्ल का नाम चातक है। चातक के सिर पर बुलबुल से मिलती-जुलती कलंगी होती है। ये दोनों पंछी मार्च, यानी फागुन से लेकर भादों, यानी सितंबर और अक्तूबर के प्रथम पखवारे तक उत्तर भारत में दिखाई देते हैं और फिर सर्दी पड़ते ही दक्षिण भारत की तरफ प्रवास पर चले जाते हैं। चातक पंछी दक्षिण अफ्रीका से भारत आता है और फिर गाना गाने, मादा से मिलन करने और अंडों-बच्चों का प्रजनन करने के बाद यह फिर दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में लौट जाता है। 
ये दोनों पंछी रात-दिन आम अथवा और ऊँचे पेड़ों की फुनगी पर छिपे गाते ही रहते हैं। अपनी मधुर आवाज के कारण कवियों, शायरों और संस्कृत के साहित्यकारों के अति प्रिय पंछी हैं। दिन-रात गाने के कारण यह अपने अंडे चरखी यानी सतभैये खूसट चिड़ियों के घोंसले में रख देते हैं, जो इनके अंडे-बच्चों को सेते और पालते हैं। आज इन पक्षियों पर संकट है। बहेलिए इन्हें पकड़कर बाजार में बेच देते हैं। सुंदर महिलाएँ इन्हें इसलिए खरीदती हैं कि ये पंछी प्रेमी को पुकारते रहते हैं।
पपीहा और चातक हिंदी कवियों के प्रिय पक्षी हैं। तुलसीदास ने तो ‘चातक चौंतीसी’ लिखी है, जिसमें ३४ दोहे हैं। एक दोहा दृष्ट्‍व्य है—
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम, घनश्याम हित चातक तुलसी दास॥
तुलसीदास राम के प्रति अपना प्रेम चातक जैसा करना चाहते हैं। सिर्फ राम को ही अपना आराध्य मानकर चातक की तरह राम में ही अपना दिल लगाए रहना चाहते हैं; यही कामना तुलसीदास करते हैं और इसी कारण तुलसी को चातक-पपीहा पक्षी अति प्रिय है—
ऊँची जाति पपिहरा प्रियतम नीचो नीर।
कै जाँचे घनश्याम सो, के दुख सहेई शरीर॥

नवगीतकार वीरेंद्र मिश्र ने लिखा है—
पपीहे गा तुझे बंधन नहीं कोई
जरा तू नाप तो अा 
धरा से व्योम की दूरी॥
कवि पपीहा को विरह गीत गायक चिड़िया कहते हैं। कहते हैं, यह सिर्फ बरसात में स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है। नहीं तो साल भर प्यासा रह जाता है।
शिकारी यदि पपीहे को पकड़कर उसकी चोंच नदी-नाले, तालाब तथा बालटी के पानी में डुबो भी दें तो भी वह पानी नहीं पीता, चोंच नहीं खोलता।
वैज्ञानिक इस बात को नहीं मानते और इसे सिर्फ गायक पंछी मानते हैं। पपीहा की शक्ल फूफू और शिकरा/बाज पक्षी से मिलती-जुलती है और इसकी पहचान इसकी आवाज से की जाती है। बंगाल और महाराष्ट्र में इस पक्षी को स्वाभिमानी पंछी कहा जाता है। बंगाल के लोग कहते हैं कि पपीहा गाता है—चीख गेलो यानी उसकी एक आँख चली गई। महाराष्ट्र के लोग कहते हैं कि पपीहा गाता है—पयोस हों...यानी पावस ऋतु आ रही है, बरसात आ रही है।
नर और मादा एक सरीखे होते हैं। पंख भूरे होते हैं। पेट के हिस्से में सफेद धारियाँ बनी होती हैं। पपीहा भारत और श्रीलंका में अधिकांश  भाग में पाया जाता है। जबकि चातक दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी पाया जाता है। पेड़ों की ऊँची डाल पर बैठकर यह पक्षी ‘पी कहाँ... पी कहाँ...’ की आवाज लगाता रहता है। यह लगातार घंटों बोलता रहता है। पपीहा अथवा चातक तीन तरह की आवाज बोल लेता है। पहले धीमे, फिर मध्यम और फिर बहुत ऊँची आवाज में बोलते हुए अचानक चुप हो जाता है। पपीहा अपने अंडे दूसरों के घोंसले में रखता है। चरखी पक्षी इसके बच्चे पालता है।
चातक पपीहा से मिलता-जुलता पक्षी है। इसे सारंग और चातक भी कहते हैं। इसके सिर पर बुलबुल जैसी कलंगी होती है। पीठ के ऊपर का हिस्सा काला और पेट का हिस्सा सफेद होता है। चातक भी अपने अंडे चरखी, फुदकी के घोंसले में रखता है। भारत श्रीलंका दक्षिण अफ्रीका आदि स्थानों में पाया जाता है। कीड़े-मकोड़े, चीटियाँ, मकड़ियाँ इनका मुख्य भोजन हैं। खटमल और घोंघे खाना भी इन्हें पसंद है। ये दोनों पंछी कभी जमीन पर नहीं आते और मनुष्य के पास भी नहीं आते हैं। पेड़ में पत्तों में इस तरह छुपकर बैठते हैं कि दिखाई नहीं पड़ते। बच्चे इसकी आवाज से प्रभावित होते हैं और बाग-बगीचों में इसे खोजते हैं, पर पेड़ की फुनगी में बैठा होने के कारण और छिपे होने कारण अकसर दिखाई नहीं पड़ते।
तुलसीदास तो चातक को बहुत आदर देते हैं और उन्होंने चातक के सम्मान में दोहे और कवित्त लिखे हैं—
मुख मीठे मानस मलिन, कोकिल, मोर, चकोर।
सुजस धवल,चातक, नवल, रहयो भुवनि भरि तोर॥
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बाँस बेल, बोलनि, चलनि, मानस मंजु मराल।
तुलसी चातक प्रेम की, कीरति , बिसद, बिसाल॥
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तुम पर  ही चातक फवे, मान राखिबो प्रेम।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू, निहरि निबाहत नेम॥
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चातक, तुलसी के मते, स्वातिहु  पिए न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली, घटे घटेगी आनि॥
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‘विनयपत्रिका’ में तुलसीदास लिखते हैं—
भनते भरत के, सुमित्रा, सीता के दुलारे,
चातक चतुर, राम स्याम धन के।
बल्लभ उरमिला के सुलभ सनेह बस, 
धनी धन तुलसी से निरधन के॥
चातक और पपीहा पंछियों पर अभी बहुत शोध होना बाकी है। वैज्ञानिक कहते हैं, ये दोनों पक्षी बरसात के आने की सूचना किसानों को देते हैं, किंतु बढ़ते प्रदूषण के कारण और जलवायु-परिवर्तन के संकट से इन पक्षियों के अस्तित्व पर बहुत बड़ा संकट है।

मनेथू, वाया सरवन खेड़ा, 
उप-डाकघर, कानपुर देहात-२०९१२१ (उ.प्र.)

दूरभाष : ६३९४२४७९५७ 

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