RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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सम्मान समारोहजाने-माने कवि-लेखक। अब तक ‘छुई-मुई सी सुबह’, ‘वफा के फूल मुसकराते हैं’, ‘भोर का तारा न जाने कब उगेगा’, ‘दरबान ऊँघते खड़े रहे’, ‘सुरीले रंग’, ‘सूख रहा पौधा सूराज का’, ‘भटकटैया के फूल’, ‘जाना है समय के पार’ (आठ गीत-संग्रह), ‘कौवा पुराण’ (कुंडली-संग्रह), पत्रिकाओं में गीत, कविता, कहानी व्यंग्य प्रकाशित। अनेक सम्मान प्राप्त। संप्रति भारतीय स्टेट बैंक में प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त। मुझे बचपन से ही रात के खाने के बाद दो घंटे पढ़ने की आदत रही है। सेवा निवृत्ति के बाद दिन भर पढ़ने की सुविधा उपलब्ध है, फिर भी रात की आदत अब भी वैसी ही बनी हुई है। हालाँकि इसके लिए मैं श्रीमतीजी द्वारा लगातार ट्रोल होता रहता हूँ। उनके विचार से मानव जीवन के अमूल्य पलों को ऐसे नहीं बरबाद करना चाहिए। बल्कि पारिवारिक टी.वी. सीरियल देखने से बुद्धि तेज होती है और समस्याओं को सुलझाने में मार्गदर्शन मिलता रहता है। इतने ही पढ़ाकू थे तो कौन सा तीर मार लिया। जिस जगह से शुरू हुए वहीं रिटायर हो गए। वो तो मेरा अंश ऐसा है कि जिंदगी अच्छी तरह से गुजर रही है। आज मन कुछ ज्यादा प्रसन्न है। एक महान् पत्रिका हाथ लगी है, जिसमें देश के सुविख्यात महान् कवि की कविता पढ़ने का सौभाग्य मिलेगा। खाना खाने के बाद पत्रिका को तकिए के नीचे से निकाला। संपादकीय और पहले छपी तमाम रचनाओं को छोड़कर सबसे पहले वही पन्ना पलटा, जहाँ महान् कवि की महान् रचना छपी थी। टेढ़ी-मेढ़ी कम-ज्यादा होती हुई चौदह लाइनें। सैकड़ों बार पढ़ा, किंतु उस रचना की ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाया। कविता क्या थी, इंद्रधनुष थी। जितनी बार पढ़िए, मन-मस्तिष्क में नए-नए रंग बिखेरती थी। रात के लगभग ग्यारह बजे मैंने तय किया कि इसकी तह और ऊँचाई तक जाने के लिए मैं अपने मित्र सरदार जगवीर सिंह की मदद लूँगा। जो हाल ही में कश्मीर से रिटायर होकर घर लौटे हैं। उनका अपने विभाग में बड़ा रुतबा था। आतंकवादियों द्वारा भेजे गए कठिन-से-कठिन संदेशों का अर्थ भी वे आसानी से पता लगा लेते थे। तभी मेरे बेटे ने समाचार दिया कि इंटरनेट पर प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा घोषित सम्मानों की सूची जारी की जा चुकी है। जो नींद पलकों तक आने को बेताब थी, अचानक काफूर हो गई। मैंने उससे पूछा कि समाचार असली है न? क्योंकि आजकल अफवाहें भी ऐसे ही फैलाई जा रही हैं। उसने कहा, समाचार बिल्कुल असली है। ‘मैंने पूछा कैसे पता लगाया जाता है?’ बोला, ‘विवेक से जनता को हंस की तरह होना चाहिए, जो नीर क्षीर का अंतर कर सके। सरकार ने तो वैसे ही बहुत से महत्त्वपूर्ण काम हाथ में ले रखे हैं और उसमें नए कीर्तिमान भी बना रही है। जैसे महँगाई कम करना, बेरोजगारी दूर करना, जनसंख्या नियंत्रित करना आदि। अब अफवाहें रोकना उसकी जिम्मेदारी में थोड़े ही आता है।’ मैंने कहा, ‘काश जनता हंस हो जाती तो इतने चुनावों के बाद भी हालात जस के तस नहीं रहते।’ पुत्र बोला, ‘तो अपनी कमी का दोष सरकार पर क्यों मढ़ती है जनता।’ मैंने इस बहस को यहीं विराम देते हुए पूछा, ‘अपने नगर में भी किसी साहित्यकार को कोई सम्मान मिला है क्या?’ उसने बताया, ‘हाँ, वृंदावन कंदुकजी को साहित्य सरोवर मिला है।’ मैं उछल पड़ा, सोचा तुरंत फोन पर बधाई दे डालूँ। मेरा प्रयास रहता है कि किसी भी खुशी या गम में पहला फोन मेरा ही हो। लेकिन देखा तो घड़ी में बारह बज चुके थे। अब आधी रात को फोन करना उपयुक्त नहीं लगा। मन मसोसकर सोने का प्रयास करने लगा। किंतु नींद नहीं आई। आँखों में नगर के तमाम साहित्यकारों के दर्द में डूबे हुए मुसकराते चेहरे तैरते रहे। इन्हीं जैसे चेहरों से प्रेरणा लेकर अभिनय सम्राट् दिलीप कुमार ट्रेजडी किंग बने होंगे शायद। कई लोगों के प्रयास के बारे में सोचते-सोचते कब सो गया, समय नहीं जान पाया। प्रातः छह बजे नींद खुली। पहला काम कंदुकजी को फोन मिलाने का ही किया। पूरी घंटी बजी परंतु फोन नहीं उठा। बड़ी निराशा हुई। कई बार प्रयास करने के बाद नौ बजे कंदुकजी ने फोन उठाया। अलसाई आवाज सुनाई दी, हेलो। मैंने तुरंत उत्साही स्वरों में प्रणाम किया और हालचाल पूछते हुए सम्मान की बधाई दे डाली। बोले—सब नगरवासियों और शुभचिंतकों के स्नेह का फल है, वरना मैं इस लायक कहाँ हूँ। फिर ऐसा जताया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मेरे उत्साह पर घड़ों पानी फिर गया। उधर से आवाज आती रही, रात से भोर तक देश-विदेश से तमाम फोन आते रहे। इसलिए देर तक सोता रहा हूँ। किसी शुभचिंतक की बात न सुनना मेरे स्वभाव में नहीं है। मैंने यथावतजी को फोन लगाया। वे भी अकादमी पुरस्कारों के लिए कई सालों से दौड़-धूप कर रहे थे। इस परिणाम से बहुत निराश थे। मैंने उनसे प्रतिक्रिया जाननी चाही। छूटते ही बोले—सारी अंधेरगर्दी है। जिसकी पहुँच है, वही सम्मान पाएगा। साहित्य सेवा वगैरह की बातें दिखावटी और बेमानी हैं। उन्होंने रहस्योद्घाटन के अंदाज में बताया कि अब तो अकादमी में खुलेआम पैसा चल रहा है। मुझसे भी पैसे की माँग की गई थी, लेकिन मैं सम्मान के लिए नीचे गिरने वालों में से नहीं हूँ। फिर उनकी आवाज भर्रा गई। मैंने निर्विकार जी को फोन लगाया। तुरंत बोले, अरे भइयवा अब कंदुकवा भी अकादमी पुरस्कार विजेता हो गया। यहाँ अच्छे-अच्छे बैठे रह गए, अऊर ऊ सरवा मार ले गया। मैंने कहा—बताइए, आप जैसे वरिष्ठ लोगों के साथ कितना अन्याय है। निर्विकार भाव से बोले, तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास से बड़ा कोई है का। इनको कौन सा सम्मान मिला था। मैं इस सब पर ध्यान नहीं देता हूँ। मैंने इसी क्रम में कंदुकजी के परम मित्र चकितजी को फोन किया। बोले—बहुत अच्छा लग रहा है, एक काबिल आदमी को सम्मानित किया गया है। ये तो होना ही था। लेकिन थोड़ा सा कुरेदने पर उनका दर्द छलक आया। बताया, राजधानी में कंदुकजी के कई रिश्तेदार रहते हैं, जहाँ वे कभी नहीं जाते थे। लेकिन इस बार उनकी भतीजी का कुत्ता बीमार था तो वे उसे देखने गए थे और दस दिन बाद लौटे थे। फिर अपने साढ़ू के यहाँ भी वे पूरे एक महीने रह कर लौटे थे। इन यात्राओं का रहस्य अब समझ में आ रहा है। मैं उन्हें दोस्त समझता रहा और वे बेवफा निकले। चर्चितजी ने मुझे स्वयं फोन मिलाया। फुसफुसाते हुए बोले—अरे, कुछ सुना आपने, कंदुकजी ‘साहित्य सरोवर’ हो गए। अब जो व्यक्ति राजभाषा अधिकारी रहा हो, उसके लिए ये डूब मरने की बात है। उन्हें तो ‘साहित्य सागर’ से कम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए था। राजभाषा में कुछ काम तो होता नहीं है। सम्मान और दुपट्टा बाँट-बाँटकर सबको जीवन भर प्रसन्न किया। अब मिलने की बारी आई है। अभी तो शुरुआत है, अभी बहुत कुछ मिलेगा। मैंने राजभाषा के संबंध में उनके विचारों से असहमति जताई तो तुनककर बोले, जैसे टिटिहरी समझती है कि आसमान वही रोके है, यही हाल राजभाषा वालों का है। मैंने कंदुकजी का खास बनते हुए फोन पर उन्हें चर्चितजी का कथन ज्यों का त्यों दोहरा दिया। बोले, चर्चितवा की इतनी हिम्मत। एक गमछा ओढ़ने के लिए कहाँ-कहाँ से सिफारिश नहीं लगवाया। अब बहुत बोलने लगा है, रुको साले को बताता हूँ। एक घंटे के बाद कंदुकजी का फोन आया, बोले— आपको चर्चित की बात समझने में फर्क हो गया। चर्चित ने बताया कि एक ऐसे साहित्यकार को, जिसे साहित्य सागर मिलना चाहिए, साहित्य सरोवर मिलना अन्याय है। मेरे कई मित्रो ने बताया कि अब चर्चितजी के फोन रूपी तोप का मुँह मेरी तरफ घूम चुका है और उसमें से फूल तो नहीं बरस रहे हैं। सबसे दार्शनिक टिप्पणी रौनकजी की रही। बोले—किस्मत मेहरबान तो गधा पहलवान। हर मंत्री जनसेवक होता है क्या? लेकिन जो मंत्री है, बड़ा जनसेवक माना जाता है। जिसे स्त्रीलिंग-पुल्लिंग तक का ज्ञान नहीं है, पीएच.डी. करने के बाद डाक्टर माना जाता है। व्यभिचारी बाबा बनने के बाद पूज्य माना जाता है। अतः कंदुकजी को साहित्य आए या न आए, साहित्य सरोवर के बाद पगड़ी पहनकर मंच पर तो वही बैठेंगे। वयोवृद्ध रचनाकार श्री जी ने बताया कि सम्मान के साथ आलोचनाएँ वैसे ही होती हैं, जैसे गुलाब के साथ काँटे। हाथी अपनी चाल चलता रहता है और कुत्ते भौंकते रहते हैं। मुझे विश्वास है, कंदुकजी इस बात को भली-भाँति समझते हैं। अगले दिन अखबारों के पन्ने कंदुकजी के महान् जीवन की महान् गाथाओं से भरे हुए थे। कैसे उन्हें गौरैया का घोंसला उजड़ने पर रोना आ गया था और कई दिनों तक बुखार में तपते रहे थे। बचपन में अपने कई साथियों की स्कूल फीस जेबखर्च के पैसों से चुकाया करते थे आदि। हालाँकि उनको नजदीक से जानने वालों ने बताया कि इन कथाओं में ज्यादातर झूठी और मनगढ़ंत थीं। उनकी निगाह में दुनिया में कलम से ताकतवर कोई हथियार नहीं है। साहित्य में ही वह क्षमता है, जो भेदभाव रहित समाज बना सके। आगामी रविवार को कंदुकजी के सार्वजनिक सम्मान और अभिनंदन का कार्यक्रम आयोजित किया गया है। जिसमें रौनक जी, यथावतजी, निर्विकारजी, चकितजी, चर्चितजी सबसे ज्यादा भागदौड़ में लगे हुए हैं। बी-२३/४२ ए.के., बसंत कटरा, (गांधी चौक) खोजवा निकट, दुर्गाकुंड वाराणसी-२२१०१० दूरभाष : ०९८३९८८८७४३ |
सितम्बर 2024
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