होली पर नहीं खेली जाती होली

होली पर नहीं खेली जाती होली

भैरूँलाल गर्ग : सुपरिचित लेखक। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में शोध/आलोचना, संस्मरण, बाल साहित्य आदि रचनाएँ प्रकाशित। ‘बालवाटिका’ मासिक के संस्थापक संपादक। ‘बाल साहित्य भारती’ सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित।

बचपन में होली के त्योहार का इंतजार भी अत्यंत आनंददायक था। कई तरह की योजनाएँ बनाते रहते। मौसम भी धीरे-धीरे खुशनुमा होता चला जाता था। फाल्गुन आरंभ होने से पहले माघ पूर्णिमा को होली का डाँडा (किसी पेड़ की बड़ी सी डाली) रोप दिया जाता था, यह डाँडा बबूल के वृक्ष का होता है।

एक-दो दिन पहले होली के डाँडे की व्यवस्था गाँव के मूलाजी भाई बलाई करते थे। वे किसी सूखे बबूल की बड़ी सी, कोई ८-१० फीट लंबी डाली काटकर लाते और उसे होली के ठाण (वह जगह, जहाँ होली जलाई जाती है) पर डाल देते थे। शाम को वही उसे रोपने के लिए गहरा गड्ढा भी खोद देते थे। तब मुहूर्त देखकर गाँव व्यास सहित गाँव के प्रतिष्ठित लोग और बच्चे चारभुजा मंदिर पर एकत्र होते थे। एकत्र करने के लिए ढोल बजता था। जब सभी लोक एकत्र हो जाते तो ढोल के साथ सारा जनसमूह होली के ठाण पहुँचता था। गाँव व्यास अपने हाथ में पूजा की थाली लिये होते थे। पहले हमारे गाँव के व्यास छोगा महाराज थे। उनके निधन के पश्चात् सापोला ग्राम के शुकदेव महाराज को गाँववालों ने यह पद सौंप दिया था। वे वर्षों तक हमारे गाँव सोडार के व्यास रहे।

होली के ठाण पर शुकदेव महाराज होली के डाँडे की पूजा-अर्चना करते और डाँडा रोपने की प्रक्रिया संपन्न करवाते। बालक और प्रौढ़, सभी इस कार्य में हाथ बँटाते तथा हर्ष और उल्लासमय वातावरण में होली का डाँडा रोपते। ढोल के साथ सारा जनसमूह वापस गाँव के चारभुजा मंदिर तक आता और विसर्जित हो जाता। हमारे यहाँ पूरे फाल्गुन के महीने में होली तो नहीं खेली जाती थी, लेकिन महिलाएँ और बालिकाएँ संध्या समय एकत्र होकर होली के गीत अवश्य गाती थीं। इसी के साथ फाल्गुनी अमावस्या के दूसरे दिन से ही गाँव में गैरनृत्य शुरू हो जाता था। गैरनृत्य का आयोजन फाल्गुन पूर्णिमा अर्थात् होली के दिन तक होता था। हमारे घर के बाहर ही एक विशाल वटवृक्ष है, इसी के नीचे गैरनृत्य होता था। इस कारण इस स्थान का नाम भी ‘गैर का चौक’ हो गया।

गैरनृत्य मेवाड़ अंचल का एक ऐसा नृत्य है, जिसमें केवल पुरुष ही भाग लेते हैं। किशोर से लेकर प्रौढ़ व्यक्ति इसमें अपनी रुचि अनुसार भाग ले सकते हैं। उस समय गैरनृत्य में भागीदारी करनेवाले धोती और उस पर अँगरखी पहना करते थे। सिर पर साफा बाँधना भी अनिवार्य होता था। इसके अलावा कमर पर कपड़े का ‘कमरबंध’ भी बाँधा जाता था। लोग इसके लिए अपने-अपने ढंग से सज-सँवरकर आते थे। कोई केसरिया साफा बाँधता था तो कोई चूनड़ वाला। गैर-नाचनेवालों के दोनों हाथों में बाँस अथवा बबूल की लकड़‌ियों से बने डाँडिया हुआ करते थे, इनकी लंबाई चार-पाँच फीट तक की होती थी। नृत्य करनेवाले पैरों से नृत्य करते तो हाथों से विभिन्न मुद्राओं में डाँडिया खेलते और एक घेरा बनाकर उसमें गोल-गोल घूमते भी जाते थे। इस घेरे के बीच में ढोल बजानेवाला होता था। ढोल की थाप पर जब नृत्य करनेवालों के पदचाप पड़ते और डाँडिया खनकने लगते तो एक मंत्रमुग्ध-सा कर देनेवाला वातावरण पैदा हो जाता था। इस गैरनृत्य में लगभग सौ लोग एक साथ नृत्य कर सकते थे। गैरनृत्य का यह कार्यक्रम लगभग १५ दिन तक चलता था। प्रतिदिन यह नृत्य रात्रि आठ बजे से लेकर आधी रात तक चलता था।

गैरनृत्य के समय महिलाएँ भी इकट्ठा होकर एक तरफ समूह में बैठ जाती थीं। ये महिलाएँ पुरुषों को उत्साहित और उमंगित करने के लिए गीत गाया करती थीं। बच्चों और बड़ों की भीड़ भी इस गैरनृत्य को देखने के लिए प्रतिदिन जुट जाती थी। इनमें जिन महिलाओं के पति गैरनृत्य कर रहे होते तो वे उन्हें देखकर हर्ष और गर्व की अनुभूति करती थीं। गैरनृत्य चूँकि शुक्ल पक्ष में ही होता था और वटवृक्ष के नीचे होता था तो चितकबरी चाँदनी में यह दृश्य देखते ही बनता था। कहीं वटवृक्ष के पत्तों की छाया और कहीं खुली चाँदनी, बड़ा ही मनोहारी दृश्य होता था। यह नृत्य कई तरह से किया जाता था, जो कि ढोल बजानेवाले पर निर्भर हुआ करता था। ढोल के साथ-साथ नृत्य करनेवालों की भाव-भंगिमा बदलती जाती थी।

होली के सप्ताह-दस दिन पहले परिवार की लड़कियों के लिए उनकी माताएँ गोबर से बड़बूल्ये (गोबर से गोलाकार बने छेद युक्त) बनाती थीं। सूख जाने पर इनकी माला बना ली जाती थी। होली के दिन होली जलाने से पूर्व गाँव की सभी लड़कियाँ होली पर बड़बूल्ये बोळाने जाती थीं। अर्थात् इन बड़बूल्यों की मालाओं को प्रत्येक लड़की होली के डाँडे पर समर्पित कर टाँग देती थी। होली के डाँडे के कई छोटी-मोटी डालियों के अवशेष बचे रह जाते थे। उनमें बड़बूल्यों की मालाएँ टँग जाती थीं। वैसे भी होली जलानेवाले दिन मूलाजी बलाई और गाँव के लड़के सम्मिलित रूप से सूखी झाड़‌ियाँ, घास-फूस आदि इकट्ठा करके लाते थे और उसे होली के डाँडे के चारों ओर लगा देते थे। ऐसा करने पर होली अच्छी तरह जलती है और देर तक जलती है। बड़बूल्ये होली को जलाने में भी सहायक होते थे।

बड़बूल्ये बनाते समय प्रत्येक लड़की के लिए गोबर का एक नारियल भी बनाया जाता था। इस नारियल में कुछ सिक्के और खील-बताशे, गुड़ आदि रखकर उसे बंद कर दिया जाता था। जब लड़कियाँ (बहनें) बड़बूल्ये की माला लेकर होली के स्थान पर जाती थीं, तब वे अपने साथ यह नारियल भी ले जाती थीं। भाई (लड़के) अपनी-अपनी बहनों के साथ बड़बूल्यों को होली के डाँडे पर अच्छी तरह टाँग देते थे। नारियल को भाई फोड़ा करते थे और उसमें रखा सिक्का वे ले लेते थे। बहनें बताशों और गुड़ से भाइयों का मुँह मीठा करवाती थीं और अपनी सहेलियों की पीठ पर प्रेम से मुक्का मारकर उन्हें खील-बताशे आदि खिलाती थीं। मजाक-मजाक में कोई लड़की अपनी सहेली को जोरदार मुक्का मार देती तो आपस में तकरार भी हो जाती थी, लेकिन थोड़ी ही देर में उनका गुस्सा छूमंतर हो जाता था। सभी लड़कियाँ ढोल पर नृत्य करतीं और गीत गाती थीं, भाई (लड़के) होली जलाने के लिए पर्याप्त सामग्री इकट्ठा कर होली के डाँडे के चारों ओर अच्छी तरह जड़ देते थे। दो-दो लड़कियाँ आपस में हाथों में हाथ फँसाकर चक्कर लगाती थीं, जिसे मेवाड़ी में ‘फर्रफूँदी’ खाना कहते हैं।

लगभग दो घंटे तक यह ‘बड़बूल्ये बोलाने’ का कार्यक्रम चलता था। अँधेरा होते-होते सभी लड़कियाँ ढोल के साथ घरों को लौट आती थीं। भाई (लड़के) भी उनके साथ लौट आते थे। होलीदहन तो मुहूर्त के आधार पर होता था, अगर देर में मुहूर्त हुआ तो होलीदहन के समय गाँव की महिलाएँ और पुरुष ही सम्मिलित होते थे, क्योंकि बालक-बालिकाएँ सो चुके होते थे। कुछ उत्साही बच्चे नहीं भी सोते थे और वे माता-पिता के साथ ‘होली दहन’ में सम्मिलित होते थे।

‘होली दहन’ के लिए भी गाँव के लोग चारभुजा मंदिर पर इकट्ठा होते थे। इनकी अगुवाई गाँव के पटेल, लंबरदार, गाँव बलाई आदि करते थे। सबसे पहले मंदिर पर ढोल बजता था। ढोल का बजना सुनकर लोग इकट्ठा होने लगते थे और फिर समूह बनाकर गाँव व्यास के साथ-साथ होली के ठाण (स्थान) पर जाते, महिलाएँ समूह में गीत गाते हुए पीछे-पीछे चला करतीं। सबसे पहले गाँव व्यास और पटेल आदि होली का पूजन करते त‌था बाद में होली को आग दी जाती। धीरे-धीरे आग जोर पकड़ती और होली धू-धू कर जलने लगती। लोग अपने साथ लाई गेहूँ, जौ आदि की डाँगियाँ (बालियाँ) इसमें सेंकते। होली की लपटें बहुत ऊँचाई तक जाती थीं। लपटों की दिशा को देखकर ग्रामीण शकुन देखते कि आनेवाला वर्ष कैसा होगा? वर्षा सामान्य रहेगी अथवा सूखा पड़ेगा, आदि का भी अनुमान लगाते थे।

होली जल चुकी होती, तब कुछ उत्साही लड़के स्पर्धापूर्वक होली के डाँडे को उखाड़ने के लिए टूट पड़ते। वे अपने जल जाने से भी नहीं डरते थे। जलते हुए होली के डाँडे को पकड़कर झिंझोड़ते और उसे हिला-हिलाकर उखाड़ने का प्रयास करते। जब तक डाँडा उखड़ नहीं जाता था, तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता था। कुछ देर में डाँडा उखड़ ही जाता था और उसे उत्साही युवक खींचकर ले जाते तथा पास के किसी कुएँ में डालकर उसे बोळाने (ठंडा करने) का प्रयास करते। कुछ कुएँ के मालिक तो पहले से ही अपने कुएँ पर चले जाते और अपने कुएँ में होली के डाँडे को नहीं डालने देते थे। क्योंकि उन दिनों कुओं पर चड़स चलते थे और किसानों को बड़ी कठिनाई होती थी। उन्हें सबसे पहले होली के डाँडे को निकालना पड़ता था और यह काम आसान नहीं होता था। अत: जिस कुएँ पर मालिक नहीं होता, युवक होली का डाँडा बेधड़क उसी में डाल देते थे। यह प्रक्रिया बच्चों और बड़ों के लिए भरपूर आनंद का अवसर होती थी। जब बेचारे उस किसान को पता चलता कि उसके कुएँ में होली का डाँडा डाला गया है, तो वह माथा पीट लेता था।

आगे-आगे ढोलवाला, पीछे पुरुषों का समूह और उसके पीछे गीत गाती हुई महिलाएँ गाँव में आती थीं। इस समय पुरुष ‘केश्या-माध्या’ गाते, अर्थात् होली पर गाए जानेवाले रोचक, मनोरंजक और शृंगारपरक गीतों की स्वर लहरियाँ वातावरण में गूँजने लगतीं। महिलाएँ भी पीछे नहीं रहतीं, वे भी पुरुषों को संबोधित करती अत्यधिक शृंगारपरक गीत गाती हुई चलतीं। इस समय गाए जानेवाले गीत सभी मर्यादाएँ लाँघ चुके होते थे। बेचारे संजीदा और बुजुर्ग लोग तो जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए ‘गैर के चौक’ में पहुँच जाना चाहते थे। सभी लोग ‘गैर के चौक’ में एकत्र हो जाते। वहीं पर एक दुर्गा मंदिर है। उस पर चढ़कर ढोलवाला ढोल बजाता और ढोल की ध्वनि से अगले वर्ष की खुशहाली की भविष्यवाणी का संकेत देता। लोग शुभ-अशुभ के शकुन जानकर प्रसन्न होते अथवा मायूस।

होली दहन के दूसरे दिन से ही सात दिन तक गाँव की महिलाएँ प्रात:काल सूर्याेदय से पहले अपने-अपने घरों से जल के लोटे-कलश भरकर होली को ठंडा करने जातीं। होली को ठंडा करने से तात्पर्य है कि सभी महिलाएँ होली के डाँडे के गड्डे में पानी डालकर उसे ठंडा करने की प्रक्रिया करतीं। बाद में जब वे गीत गाती हुई वापस लौटतीं तो जो पानी वे अपने पात्रों में बचाकर रखती थीं, उसे सामने पड़नेवाले पुरुषों पर छिड़कती जाती थीं। कई बार तो गैर के चौक में बैठे बड़े-बुजुर्गों तक पर भी वे पानी छिड़क दिया करती थीं। ऐसा केवल मनोरंजन के लिए ही किया जाता था और कोई पुरुष इस बात का बुरा नहीं मानता था।

हमारे यहाँ होली से पहले, होली के दिन या होली के दूसरे दिन ‘धुलेंडी’ पर होली नहीं खेली जाती है। होली पानी-रंग-गुलाल आदि से केवल ‘शीतला सप्तमी’ को ही खेली जाती है। ऐसा कहा जाता है कि पहले होली धुलेंडी के दिन खेली जाती थी, लेकिन मेवाड़ राजघराने में इस दिन किसी का निधन हो जाने से शोक के कारण इस दिन होली खेलना बंद कर दिया गया और शीतला सप्तमी के दिन होली खेली जाने लगी।

शीतला सप्तमी भीलवाड़ा जिले का बहुत ही महत्त्वपूर्ण त्योहार माना जाता है। इस दिन जिला कलक्टर द्वारा प्रतिवर्ष सार्वजनिक अवकाश घोषित किया जाता है। इस त्योहार के प्रति बच्चों और बड़ों में उत्साह देखते ही बनता है। घरों में कई दिन पहले से खाने-पीने की चीजें तैयार की जाने लगती हैं। इस दिन चूँकि केवल ठंडा खाना ही खाया जाता है, इसलिए व्यंजनों में पूड़ी, पुए, पकौड़ी, बेसन चक्की, लापसी, पापड़-पापड़ी, विविध प्रकार के अचार, चावल और मक्का के दलिए का ओल्या (दलिया और छाछ या दही में बनाया जानेवाला मीठा अथवा नमकीन खाद्य) विशेष रूप से तैयार किया जाता है। ये व्यंजन एक दिन पूर्व ही तैयार कर लिये जाते हैं। इस दिन किसी भी प्रकार का गरम खाना या पेय काम में नहीं लिया जाता है। गाँव में तो यह परंपरा आज भी कायम है। शहरों में अवश्य लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते, फिर भी खाना तो यहाँ भी दिन भर ठंडा ही खाया जाता है।

शीतला सप्तमी को शीतला माता की पूजा की जाती है। इसे लोक आस्था के अनुसार चेचक की देवी माना गया है। ऐसा लोक विश्वास है कि इस देवी की पूजा करने से बच्चों को चेचक का प्रकोप कम झेलना पड़ता है। अब तो वैसे ही चेचक निकलना बहुत कम हो गया है, बड़ी चेचक तो अब निकलती ही नहीं, छोटी चेचक भी बहुत कम निकलती है। लेकिन यह त्योहार मेवाड़ अंचल में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। वैसे शीतला सप्तमी का त्योहार समूचे राजस्थान में ‘बास्योड़ा’ के नाम से मनाया जाता है, महिलाएँ शीतला माता का पूजन करती हैं। लेकिन होली इस दिन केवल मेवाड़ अंचल के कुछ गाँवों में ही खेली जाती है।

महिलाएँ बड़े सवेरे उठ जाती हैं और पूजा की थाली सजाकर अपने परिवार की सभी महिलाएँ, आस-पड़ोस की महिलाओं सहित शीतला माता के देवरे पर पूजा करने जाती हैं। यह प्रक्रिया प्रात: ४ बजे से आरंभ हो जाती है। हर गली-मुहल्ले में गीत गाती, पूजा का थाल लिये महिलाओं के समूह एक अलग वातावरण पैदा कर देते हैं। अनजाने लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। गाँवों में तो यह सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भी इस त्योहार के प्रति उत्साह आज भी कम नहीं है।

एक तरह से यह गाँवों में दो त्योहारों के मिश्रणवाला त्योहार है। शीतला माता की पूजा के कारण शीतला सप्तमी का त्योहार और दिनभर होली खेलने के कारण होली का त्योहार भी। प्रात: दस बजे के आस-पास से हम बच्चे भी घरों से नाश्ता करके अपने हाथों में पिचकारी, रंग-गुलाल लेकर निकल जाते और अपने संगी-साथियों के साथ दोपहर तक खूब मजे के साथ होली खेलते। घरों की महिलाएँ और पुरुष भी इस त्योहार का भरपूर आनंद उठाते। मुझे अच्छी तरह याद है कि बच्चे बच्चों के साथ होली खेलते तो बड़े बड़ों के साथ। महिलाएँ महिलाओं के साथ होली खेलने के साथ-साथ पुरुषों के साथ भी खूब होली खेलती थीं। कई मुहल्लों में तो पानी के कड़ाह भरवाकर उनमें रंग घोलकर पुरुष और महिलाएँ होली खेलते थे। इस दृष्टि से हमारे गाँव का राठी परिवार अग्रणी था। राठी परिवार द्वारा पानी के कड़ाह भरवाकर रंग से होली खेली जाती थी। आठ-दास परिवारों के पुरुष और महिलाएँ खूब जमकर होली खेलते थे। बल्कि होली खेलने में एक स्पर्धा सी होती थी, जिसमें कई बार महिलाएँ ही विजयी होती थीं। महिलाएँ कोड़े लिये कड़ाह के पास खड़ी हो जाती थीं और बेचारे पुरुषों को कड़ाह से रंग की बाल्टी और डोलची भरने में बड़ा जोर आता था। महिलाएँ पुरुषों को खूब छकाती थीं। यह दृश्य देखने के लिए अन्य मोहल्लों के बालक और बड़े भी यहाँ इकट्ठा हो जाते थे। होली का सर्वाधिक आनंद युवा दंपत‌ी ही लेता था। महिलाएँ कई तरह के गीत और गालियाँ भी गाती जाती थीं। इस कड़ाह भरे रंग से होली के आयोजन में श्री जानकीलालजी राठी की भूमिका सर्वाधिक उत्साहपूर्ण हुआ करती थी। श्री मातादीन जी मा. साहब उन दिनों सपरिवार यहीं रहते थे। उन्होंने भी कई वर्षों तक इस होली खेलने का आनंद लिया था। अभी पिछले वर्ष उनका गाँव आना हुआ तो वे यहाँ बिताए दिनों को याद कर भाव-विभोर हो उठे थे।

होली खेलने के बाद सभी लोग परस्पर एक-दूसरे के घर खाना खाने जाते थे। सचमुच शीतला सप्तमी का यह त्योहार गाँव के लिए तो अद्भुत समरसता का त्योहार था, आज भी लगभग वैसा ही है। लोग अपने मित्रों, मिलनेवालों को ही नहीं अपितु सभी को बड़े आग्रह से अपने घर ले जाकर मिठाई और ओल्या खाने के लिए अत्यंत प्रेम और आदर सहित अनुरोध करते हैं। यह रस्म आज भी अनिवार्यत: निभाई जाती है। ऐसा सौहार्दपूर्ण वातावरण किसी अन्य त्योहार पर देखने को नहीं मिलता। मनुहार कर-करके खिलाने की परंपरा तो मेवाड़ की वैसे भी प्रसिद्ध रही है।

चूँकि भीलवाड़ा जिले के सभी गाँवों में होली खेलने की परंपरा है, इसलिए इस दिन जिले के किसी गाँव का व्यक्ति अपना गाँव छोड़कर किसी दूसरे गाँव नहीं जाता है। बहुत आवश्यक हो तो भी लोग इस दिन बाहर जाने से बचने का प्रयास करते हैं। अगर भूले-भटके किसी अन्य जिले का अथवा यहाँ का व्यक्ति किसी गाँव में आ जाता है तो उस बेचारे की बड़ी दुर्गति होती है। होली खेलनेवाले उस गाँव के लोग उसे तनिक भी नहीं बख्शते और उसके लाख हाथाजोड़ी (अनुनय विनय) करने पर भी वह मुक्त नहीं हो पाता है।

एक ऐसी ही घटना मुझे अभी भी याद है। हुआ यों कि उस दिन शीतला सप्तमी थी। गाँव के सभी लोग होली खेल रहे थे। श्री जानकीलालजी राठी भी अपने सभी राठी परिवारों के साथ चारभुजा मंदिर के चौक में होली खेल रहे थे। तभी उनकी दुकान पर एक व्यक्ति आया। उसने श्री जानकीलालजी राठी से मिलना चाहा। श्री राठीजी दुकान पर आए, दूकान खोली। वह आदमी अंदर घुसा और कुछ कागज आदि राठीजी को दिए। जब वह बाहर जाने को हुआ, तभी गाँव के होली खेलनेवालों ने जैसे उस व्यक्ति को दबोच लिया। बाहर निकालकर उस व्यक्ति को रंग-गुलाल, पानी से होली खिलाने लगे। वह बेचारा भौचक हो बचाव के लिए इधर-उधर देखने लगा। लेकिन उसकी किसी ने मदद नहीं की। श्री जानकीलालजी राठी ने भी गाँववालों को बहुत मना किया। लेकिन वे कहाँ माननेवाले थे, सो नहीं ही माने। उन सज्जन का मुँह बुरी तरह रंगों से रँग दिया, कपड़े सारे भिगो दिए। यही नहीं, उस सज्जन को कुछ लोग उठाकर नाली में डालने का प्रयास करने लगे। इसी बीच मैं और मेरा साथी बंशीलाल होली खेलते हुए बाजार में निकले। हमें उत्सुकता हुई, देखा तो कुछ लोग बेचारे अनजान व्यक्ति के पीछे पड़े हैं और उसे बुरी तरह पकड़े हुए हैं। हमें समझते देर न लगी कि बेचारा यह कोई बाहर का आदमी है और आज बुरी तरह फँस गया है। हम निकट गए लेकिन उन सज्जन का मुँह रंगों से ऐसा पोत दिया गया था कि हमें पहचानने में बड़ी कठिनाई हुई। हमने श्री जानकीलालजी राठी से उनके बारे में पूछा तो बताया कि ये सज्जन रायला गाँव के हैं और डाक-विभाग संबंधी कोई आवश्यक कागजात देने के लिए आए थे। फिर तो हमें समझते देर नहीं लगी कि अरे ये तो ब्रह्म‍दत्तजी हैं और प्रतिदिन रायला गाँव से कालियास डाक लाते हैं। अर्थात् ये कोई आवश्यक डाक लेकर आए हैं। तत्काल हम दोनों साथियों ने जोर-जबरदस्ती करते लोगों से ब्रह्म‍दत्तजी को छुड़ाया और लोगों को धमकी भी दी कि ये सरकारी कर्मचारी हैं और राजकार्य में बाधा के तहत आप लोगों पर मुकदमा भी हो सकता है। इसलिए भला इसी में है कि अब इन्हें कुछ न कहें और छोड़ दें। फिर भी बड़ी मुश्किल से लोगों ने उन्हें छोड़ा।

बाद में श्री जानकीलालजी राठी ने ब्रह्म‍दत्तजी के हाथ-मुँह धुलवाए। उन्होंने उनको नाश्ता भी करवाया। होली खेलनेवाले लोगों को रोकते हुए उन्हें विदा किया। आपको बताएँ कि ये ब्रह्म‍दत्तजी रायला से डाक लेकर कालियास आते थे। उन दिनों हम लोग आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। हम अपने गाँव से प्रतिदिन कालियास पढ़ने जाया करते थे, सो हम छठी कक्षा में वहाँ भरती हुए, तभी से ब्रह्म‍दत्तजी को जानते थे। ब्रह्म‍दत्तजी बहुत जिम्मेदारी से अपना काम करते थे, इसी का उदाहरण है कि शीतला सप्तमी के दिन भी वे आवश्यक डाक पहुँचाने हमारे गाँव आ गए थे। बाद में कई बार हम मिले और उस घटना की याद दिलाई तो वे खूब हँसे थे और हमारे प्रति कृतज्ञता भी प्रकट की थी कि उस दिन आप लोग मुझे नहीं बचाते तो होली खेलनेवाले मेरी न जाने और कितनी दुर्गति करते।

भैरूँलाल गर्ग
नंदभवन, कांवाखेड़ा पार्क, शिवाजी नगर,
भीलवाड़ा-३११००१ (राजस्‍थान)
दूरभाष : ९४१३२११९००

हमारे संकलन