विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद

फिजी देश के नादी शहर में १२वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ। जिस प्रकार खेल-प्रेमियों के लिए ओलंपिक खेल अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, उसी प्रकार दुनियाभर के हिंदीप्रेमियों के लिए विश्व हिंदी सम्मेलन बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूरे विश्व के हिंदी विद्वान‍‍्, हिंदीसेवी, कवि, लेखक एक साथ जुड़ते हैं, हिंदी के संदर्भ में अपने चिंतन, चिंताओं, सरोकारों, लक्ष्यों, कार्यक्रमों, योजनाओं को आपस में साझा करते हैं। वर्तमान परिदृश्य में जबकि पूरे विश्व के अनेकानेक देशों में भारतवंशी एवं प्रवासी भारतीय हिंदी को लेकर बहुत सक्रिय एवं उत्‍साहित हैं, विश्व हिंदी सम्मेलन और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। प्रत्येक विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के संदर्भ में कुछ प्रस्ताव पारित किए जाते हैं। इन प्रस्तावों पर कितना क्रियान्वयन हो पाता है, कितना विचार-विमर्श हो पाता है, धरती पर क्या और कितना उतर पाता है, वह एक अलग से विचारणीय प्रश्न है। कुछ प्रस्ताव ऐसे हैं, जो बार-बार दोहराए जाते हैं या उनके स्वरूप में कुछ परिवर्तन हो जाता है। एक प्रस्ताव जो बार-बार पारित किया जाता है, वह है हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव। यह एक ऐसा प्रस्ताव है, जो प्रत्येक हिंदीभाषी के हृदय के निकट है। भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और इतने विराट‍‍् विशाल उपमहाद्वीप की भाषा संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बने, यह बहुत स्वाभाविक सी अभिलाषा है। स्मरण रहे कि जब पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा में विदेश मंत्री के नाते अटल बिहारी वाजपेयीजी ने हिंदी में भाषण दिया था तो कैसे पूरे भारत में खुशी की लहर दौड़ी थी। पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराजजी भी इस दिशा में प्रयासरत रहीं कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बने। इस दिशा में हमारे प्रयास जारी रहने चाहिए तथा जो भी बाधाएँ हैं, वे दूर हों और भारत के लोग अपनी भाषा को संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होते देखें, यही अभीष्ट है। यह भी उल्लेखनीय है कि जब संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने अपने प्रचार-प्रसार के लिए तथा कामकाज के विस्तार के लिए ६-७ भाषाओं को चुना और उसमें ‌हिंदी को भी सम्मिलित किया तो कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह प्रचार कर दिया कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बन गई। किंतु सचमुच की खुशी की हम सबको प्रतीक्षा है!

फ‌िजी विश्व हिंदी सम्मेलन के संदर्भ में सुपरिचित पत्रकार अनंत विजय ने एक लेख में कुछ सटीक प्रश्न उठाए हैं कि विश्व हिंदी सम्मेलनों को एक बँधे-बँधाए ढर्रे से बाहर लाया जाए और उसको वर्तमान परिवेश के अनुसार परिवर्तित किया जाए तथा युवा पीढ़ी से जोड़ा जाए। बहुत स्वाभाविक सी बात है कि ऑनलाइन कार्यक्रमों के इस युग में यदि विश्व हिंदी सम्मेलन के सत्रों का ‘सीधा प्रसारण’ किया जाता तो दुनिया भर के लाखों हिंदीप्रेमी उसका लाभ उठा पाते। विश्व ‌हिंदी सम्मेलन से जुड़े विशेष समाचार-पत्र का प्रकाशन भी यदि ‘‌डिजिटल’ रूप में होता तो वह बहुत व्यापक हो जाता। विश्व हिंदी सम्मेलन के प्रस्तावों से ही ‘विश्व हिंदी सचिवालय’ की स्‍थापना मॉरीशस में हुई थी। इस सचिवालय के क्षेत्रीय केंद्रों की स्‍थापना का विचार फ‌िजी सम्मेलन में आया है, जो उसे विस्तार देगा, ‌किंतु यह भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान सचिवालय का स्टाफ तथा बजट बढ़ाया जाए, उसकी ग‌तिविधियों, योजनाओं, कार्यक्रमों, आयोजनों का विस्तार हो तथा वह और भी प्रभावी ढंग से कार्य कर सके।

संयुक्त राष्ट्र में ‌हिंदी आधिकारिक भाषा होने का स्वप्न साकार हो, विश्वभर में ‌हिंदी का प्रचार-प्रसार और भी व्यापक हो, इसके साथ-साथ हिंदी के अपने घर भारत में उसकी स्थिति कैसे बदले, यह सबसे जटिल चुनौती है। यदि सरकार के स्तर पर विचार करें तो कुछ सुखद परिवर्तन हुए हैं। कुछ वर्ष पहले तक भारत सरकार के कार्यक्रमों में हमारे शीर्षस्‍थ नेता अंग्रेजी में बोलते थे, कार्यक्रम चाहे शिक्षक दिवस का हो अथवा साक्षरता दिवस का। दिल्ली के विज्ञान भवन में यह महसूस नहीं होता था कि यह भारत में संपन्न हो रहा कार्यक्रम है। किसी अपवाद को छोड़कर स्वागत भाषण से धन्यवाद प्रस्ताव तक सबकुछ अंग्रेजी में होता था! आज दृश्य बदला है। अंतरराष्‍ट्रीय सम्मेलनों में भी प्रधानमंत्री अपनी बात हिंदी में रखते हों, इससे अधिक सुखद क्या हो सकता है। आज लोकसभा के अधिकांश सदस्य ‌हिंदी में शपथ लेते हैं। ‌‌हिंदी दिवस के कार्यक्रम में गृहमंत्रीजी ने बताया था कि अब उनके पास ६० प्रतिशत से अधिक फाइलें हिंदी में आती हैं, जो पहले १०-१५ प्रतिशत के लगभग आती थीं। स्वाभाविक है कि जब सरकार की इच्छाशक्ति हो तो व्यापक परिवर्तन संभव है।

दूसरी सुखद बात यह है कि कुछ प्रांतों ने एम.बी.बी.एस. अथवा बी.टेक. जैसे पाठ्‍यक्रम ‌‌हिंदी में शुरू करने की योजना बनाई है। सच तो यही है कि यदि उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का एकाधिकार या वर्चस्व कम हो तो ‌हिंदी अपना स्‍थान पा सकती है अन्यथा बच्चों को अच्छा भविष्‍य मिले, इसी कामना में छोटे बच्चों को अंग्रेजी में पारंगत बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नन्हे शिशु की समझ तनिक भी विकसित हो तो माँ ‘तुम्हारे इयर कहाँ हैं, नोज कहाँ है’ से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू कर देती है; कुछ और बड़ा होने पर ‘अंग्रेजी पाेएम’ सिखा दी जाती है और घर आए मेहमानों के समक्ष बच्चे को ‘अंग्रेजी पोएम’ सुना देना बहुत बड़ी उपलब्धि बन जाती है। पब्लिक तथा काॅन्वेंट स्कूलों में हिंदी बोलने पर सजा मिलना आज भी ज्यों-का-त्यों है। ऐसे बच्चों में हिंदी के ज्ञान की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ घरों में भी बच्चों के हिंदी में बोलने को बुरा माना जाता है और माँ-बाप को लगता है कि बच्चे का भविष्य खतरे में पड़ गया है। बस एक भयानक कुचक्र प्रारंभ हो जाता है।

इस कुचक्र की परिणति हम भारतीय समाज में अनेक रूपों में देखते हैं। किसी भी ‌हिंदीभाषी प्रांत के किसी भी नगर-उपनगर में दूकानों के ९० फीसदी से अधिक साइनबोर्ड अंग्रेजी में मिलेंगे। दिल्ली की राजभाषा हिंदी है, हरियाणा की राजभाषा ‌हिंदी है, लेकिन दिल्ली से फरीदाबाद या दिल्ली से गाजियाबाद के रास्ते में सिवाय सरकारी संस्‍थानों के हिंदी खोजना कठिन होगा। दिल्ली के बड़े-बड़े मॉल में हिंदी का एक अक्षर खोजना कठिन है। युवा पीढ़ी की हिंदी में ‘हिंग्लिश’ की घुसपैठ इतनी भयावह है कि हिंदी के शब्द विलुप्त होते जा रहे हैं। पूरे विश्व में संभवतः भारत ही है, जहाँ लोग आत्मीय रिश्तों में भी विदेशी भाषा का सहारा लेते हैं। ‘मेरी मदर’ ‘मेरे फादर’ ‘मेरी सिस्टर’ आदि। अपवादों को छोड़कर हर घर के बाहर अंग्रेजी की नामप‌‌िट्ट‍का मिलेगी। इससे दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि हिंदी के कारण रोजगार पाने वाले भी अपने बच्चों के विवाह जैसे मांगलिक कार्यों के निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में छपवाते हैं। जो फिल्म अभिनेता हिंदी फिल्मों के कारण करोड़ों रुपए कमाते हैं, वे भी एक मिनट ‌‌हिंदी बोलने में हीनता का अनुभव करते हैं! सैकड़ों करोड़ कमाने वाली फिल्म के विवरण (कास्टिंग) अंग्रेजी में होते हैं। किसी जमाने में ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक अर‌विंद कुमार ने अभियान चलाया था कि हिंदी फिल्मों की नामावली हिंदी में हो। इस अभियान के सुखद परिणाम भी निकले तथा कुछ फिल्मों की नामावली हिंदी में आई। भारत के न्यायालयों में अभी भी अंग्रेजी का ही वर्चस्व है। सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी प्रवेश हेतु टकटकी लगाए है। अंग्रेजी के वर्चस्व तथा हिंदी की कमजोर स्थिति के कारण ही अनेक बोलियाँ, लोकगीत, लोकनाट्‍य, लोक साहित्य आदि विलुप्त होने के कगार पर हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण ही हमारी कला, संस्कृति, जीवन-मूल्यों का भी क्षरण हो रहा है, क्योंकि भाषा का सीधा संबंध संस्कृति से है। भाषा कमजोर होती है तो संस्कृति पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस देश में ९० करोड़ से अधिक हिंदी समझने वाले लोग हों, वहाँ हिंदी की पुस्तकें ३०० से ५०० तक ही छपें अथवा बिकें।

जो संस्‍थाएँ फ‌िजी विश्व हिंदी सम्मेलन में भागीदार बनीं या जो हिंदीसेवी या हिंदीप्रेमी सम्मेलन से नया उत्साह लेकर लौटे हैं, उन्हें भारत में हिंदी को उचित स्‍थान पर प्रतिष्ठित करने का अभियान चलाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार प्रवासी भारतीयों अथवा भारतवंशियों के लिए हिंदी उनकी पहचान, अस्मिता एवं सम्मान की भाषा है, उसी प्रकार भारतीय भी गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलें तथा अंग्रेजी के अनावश्यक प्रयोग से छुटकारा पाएँ, हिंदी के प्रयोग में गर्व की अनुभूति करें। अंग्रेजी के वर्चस्व से उपजी दो बड़ी हानियाँ भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है। एक तो जिस अंग्रेजी को ९० फीसदी लोग नहीं समझ सकते, उसमें शासनव्यवस्‍था का चलना सर्वथा अनुचित योजनाओं से जनता का जुड़ाव न होने के कारण ही कोई भी सरकारी योजना निर्धारित कालखंड एवं निर्धारित बजट में पूरी नहीं हो पाती।

दूसरी हानि यह है कि बचपन से विदेशी भाषा के प्रयोग के कारण ही हमारी बौद्धिक उन्नति में बाधा पड़ती है। आप विश्व के महान‍् वैज्ञानिकों का जीवन देखेंगे तो शायद ही ऐसा कोई मिले, जिसने बचपन में अपनी मातृभाषा में अध्ययन न किया हो। भारत के सी.वी. रमन, जगदीशचंद्र बसु, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि भी अपवाद नहीं हैं—इन सबने भी अपनी मातृभाषा में बुनियादी शिक्षा पाई। तो आइए, हम सब हिंदी को ‘भारत’ में प्रतिष्ठित करने में जुट जाएँ...!

त्योहारों का वह रूप...

टेलीविजन क्रांति तथा निजी चैनलों के आने के बाद एक बात अच्छी हुई कि किसी एक प्रांत में मनाए जानेवाले त्योहार को पूरे भारत में पहचान तथा प्रचार मिल गया। उदाहरण के लिए बिहार का छठ पर्व अब पूरे भारत में मनाया जाता है। उसके लिए विशेष व्यवस्‍थाएँ की जाती हैं। इसी प्रकार अन्य त्योहारों के साथ भी हुआ। लेकिन त्योहारों के साथ एक नकारात्मक बात यह हुई कि नगरीय संस्कृति के फैलाव के कारण उनका पारंपरिक स्वरूप दिन-पर-दिन क्षरित हो रहा है। होली जैसे पर्व की ही बात करें। होली प्रेम, भाईचारा, मित्रता, उमंग, उल्लास से भरा त्योहार निश्चित ही अनूठा त्योहार है। मूलतः प्रेम का यह त्योहार, हास-परिहास के रंग में कब और कैसे रँग गया, कहना कठिन है। होली कृष्‍ण-राधा और ब्रज से जुड़कर और भी महत्त्वपूर्ण बन गई है। होली जलाने का प्रसंग भी दशहरे के पर्व की तरह बुराई पर अच्छाई की जीत का भरोसा जगाकर हमें बुराई से लड़ने की प्रेरणा देता है। होली विभिन्न प्रांतों में कुछ-न-कुछ नए आयाम जोड़ लेती है, जैसे ब्रज की ‘लट्‍ठमार’ होली या उत्तर की ‘बैठा होली’ ‘खड़ी होली...।’

हर प्रांत में होली-गीतों की समृद्ध संपदा है। शास्‍त्रीय संगीत में भी होली ने जगह बनाई है। लेकिन वर्तमान में इस संपदा से हमारी भेंट कितनी हो पाती है? अब फिल्मी होली गीत छाए रहते हैं। व्यस्तताओं के युग में होली की बैठकें या होली मिलन समारोह अपना मूल स्वरूप खोते जा रहे हैं। सबसे बड़ी क्षति यह हुई है कि मोब‌ाइल फोन तथा व्हाट्सएप आदि के समय में मिलना-जुलना बहुत स‌ीमित हो गया है। होली की रात या अन्य रूपों में आपस में मिलना-जुलना अनिवार्य होता था। इससे आपसी रिश्ते सुदृढ़ होते थे। त्योहारों पर बननेवाले पकवान, विशेष मिठाइयाँ आदि भी समय की कमी का शिकार हो रही हैं। एकल परिवारों की या कामकाजी महिलाओं की अपनी विवशताएँ हैं। कुल मिलाकर त्योहारों का उद्देश्य था कि रोजमर्रा के जीवन के तनावों, अभावों को भूलकर उमंग, उल्लास और एक नई ऊर्जा से भरकर खुशी मनाई जाए, गीत-संगीत गूँजे, मेल- मिलाप हो। इस मशीनी युग की व्यस्तता में त्योहारों की मूल भावना, उनका पारंपरिक स्वरूप कैसे लौटे, यह विचारणीय है!

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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