या विद्या सा विमुक्तये

या विद्या सा विमुक्तये

वीरेंद्र जैन: जाने-माने लेखक-पत्रकार। अटलजी की पुस्तकों ‘संसद में तीन दशक’, ‘मेरी संसदीय  यात्रा’, ‘संकल्प काल’ और ‘गठबंधन की राजनीति’ में संपादन सहयोग। प्रमुख कृतियाँ हैं—‘शब्द-बध’, ‘सबसे बड़ा सिपहिया’, ‘डूब’, ‘पार’, ‘पंचनामा’, ‘तीन दिन दो रातें’ (उपन्यास); ‘भार्या’, ‘बीच के बारह बरस’ (कहानी-संग्रह); ‘बहस बीच में’, ‘रचना की मार्केटिंग’ (व्यंग्य-संग्रह), हास्य-कथा बत्तीसी (बाल-कथाएँ)।

 

पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज, आराम बाग, नई दिल्ली में महाविद्यालयीय श्लोक अंताक्षरी प्रतियोगिता। दिल्ली विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग के स्नातकोत्तर और विद्यावारिधि के शोधार्थियों सहित दि.वि.वि. से संबद्ध महाविद्यालयों की स्नातक, स्नातकोत्तर कक्षाओं के दो-दो छात्र भागीदारी करने हेतु आमंत्रित किए गए। समंतभद्र संस्कृत महाविद्यालय ने मुझे और मुन्ना को प्रतिभागी बनाकर भेजा।

सांध्यकालीन समंतभद्र में हम पूर्व मध्यमा और प्रथमा के छात्र थे। दिन में स्कूल में नौवीं और सातवीं के। इस कॉलेज के शिक्षार्थी विजय कुमार आनंद सागर छात्रावास में रहते थे। उन्हें भी समंतभद्र में संस्कृत कक्षाओं का शिक्षार्थी होना अनिवार्य था। इस प्रतियोगिता का आमंत्रण-पत्र प्राचार्यजी को सौंपते समय उन्होंने बताया था कि अंत्याक्षरी का संचालन भी वही करेंगे।

श्लोक अंत्याक्षरी चलवैजयंती प्रतियोगिता के निर्णायक प्रकांड संस्कृतज्ञ प्रज्ञाचक्षु डॉ. इंद्रचंद्र शास्त्री और आचार्य मंगलदेव थे। हमने नतमस्तक हो उन्हें प्रणाम किया और अपने से बहुत बड़े-बड़े प्रतियोगियों से बिना विचलित हुए, निर्दिष्ट आसन पर पहुँचकर विश्राम लिया।

संचालक ने जानकारी दी, वर्णक्रम से दो महाविद्यालयों के प्रतिभागी युगल आएँगे। जो अपनी बारी पर श्लोक नहीं बोल सकेगा, उसे मंच छोड़ना होगा। अकारादिक्रम से अगला युगल मंच पर आता रहेगा। प्रतिभागी युगल अपनी बारी आने पर श्लोक-दर-श्लोक सुनाता रहा तब भी निश्चित कालावधि के बाद उसे भी मंच छोड़ना होगा, ताकि सबको अवसर मिल सके। कालांश समाप्ति के कारण मंच छोड़नेवाले प्रतिभागी अधिक हुए तो विजेता का चयन प्रत्युत्पन्नमति, गति, उनके उच्चारण, त्वरितता, उनकी कक्षा आदि ध्यान में रखकर लिया जाएगा।

क्रम अ से आरंभ हुआ। हम अंतिम से पहले प्रतिभागी (हंसराज कॉलेज से पूर्व समंतभद्र) होते सो विश्रामी मुद्रा में ही बने रहे। उधर प्रतिभागी युगल निर्धारित कालावधि से पहले ही मौन हो अपने आसन पर आ विराजते रहे।

हमारी बारी आने पर दूसरे छोर से तो प्रतिभागी युगल आते-जाते रहे पर हम दोनों डटे रहे। हमारी कालावधि पूरी होने पर निर्णायकों ने निश्चित कालावधि का नियम निरस्त कर दिया। हमें प्रतिभागी बने रहने की छूट दे दी गई।

कई दौर पूरे हुए पर कला संकाय या कॉलेजों के प्रतिभागी युगल हमें आसन तक वापस भेजने में समर्थ न हो सके। होते भी कैसे! हमें तो अमरकोश, हितोपदेश, रघुवंश, भक्तामर स्तोत्र, महावीराष्टक, रत्नकरण्य श्रावकाचार सहित जाने कितने तो ग्रंथ और स्तुतियाँ कंठस्थ थीं।

यकायक उसी कॉलेज के संस्कृत प्राध्यापक गोस्वामीजी मंच तक आए। विजय भाई से माइक लेकर बोले, “मैं श्लोक अंत्याक्षरी चलवैजयंती प्रतियोगिता की समाप्ति की घोषणा करता हूँ। पंचों का मानना है कि ये दोनों माध्यमिक स्तर के शिक्षार्थी हैं, सो इन्हें प्रोत्साहन राशि तो दे सकते हैं चलवैजयंती शील्ड नहीं। सो अन्य जो युगल सर्वाधिक समय तक मंच पर बना रहा, उसे विजेता माना जाएगा। अगले आयोजन तक के लिए चलवैजयंती शील्ड उसी कॉलेज को सौंपी जाएगी।”

स्वयं-भू पंचों के इस निर्णय पर हमारी सहमति चाही गई। मैंने कहा, “हम प्राचार्यजी तक शील्ड सहित ही जाएँगे। बिना शील्ड के भेजना है तो हमें हराना होगा। आज, कल, परसों, तरसों तक भी हरा सकते हैं।”

तब गोस्वामीजी ने निर्णायक द्वय की शरण गही। निर्णायकों में विचार-विमर्शोपरांत शास्त्रीजी बोले, “दोनों बालकों को बधाई। अनंतानंत शुभकामनाएँ। इनका आत्मविश्वास, स्मरणशक्ति, उच्चारण स्तुत्य है। ये स्कूल में माध्यमिक कक्षाओं के शिक्षार्थी भले हों, यहाँ समंतभद्र महाविद्यालय के प्रतिभागी हैं। स्वतः नहीं आए, आमंत्रित करने पर आए हैं। सो अयोग्य ठहराना कुतर्क ठहरता है। इनकी वय को देखते हुए प्रोत्साहन स्वरूप धनराशि भी दी जाए तो हम निर्णायकों को आपत्ति नहीं होगी। हाँ, इनके अतिरिक्त किसी को विजेता ठहराया जाना अस्वीकार्य होगा। इसलिए आयोजक इन्हें शील्ड सहित विदा करें। औरों को कुछ लेना हो तो इनसे संस्कृतज्ञ होने का सबक ले सकते हैं।”

उनके मौन होते ही विजय भाई ने सबको स्वल्पाहार के लिए न्योत लिया। सूर्यास्त हो जाने से हम दोनों खाने-पीने के झंझट से मुक्त थे। हाँ, उस दौरान एक काम हो सकता था। सो हमने वही किया। स्वल्पाहार की मेज तक गए। दो प्लेटों में खाद्य सामग्री रखी। दूसरे हाथ में दो पेय थामे। उन्हें लेकर निर्णायकों के पास आए। शास्त्रीजी और आचार्यजी को प्लेटें सौंपकर उन्हीं के पास बैठ गए। वे स्वल्पाहार करने के साथ-साथ हमसे जानकारियाँ लेते रहे। हमारी प्रशंसा करते रहे। हमें प्रोत्साहित भी करते रहे।

शास्त्रीजी ने बताया, “गोस्वामीजी ने हमसे परामर्श किए बिना प्रतियोगिता समाप्ति की घोषणा कर दी। हमारा मन तो तुम दोनों को सुनते रहना चाहता था। हम शक्तिनगर में रहते हैं। दस बटा सत्रह ए मकान नंबर है। बाइस बानवे बत्तीस फोन नंबर है। तुम्हारा जब मन हो, मुझे फोन करना, हमारे घर आना।”

इस आह्ल‍ादकारी अनुभव, इस अनिर्वचनीय अनुभूति के बाद वह दिन भी आया जब मुझे शास्त्रीजी से मदद और मार्गदर्शन अपेक्षित हुए। उस अयाचित भोर में चार बजे दरियागंज से पैदल पाँव शक्तिनगर पहुँचने निकला तो उजाला होने पर स्वयं को मॉडल टाउन में पाया। लौटावाद विश्वविद्यालय सही पते पर पहुँचा।

शास्त्रीजी के चरण स्पर्श कर बताया, गई रात मुझे छात्रावास छोड़ना पड़ा। रहने का ठिकाना नहीं है। घर लौटना नहीं चाहता। लौटा तो कहेंगे, पढ़ना भाग्य में ही नहीं है। मैं पढ़ना चाहता हूँ। यहीं बने रहकर पढ़ना चाहता हूँ। अब यह संभव कैसे हो?

शास्त्रीजी ने अभयदान दिया, “तुम मेरे घर आ रहे हो। सुबह तीन घंटे मेरा बोला हुआ लिखना और शाम तीन घंटे जो किताब या पत्र-पत्रिका दूँ, वह बाँचना। दिन में स्कूल जाया करना।”

इस तरह मैं बारोजगार ही नहीं, एक व्यास का ‘गणेश’ भी हो गया! धर्म हो, दर्शन हो, व्यक्ति हो, समाज हो, राष्ट्र हो या संस्थान, शास्त्रीजी उनका खोट, अनीति, दुराचरण, वैमनस्य ही लेखन का विषय बनाते। उनका बोला लिखते समय हैरानी, शिकायत का भाव जागता। जैसे-जैसे आलेख विस्तार पाता, उनके तर्क, उनकी अपेक्षाएँ, उनके सुझाव मुझे मोहित करने लगते थे। मैं स्वयं को उनसे पूरी तरह सहमत पाता जाता था।

महर्षि अरविंद का हीरक जयंती वर्ष होने से उनकी महानताओं के बारे में पढ़ने-सुनने को मिल रहा था। ऐसे में जब सुबह शास्त्रीजी ने बोलना आरंभ किया, अरविंद निहायत डरपोक, पलायनवादी, नाकारा व्यक्ति थे, तब मैं चौंका।

फिर हमेशा की तरह जैसे-जैसे आलेख आगे बढ़ा, उनके अकाट्य तर्क यह मानने पर विवश करते गए कि अरविंद वैसे ही थे जैसे शास्त्रीजी उन्हें सिद्ध करते जा रहे हैं!

एक हैरानी तब भी बनी रही, यह केशलुंची आलेख किसलिए! महर्षि महिमामंडन के इस दौर में इसका उपयोग कहाँ हो पाएगा! आलेख पूरा होने पर हमेशा की तरह मैंने पढ़कर सुनाया। एकाध बदलाव करवाने के बाद कहा, इसे लिफाफे में बंद कर दो! लिफाफे पर लिखो, श्री विश्वनाथ। संपादक : सरिता।

इस पत्रिका का नाम मैंने इससे पहले रेलवे स्टेशनों पर लगे विज्ञापनों में तो देखा था पर यह न तो दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में आती थी, न हमारे स्कूल की लाइब्रेरी में ही, सो इसे देखा या पढ़ा नहीं था। शास्त्रीजी ने अपनी बंडी के खलीते में से अठन्नी निकाली। मैंने हाथ आगे बढ़ाकर उसे अपनी मुट्ठी में सुरक्षित कर लिया।

अगला निर्देश दिया, “नागिया पार्क से शादीपुर डिपो तक की बस लेना। झंडेवालान उतर जाना। जाने-आने के आठ आने लगेंगे। दिल्ली प्रेस में सरिता के संपादक विश्वनाथजी को लिफाफा सौंपना। दूसरी बस से वापस आ आना।”

सरिता का अंक आने पर देखकर हैरानी हुई कि जिस आलेख के संदर्भ में मुझे न छपने की आशंका बनी हुई थी, उसे आवरण कथा के रूप में छापा गया था।

अगली बार एक और आलेख लेकर सरिता कार्यालय पहुँचा तो वापसी में विश्वनाथजी ने शास्त्रीजी के लिए पाठकों की ओर से भेज गए कुछ पत्र थमाए। कुछ प्रेषकों ने असहमति जताई थी। कुछ ने जिज्ञासाएँ लिख भेजी थीं। कुछ ने शास्त्रीजी पर आरोप मढ़े थे। उनकी सोच को नकारात्मक ठहराया था।

शास्त्रीजी ने पत्रों का संयुक्त उत्तर लिखवाया। हम एक ढोंगी और डरपोक समाज हैं। दोषों की ओर से आँखें मूँदे रखना चाहते हैं। हमें सार्वजनिक तौर पर किसी की प्रशंसा करना या सुनना ही सुहाता है। हम मान लेते हैं कि हमने उसके सम्मान की रक्षा कर ली। जबकि सच्चाई इससे उलट होती है। इसीलिए घनिष्ठों के बीच पहुँचकर उसकी खामियों का चिट्ठा खोलने में जुट जाते हैं। नतीजा सम्मानरक्षा का वह सद्प्रयास एक घंटे भी प्रभावी नहीं रह पाता।

यदि उसी मंच से खामियाँ भी उजागर की जाएँ तो उनके पदचिह्न‍ों पर चलने का इच्छुक अनुयायी उन खामियों के प्रति सतर्क बना रह सकता है। शास्त्रीजी ने अपनी मान्यता या तर्क के लिए एक उदाहरण भी दिया।

जब कभी हमारा आत्मीय यात्रा पर या परीक्षा देने जा रहा होता है, तब हमारा आचरण, हमारी वाणी क्या उच्चारती है! यही न, सामान सँभालकर रखना। किसी से ज्यादा बातचीत मत करना। किसी अनजान का दिया मत खाना-पीना। घोड़े बेचकर मत सोना। गंतव्य पर पहुँचकर सामान ढोकर खुद को मत थकाना।

उत्तर-पुस्तिका में अपना पक्ष सावधानी से रखना। जल्दबाजी मत मचाना। जो भी उत्तर लिखो, उसे फिर से पढ़ने के लिए समय जरूर बचाना। ठीक से याद कर लो, सब जरूरी चीजें ले ली हैं न! कुछ भूल तो नहीं रहे हो!

सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी। तुम जन्मजात होशियार हो। मेधावी हो। तुम पहले कई बार अपनी बुद्धिमत्ता से ऐसी मुहिम से पार पा चुके हो। जब वहाँ इतनी कमजोरियों पर ध्यान देते हैं, तब किसी के समग्र आकलन के दौरान उसकी कमियाँ, नाकामियाँ उजागर करने से क्यों बचते हैं!

किसी के बारे में औरों को किसलिए बताया जाता है! वे उनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन को वैसा रूप दे सकें, इसीलिए न! सो और जरूरी नहीं हो जाता कि उनकी कमियाँ, कमजोरियाँ या विफलताएँ भी अवश्य बताएँ ताकि उस ओर सावधानी बरती जा सके। असफलता के अवसर कम से कमतर रह जाएँ।

मेरे मन ने सरिता को लेकर जो धारणा बनाई वह कुछ यों थी— असंतोष, अनीति, अंधविश्वास, आडंबर उजागर कर पाने का मंच।

मेरी स्मृति में ऐसे कई विषम और विरोधाभासी प्रसंग थे, जो औरों तक पहुँचने चाहिए थे। मैं उन्हें कलमबद्ध करने लगा। सरिता संपादक तक शास्त्रीजी का आलेख पहुँचाने के साथ ही अपना लिखा भी थमाने लगा। मैं नाबालिग था। बैंक में खाता नहीं था। सो मानदेय नकद मिलता था।

शास्त्रीजी सुबह छह बजे से लिखवाना शुरू करते थे। छह बजे का मतलब होता था पाँच बजकर उनसठ मिनट साठ सेकेंड। इससे जरा इधर-उधर हुए कि लेखन असंभव। जब वे बोल रहे होते थे, तब उन्हें न कागज पलटने की आवाज सुनना गवारा होती थी, न कागज पर पेन की रगड़ या आलपीन उठाने का स्वर। उनका सोचा हुआ मस्तिष्क में ही होता था, नोट्स की शक्ल में कागज पर लिखा या मेज पर किताब के रूप में तो होता नहीं था, सो जैसे ही कोई अतिरिक्त स्वर सुनाई देता था, उनका ध्यान भटक जाता था। फिर वे जो बोल रहे होते थे उसे विस्मृत कर उस स्वर के संधान में जुट जाते थे।

क्या था? कौन था? क्यों था? नहीं ही होना चाहिए था। अब जाने दो। कलम बंद कर दो! कल फिर से लिखेंगे।

शास्त्रीजी सुबह छह बजे से बोलना आरंभ करते थे। नौ बजे तक यही क्रम चलता था। कभी वे बोलते थे, कभी अपना बोला हुआ जिस रूप में मैंने लिखा होता था उसे सुनाने को कहते थे। यदि मुझसे सुनने में कोई भूल हुई हो तो उसे या फिर बोलते समय जो उन्हें सूझा था, सुनते समय उससे बेहतर या इतर कुछ सूझ गया हो तो उसके स्थान पर नया लिखने को कहते थे। सुधार करवाते समय रुक-रुककर बोलते थे। जबकि पहली बार धाराप्रवाह बोलते रहते थे। कुछ दिनों तक उन्हें सुनकर लिखने और उन्हें सुनाने के दौरान सुधार करते रहने के बाद मैं यह जानने लगा था कि वे अब अपना ही लिखा हटवाने जा रहे हैं।

जब वे मुझे सुन रहे होते थे यानी अपना ही लिखवाया हुआ सुन रहे होते थे, तब उनका एक हाथ गतिशील रहता था। मैं लिखते समय तो गरदन झुकाकर दत्तचित होकर बैठता था, पर सुनाते समय वह मुद्रा नहीं अपनानी होती थी। यह तय होता ही था कि वे मुझे देख नहीं सकते, सो अनायास ही एक आँख उन पर टिकी रहती थी। मैंने पाया कि उस हाथ के थमते ही वे मुझसे कहते हैं, नहीं! नहीं! इसे बदलना होगा! या हाँ! हाँ! यहाँ कुछ जोड़ना होगा!

सो कुछ दिनों बाद जैसे ही उनका हरकती हाथ थमता, मैं आगे सुनाना बंद कर देता था। वे सुन रहे हों या लिखवा रहे हों, यकायक कहते थे, अब बंद करो! नौ बजना चाहते हैं!

एक दुर्घटनावश मैं दसवीं की परीक्षाएँ नहीं दे पाया। पढ़ाई के आसार भी समाप्तप्राय हो चले। सो श्रीमती शास्त्री मुझ ईमानदार, परिश्रमी, खानदानी किशोर को घरेलू नौकर के कर्तव्य-अकर्तव्य सिखाने लगीं। दूधवाले के तबेले पर ले गईं। लौटना हुआ दूध भरा डोल लिये। एक दिन हाट में ले गईं। लौटना हुआ तरकारियों से भरे झोले टाँगे। एक दिन बोली, “मेहरी नहीं आई है, झाड़-बुहारी कर दे।”

पहले फुरसत के समय काम लेती थीं, फिर तब भी करवाने लगीं, जब मैं शास्त्रीजी को सुन रहा होता था या सुना रहा होता था। वे आपत्ति करते तो उन्हें सुनने को मिलता, तुम फिर बोल-सुन लेना। दूध, सब्जी, बुहारी के बिना तो अनर्थ हो लेगा। मुझे शुरू-शुरू में लगा, यह आकस्मिकता है। फिर धीरे-धीरे स्पष्ट होता गया, नहीं, यह नियोजन है। सो जिस दिन धोबन का भी एवजी बनने की नौबत आ गई, उसी दिन उस घर से विदा ले ली। दो वर्ष बाद मैं पहाड़ी धीरज के अहाता किदारा में रहने आया। काम की तलाश में शास्त्रीजी के घर गया। उन्होंने दूसरे दिन से सुबह-सवेरे आने को कह दिया। श्रीमती शास्त्री मौन ही रहीं। मैंने उनके मौन को सहमति मान लिया।

उस अहाते में पच्चीस परिवार और थे। पाखाने तीन। नल दो, एक नीचे, एक पहली मंजिल पर। सो सुबह चार बजे दैहिक कर्मों से निवृत्त होना और पैदल पाँव बाड़ा हिंदूराव, रोशन आरा रोड होते हुए शास्त्रीजी के घर पहुँचना होने लगा।

कुछ दिन तो यही सिलसिला चला, फिर स्कूल खुलते ही, श्रीमती शास्त्री लिखना-पढ़ना छुड़वाकर बिटिया के साथ उसके स्कूल तक भेजने लगीं। वहाँ से लौटने तक शास्त्रीजी का लिखने-सुनने का विचार स्वाहा हो चुकता था। सो नौ बजे तक एक के बाद एक घरेलू काम में मेरी जुताई होती। वही दूध लाना, तरकारी लाना, ब्रेड-मक्खन लाना। अध्यापिका बेटी तब तक पढ़ाने जा चुकती थी, सो मझली बेटी और आलसी बेटे के लिए चाय बनाना। उनके बिस्तर पर पहुँचाना।

फिर शास्त्रीजी से कभी मिलना नहीं हुआ, उनसे मिली सीख से आज भी नाता है। इसी के चलते जीवन में बहुतों से नाता जुड़ा तो बहुतों से बने नाते टूटते भी रहे। जुड़ने-टूटने के सिलसिले की शुरुआत भी शास्त्रीजी से हुई। अलबत्ता उस रूप में नहीं, जिस रूप में मेरे लेखन पर लागू होती है, यानी कुछ ऐसा लिख दिया हो, जो किसी को इतना खुश कर गया हो कि वह अपना बनाना चाहता हो या कुछ ऐसा लिख दिया हो, जो किसी अपने को भी इतना दुखी कर गया हो कि वह दूर छिटक जाना चाहता हो।

वीरेंद्र जैन
सी-3/55, सादतपुर कॉलोनी,
करावल नगर रोड, दिल्ली-110090
दूरभाष : 9868113976

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